शुक्रवार, 11 मार्च 2016

खिलौनों ने अध्यात्म का सत्यानाश कर दिया

मित्रो! ऐसे समय में आप लोगों को यहाँ आना पड़ा। गायत्री उपासना, जिसके लिए हमारा सारे का सारा जीवन समर्पित हो गया। गायत्री उपासना, जो हमारे जीवन का प्राण है। जिसके लिए हम जिएँगे और उसी के लिए मरेंगे। जिसके लिए हमने अपनी भरी जवानी निछावर कर दी। दूसरे आदमी भरी जवानी में तरह- तरह की कामनाएँ करते हैं। उस जमाने में हमने छह घंटे रोज के हिसाब से चौबीस साल तक, पंद्रह वर्ष की उम्र से लेकर चालीस वर्ष की उम्र तक हम जमीन पर सोए। छाछ और जौ की दो रोटियों के अलावा हमने तीसरी चीज ही नही देखी। नमक कैसा होता है, चौबीस वर्ष तक हमने कभी छुआ ही नहीं।

शक्कर कैसी होती है, चौबीस वर्ष तक हमारी निगाह में ही नहीं आई। शाक- दाल किसे कहते हैं, हमने जाना भी नहीं। केवल गायत्री उपासना के लिए। सारी दुनिया हमको पागल कहती रही। बेवकूफ और बेहूदा बताती रही। पैसा हम कमा नहीं सके। जमीन पर पड़े रहे। खाने का जायका हम ले नहीं सके। इंद्रियों का जायका उठा नहीं सके। यश प्राप्त न कर सके। सम्मान प्राप्त न कर सके। जिस गायत्री मंत्र के लिए, जिस गायत्री की महत्ता के लिए बेटे! हम निछावर हैं और हमारा जीवन जिसके लिए समर्पित है, वह ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति है, जिसका आधार इतना बड़ा है कि मनुष्य के भीतर वह देवत्व का उदय कर सकती है और मनुष्य अपने इसी जीवन में स्वर्ग जैसा आनंद लेने में समर्थ हो सकता है।

मित्रों! ऐसी महत्त्वपूर्ण शक्ति, चमत्कारों की देवी, ज्ञान की देवी, विज्ञान की देवी, सामर्थ्य की देवी गायत्री माता, जिसका कि हम इन शिविरों में अनुष्ठान करने के लिए बुलाएँ, पर क्या करें आप त;ो हमें कई तरह से परेशान कर देते हैं, हैरान कर देते हैं। हमारा मानसिक संतुलन खराब कर देते हैं। आप तो शंातिकुंज को धर्मशाला बना देते हैं। आप तो इसको अन्नक्षेत्र बना देते हैं और बेटे! उन लोगों को लेकर चले आते हैं, जिनका कि इस अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है; उपासना से कोई संबंध नहीं है; अनुष्ठान से कोई संबंध नहीं है; आप भीड़ लाकर खड़ी कर देते हैं और हमारा अनुशासन बिगाड़ देते हैं।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/kihloneneaadhiyatmka

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 22)

स्वयं का स्वामी ही सच्चा स्वामी

शिष्य संजीवनी के इस सूत्र में श्रुतियों का सार है, सन्त वचनों की पवित्रता है, सिद्ध परम्परा का रहस्य है। बड़े ही गुह्य एवं अटपटे भाव हैं इस सूत्र के। सूत्र की पहली बात में ही बड़ी उलटबांसी है। सामान्य जीवन की रीति यही है कि शक्ति की अभीप्सा इसलिए की जाती है कि लोगों की नजर में, जन समुदाय के बीच में अपने अहंकार को प्रतिष्ठित किया जा सके।

अहंता की प्रतिष्ठा जितनी ज्यादा होती है, लोगों की नजर में व्यक्ति का रूतबा, दबदबा, मर्तबा उतना ही ज्यादा होता है। उसकी बड़ी धाक होती है सबकी दृष्टि में। सभी उससे डरते, दबते या घबराते हैं। जितना ज्यादा मान उतनी ही ज्यादा शक्ति। यही सोच है जमाने की। यही चलन है दुनिया की। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि मान पाने के लिए, मर्तबा पाने के लिए लोग शक्ति की चाहत रखते हैं।

लेकिन शिष्य के जीवन में तो इसका अर्थ ही उल्टा है। शिष्य तो शक्ति इसलिए चाहता है कि वह स्वयं को पूरी तरह से अपने सद्गुरु के चरणों में समर्पित कर सके। अपने अस्तित्त्व को गुरुदेव के अस्तित्त्व को विलीन कर सके। समर्पण की साधना के लिए विसर्जन की भावदशा के लए, विलीनता की अनुभूति के लिए गहन शक्ति की आवश्यकता है। यह काम थोड़ी-बहुत शक्ति से नहीं हो सकता। अपने बिखरे हुए अस्तित्त्व को समेटना, एकजुट करना और फिर उसे गुरुदेव के अस्तित्त्व में मिला देना बड़े साहस का काम है।

इसके लिए महान् शक्ति चाहिए। अपने को बनाने, बड़ा सिद्ध करने के लिए तो सभी प्रयासरत रहते हैं। परन्तु स्वयं को मिटाने, विसॢजत करने के लिए विरले ही तैयार होते हैं। शिष्य को यही विरल काम करना होता है। उसे अपने शिष्यत्व का खरापन साबित करने के लिए स्वयं को पूरी तरह मिटा देना होता है। उसे लोगों की नजर में नहीं भगवान् और अपने सद्गुरु की नजर में खुद को प्रमाणित करना होता है। जो ऐसा करने में समर्थ होता है वही खरा शिष्य बन पाता है।


क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/i
निराशाग्रस्त-निर्जीव और निरर्थक जीवन (भाग 1)

निराशा का दूसरा नाम है भय, बेचैनी और अशाँति। भविष्य को अन्धकार में देखना और प्रस्तुत विपत्ति को अगले दिनों और अधिक बढ़ती हुई सोचना एक ऐसा स्वविनिर्मित संकट है जिसके रहते, सुखद परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकना कदाचित ही सम्भव हो सके। सोचने का एक तरीका यह है कि अपना गिलास आधा खाली है और अभावग्रस्त स्थिति सामने खड़ी है। सोचने का दूसरा तरीका यह है कि अपना आधा गिलास भरा है जबकि सहस्रों पात्र बिना एक बूँद पानी के खाली पड़े हैं। अभावों को, कठिनाइयों को सोचते रहना एक प्रकार की मानसिक दरिद्रता है।

जो रात्रि के अन्धकार को ही शाश्वत मान बैठा और जिसे यह विश्वास नहीं कि कुछ समय बाद अरुणोदय भी हो सकता है उसे बौद्धिक क्षेत्र का नास्तिक कहना चाहिए। दार्शनिक नास्तिक वे हैं जो सृष्टि की अव्यवस्थाओं को तलाश करके यह सोचते हैं कि दुनिया बिना किसी योजना व्यवस्था या सत्ता के बनी है। उन्हें सूर्य और चन्द्रमा का उदय अस्त-बीज और वृक्ष का अनवरत सम्बन्ध जैसे पग-पग पर प्रस्तुत व्यवस्था क्रम सूझते ही नहीं। ईश्वर का अस्तित्व और कर्तव्य उनकी दृष्टि से ओझल ही रहता है। ठीक इसी प्रकार की बौद्धिक नास्तिकता वह है जिसमें जीवन के ऊपर विपत्तियों और असफलताओं की काली घटाएं ही छाई दीखती हैं। उज्ज्वल भविष्य के अरुणोदय पर जिन्हें विश्वास ही नहीं जमता।

जीवन का पौधा आशा के जल से सींचे जाने पर ही बढ़ता और फलता-फूलता है। निराशा के तुषार से उसका अस्तित्व ही संकट में पड़ जाता है। उज्ज्वल भविष्य के सपने देखते रहने वाला आशावादी ही उनके लिये ताना-बाना बुनता है। प्रयत्न करता है-साधन जुटाता है और अन्ततः सफल होता है। यह सही है कि कई बाद आशावादी स्वप्न टूटते भी हैं और गलत भी साबित होते हैं पर साथ ही यह भी सत्य है कि उजले सपनों का आनन्द कभी झूठा नहीं होता।

क्रमशः जारी

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