सेवा करने का अपना महत्व है किन्तु सेवा के स्वरूप का भी महत्व कम नहीं है। कौन सेवा, जनता जनार्दन के माध्यम से, परमात्मा की वास्तविक सेवा है और कौन सी नहीं? वह सेवा जिसमें मनुष्य का कोई स्वार्थ निहित होता है, चाहे वह स्वार्थ स्थूल हो अथवा सूक्ष्म, प्रत्यक्ष हो अथवा परोक्ष, सेवा की उस कोटि में नहीं आती जिसे भगवद्भक्ति कहा जाता है।
श्रद्धा का अर्थ है आत्म-विश्वास, ईश्वर पर विश्वास। इसके सहारे मनुष्य अभाव में, तंगी में, निर्धनता में, कष्ट में, एकान्त में भी घबड़ाता नहीं। जीवन के अन्धकार में श्रद्धा प्रकाश बन कर मार्गदर्शन करती है और मनुष्य को उस शाश्वत लक्ष्य से विलग नहीं होने देती। आत्मदेव के प्रति, ईश्वर के प्रति जीवन लक्ष्य के प्रति हृदय में कितनी प्रबल जिज्ञासा है, जीवन की इस विशालता को जानना हो तो मनुष्य के अन्तःकरण की श्रद्धा को नापिये। यह वह दैवी मार्ग-दर्शन है जिसे प्राप्त कर साँसारिक बाधाओं का विरोध कर लेना सहज हो जाता है।
“संसार दुखों का सागर है”-यह उक्ति केवल उन्हीं पर चरितार्थ होती है जो दुखों से भयभीत और प्रत्येक क्षण सुख के लिये लालायित रहते हैं। सुख-सुविधा की अतिशय चाह भी दुख का एक विशेष कारण है। इस निरन्तर परिवर्तनशील और द्वन्द्व प्रधान जगत में जो सदा अपने मनोनुकूल परिस्थितियों की अपेक्षा करता है उसके लिये संसार की लघु से लघु प्रतिकूलता भी एक बड़ा दुःख बन जाती है। हम क्यों चाहते हैं कि हमें केवल शीतल मंद सुगन्ध समीर ही प्राप्त होती रहे, गर्म वायु का कोई झोंका हमारे पास होकर न निकले। ऐसा किस प्रकार सम्भव हो सकता है। जब संसार में दोनों प्रकार की वायु चलती हैं तो क्रम से वे हमारे पास आयेंगी ही। यदि हम छाँह की कामना करते हैं तो धूप सहन ही करनी होगी।
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श्रद्धा का अर्थ है आत्म-विश्वास, ईश्वर पर विश्वास। इसके सहारे मनुष्य अभाव में, तंगी में, निर्धनता में, कष्ट में, एकान्त में भी घबड़ाता नहीं। जीवन के अन्धकार में श्रद्धा प्रकाश बन कर मार्गदर्शन करती है और मनुष्य को उस शाश्वत लक्ष्य से विलग नहीं होने देती। आत्मदेव के प्रति, ईश्वर के प्रति जीवन लक्ष्य के प्रति हृदय में कितनी प्रबल जिज्ञासा है, जीवन की इस विशालता को जानना हो तो मनुष्य के अन्तःकरण की श्रद्धा को नापिये। यह वह दैवी मार्ग-दर्शन है जिसे प्राप्त कर साँसारिक बाधाओं का विरोध कर लेना सहज हो जाता है।
“संसार दुखों का सागर है”-यह उक्ति केवल उन्हीं पर चरितार्थ होती है जो दुखों से भयभीत और प्रत्येक क्षण सुख के लिये लालायित रहते हैं। सुख-सुविधा की अतिशय चाह भी दुख का एक विशेष कारण है। इस निरन्तर परिवर्तनशील और द्वन्द्व प्रधान जगत में जो सदा अपने मनोनुकूल परिस्थितियों की अपेक्षा करता है उसके लिये संसार की लघु से लघु प्रतिकूलता भी एक बड़ा दुःख बन जाती है। हम क्यों चाहते हैं कि हमें केवल शीतल मंद सुगन्ध समीर ही प्राप्त होती रहे, गर्म वायु का कोई झोंका हमारे पास होकर न निकले। ऐसा किस प्रकार सम्भव हो सकता है। जब संसार में दोनों प्रकार की वायु चलती हैं तो क्रम से वे हमारे पास आयेंगी ही। यदि हम छाँह की कामना करते हैं तो धूप सहन ही करनी होगी।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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