मैंने अपने मन को अपने मार्गदर्शक का गुलाम बना दिया। तुम भी अपने को अपने सद्गुरु का गुलाम बना दो। उन्हें अर्पित और समर्पित कर दो। तुम ऐसा कर सको इसकी एक ही कसौटी है कि अब तुम अपने लिए नहीं सोचोगे, न अतीत के लिए परेषान होंगे, न वर्तमान के लिए विकल होंगे और न ही भविश्य की चिन्ता करोगे। तुम्हारे लिए जो कुछ जरूरी होगा, वह सद्गुरु स्वयं करेंगे। तुम्हें तो बस अपने गुरु का यंत्र बनना है।
चलने का युग बीत गया। अब हम लोग दौड़ने के युग में रह रहे हैं। सब कुछ दौड़ता हुआ दीखता है। इस घुड़दौड़ में पतन और विनाश भी उतनी ही तेजी से बढ़ा चला जा रहा है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रतिरोध एवं परिवर्तन यदि कुछ समय और रुका रहे, तो समय हाथ से निकल जाएगा और हम इतने गहरे गर्त में गिर पड़ेंगे कि फिर उठ सकना संभव न होगा। इसलिए आज की ही घड़ी इसके लिए सबसे श्रेष्ठ मुहर्त है, जबकि परिवर्तन की प्रक्रिया का शुभारम्भ किया जाय। अब न तो विलम्ब की गुंजाइश है और न उपेक्षा-प्रतीक्षा करते हुए समय बिताया जा सकता है। हमें युग परिवर्तन की क्रान्ति को प्रत्यक्ष रूप देने के लिए आज ही कुछ करने के लिए उठ खड़ा होना होगा।
युग की पुकार पर कोई आया। अन्धेरी तमिस्रा में तिल-तिल कर दीपक की तरह जला। जितना संभव था प्रकाश फैलाया, पर तेल और बत्ती की अपनी सीमा थी। वह तीन प्रहर जल ली। अब चौथा प्रहर उसके उत्तराधिकारी वर्ग को पूरा करना चाहिए। वे समर्थ होते हुए भी कृपणता बरतें, जलने से डरें तो रात्रि का अवसान-अन्धकार भरा ही होगा। जिनने समर्थ होते हुए भी कायरता दिखाई, उन पर प्रभात होते-होते लानत ही बरसेगी। कहा जाएगा कि जलने वाले के वंशधर अपनी परम्परा भुला बैठे।
चलने का युग बीत गया। अब हम लोग दौड़ने के युग में रह रहे हैं। सब कुछ दौड़ता हुआ दीखता है। इस घुड़दौड़ में पतन और विनाश भी उतनी ही तेजी से बढ़ा चला जा रहा है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रतिरोध एवं परिवर्तन यदि कुछ समय और रुका रहे, तो समय हाथ से निकल जाएगा और हम इतने गहरे गर्त में गिर पड़ेंगे कि फिर उठ सकना संभव न होगा। इसलिए आज की ही घड़ी इसके लिए सबसे श्रेष्ठ मुहर्त है, जबकि परिवर्तन की प्रक्रिया का शुभारम्भ किया जाय। अब न तो विलम्ब की गुंजाइश है और न उपेक्षा-प्रतीक्षा करते हुए समय बिताया जा सकता है। हमें युग परिवर्तन की क्रान्ति को प्रत्यक्ष रूप देने के लिए आज ही कुछ करने के लिए उठ खड़ा होना होगा।
युग की पुकार पर कोई आया। अन्धेरी तमिस्रा में तिल-तिल कर दीपक की तरह जला। जितना संभव था प्रकाश फैलाया, पर तेल और बत्ती की अपनी सीमा थी। वह तीन प्रहर जल ली। अब चौथा प्रहर उसके उत्तराधिकारी वर्ग को पूरा करना चाहिए। वे समर्थ होते हुए भी कृपणता बरतें, जलने से डरें तो रात्रि का अवसान-अन्धकार भरा ही होगा। जिनने समर्थ होते हुए भी कायरता दिखाई, उन पर प्रभात होते-होते लानत ही बरसेगी। कहा जाएगा कि जलने वाले के वंशधर अपनी परम्परा भुला बैठे।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
All World Gayatri Pariwar Official Social Media Platform
Shantikunj WhatsApp
8439014110
Official Facebook Page
Official Twitter
Official Instagram
Youtube Channel Rishi Chintan
Youtube Channel Shantikunjvideo
Official Telegram