शनिवार, 28 मई 2016

परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी


बहुत- से व्यक्ति थे जो पहले सिद्धान्तवाद की राह पर चले और भटक कर कहाँ से कहाँ पहुँचे? भस्मासुर का पुराना नाम बताऊँ आपको! मारीचि का पुराना नाम बताऊँ आपको। ये सभी योग्य तपस्वी थे। पहले जब उन्होंने उपासना- साधना शुरू की थी, तब अपने घर से तप करने के लिए हिमालय पर गए थे। तप और पूजा- उपासना के साथ- साथ में कड़े नियम और व्रतों का पालन किया था। तब वे बहुत मेधावी थे, लेकिन समय और परिस्थितियों के भटकाव में वे कहीं के मारे कहीं चले गए। भस्मासुर का क्या हो गया? जिसको प्रलोभन सताते हैं वे भटक जाते हैं और कहीं के मारे कहीं चले जाते हैं।

साधु- बाबाजी जिस दिन घर से निकलते हैं, उस दिन यह श्रद्धा लेकर निकलते हैं कि हमको संत बनना है, महात्मा बनना है, ऋषि बनना है, तपस्वी बनना है। लेकिन थोड़े  दिनों बाद वह जो उमंग होती है, वह ढीली पड़ जाती है और ढीली पड़ने के बाद में संसार के प्रलोभन उनको खींचते हैं। किसी की बहिन- बेटी की ओर देखते हैं, किसी से पैसा  लेते हैं। किसी को चेला- चेली बनाते हैं। किसी की हजामत बनाते हैं। फिर जाने क्या से क्या हो जाता है? पतन का मार्ग यहीं से आरम्भ होता है। ग्रेविटी- गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की हर चीज को ऊपर से नीचे की ओर खींचती है।
 
संसार भी एक ग्रेविटी है। आप लोगों से सबसे मेरा यह कहना है कि आप ग्रैविटी से खिंचना मत। रोज सबेरे उठकर भगवान के नाम के साथ में यह विचार किया कीजिए कि हमने किन सिद्धान्तों के लिए समर्पण किया था? और पहला कदम जब उठाया था तो किन सिद्धान्तों के आधार पर उठाया था? उन सिद्धान्तों को रोज याद कर लिया कीजिए। रोज याद किया कीजिए कि हमारी उस श्रद्धा में और उस निष्ठा में, उस संकल्प और उस त्यागवृत्ति में कहीं फर्क तो नहीं आ गया। संसार में हमको खींच तो नहीं  लिया। कहीं हम कमीने लोगों की नकल तो नहीं करने लगे। आप यह मत करना। अब एक और नई बात शुरू करते हैं।
 
परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी- 1 पृष्ठ- 4.76

शुक्रवार, 27 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 57) :-- 👉 अन्तरात्मा का सम्मान करना सीखें

🔵 एक सूफी दरवेश अमीरूल्लाह हुए हैं। यह बड़े पहुँचे हुए फकीर थे। इनके सान्निध्य में अनेकों को अपने मन की खोई हुई शान्ति वापस मिलती थी। दरवेश अमीरूल्लाह का हर पल, हर क्षण खुदा की इबादत में बीतता है। हिन्दू- मुसलमान, गरीब- अमीर सभी के अपने थे वह। गाँव के लोग उन्हें अमीर बाबा कहकर बुलाते थे। इन्हीं के गाँव में सांझ के समय एक युवक आया। उसके कपड़ों की हालत देखकर लगता था कि वह काफी दूर से चला आ रहा है। फकीर के पास पहुँचकर उसने साष्टांग प्रणाम किया। और उनका शिष्य होने की इच्छा प्रकट की।
    
🔴 दरवेश अमीर बाबा ने उसकी ओर बड़ी बेधक नजरों से देखा और बोले, यदि तुम शिष्य होना चाहते हो, तो पहले शिष्य की जिन्दगी का ढंग सीखो। यह क्या है बाबा? युवक के जिज्ञासा करने पर दरवेश अमीर बाबा ने कहा, बेटा! शिष्य अपनी अन्तरात्मा का सम्मान करना जानता है। वह इन्द्रिय लालसाओं के लिए, थोड़े से स्वार्थ के लिए या फिर अहंकार की झूठी शान के लिए अपना सौदा नहीं करता। वह ऐसी जिन्दगी जीता है जो खुदा के एक सच्चे व नेक बन्दे को जीनी चाहिए। बाबा की इन बातों को सुनते हुए उस युवक को लग रहा था कि दरवेश अपनी बातों का और खुलासा करें।
  
🔵 सो उनके मनोभावों को पढ़ते हुए दरवेश बाबा बोले, बेटा! दुनिया का आम इन्सान दुनिया के सामने झूठी, नकली जिन्दगी जीता है। वह भय के कारण, समाज के डर की वजह से समाज में अपने अच्छे होने का नाटक करता है। परन्तु समाज की ओट में, चोरी- छुपे अनेकों बुरे काम कर लेता है। अपने मन में बुरे ख्यालों व ख्वाबों में रस लेता है। परन्तु खुदा का नेक बन्दा कभी ऐसा नहीं करता। क्योंकि वह जानता है, खुदा सड़क और चौराहों में भी है और कमरों की बन्द दीवारों के भीतर भी। यहाँ तक कि अन्तर्मन के दायरों में भी उसकी उपस्थिति है। सो वह हर कहीं- हर जगह अपने कर्म, विचार व भावनाओं में पाक- साफ होकर जीता है। यही अन्तरात्मा का सम्मान करने का तरीका है। जो ऐसा करते हैं, वे अपने पीर- गुरु को सहज प्यार करते हैं। भगवान् की कृपा भी उन पर सदा बरसती रहती है। इस कृपा की और अधिक सघन अनुभूति कैसे हो। इस रहस्य को शिष्य संजीवनी के अगले सूत्र में बताया जाएगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/antar

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (अन्तिम भाग)



🔵 साधना से सम्पन्नता की सिद्धि या सफलता प्राप्त के शाश्वत सिद्धांत पर ये सभी बातें लागू होती हैं। छुटपुट कर्मकाण्डों की लकीर पीट लेने से अभीष्ट सफलता कहाँ मिलती है? उसके लिये श्रम साधना, मनोयोग, साधनों का दुरुपयोग आदि सभी आवश्यक हैं।

🔴 गायत्री के आकर्षक महात्म्य जो बताये जाते रहे हैं, वे किसी को मिलते हैं- किसी को नहीं। इसका एक ही कारण है- उपासना व साधना के मध्य अविच्छिन्न संबंध। दोनों परस्पर पूरक हैं। उपासना से तात्पर्य है- उत्कृष्टता की देवसत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित करना, साधना का अर्थ है- अपने गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का अनुपात अधिकाधिक मात्रा में बढ़ाना। यदि गायत्री तत्वज्ञान को सही रूप में समझा गया होगा तो साधक को निर्धारित उपासना कृत्य श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा, साथ ही आत्म-परिष्कार की जीवन साधना में भी उतनी ही तत्परता के साथ संलग्न होना पड़ेगा। दोनों का मिलन होते ही चमत्कार दृष्टिगोचर होने लगते हैं। भ्रष्ट जीवन के रहते दैवी अनुकम्पाएँ मिल सकना संभव नहीं। जो देवताओं को फुसलाकर अपना उल्लू साधना चाहते हैं पर चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश नहीं करते, ऐसे ही लोगों की उपासना प्रायः निष्फल रहती है। इसी प्रकार लोग विभिन्न शंकाएं उठाते देखे गये हैं और कुतर्क का जाल बुनकर भावना के क्षेत्र में कुहराम मचाते पाये गये हैं।

🔵 बिना किसी जाति, लिंग, देश और धर्म का अन्तर किये मानव मात्र को गायत्री उपासना करने और उससे लाभान्वित होने का पूरा-पूरा अधिकार है। इस सम्बन्ध में अधकचरे ज्ञान के आधार पर उठायी गई प्रतिगामी टिप्पणियों से अप्रभावित हो, जिन्हें भी आत्मिक प्रगति में तनिक भी रुचि हो, बिना किसी आशंका-असमंजस के श्रद्धापूर्वक गायत्री उपासना करते रहना चाहिये।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई पृष्ठ 49
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/July.49

गुरुवार, 26 मई 2016

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 9)


🔵 स्वर्ग-नरक की चर्चा के बाद एक प्रसंग संकट मुक्ति का है, जिसके बारे में शंकाएँ उठाई जाती रही हैं कि यह कहाँ तक सही है। क्या जप करने से संकट समीप नहीं आते? इसे भी तत्व दर्शन के परिप्रेक्ष्य में सभी इन्द्रियाँ जागृत रख समझना होगा। महाप्रज्ञा के स्वरूप को समझने तथा शिक्षा को हृदयंगम करने पर आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार के दो कदम संकल्प पूर्वक उठने लगते हैं। फलतः कुसंस्कारों एवं अवाँछनीयता से छुटकारा मिलता है। साथ ही उस उन्मूलन से खाली हुए स्थान को गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता से भरने का काम भी द्रुतगति से चल पड़ता है। यह परिवर्तन जिस क्रम से अग्रसर होता है, उसी अनुपात से संकटों से भी छुटकारा मिलता चला जाता है।

🔴 संकट वस्तुतः स्वाभाविक नहीं, स्व उपार्जित है। असंयम से रुग्णता, असंतुलन से विग्रह, अपव्यय से दारिद्रय, असभ्यता से तिरस्कार, अस्त-व्यस्तता से विपन्नता के घटाटोप खड़े होते हैं। अपनी अवाँछनीयताएँ- कुसंस्कारिताएं ही दुर्गति को- सुखद परिस्थितियों को न्यौत बुलाती हैं। मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति बदलने में देर न लगे। आकस्मिक अपवाद तो कभी-कभी ही खड़े होते हैं। आमतौर से दृष्टिकोण, स्वभाव एवं व्यवहार में घुसा अनगढ़पन ही विभिन्न स्तर के संकटों के लिये उत्तरदायी होता है। इस तथ्य को समझने वाले बाहरी संकटों का साहस और सूझ-बूझ द्वारा मुकाबला करते हैं। साथ ही यह भी देखते हैं कि अपनी किन त्रुटियों के कारण अवाँछनीयता के साथ घनिष्ठता जुड़ी और वैसा परिणाम निकला। अपने को बदलने के लिये तत्पर व्यक्ति प्रतिकूलताओं में बदलने में भी प्रायः सफल होते हैं। गायत्री उपासना के उपयुक्त निर्धारण एवं अवलम्बन से आत्मपरिष्कार– पराक्रम का लक्ष्य पूरा होता है। फलतः संकटों के निवारण में भी संदेह नहीं रह जाता। गायत्री लाठी लेकर संकटों को मार भगाये और श्रद्धालु आँखें मूँदकर उस तमाशे को देखें, ऐसा नहीं होता।

🔵 इसी प्रकार एक शंका और प्रश्न के रूप में कुरेदी-उभारी जाती रही है- गायत्री की कृपा से सम्पन्नता और सफलता कैसे मिलती है? वस्तुतः इस प्रश्न में एक और कड़ी जुड़नी चाहिये- मध्यवर्ती कर्तव्य और परिवर्तन की। स्कूल में प्रवेश करने और ऊंचे अफसर बनने, डाक्टर की पदवी पाने में आरम्भ और अन्त की चर्चा मात्र है। इसके बीच मध्यान्तर भी है जिसमें मनोयोग पूर्वक लम्बे समय तक नियमित रूप से पढ़ना पुस्तकों की- फीस की, व्यवस्था करना आदि अनेकों बातें शामिल है। इस मध्यान्तर को विस्मृत कर दिया जाये और मात्र प्रवेश एवं पद दो ही बातें याद रहें तो कहा जायेगा कि यह शेख चिल्ली की कल्पना भर है। यदि मध्यान्तर का महत्व और उस अनिवार्यता का कार्यान्वयन भी ध्यान में हो तो कथन सर्वथा सत्य है। पहलवान बलिष्ठता की मनोकामना नहीं पूरी करता, न ही ‘पहलवान-पहलवान’ रटते रहने से कोई वैसा बन पाता है। उसके लिये व्यायामशाला में प्रवेश से लेकर नियमित व्यायाम, आहार-विहार, तेल मालिश आदि का उपक्रम भी ध्यान में रखना होता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई पृष्ठ 49
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/July.49

बुधवार, 25 मई 2016

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 8)


🔵 गायत्री के बारे में एक चर्चा जो की जानी है- वह यह कि इसकी कृपा से- अर्चा- आराधना से स्वर्ग और मुक्ति मिलती है। शंकालु इस विषय पर काफी ऊहापोह करते देखे गए हैं। वस्तुतः स्वर्ग कोई स्थान विशेष नहीं है। न ही कोई ऐसा ग्रह-नक्षत्र है जहाँ स्वर्ग के नाम पर अलंकारिक रूप में वर्णित अनेकानेक प्रसंग बताए जाते रहे हैं। वस्तुतः इस सम्बन्ध में ऋषि चिन्तन सर्वथा भिन्न है। परिष्कृत दृष्टिकोण को ही स्वर्ग कहते हैं। चिन्तन में उदात्तता का समावेश होने पर सर्वत्र स्नेह, सौंदर्य, सहयोग और सद्भाव ही दृष्टिगोचर होता है। सुखद- दूसरों को ऊँचा उठाने- श्रेष्ठ देखने की ही कल्पनाएँ मन में उठती हैं। उज्ज्वल भविष्य का चिन्तन चलता तथा उपक्रम बनता है। इस उदात्त दृष्टिकोण का नाम स्वर्ग है। स्नेह, सहयोग और सन्तोष का उदय होते ही स्वर्ग दिखाई पड़ने लगता है।

🔴 नरक ध्वंस, द्वेष एवं पतन को कहते हैं। ये जहाँ कहीं भी रहेंगे, वहीं व्यक्ति अस्वस्थ, विक्षुब्ध रहेंगे और कुकृत्य करते रहेंगे। सर्वत्र नरक के रूप में अलंकारिक वर्णित भयावहता और कुरूपता ही दृष्टिगोचर होगी, फलतः संपर्क क्षेत्र विरोधी एवं वातावरण प्रतिकूल होता जाता है। यही नरक है और उससे उबर पाना स्वर्ग है। मुक्ति कहते हैं- भव बन्धनों से छुटकारा पाने को, इसी लोक में रहते हुए। भव बन्धन तीन हैं, जो मनुष्य को सतत् अपनी पकड़ में कसने का प्रयास करते रहते हैं। लालच, व्यामोह और अहंकार। लोभ, मोह और अहंता नाम से प्रख्यात इन तीन असुरों से जो जूझ लेता है, उनके रज्जु जंजाल से मुक्त होने का प्रयास करता है, वही जीवनमुक्त है जो पूर्ण मुक्ति की दिशा में गतिशील है। ये तीनों ही मनुष्य को क्षुद्र और दुष्ट प्रयोजनों में निरत रखते हैं और इतनी लिप्सा भड़काते हैं जिससे पुण्य परमार्थ के लिए समय निकाल सकना- साधन लगा सकना सम्भव ही न हो सके। अर्थ का सर्वथा सदैव अभाव लगता रहे और उसकी पूर्ति में इतनी व्यस्तता-व्यग्रता रहे कि सत्प्रयोजनों को करना तो दूर, वैसा सोचने तक का अवसर न मिले।

🔵 तीनों ही नितान्त अनावश्यक होते हुए भी अत्यधिक आकर्षक लगते हैं। इस भ्रान्ति एवं विकृति से छुटकारा पाने को ही मुक्ति कहते हैं। महाप्रज्ञा के आलोक में ही इन निविड़ भव बन्धनों से छुटकारा मिलता है। व्यक्ति स्वतन्त्र चिन्तन अपनाता, अपने निर्धारण आप करता है। प्रचलनों एवं परामर्शों से प्रभावित न होकर श्रेय पथ पर एकाकी चल पड़ता है। विवेक अवलम्बन जन्य इस स्थिति को ही मुक्ति कहते हैं, जो महाप्रज्ञा गायत्री का तत्वदर्शन समझकर उनके आश्रय में जाने वाले सच्चे साधक को अवश्य ही मिलती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई पृष्ठ 48
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/July.48

मंगलवार, 24 मई 2016

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 7)


🔵 इस मन्त्र समुच्चय के साथ जुड़े हुए अक्षरों में से प्रत्येक में अति महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश है। बीज में समूचे वृक्ष की सत्ता एवं सम्भावना सन्निहित रहती है। शुक्राणु में पैतृक विशेषताओं समेत एक समूचे मनुष्य की सत्ता का अस्तित्व समाया होता है। माइक्रो फिल्म के एक छोटे से फीते में विशालकाय ग्रन्थ की झाँकी देखी जा सकती है। ठीक इसी प्रकार गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों में ज्ञान और विज्ञान की दोनों धाराओं का समान रूप से समावेश है। अध्यात्म दर्शन की शाखा- प्रशाखाओं में बँटा समूचा विज्ञान इन अक्षरों में पढ़ा जा सकता है। यदि इस समग्र तत्वदर्शन को ध्यान में रखते हुए उपासना की जाती है तो चिन्तन और कर्म में स्वभावतः श्रेष्ठता का समावेश होना ही चाहिए। यदि मन्त्र जाप के पूर्व ही उसे ‘इफ’ और ‘बट’ की आशंकाओं के जाल में उलझा दिया गया तो सारा प्रयोजन ही गड़बड़ा जाता है।

🔴 विज्ञान की समस्त उपलब्धियाँ स्तुत्य हैं, पर यदि किसी एक बात ने वस्तुस्थिति को असमंजस में डाला है तो वह है “कुतर्क”। तर्क को तो वस्तुतः ऋषि माना गया है एवं तथ्यों, प्रमाणों के साथ उसकी आर्ष ग्रन्थों में अभ्यर्थना की गयी है। तर्क सम्मत प्रतिपादनों के साथ श्रद्धा का समुचित समावेश होने पर जब मनोयोगपूर्वक कोई कार्य किया जाता है तो आत्मिक प्रगति सुनिश्चित है। लेकिन असमंजस ग्रस्त मनःस्थिति में किया गया पुरुषार्थ तो किसी भी क्षेत्र प्रगति नहीं दिखा सकता। सम्भवतः जनसाधारण की इसी कठिनाई को ध्यान में रखते हुए तत्वदर्शी मनीषियों ने यह निर्देश किया था कि उपासना विधान के सम्बन्ध में एक विज्ञ मार्गदर्शक अवश्य होना चाहिए। 

🔵 अनुभव ज्ञान रहित मार्गदर्शक के स्थान पर आप्त निष्कर्षों के आधार पर निर्धारित अनुशासनों को ग्रहण कर लेना अधिक श्रेयस्कर है। मार्गदर्शक की खोज-बीन में जल्दी भी न की जाय और स्वयं का समुचित समाधान पहले कर लिया जाय, यही उचित है। हिन्दू धर्म में की गयी खींचतान और मध्यकालीन मनमानियों ने परस्पर विरोधी मतभेदों को अधिक जन्म दिया है। इन सबको सुन, समझकर उचित-अनुचित के चयन की बात यदि सोची जाएगी तो शंकाएँ इतनी अधिक होंगी कि उसका समाधान तो दूर, स्वयं को भ्रम जंजाल से निकालना भी भारी पड़ जाएगा। ऐसी स्थिति में विवेक यही कहता है कि किसी प्रकार का कोई दुराग्रह न रखकर श्रेष्ठता को स्वीकारा जाय और श्रद्धा को मान्यता देते हुए मनःस्थिति साफ रखी जाय।


🌹 क्रमशः जारी 
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य 
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई पृष्ठ 47

सोमवार, 23 मई 2016

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 6)

🔵 किसी भी कार्य को उपयुक्त विधि-विधान के साथ किया जाय, तो यह उत्तम ही है। इसमें शोभा भी है, सफलता की सम्भावनाएँ भी हैं। चूक से यदि अपेक्षित लाभ नहीं मिलता तो किसी प्रकार के विपरीत प्रतिफल की या उल्टा- अशुभ होने की कोई आशंका नहीं है। पूजा-उपासना कृत्यों पर, विशेषकर गायत्री उपासना पर भी यह बात लागू होती है। भगवान सदैव सत्कर्मों का सत्परिणाम देने वाली सन्तुलित विधि-व्यवस्था को ही कहा जाता रहा है। दुष्परिणाम तो दुष्कृतों के निकलते हैं। यदि उपासना में भी चिन्तन और कृत्य को भ्रष्ट और बाह्योपचार को प्रधानता दी जाती रही तो प्रतिफल उस चिन्तन की दुष्टता के ही मिलेंगे। उन्हें बाह्योपचारों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इन्हीं उपचारों में मुँह से जप लेना, जल्दी-जल्दी या उँघते-उँघते माला घुमा लेना, किसी तरह संख्या पूरी कर लेना, मात्र कृत्य तक ही सीमित रहना भी आता है। इतना अन्तर तो सभी को समझना चाहिए और तथ्यों को भली-भाँति हृदयंगम करना चाहिए। उपासना यदि लाभ न दे तो नुकसान भी कभी नहीं पहुँचाती।

🔴 गीता में भगवान ने कहा है-
“नेहाभिक्रम नाशोस्ति प्रत्ययवयो न विद्यते।
स्वल्प मप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो मयात्।”
(40, अध्याय 2 गीता)
अर्थात्- “इस मार्ग (भक्ति उपासना) पर कदम बढ़ाने वाले का भी पथ अवरुद्ध नहीं होता। उल्टा परिणाम भी नहीं निकलता। थोड़ा-सा प्रयत्न करने पर भी भय से त्राण ही मिलता है।”

🔵 वस्तुतः गायत्री के तीन पक्ष हैं। एक उपासनात्मक कर्मकाण्ड। दूसरा- धर्मधारणा का अनुशासन। तीसरा उत्कृष्टता का पक्षधर तत्व दर्शन। इन तीनों ही क्षेत्रों का अपना-अपना महत्व है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों से शरीर और मनःक्षेत्र में सन्निहित दिव्य शक्तियों को उभारा जाता है। इस मन्त्र में सार्वभौम धर्म के सभी तथ्य विद्यमान हैं। इसे संसार का सबसे छोटा किन्तु समग्र धर्मशास्त्र कहा जा सकता है। गायत्री के शब्दों और अक्षरों में वे संकेत भरे पड़े हैं जो दृष्टिकोण और व्यवहार में उदार शालीनता का समावेश कर सकें।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई पृष्ठ 47
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/July.47

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 56) :-- 👉 अन्तरात्मा का सम्मान करना सीखें

🔵 यह सूत्र पिछले सभी सूत्रों के मर्म को अपने में समेटे हुए है। जो कुछ भी पहले कहा गया उसका सार इसमें है। जो शिष्य होना चाहता है, उसके लिए पहली एवं अनिवार्य योग्यता है कि वह अन्तरात्मा का सम्मान करना सीखे। शब्द के रूप में ‘अन्तरात्मा’ का परिचय सभी को है। दिन में कई बार इसे कईयों के मुख से कहा जाता है। परन्तु इसके अर्थ एवं भाव से प्रायः सभी अनजान बने रहते हैं। कई बार तो जानबूझ कर इससे अनजान बनने की, इसे अनदेखा करने की कोशिश की जाती है। रोजमर्रा की जिन्दगी में यदि सबसे ज्यादा किसी की उपेक्षा होती है, तो अन्तरात्मा की। जबकि यही हम सबके जीवन का सार है। भगवान् सनातन एवं शाश्वत है। हमारे व्यक्तित्व का आधार है। जिन्दगी की सभी पवित्र शक्तियों का उद्गम स्रोत है।
    
🔴 इन्द्रिय लालसाओं को पूरा करने का लालच हमें अन्तरात्मा के सच से दूर रखता है। अहं को प्रतिष्ठित करने के फेर में हम इसे बार- बार ठुकराते हैं। मन के द्वन्द्व, सन्देह, ईर्ष्या आदि कुभाव हमें पल- पल इससे दूर करते हैं। अनगिनत अर्थहीन कामों के चक्रव्यूह में फँसकर अन्तरात्मा का अर्थ दम तोड़ देता है। इसके अर्थ को जानने के लिए, इसके स्वरों को सुनने के लिए हमें अपनी जीवन शैली बदलनी पड़ेगी। जो शिष्य होना चाहता है, जो इसकी डगर पर पहले से चल रहे हैं, उन सभी का यह अनिवार्य दायित्व है। उनके जीवन में कहीं कुछ भी अर्थहीन नहीं होना चाहिए। न तो अर्थहीन कर्म रहे और न अर्थहीन विचार और न ही अर्थहीन भावनाएँ।
  
🔵 जब हमारे कर्म, विचार व भाव कलुष की कालिमा से मुक्त होता है तो हमें अन्तरात्मा का स्पर्श मिलता है। अन्तर्हृदय की वाणी सुनायी देती है। यह प्रक्रिया हमारे मुरझाए जीवन में नयी चेतना भरती है। हमारे अंधेरेपन में नया प्रकाश उड़ेलती है। यह अनुभव बड़ा अनूठा है। हालांकि कई बार इस बारे में भी भ्रमों की सृष्टि हो जाती है। अनेकों लोग अपने मन की उधेड़बुन, उलझन एवं मानसिक कल्पनाओं को ही अन्तरात्मा की वाणी मान लेते हैं, यह गलत है। ऐसा होना सम्भव भी नहीं है। सच यही है कि जीवन का ढंग बदले बिना अन्तरात्मा का सम्मान किए बिना अन्तरात्मा की वाणी सुनायी नहीं देती।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/antar

रविवार, 22 मई 2016

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 5)


🔵 बहुपत्नी प्रथा चलते हुए यह आवश्यक हो गया कि इसकी प्रतिक्रिया से नारी को भी तनकर खड़े न होने देने के लिए धार्मिक मोर्चे पर मनोवैज्ञानिक दीवार खड़ी की जाय और उन्हें अपनी विवशता को भगवद् प्रदत्त या धर्मानुकूल मानने के लिए बाधित किया जाय। सती प्रथा- पर्दा प्रथा- जैसे प्रचलन नारी को अपनी विवशता- नियति प्रदत्त मानने के लिये स्वीकार करने हेतु कुचक्र भर थे। इसी सिलसिले में धार्मिक अधिकारों से उन शोषित वर्गों को वंचित करने की बात कही जाने लगी। शस्त्रों में भी जहाँ-तहाँ ये अनैतिक प्रतिपादन ठूँस दिये गए और भारतीय संस्कृति की मूलाधार को उलट देने वाले प्रतिपादन चल पड़े। धार्मिक कृत्यों से वंचित रखने की बात भी उसी सामन्ती अन्धकार युग का प्रचलन- आधुनिक संस्करण भर है। वस्तुतः नर-नारी के बीच शास्त्र परम्परा के अनुसार कहीं राई-रत्ती भर भी अन्तर नहीं है।

🔴 प्राचीन काल में वेद-ऋचाओं की दृष्टा प्रतिपादनकर्त्ता ऋषियों की तरह ऋषिकाएँ भी हुई हैं। गायत्री वेदमन्त्रों का सिरमौर है। स्त्री, शूद्रों को वंचित करने के सिलसिले में गायत्री का वेदमन्त्र होने के कारण प्रतिबन्ध लगाया जाता है, जिसका किसी तर्क, तथ्य, न्याय, औचित्य की कसौटी पर कसने वाला कोई भी विज्ञजन समर्थन नहीं कर सकता।

🔵 गायत्री नारी रूप है। माता से पुत्रियों को कैसे दूर किया जा सकता है। बेटे को दूध पिलायें और बेटी को कचरे में फेंक दें, ऐसे निष्ठुर तो मात्र पिशाच ही होते हैं। गायत्री माता का ऐसा पिशाचिनी स्वरूप नहीं हो सकता। नर को नारी के क्षेत्र में प्रवेश से रोकने का मर्यादा के नाते कोई तुक भी हो सकता है पर नारी-नारी के क्षेत्र में प्रवेश न कर सके इसका तो लोक व्यवहार की दृष्टि से भी कोई औचित्य नहीं है। इस शंका का सर्वथा निर्मूल कर नर और नारी समान रूप से इसकी उपासना करते रह सकते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जून 1983 पृष्ठ 48
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/June.48

शनिवार, 21 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 55) :-- 👉 अन्तरात्मा का सम्मान करना सीखें

🔵 शिष्य संजीवनी के सूत्र शिष्यों को जीने का ढंग सिखाते हैं। जिन्दगी जीने का अपना यही अलग ढंग शिष्य को आम आदमी से अलग करता है, उसे विशेष बनाता है। आम इन्सान अपनी जिन्दगी को आधे- अधूरे ढंग से जीता है। उसके जीवन में एक बेहोशी छायी रहती है। अहंता की अकड़ हर वक्त उसे घेरे रहती है। लेकिन एक सच्चा शिष्य इस घेरे से हमेशा मुक्त रहता है। वह हर पल- हर क्षण सिखना चाहता है। सिखने के लिए वह झुकना जानता है। इस झुकने में उसकी अहंता कभी भी बाधक नहीं बनती। उसके जीवन में ऐसा इसलिए होता है- क्योंकि उसे अपनी अन्तरात्मा का सम्मान करने की कला मालूम है। जबकि औसत आदमी अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में, अहंता को सम्मानित करने में जुटा रहता है। अन्तरात्मा का सच तो उसे पता ही नहीं होता।
    
🔴 जबकि शिष्यत्व की समूची साधना अन्तरात्मा के बोध एवं इसके सम्मान पर टिकी हुई है। जो इस साधना के शिखर पर पहुँचे हैं, उन सभी का निष्कर्ष यही रहा है- अपनी अन्तरात्मा का पूर्ण रूप से सम्मान करना सीखो। क्योंकि तुम्हारे हृदय के द्वारा ही वह उजाला मिलता है, जो जीवन को आलोकित कर सकता है। और उसे तुम्हारी आँखों के सामने स्पष्ट करता है। ध्यान रहे, हमेशा ही अपने हृदय को समझने में भूल होती है। इसका कारण केवल इतना है कि हम हमेशा बाहर उलझे- फँसे रहते हैं। जब तक बाहरी उलझने कम नहीं होती, जब तक व्यक्तित्व के बन्धन ढीले नहीं होते, तब तक आत्मा का गहन रहस्य खुलना प्रारम्भ नहीं होता।
  
🔵 जब तक तुम उससे अलग एक ओर खड़े नहीं होते। तब तक वह अपने को तुम पर प्रकट नहीं करेगा। तभी तुम उसे समझ सकोगे और उसका पथ प्रदर्शन कर सकोगे, उससे पहले नहीं। तभी तुम उसकी समस्त शक्तियों का उपयोग कर सकोगे। और उन्हें किसी योग्य सेवा में लगा सकोगे। उससे पहले यह सम्भव नहीं है। जब तक तुम्हें स्वयं कुछ निश्चय नहीं हो जाता, तुम्हारे लिए दूसरों की सहायता करना असम्भव है। जब तुमको पहले कहे गए सभी सूत्रों का ज्ञान हो चुकेगा, और तुम अपनी शक्तियों को विकसित एवं अपनी इन्द्रियों को विषय- भोग की लालसाओं से मुक्त करोगे तभी अन्तरात्मा के परम ज्ञान मन्दिर में प्रवेश मिलेगा। और तभी तुम्हें ज्ञात होगा कि तुम्हारे भीतर एक स्रोत है। जहाँ से वह वाणी मुखरित होती है, जिसमें जीवन के सभी रहस्यार्थ छुपे हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/antar

👉 बुद्ध पूर्णिमा के पावन अवसर पर सभी को शुभकामनाएं।


🔴 भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी।

🌹 गौतम बुद्ध के सिद्धांत


🔵 सच्चा आत्मबोध प्राप्त कर लेने पर इनका नाम 'बुद्ध' पड़ गया और उन्होंने संसार में उसका प्रचार करके लोगों को कल्याणकारी धर्म की प्रेरणा देने की इच्छा की। इसलिए गया से चलकर वे काशीपुरी में चलें आए, जो उस समय भी विद्या और धर्म चर्चा का एक प्रमुख स्थान थी। यहाँ सारनाथ नामक स्थान में ठहरकर उन्होंने तपस्या करने वाले व्यक्तियों और अन्य जिज्ञासु लोगों को जो उपदेश दिया उसका वर्णन बोद्ध धर्म ग्रंथों में इस प्रकार मिलता है।

🔴 (१) जन्म दुःखदायी होता है। बुढा़पा दुःखदायी होता है। बीमारी दुःखदायी होती है। मृत्यु दुःखदायी होती है। वेदना, रोना, चित्त की उदासीनता तथा निराशा ये सब दुःखदायी हैं। बुरी चीजों का संबंध भी दुःख देता है। आदमी जो चाहता है उसका न मिलना भी दुःख देता है। संक्षेप में 'लग्न के पाँचों खंड' जन्म, बुढा़पा, रोग, मृत्यु और अभिलाषा की अपूर्णता दुःखदायक है।

 🔵 (२) हे साधुओं! पीडा़ का कारण इसी 'उदार सत्य' में निहित है। कामना- जिससे दुनिया में फिर जन्म होता है, जिसमें इधर- उधर थोडा़ आनंद मिल जाता है- जैसे भोग की कामना, दुनिया में रहने की कामना आदि भी अंत में दुःखदायी होती है।

🔴 (३) हे साधुओं! दुःख को दूर करने का उपाय यही है कि कामना को निरंतर संयमित और कम किया जाए। वास्तविक सुख तब तक नहीं मिल सकता, जब तक कि व्यक्ति कामना से स्वतंत्र न हो जाए अर्थात् अनासक्त भावना से संसार के सब कार्य न करने लगे।

🔵 (४) पीडा़ को दूर करने के आठ उदार सत्य ये हैं- सम्यक् विचार, सम्यक् उद्देश्य, सम्यक् भाषण, सम्यक् कार्य, सम्यक् जीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् चित्त तथा सम्यक् एकाग्रता। सम्यक् का आशय यही है कि- वह बात देश, काल, पात्र के अनुकूल और कल्याणकारी हो।

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 4)


🔵 साकार उपासना में गायत्री को माता के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। माता होते हुए भी उसका स्वरूप नवयौवना के रूप में दो कारणों से रखा गया है। एक तो इसलिए कि देवत्व को कभी वार्धक्य नहीं सताता। सतत् उसका यौवन रूपी उभार ही झलकता रहता है। सभी देवताओं की प्रतिमाओं में उन्हें युवा सुदर्शन रूप में ही दर्शाया जाता है। यही बात देवियों का चित्रण करते समय भी ध्यान में रखी जाती है और उन्हें किशोर निरूपित किया जाता है। दूसरा कारण यह है कि युवती के प्रति भी विकार भाव उत्पन्न न होने देने- मातृत्व की परिकल्पना परिपक्व करते चलने के लिये उठती आयु को इस अभ्यास के लिये सर्वोपयुक्त माना गया है। कमलासन पर विराजमान होने का अर्थ है- कोमल, सुगन्धित, उत्फुल्ल कमल पुष्प जैसे विशाल में उसका निवास होने की संगति बिठाना। यही है विभिन्न रूपों में उसकी उपासना का तात्विक दर्शन।

🔴 स्त्रियों को गायत्री का अधिकार है या नहीं, यह आशंका सभी उठाते देखे जाते हैं- धर्माचार्य भी तथा शोषक पुरुष समुदाय भी। वस्तुतः नर और नारी भगवान के दो नेत्र, दो हाथ, दो कान, दो पैर के समान मनुष्य जाति के दो वर्ग हैं। दोनों की स्थिति गाड़ी के दो पहियों की तरह मिल-जुलकर चलने और साथ-साथ सहयोग करने की है। दोनों कर्त्तव्य और अधिकार समान हैं। प्रजनन प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए एक का कार्य क्षेत्र परिवार, दूसरे का उपार्जन- उत्तरदायित्व इस रूप में बँट गए हैं। इस पर भी वह कोई विभाजन रेखा नहीं है। सामाजिक, आर्थिक, साहित्य, राजनीति आदि में किसी भी वर्ग पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसी प्रकार धर्म-अध्यात्म क्षेत्र में- साधना-उपासना के क्षेत्र में भी दोनों को स्वभावतः समान अधिकार प्राप्त हैं।

🔵 नर और नारी को- सवर्ण और असवर्ण को ऊंचा-नीचा मानना, एक को अधिकारी- दूसरे को अनधिकारी ठहराने का प्रचलन मध्यकालीन अन्धकार युग की देन है। उसमें समर्थों ने असमर्थों को पैरों तले रौंदने, उनसे मनमाने लाभ उठाने और विरोध की आवाज न उठा सकने के लिए जहाँ डण्डे का उपयोग किया, वहाँ पण्डिताऊ प्रतिपादन भी लालच या भय दिखाकर अपने समर्थन में प्राप्त कर लिये। शूद्रों को- स्त्रियों को नीचा या अनधिकारी ठहराने के पीछे मात्र एक ही दुरभि सन्धि है कि समर्थों को मनमाने लाभ मिलते रहें और किसी विरोध- प्रतिरोध का सामना न करना पड़े।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जून 1983 पृष्ठ 47
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/June.47

शुक्रवार, 20 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 54) :--- 👉 समग्र जीवन का सम्मान करना सीखें

🔵 लेकिन जो जीवन साधना से वंचित हैं, उनकी तो स्थिति ही अलग है। इनका चित्त रुग्ण है, इनका देखने का ढंग पैथालॉजिकल है। ये अपने देखने का ढंग नहीं बदलना चाहते, बस परिस्थिति को बदलने के लिए उत्सुक रहते हैं। इनका रस जीवन की निन्दा में है। ऐसे में खुद के दोषों को समझना बड़ा मुश्किल होता है। यह जो निन्दकों का समूह है, यह अपने और औरों के जीवन को नुकसान तो भारी पहुँचा सकता है, पर परमात्मा की तरफ एक कदम बढ़ने में मदद नहीं कर सकता।
   
🔴 निन्दकों के समूह, गाँव और शहरों की भीड़ में ही नहीं, आश्रमों और मठों में भी होते हैं। बल्कि वहाँ ये थोड़े ज्यादा पहुँच जाते हैं। इनके सिर में अजीब- अजीब दर्द उठते रहते हैं। जैसे कि फलाँ आदमी ऐसा कर रहा है, ढिकाँ औरत ऐसा कर रही है और कुछ नहीं तो इन्हें अपने पड़ोसी की चिंता और चर्चा परेशान करती है। अब इन्हें कौन समझाये कि तुम्हें किसने ठेका दिया सबकी चिंता का? यहीं आश्रम में क्या तुम इसीलिए आये थे। अरे! तुम तो आये थे यहाँ अपने को बदलने को और यहाँ तुम फिक्र में पड़ जाते हो किसी दूसरे को बुरा ठहराने में। ऐसे लोग किसी और को नहीं अपने आप को धोखा देते हैं।
  
🔵 शिष्यत्व की डगर ऐसे वंचनाग्रस्त लोगों के लिए नहीं है। यह तो उनके लिए है, जो हृदय में सृजन की संवेदना सँजोये हैं। जरा देखें तो सही हम अपने चारों तरफ। संवेदनाओं से निर्मित हुआ है सब कुछ। जो हमारी बगल में बैठा है, उसमें भी संवेदना की धड़कन है और जो वृक्ष लगा हुआ है, उसकी भी जीवन धारा प्रवाहित हो रही है। धरती हो या आसमान हर कहीं एक ही जीवन विविध रूपों में प्रकट है। इस व्यापक सत्य को समझकर जो जीता है, वह शिष्यत्व की साधना करने में सक्षम है। इस साधना के नये रहस्य शिष्य संजीवनी के अगले सूत्र में उजागर होंगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/time

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 3)


🔵 तन्त्र विधान की कुछ विधियाँ गुप्त रखी गयी हैं। ताकि अनधिकारी लोग उसका दुरुपयोग करके हानिकार परिस्थितियाँ उत्पन्न न करने पाएँ। मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन जैसे आक्रामक अभिचारों के विधि-विधान तथा तन्त्र को इसी दृष्टि से कीलित या गोपनीय रखा गया है। एक तरह से इन्हें सौम्य साधना का स्वरूप न मानकर इन पर ‘बैन’ लगा दिया गया है ताकि लोग भ्रान्तिवश इनमें भटकने न लगें। वैदिक प्रक्रियाओं में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं। गायत्री वेदमन्त्र है। उसका नामकरण ही “गाने वाले का त्राण करने वाली” के रूप में हुआ है। फिर उसे मुँह से न बोलने, गुप्त रखने, चुप रहने, कान में कहने जैसा कथन सर्वथा उपहासास्पद है। ऐसा वे लोग कहते हैं जो तन्त्र और वेद में अंतर नहीं समझते। गायत्री मन्त्र का उच्चारण व्यापक विस्तृत होने से उसकी तरंगें वायु मण्डल में फैलती हैं और जहाँ तक वे पहुँचती हैं, वहाँ लाभदायक परिस्थितियाँ ही उत्पन्न करती हैं। उच्चारण न करने पर तो उस लाभ से सभी वंचित रहेंगे।

🔴 क्या गायत्री की उपासना रात्रि में की जा सकती है? इस विषय पर भी भाँति-भाँति के मत व्यक्त किये जाते हैं एवं जन-साधारण को भ्रान्ति के जंजाल में उलझा दिया जाता है। वस्तुतः गायत्री का दाता सूर्य है सूर्य की उपस्थिति में की गयी उपासना का लाभ अधिक माना गया है। किन्तु ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं कि सविता देवता की अनुपस्थिति में- रात्रि होने के कारण उपासना की ही न जा सकेगी। ब्राह्ममुहूर्त को भी एक प्रकार से रात्रि ही कहा जा सकता है। उसमें तो सभी को जल्दी उठकर उपासना करने और सूर्योदय होने पर सूर्यार्घ देकर उसे समाप्त करने की साधारण विधिव्यवस्था है। वस्तुतः सूर्य न कभी अस्त होता है और न देवता शयन करते हैं। इसलिए रात्रि में उपासना करने में कोई हर्ज नहीं। किसी को बहुत ही सन्देह हो तो मौन, मानसिक जप तो बिना संकोच कर सकता है। मानसिक जप पर तो स्नान, स्थान जैसा भी प्रतिबन्ध नहीं है।

🔵 एक और अहम् प्रश्न है कि गायत्री के साकार एवं निराकार रूपों में से किस-किस प्रकार से उपासना प्रयोजन के लिये प्रयुक्त किया जाय? इसका समाधान मात्र यही है कि जिन्हें निराकार रुचता हो, वे सविता के ‘भर्गः’ स्वरूप का ध्यान करें। सूर्य का तेज- प्रकाशवान स्वरूप उसका प्रतीक है। प्रभातकालीन स्वर्णिम सूर्य को सविता की आकृति माना जाता है। यह मात्र आग का गोला नहीं है। वरन् अध्यात्म की भाषा में ब्रह्म भर्ग से युक्त एवं सचेतन है। उदीयमान सूर्य से तो मात्र उसकी संगति बिठाई जाती है। इसके लिए सूर्य के स्थान पर दीपक को, धूपबत्ती की अथवा गायत्री मन्त्र जिसकी किरणों के साथ जुड़ा हो ऐसे सूर्य चित्र को भी प्रयुक्त कर ध्यान नियोजित किया जा सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जून 1983 पृष्ठ 46
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/June.47

गुरुवार, 19 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 55) :-- 👉 समग्र जीवन का सम्मान करना सीखें

🔵 इसी के साथ तुम्हें मानवीय हृदय में झाँकने की कला सीखनी होगी। हमेशा मानव हृदय से उफनती भाव संवेदनाओं की गंगोत्री में स्नान करने की कोशिश करो। तभी तुम जान पाओगे कि यह जगत् कैसा है और जीवन के रूप कितने विविध हैं। इसे जानने के लिए निष्पक्षता और तटस्थता अपनाओ। बुद्धि को साक्षी बने रहने दो। तभी तुम समझ पाओगे कि न कोई तुम्हारा शत्रु है और न कोई मित्र। सभी समान रूप से तुम्हारे शिक्षक हैं। तुम्हारा शत्रु, तुम्हारे लिए एक रहस्यमय प्रश्र की भाँति है, जिसे तुम्हें हल करना है। एक अनबूझ पहेली की भाँति है, जिसे बूझना है। भले ही इसे हल करने में, बूझने में युगों का समय लग जाये। क्योंकि मानव को समझना तो है ही। तुम्हारा मित्र तुम्हारा ही अंग बन जाता है, तुम्हारे ही विस्तार का एक अंश हो जाता है, जिसे समझना कठिन होता है।’
   
🔴 बड़ी मार्मिक बातें उजागर हुई हैं इस सूत्र में। अगर सार रूप में इस सूत्र को एक पंक्ति में परिभाषित करें तो यही कहना होगा कि जो साधना की डगर पर चलना चाहते हैं वे समग्र जीवन का सम्मान करना सीखें। इसके प्रत्येक हिस्से में महत्त्वपूर्ण संदेश है। हाँ, उसमें भी जिसे हम दुःख कहकर परिभाषित करते हैं और रो- पीटकर पूरे संसार को अपने सिर पर उठा लेते हैं। दरअरसल यदि सच्चाई जाने- परखें तो पता यही चलेगा कि जीवन में दुःख नहीं है। जीवन को देखने के ढंग में दुःख है। यह देखने का ढंग लेकर जो जहाँ भी जायेगा, वही दुःखी होता रहेगा। फिर चाहे वह जगह स्वर्ग ही क्यों न हो।
  
🔵 यही वजह है कि चमड़ा भिगोते जूता गाँठते हुए रैदास परम आनन्दित हो सकते हैं। चरखा कातते हुए कबीर इतने आनन्द विभोर होते हैं कि उनके जीवन में संगीत और काव्य फूटता है। और फिर मिट्टी के बर्तन बनाते- पकाते गोरा कुम्हार, उनके तो आनन्द की कोई सीमा ही नहीं। तो यह आनन्द और इसका स्रोत इनकी परिस्थिति में नहीं, इनकी मनःस्थिति में है। इनके दृष्टिकोण में है, जो कहीं भी आनन्द की सृष्टि करने में सक्षम है। इनके स्वर्गीय दृष्टिकोण में स्वर्ग के निर्माण की क्षमता है और ऐसा केवल इसलिए है, क्योंकि ये समग्र जीवन का सम्मान करना जानते हैं। जीवन का प्रत्येक अंश इनके लिए मूल्यवान् है। फिर भले ही वह कंटकाकीर्ण हो या सुकोमल पुष्पों से सजा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/time

👉 गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 2)


🔵 हर धर्म का एक प्रतीक बीज मन्त्र होता है। इस्लाम में कलमा, ईसाई में वपतिस्मा, जैन धर्म में नमोंकार मन्त्र आदि का प्रचलन है। भारतीय धर्म का आस्था केन्द्र- गायत्री को माना गया है। इसे इसके अर्थ की विशिष्टता- सन्निहित प्रेरणा के कारण विश्व आचार संहिता का प्राण तक माना जा सकता है। वेदों की सार्वभौम शिक्षा लगभग सभी धर्म सम्प्रदायों में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हुई है।

🔴 गायत्री रूपी बीज के तने, पल्लव ही वेद शास्त्रों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। इसी कारण उसे ‘वेदमाता’ कहा गया है। वेदमाता अर्थात् सद्ज्ञान की गंगोत्री। इसे देवमाता कहा गया है- अर्थात् जनमानस में देवत्व का अभिवर्धन करने वाली। विश्वमाता भी इसे कहते हैं अर्थात् “वसुधैव कुटुम्बकम्” के तत्व दर्शन तथा नीति-निर्धारण का पोषण करने वाली। ये विशेषण इसकी प्रमुखता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

🔵 एक अन्य चर्चा इस उपासना के सम्बन्ध में की जाती है कि गायत्री मन्त्र गुप्त है। इसका उच्चारण निषिद्ध है। यह प्रचार वर्ण के नाम पर स्वयं को ब्राह्मण कहने वाले धर्म मंच के दिग्गजों ने अधिक किया है। विशेषकर दक्षिण भारत में यह भ्रान्ति तो सर्वाधिक है। वस्तुतः गुप्त तो मात्र दुरभि सन्धियों को रखा जाता है। श्रेष्ठ निर्धारणों को खुले में कहने में कोई हर्ज नहीं।

🔴 गायत्री में सदाशयता की रचनात्मक स्थापनाएँ हैं। उन्हें जानने-समझने का सबको समान अधिकार है ऐसे पवित्र प्रेरणायुक्त उपदेश को उच्चारणपूर्वक कहने-सुनने में भला क्या हानि हो सकती है? पर्दे के पीछे व्यभिचार, अनाचार जैसे कुकर्म ही किये जाते हैं। षड्यन्त्रों में काना-फूसी होती है। किसी को पता न चलने देने की बात वहीं सोची जाती है जहाँ कोई कुचक्र रचा गया हो। सद्ज्ञान का तो उच्च स्वर से उच्चारण होना चाहिए। कीर्तन-आरती जैसे धर्म कृत्यों में वैसा होता भी है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जून 1983 पृष्ठ 46
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/June.46

बुधवार, 18 मई 2016

खुद मुश्किल में रहते हुए 'लावारिस वॉर्ड' के मरीजों को खाना खिलाकर नई ज़िंदगी देते हैं गुरमीत सिंह

कहते है पैदा करने से बड़ा पालने वाला होता है। पालने वाला तब और बड़ा हो जाता है जब वो इस बात की चिंता नहीं करता कि सामने कौन है और हर किसी के लिए एक ही भाव से, उसी लगन से और तत्परता से दिन-रात लगा रहता हो। इसी की जीती जागती तस्वीर का नाम है सरदार गुरमीत सिंह।मूल रूप से पाकिस्तानीे परिवार की तीसरी पीढ़ी सरदार गुरमीत सिंह पटना शहर के भीड़भाड़ वाले इलाके चिरैयाटांड इलाके में कपडे की दुकान चलाते है। पिछले 25 साल से गुरमीत सिंह निरंतर बिना नागा शहर के विभिन्न इलाको में बेसहारा छोड़ दिए गए लोगो को खाना खिलाते और उनकी निस्वार्थ भाव सेवा करते चले आ रहे हैं।

सरदार गुरमीत सिंह की पहुंच हर उस शख्स तक है जो अपनों के सताये, बीमार, लाचार और आसक्त, खाने के लिए दाने दाने को मोहताज है। और तो और गुरमीत सिंह पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल के उस कुख्यात 'लावारिस वार्ड' में मरने को छोड़ दिए गए इंसान के लिए रोटी के निवाले के साथ मौजूद दिखाई देते हैं जहां आम आदमी एक मिनट ठहर नहीं सकता। गुरमीत सिंह इस वार्ड में न सिर्फ मरीजों को रोटी खिलाते हैं बल्कि उन्हें इंसान होने का अहसास भी दिलाते हैं।


असल में हमारी ज़िंदगी में भी एक अनजान मददगार ने महती भूमिका निभाई है। अनजान फ़रिश्ते ने हमारे परिजनों की उस वक्त मदद की जब गंभीर रूप से बीमार अपनी बहन के इलाज ख़ातिर मैं दर दर की ठोकरें खा रहा था। आर्थिक तंगी ने उस दौरान परिवार को जकड रखा था। मुझे लगता था पैसा न हो तो इंसान कितना लाचार और मजबूर हो जाता है। ऐसे में उस अनजान फ़रिश्ते ने न केवल मदद की बल्कि यू कहें कि हमारी बहन को जीवनदान दिया। और फिर दुनिया की इस भीड़ में सदा के लिए गुम हो गए।

वो दिन है और आज का दिन सरदार जी ने अपने जीवन को मानव सेवा को समर्पित कर दिया। आँधी आये या तूफ़ान, आग बरसे या पानी तमाम विपरीत स्थितियों में गुरमीत सिंह पीएमसीएच के लावारिस वार्ड के मरीजों को तो खाना खिलाने जरूर जाते हैं, उनकी सेवा करते हैं। मानवता की सेवा में लगे सरदार जी बिना किसी से आर्थिक योगदान लिए अपनी कमाई से अब तक 25 सालो में 100 लोगों को पूर्ण रूप से सकुशल कर उन्हें उनके परिजनों से मिला चुके है। 100 लोग तो महज़ एक संख्या मात्र है ज़ज़्बा तो असंख्य नंबरों से कहीं ऊपर है।



शुरूआती दौर में जब सरदार गुरजीत सिंह ने अपनी सीमित कमाई से अनाथों और लावारिस लोगों को खाना खिलाना शुरू किया तो आर्थिक तंगी की वजह से कई बार इस काम में मुश्किलें आईं। उस दौरान परिजनों ने भी विरोध किया पर लगन और अपनी धुन के पक्के इस व्यक्ति ने सारी मजबूरियों और विरोध को धता बताते हुए इस काम को अपनी दिनचर्या में शामिल रखा। कभी ऐसे भी हालात आये की घर में खाने को कुछ भी नहीं था फिर भी पैसों का यहाँ वहा से इंतज़ाम कर साग सब्जी खरीद कर लाये। घर में ही खाना बनवाया और लेकर अस्पताल के वार्ड में पहुंच कर सब को खाना खिलाया। इस वार्ड में अकसर ऐसे ही मरीज आते है जो खुद से खाना भी नहीं खा सकते। खाना खिलाने के बाद सरदार गुरमीत सिंह मरीजों के बिस्तर और कपडे भी साफ़ करते है। घंटो उनके साथ वक्त बिताते हैं। पर्व त्यौहार भी इन्हीं के साथ मनाते है। हालांकि गुरमीत सिंह का भरा पूरा परिवार है। परिवार में पांच बेटे हैं। जिस दिन बड़े लड़के की शादी थी। आनंद काज में सभी नाते रिश्तेदार दोस्त साथी खुशियाँ मना रहे थे। सरदारजी अस्पताल में अपने रोज के नित्य के फ़र्ज़ को अंजाम देने पहुंच गए। वार्ड में मौजूद मरीजों को खाना खिलाया, सब के साथ अपनी खुशिया बांटी, सब को मिठाई खिलाई। फिर शादी में शामिल होने के लिए घर वापस लौटे।

गुरमीत सिंह बताते हैं,

अगर कभी मैं व्यस्त होता हूं और अस्पताल जाने की स्थिति में नहीं रहता हूं तो मेरे बड़े बेटे हरदीप सिंह इस फ़र्ज़ को निभाते हैं। मेरी पूर्ण आस्था गुरु नानकदेन जी के उपदेशों में है। महाराज जी की सही शिक्षा भी मानव सेवा को बढ़ावा देती है। मेरे लिए तो परेशान मरीज को खाना खिलाना ही आस्था है। वही मेरा कर्म है।

आम आदमी के गुमनाम मसीहा किसी लावारिस की जानकारी मिलने पर वहां पहुंच जाते हैं और उसका इलाज करवाते हैं, उसकी सेवा करते हैं और स्वस्थ होने पर उसके घर तक पहुंचाते हैं।

सरदार गुरमीत सिंह उन तमाम लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं जो समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं। समाज सेवा के लिए सबसे ज़रूरी है दृढ इच्छा और नि:स्वार्थ भाव। परेशान हाल लोगों के चेहरे पर खुशी देखकर जो संतुष्टि गुरमीत सिंह को होती है वो वाकई जीवन की सबसे बड़ी खुशी है।

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 52) :-- 👉 समग्र जीवन का सम्मान करना सीखें

🔵 शिष्य संजीवनी के सूत्रों में शिष्य जीवन के अनगिन रहस्य पिरोये हैं। इसका प्रत्येक सूत्र शिष्य जीवन के एक नये रहस्य को उजागर करता है, उसकी समग्र व्याख्या प्रस्तुत करता है। जो इस व्याख्या को समझकर उसे अपने जीवन में अवतरित करने, आत्मसात् करने के लिए तत्पर है, वही शिष्यत्व के सुपात्र- सत्पात्र है। जो ऐसा नहीं कर सकते, वे हमेशा के लिए इसके स्वाद से वंचित रहते हैं। समझ की बात इसमें यह है कि इसके लिए बौद्धिक समझ भर पर्याप्त नहीं है। इसके लिए साधना का बल चाहिए। जीवन साधना का पुरुषार्थ जिनमें है, वही इस कठिन डगर पर चलने के लायक हैं। जो इस डगर पर चल रहे हैं, वे जानते हैं कि इस पर चलते हुए कितनी बार उनके पाँवों में छाले पड़े हैं। कितनी बार ये छाले गहरे घावों में बदले हैं और कितनी बार उन्हें इन घावों की रिसन से मर्मान्तक वेदना झेलनी पड़ी है।
   
🔴 लेकिन इसके बावजूद यह रोमाँचक यात्रा अतीव सुखप्रद है, क्योंकि इसकी अनुभूतियों का प्रत्येक पृष्ठ मानवीय चेतना के एक नये और अनजाने आयाम को उद्घाटित करता है। इसके नये अन्तर- प्रत्यन्तर खुलते हैं। परत- दर बोध की नूतन दृष्टि मिलती है। और इसमें सबसे बड़ी बात यह पता चलता है कि जीवन के प्रत्येक कण में सार है। इसके प्रत्येक क्षण में अर्थ है। फिर ये कण या क्षण मुश्किलों से भरे हुए ही क्यों न हों। भले ही इनके साथ जीने में विष बुझे बाणों की चुभन का अहसास हो रहा हो। जो इसमें सार- सत्य को ढूँढ लेते हैं, वही जीवन के मर्म को जान पाते हैं।
  
🔵 शिष्य संजीवनी के इस नये सूत्र का संदेश भी है। जो शिष्यत्व की डगर पर चले हैं, जिन्होंने इस साधना में अपने सम्पूर्ण जीवन की आहुति दी है, उन सबका कहना यही है- ‘समग्र जीवन का सम्मान करो, जो तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है। अपने आसपास के अनवरत बदलने वाले प्रवाहमान जीवन को गहराई से देखो, क्योंकि यह मानवीय संवेदनाओं का ही सघन रूप है और ज्यों- ज्यों तुम इसकी बुनावट को परखोगे- बनावट पर ध्यान दोगे, त्यों- त्यों तुम क्रमिक रूप से जीवन के विशालतम शब्द एवं व्यापकतम अर्थ को पढ़ और समझ सकने लायक होगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/time

गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 1)


🔵 गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में एक शंका अक्सर उठाई जाती है कि उसके कई रूप हैं। कई लोग भिन्न-भिन्न ढंग से उसका उच्चारण करते या लिखते हैं। वस्तुतः शुद्ध रूप क्या है? इस सम्बन्ध में सारे ग्रन्थों का अध्ययन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि गायत्री में आठ-आठ अक्षर के तीन चरण एवं चौबीस अक्षर हैं। भूः, भुवः, स्वः के तीन बीज मन्त्र- ओजस् तेजस् और वर्चस् को उभारने के लिए अतिरिक्त रूप से जुड़े हुए हैं। प्रत्येक वेद मन्त्र के आरम्भ में एक ॐ लगाया जाता है। जैसे किसी व्यक्ति के नाम से पूर्व सम्मान सूचक ‘श्री’ मिस्टर, पण्डित, महामना आदि सम्बोधन जोड़े जाते हैं, उसी प्रकार ॐकार- तीन व्याहृति और तीन पाद समेत पूरा और सही गायत्री मन्त्र इस प्रकार लिखा जा सकता है- “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।” कई व्यक्ति इसी घटाने-बढ़ाने में अपनी-अपनी तिकड़म भिड़ाते देखे जाते हैं।

🔴 कोई तीन ॐ- कोई पाँच ॐ लगाने की बात कहते हैं। कोई-कोई हर चरण के साथ एक ॐ जोड़ते हैं। कोई ब्राह्मणों की- क्षत्रियों की- वैश्यों की अलग-अलग गायत्री बताते हैं। यह अपनी-अपनी मनगढ़न्त है। वस्तुतः गायत्री का शुद्ध स्वरूप उतना ही है जितना कि ऊपर बताया गया। आर्ष ग्रन्थों में कहीं-कहीं तीन या सात व्याहृतियों के प्रयोग की, बीज मन्त्रों को भी साथ जोड़ने की चर्चा है। यह अपने-अपने विशेष प्रयोग उपचार हैं। शुद्ध गायत्री मात्र उतनी ही है जिसका उल्लेख किया गया।

🔵 वेदों में अनेकों मन्त्र हैं, फिर गायत्री को ही प्रमुखता क्यों दी गयी? इस पर विचार करने पर मत यही बनता है कि इस मन्त्र की अपनी विशेष गरिमा है। इसका उल्लेख वेदों में स्थान-स्थान पर हुआ है तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थों में भी माहात्म्य सहित प्रमुखता दी गयी है। देव संस्कृति के दो प्रतीकों- शिखा और सूत्र (यज्ञोपवीत) को भी गायत्री का ही बहिरंग पर आरोपित स्वरूप माना जा सकता है। एक को सिर पर धर्म ध्वजा के रूप में तथा दूसरे को कन्धे पर उत्तरदायित्व अनुशासन के रूप में धारण किया जाता है। यह गौरव किसी भी अन्य मन्त्र को प्राप्त नहीं है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जून पृष्ठ 46
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1983/June.46

मंगलवार, 17 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 51) :-- सदगुरु से संवाद की स्थिति कैसे बनें

🔵 भावानुभूतियों के इस क्रम में अपने सद्गुरु के साथ बिताए क्षणों का सुयोग भी है। उनके दर्शन की प्यारी झलक, उनके श्री चरणों का सुकोमल स्पर्श अथवा फिर उनकी कही हुई बातें। इस सबका अवसर जीवन में कम आया हो, तो स्वप्र भी झरोखे बन सकते हैं। स्वप्रों में भी दिव्यता उतरती है। धन्य होते हैं, वे पल जब स्वप्र में सद्गुरु की झलक मिलती है। स्वप्र में जब उनके स्पर्श का अहसास मिला- तब यह सब विशेष हो जाता है। क्योंकि ऐसे क्षणों में हमारी अन्तर्चेतना सद्गुरु के साथ लयबद्ध स्थिति में होती है।
   
🔴 इन क्षणों का यदि बारम्बार स्मरण हो सके तो सद्गुरु से संवाद सम्भव बन पड़ता है। ईसाइयों की पुरातन कथाओं में प्रायः ईसेन सम्प्रदाय का जिक्र होता है। कहते हैं कि इसी सम्प्रदाय में ईसा मसीह को दीक्षा मिली थी। इस सम्प्रदाय में साधना की कई अनूठी बातों की चर्चा मिलती है। शोध की जिज्ञासा हो तो यहाँ अध्यात्म की अनेकों खास तकनीकें ढूँढी जा सकती हैं। इन सभी में ध्यान का विशेष महत्त्व है। वैसे भी कहते हैं कि यह सम्पूर्ण सम्प्रदाय ध्यान पर ही टिका हुआ था।
  
🔵 इसके पुरातन आचार्यों का कहना था कि यदि तुम्हारे जीवन में अगर कभी कोई ऐसा क्षण घटा हो, जिस क्षण में विचार न रहे हों और तुम आनन्द से भर गए हो, तो उस क्षण को तुम पुनः पुनः स्मरण करो। उन क्षणों को अपने ध्यान का विषय बनाओ। वह क्षण कोई भी रहा हो, उसी को बार- बार स्मरण करके उस पर ध्यान करो, क्योंकि उस क्षण में तुम अपनी श्रेष्ठतम ऊँचाई पर थे। अब उन्हीं क्षणों में, उसी स्थान में मेहनत करने की आवश्यकता है।

🔴 ऐसे क्षण हम सभी के जीवन में आते हैं। बस हम इन्हें सम्हाल कर नहीं रख पाते। इन्हें सम्हालने की जरूरत है। क्योंकि नीरवता में घुले, आनन्द से भरे इन्हीं क्षणों में हमारी भावचेतना शिखर पर होती है। इन्हीं में सद्गुरु से संवाद की स्थिति बनती है परम चेतना के संकेतों को पाने का सौभाग्य जगता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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सोमवार, 16 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 50) :-- सदगुरु से संवाद की स्थिति कैसे बनें

🔵 इस परम सूत्र में जिस महागीत का इशारा किया गया है, निश्चित ही उसे आज की स्थिति में सम्पूर्ण रूप से नहीं सुना जा सकता है। इसे पूरी तरह से सुनने के लिए हमें भी धीरे- धीरे भीतर लयबद्ध होना पड़ेगा। क्योंकि समान ही समान का अनुभव कर सकता है। अगर हमें उस महासंगीत की अनुभूति करनी है तो खुद भी संगीतपूर्ण हो जाना पड़ेगा। अगर हम उस परम प्रकाश को देखना चाहते हैं तो निश्चित ही हमें प्रकाशपूर्ण हो जाना पड़ेगा। अगर उस दिव्य अमृततत्त्व का स्वाद चखना है तो मृत्यु के रहस्य के पार जाना होगा।
   
🔴 दरअसल हम जिसको जानना चाहते हैं, उसके जैसा हमें होना भी पड़ता है। क्योंकि समान की ही अनुभूति पायी जा सकती है। असमान की अनुभूति का कोई उपाय नहीं है। इसीलिए साधना के शिखर को पहुँचे हुए अनुभवी जनों ने कहा है- कि आँख हमारे भीतर सूरज का हिस्सा है, इसीलिए यह प्रकाश की अनुभूति पाने में सक्षम है। कान हमारे भीतर ध्वनि का हिस्सा है, इसीलिए यह सुन पाने में सक्षम है। कामवासना हमारे भीतर पृथ्वी का हिस्सा है, इसीलिए यह हमेशा नीचे की ओर खींचती रहती है। जबकि ध्यान हमारे भीतर परमात्मा का अंश है, इसीलिए हमें परमात्मा की ओर ले जाता है। यह बात जिन्दगी में बार- बार अनुभव होती है कि जो जिससे जुड़ा है, उसी का यात्रा पथ बन जाता है।
  
🔵 विचार करो, अहसास करने की कोशिश करो कि अपना खुद का जुड़ाव कहाँ और किससे है? अगर हम सर्वव्यापी परमचेतना के संगीत को सुनना चाहते हैं, तो उससे जुड़ना भी होगा। यह जुड़ाव कठिन तो है पर एकदम असम्भव नहीं है। भावनाएँ उस ओर बहें तो यह सम्भव है। उन भावनाओं की, उन भावानुभूतियों की स्मृति का स्मरण होता रहे तो यह सम्भव है।

🔴 कभी- कभी अचानक ही ये भावानुभूतियाँ हमें जीवन में घेर लेती हैं। जैसे किसी दिन सुबह सूरज को उगते देखकर रोम- रोम में शान्ति की लहर दौड़ने लगती है या फिर किसी रोज आकाश में तारे भरे हों और हम उन्हें जमीन पर लेटे हुए देख रहे हों, तभी अचानक अन्तर्चेतना में मौन उतर गया हो। ऐसी और भी अनेकों भावानुभूतियाँ हैं जो किसी खास क्षण में उपजती और उतरती हैं। इन अनुभूतियों का स्मरण हमें बार- बार करते रहना चाहिए। इस स्मरण के झरोखे से परम तत्त्व की झांकी उतरती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया

रविवार, 15 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 49) :-- सदगुरु से संवाद की स्थिति कैसे बनें

🔵 शिष्य संजीवनी के प्रत्येक सूत्र में अपनी एक खास विशिष्टता है। इसकी गहनता में जीवन का सुरीला संगीत है। संगीत का अर्थ है कि जीवन का परम रहस्य, स्वरों की भीड़- भाड़ नहीं है, न ही एक अराजकता है, न ही एक अव्यवस्था है, बल्कि सभी स्वर मिलकर एक ही तरंग, एक ही लय, एक ही इंगित, एक ही इशारा कर रहे हैं। जिन्दगी के परम केन्द्र में सभी स्वर परस्पर घुले- मिले हैं। कहीं कोई बैर- विरोध नहीं है। यह जो अव्यवस्था दिखाई पड़ती है, यह हमारे अन्धेपन के कारण है। और जो स्वरों का उपद्रव दिख रहा है, वह हमारे बहरेपन के कारण है। अपनी स्वयं की अक्षमता के कारण हम सभी स्वरों के बीच में बहती हुई समस्वरता का अनुभव नहीं कर पाते।
    
🔴 जबकि इसी अनुभूति में साधना है। इसी में शिष्य और सद्गुरु का मिलन है। इसी के रहस्य को उजागर करते हुए शिष्यत्व के साधना शिखर पर विराजमान जन कहते हैं- ‘‘सुने गए स्वर माधुर्य को अपनी स्मृति में अंकित करो। जब तक तुम केवल मानव हो, तब तक उस महागीत के कुछ अंश ही तुम्हारे कानों तक पहुँचते हैं। परन्तु यदि तुम ध्यान देकर सुनते हो, तो उन्हें ठीक- ठीक स्मरण रखो; जिससे कि जो कुछ तुम तक पहुंचा है, वह खो न जाए। और उससे उस रहस्य का आशय समझने का प्रयत्न करो, जो रहस्य तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है। एक समय आएगा जब तुम अपनी अन्तर्चेतना में सद्गुरु की वाणी की अनुभूति कर सकोगे। इसी परमवाणी में सर्वव्यापी अस्तित्त्व के संकेत हैं।
   
🔵 इन दिव्य संकेतों की स्वर लहरियों से स्वरबद्धता का पाठ सीखो। ध्यान दो इस सत्य पर कि जीवन की अपनी भाषा है और वह कभी मूक नहीं रहती और उसकी वाणी एक चीत्कार नहीं है, जैसा कि तुम भूलवश समझ लेते हो। वह तो एक महागीत है। उसे सुनो और उससे सीखो कि तुम स्वयं उस सुस्वरता के अंश हो। और उससे उस सुस्वरता के नियमों का पालन करना सीखो।’’ साधना का यह परम सूत्र सम्मोहक है और रहस्यमय भी। इसमें प्रवेश करने पर यात्रा का पथ मिलता है, सद्गुरु का द्वार खुलता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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शनिवार, 14 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 48) :-- गुरु के स्वर को हृदय के संगीत में सुनें

🔴  बाबा कबीर के एक शिष्य थे- शेख रसूल। साधना करने की प्रगाढ़ चाहत लिए हुए वे कबीर बाबा के पास आए। उनकी चाहत थी कि बाबा उन्हें मंत्र दें। जप की कोई विधि बताएं। अक्कड़- फक्कड़ कबीर के निराले जीवन की विधियाँ भी निराली थी। उन्होंने शेख रसूल को देखा फिर हंसे और हंसते हुए उन्होंने कहा- देख मैं तुझे मंत्र तो दूंगा, पर तब जब तू सुनने लायक हो जाएगा। अभी तो तू बहरा है, पहले अपने बहरेपन को ठीक कर। अपनी उलटबासियों के लिए विख्यात कबीर की यह उलटबांसी रसूल को समझ में न आयी। क्योंकि उनके कान तो ठीक थे। उन्हें सुनायी भी सही देता है।

🔵  समझने के फेर में पड़े शेख रसूल को बाबा कबीर ने चेताया, अरे भाई ये जो कान है, वे तो दुनियां की बातों को सुनने के लिए हैं। गुरु की बातों को दिल से सुना जाता है। दिल कहे और दिल सुने। ऐसा हो तो गुरु और शिष्य के बीच संवाद पनपता है। बात रसूल को समझ में आ गयी। उसी क्षण से उन्होंने कानों की सुनी पर मन की हटाकर दिल की गहराइयों में प्रवेश करने की तैयारी करने लगे। गुरु के लिए उफनता प्रेम, सच्ची श्रद्धा, वे ही मेरा उद्धार करेंगे, यह वे ही एक मात्र आशा उनकी चेतना की गहराइयों में सघन होने लगी। इस सघनता को लिए वह जीवन के उथलेपन से गहरेपन में प्रविष्ट होने लगे।

🔴  दिन गुजरे, रातें बीतीं। पहले तो सांसारिक कोलाहल ने उनकी राह रोकी। सतही पथरीलापन उनकी राहों में आड़े आया, पर श्रद्धा उनका सम्बल थी, उनके हृदय में आशा का प्रदीप था। सद्गुरु के प्रति अथाह प्रेम उनका पाथेय था। शेख रसूल अपनी गहराइयों में उतरते गए। उन्हें अचरज तब हुआ, जब उन्होंने पाया कि अन्तस की गहराइयों में न तो कोलाहल का अस्तित्व है और न पथरीली ठोकरों का। वहाँ तो बस पवित्र जीवन संगीत प्रवाहित है। यही गहराइयों में उन्होंने अपने सद्गुरु बाबा कबीर की मुस्कराती छबि देखी।

🔵  इस अन्तरदर्शन ने उन्हें जीवन की सार्थकता दे दी। उन्होंने अपने सद्गुरु की प्रेममयी परावाणी को अपने हृदय में सुना- बेटा! जो अपने गुरु के स्वर को हृदय के संगीत में पहचान लेता है, वही सच्चा शिष्य है। इस घटना के बाद शेख रसूल कबीर के पास काफी दिनों तक नहीं आए। जब किसी ने उन्हें यह बात कही, तो वे जोर से हंस पड़े। उनकी इस हंसी में गुरु की कृपा, और शिष्य साधना का सम्मिलित संगीत था। इस स्वर माधुर्य की स्मृति कैसे बनी रहे? इसकी चर्चा, इसका मनन उन्हें जीवन संगीत का नया बोध देगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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शुक्रवार, 13 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 47) :-- गुरु के स्वर को हृदय के संगीत में सुनें

🔴  भले ही अभी यह छिपा हो, ढंका हो और यहाँ अभी केवल शून्यता नजर आती हो, पर है यह अवश्य। इसके स्पर्श मात्र से हृदय श्रद्धा, आशा एवं प्रेम से भर उठेगा। स्थिति इसके उलट भी है, यदि हम अपने हृदय को श्रद्धा, आशा एवं प्रेम से से भर दें, तो भी यह दिव्य संगीत हमारे अन्तस में गुंजने लगेगा। ध्यान रहे यदि हमने भूल से पाप के पथ पर पाँव रख दिए तो फिर इस संगीत को कभी भी न सुना जा सकेगा। क्योंकि जो पाप पथ पर चलता है, वह अपने अन्तस की गहराइयों में कभी नहीं उतर पाता। वह अपने कानों को इस दिव्य संगीत के प्रति मूंद लेता है। अपनी आँखों को वह अपनी आत्मा के प्रकाश के प्रति अंधी कर लेता है। उसे अपनी वासनाओं में लिप्त रहना आसान जान पड़ता है।

🔵  तभी वह ऐसा करता है। दरअसल ऐसा व्यक्ति परम आलसी होता है। वह जीवन की ऊपरी पथरीली सतह को ही सब कुछ मान लेता है। उस बेचारे को नहीं मालुम कि जिन्दगी की इस पथरीली की जमीन के नीचे एक वेगवती धारा बह रही है। समस्त कोलाहल के अन्तस में सुरीला संगीत प्रवाहित हो रहा है। यह अविरल प्रवाह न तो कभी रुकता है और न कभी थमता है। सचमुच ही गहरा स्रोत मौजूद है, उसे खोज निकालो। तुम इतना जान लो कि तुम्हारे अन्दर निःसन्देह वह परम संगीत मौजूद है। उसे ढुंढने में लग जाओ, थको- हारो मत। यदि एक बार भी तुम उसे अपने में सुन सके, तो फिर तुम्हें यह संगीत अपने आस- पास के लोगों के अन्तस में झरता- उफनता नजर आएगा।

🔴  इस सूत्र में साधना का परम स्वर है। इसमें जो कहा गया है, जीवन की परिस्थितियाँ उससे एकदम उलट हैं। हमारे जीवन में संगीत नहीं कोलाहल भरा हुआ है। बाहर भी शोर है और अन्तस में भी शोर मचा हुआ है। चीख, पुकारों के बीच हम जी रहे हैं। ऐसे में जीवन के संगीत की बात अटपटी लगती है। लेकिन इस अटपटे पन के भीतर सच है। पर गहरे में उरतने की जरुरत है। गहरे में उतरा जा सके तो ऊपरी दुनियाँ को भी संवारा जा सकता है, सजाया जा सकता है। सन्त कबीर ने भी यही बात अपने दोहे में कही है-

जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठि।
मैं बपुरा बुढ़नडरा, रह किनारे बैठि॥
     
यानि कि जो खोजते हैं, वे पाते हैं। पर उन्हें गहरे में डुबकी लगानी पड़ती है। जो डुबने से डरते है, वे तो बस किनारे बैठे रह जाते हैं। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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👉 हम राजनीति में भाग क्यों नहीं लेते?



🔴 हम और हमारा संगठन राजनीति में क्यों प्रवेश नहीं करते, इसके सम्बन्ध में लोग हमें उलाहना देते और भूल सुधारने के लिये आग्रह करते हैं। वे जानते हैं कि हम शासन तंत्र में प्रवेश करने में बहुत दूर तक सफल हो सकते हैं। इसलिए उनकी और आतुरता आदि भी अधिक रहती हैं कितनी ही राजनैतिक पार्टियों द्वारा अपनी और आकर्षित करने और प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में सम्मिलित होने के लिए डोरे डाले जाते रहते हैं और उसके बदले ने हमें किस प्रकार सन्तुष्ट कर सकते हैं, इसकी पूछताछ करते रहते हैं यह सिलसिला मुद्दतों से चलता रहा है और जब तक हम विदाई नहीं ले लेते तब तक चलता ही रहेगा और हो सकता है कि यह परिवार वर्तमान क्रम से आगे बढ़ता रहा और सशक्त बनता रहा तो इस प्रकार के दबाव उस पर आगे भी पड़ते रहे।

🔵 इस संदर्भ में हमारा मस्तिष्क बहुत ही साफ है। शीशे की तरह उसमें पूर्ण स्वच्छता है। बहुत चिन्तन और मनन के बाद हम एक निष्कर्ष पर पहुँचें है और मनन के बाद हम एक निष्कर्ष पर पहुँचे है और बिना लाभ-लपेटे, दिपाव व दुराव के अपनी स्वतन्त्र नीति-निर्धारण करने में समर्थ हुए हैं हम सीधे राजनीति को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका संपादित करेंगे और यही अन्त तक करते रहेंगे। अपना संगठन यदि अपने प्रभाव और प्रकाश को सर्वथा तिरस्कृत नहीं कर देता तो उसे भी इसी मार्ग पर चलते रहना होगा।

🔴 भारत की वर्तमान राजनैतिक रीति नीतियों-शासन की गतिविधियों और तंत्र की कार्यप्रणाली पर आमतौर से सभी को असन्तोष है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की लम्बी अवधि में जो हो सकता था वह नहीं हुआ। तथाकथित आर्थिक प्रगति की बात भी विदेशी ऋण और युद्ध स्थिति तथा बढ़ती हुई बेकारी, गरीबों को देखते हुए खोखली है। नैतिक स्तर ऊपर से नीचे तक बुरी तरह गिरा है। विद्वेष और अपराधों कीक प्रवृत्ति बहुत पनपी है-गरीब अधिक गरीब बने है और अमीर अधिक अमीर। शिक्षा की वृद्धि के साथ-साथ जो सत्प्रवृत्तियाँ बढ़नी चाहिए थी, इस दिशा में चोर निराशा ही उत्पन्न हुई है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देश की साख बढ़ी नहीं घटी है। मित्रों की संख्या घटती और शत्रुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। शासन में कामचोरी और रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति बहुत आगे बढ़ है और भी बहुत कुछ ऐसा ही हुआ है जो आँखों के सामने प्रकाश नहीं अँधेरा ही उत्पन्न करता है। अपनी इस राजनैतिक एवं प्रशासकीय असफलता पर हम में से हर कोई चिन्तित और दुखी है। स्वयं शासक वर्ग भी समय-समय पर अपनी इन असफलताओं की स्वीकार करते रहते हैं। जिन्हें अधिक क्षोभ है, वे उदाहरण प्रस्तुत करके शासनकर्त्ताओं की कटु शब्दों में भर्त्सना करते सुने जाते हैं और अमुक पार्टी को हटाकर अमुक पाटी के हाथ में शासन सौंपने की बात का प्रतिपादन करते हैं।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 राष्ट्र समर्थ और सशक्त कैसे बनें पृष्ठ 3.92

गुरुवार, 12 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 46) :-- गुरु के स्वर को हृदय के संगीत में सुनें

🔴  शिष्य संजीवनी के सेवन का अनुभव जिन्हें है, वे इसके प्रभावों से भी परीचित हो गए हैं। अनुभूति यही कहती है कि शिष्य संजीवनी के नियमित सेवन से भावों के विकार, विचारों के दोष अनायास ही दूर होने लगते हैं। मनोभूमि का बंजरपन उर्वरता में रूपान्तरित होता है। स्थिति कुछ ऐसी बनती है कि शिष्यत्व के बीज अंकुरित हो सके। साधना जीवन में यह बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि जो शिष्य है, गुरु की गुरुता वही पहचान पाता है। जहाँ शिष्यत्व होता है, वहीं पर सद्गुरु की कृपा का अवतरण होता है। शिष्यत्व के अभाव में सद्गुरु की कृपा वर्षण के कोई आसार नहीं होते। जो शिष्यत्व से वंचित है, वंचना ही उसके गले पड़ती है।

🔵  अपने सद्गुरु की कृपा का अमृत हम पर बरसे और हम उसमें भीगें। शिष्य संजीवनी के सूत्र इसी सुयोग को साधने के लिए हैं। बादलों की बरसात तो मौसम आने पर होती है, पर उसका लाभ केवल चतुर किसान ही ले पाते हैं। अन्यथा बरसात का पानी तो बस नदी- नालों के रास्ते बह जाता है। इस जल प्रवाह को लहलहाती फसल में बदलने के लिए सुयोग्य कृषक का विवेकपूर्ण एवं साहस भरा श्रम चाहिए। ठीक यही बात सद्गुरु की कृपा के बारे में है, यदि हमने अपने अन्तःकरण को उर्वर बनाया है, उसमें शिष्यत्व के बीज बोए है, फिर सद्गुरु कृपा के मेघ हमें वंचित नहीं रखेंगे। हमारे भीतर साधना की फसलें लहलहाए बिना नहीं रहेंगी।

🔴  यह सुयोग कैसे बनें? इसके लिए शिष्य संजीवनी के ग्यारहवें सूत्र को अपने जीवन रस में घोलना होगा। इसमें शिष्यत्व साधना में प्रवीण जन कहते हैं- जीवन का संगीत सुनो। इस संगीत को सुनने के लिए तुम्हें अपने दिल की गहराइयों में उतरना होगा। यह काम आसान नहीं है। शुरुआत में यही अहसास होगा कि यहाँ तो ऐसा कोई संगीत नहीं है। कितना ही खोजो पर एक बेसुरे कोलाहल के सिवा और कुछ भी सुनायी नहीं पड़ता। पर तुम्हें थकना नहीं है, बस और अधिक गहराइयों में उतरना है। इसके बावजूद भी यदि निष्फलता हाथ लगे तो हारे नहीं, बल्कि और ज्यादा गहरे में उतर कर फिर से ढूंढो। भरोसा करो, एक नैसर्गिक संगीत का दिव्य स्त्रोत हम सभी के हृदयों में है। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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बुधवार, 11 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 45) :- सदगुरु संग बनें साधना-समर के साक्षी

🔴 साक्षी भाव की खोज होते हुए हमें वह भी मिल जाता है, जो हमारा सेनापति है। हमारा सद्गुरु है। इन्हें पहचानना, इनकी मानना साधना समर का अनिवार्य धर्म है। जिसने अपने सद्गुरु को पा लिया, उन्हें पहचान लिया, समझो उसने अपनी महाविजय को सुनिश्चित कर लिया। यह काम आसान दिखते हुए भी आसान नहीं है। सद्गुरु मनुष्य के वेश में आते हैं। इस वजह से साधकों से, शिष्यों से उन्हें पहचानने में प्रायः भूलें होती हैं। बार- बार उनके प्रति अपने मानवीय भावों का आरोपण होता है और अगर ऐसा न हो तो भी उनकी बातों को अपनाने में कठिनाई आती है।

🔵  इस कठिनाई से वही उबरते हैं जो सद्गुरु के चरणों में स्वयं को विसर्जित करने का साहस करते हैं। यह काम आसान नहीं है। अपमान, तिरस्कार, द्वेष, पीड़ा आदि अनेकों दारुण यातनाओं को प्रसन्नतापूर्वक सहन करते हुए सद्गुरु की आज्ञा पालन में निरत रहना ही वह रहस्य है, जिसे सच्चे शिष्य जान पाते हैं। सद्गुरु की हर चोट अहंकार पर होती है। वे अपने हर प्रहार से अहंकार को तोड़ते हैं, मनोग्रन्थियों को खोलते हैं। उनकी हर चोट से कर्म संस्कार क्षय होते हैं। हालांकि यह प्रक्रिया कहने में, लिखने में जितनी आसान है, किन्तु है यह भारी पीड़ादायक।

🔴  जो अनुभवी हैं वे जानते हैं कि यह कठिन यातना एक बार प्रारम्भ होने पर वर्षों तक समाप्त ही नहीं होती। कभी- कभी तो यह लगातार बिना रुके, बिना थमे पच्चीस- तीस साल भी चलती रहती है। हालांकि इसकी अन्तिम परिणति साधना के महासमर में विजय ही होती है। पर ऐसे अवसर भी आते हैं कि यह सब शरीर की समाप्ति के साथ ही होता है। ये बातें आश्चर्य भी पैदा कर सकती हैं, और अविश्वसनीय भी लग सकती हैं। पर जो इसे जी रहे हैं वे इसकी सच्चाई पर रंच मात्र भर भी सन्देह नहीं कर सकते। उनके लिए तो यह रोज जिया जाने वाला सच है।

🔵  इस सम्बन्ध में जरूरत अधिक कहने की नहीं, अधिक से अधिक जीने की है। सद्गुरु को प्रति पल अपने हृदय में अनुभव करने की जरूरत है। एक बार यदि गुरु ने शिष्य के हृदय में आसन जमा लिया तो फिर प्रक्रिया कितनी भी जटिल एवं दारूण क्यों न हो, पर अन्तिम परिणाम शुभ के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता। इसलिए सतत उनका आह्वान, सतत उनसे प्रार्थना ही एकमात्र उपाय है। ऐसा हो जाय तो परम सौभाग्य है, परम सदभाग्य है।

🔴  वे जब अन्तर चेतना में अस्तित्त्व के अन्तरतम में मिलेंगे, तो सब कुछ स्वतः सुलभ होने लगेगा। स्वतः ही आदेश एवं संकेत प्राप्त होंगे। यही नहीं विजय का पथ भी प्रशस्त होगा। जीवन का मार्ग भी मिलेगा। तो करते रहें उन परम कृपालु सद्गुरु का आह्वान, निवेदित करते रहे उनसे अपनी प्रार्थना। इसके आगे क्या करना है, इसकी चर्चा अगले सूत्र में किया गया है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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मंगलवार, 10 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 44) :- सदगुरु संग बनें साधना-समर के साक्षी

🔴  अपने भीतर उस महासेनापति का आह्वान करो और उन्हें युद्ध की बागडोर सौंप दो। उन्हें बुलाने में सतर्क रहो, नहीं तो लड़ाई के उतावलेपन में तुम उन्हें भूल जाओगे। और याद रहे जब तक उन्हें तुम अपनी बागडोर नहीं सौंपोगे वे तुम्हारा दायित्व स्वीकार नहीं करेंगे। यदि उन तक तुम्हारी प्रार्थना के स्वर पहुँचेंगे तभी वह तुम्हारे भीतर लड़ेंगे और तुम्हारे भीतर के नीरस शून्य को भर देंगे। साधना के महासंग्राम में उन्हीं का आदेश पाना है और उसका पालन करना है। उन्हीं के प्रति समर्पण के स्वरों को अपनी साधना के संगीत में पिरोकर ही यह महायुद्ध जीता जा सकता है।

🔵  इस सूत्र को जीवन साधना में ढालने के लिए गहरा चिन्तन जरूरी है। इसके एक- एक वाक्य में सारगर्भित अर्थ पिरोए हैं। इसमें पहली और अनिवार्य बात है कि साधना समर में वे विजयी होते हैं- जो साक्षी होने का साहस करते हैं। जिन्होंने आध्यात्म विद्या के परम शास्त्र श्रीमद्भगवद् गीता को पढ़ा है, वे जानते हैं कि गीता का गायन दोनों सेनाओं के मध्य में हुआ था। गीता श्रवण से पहले अर्जुन को भगवान् श्री कृष्ण से यह प्रार्थना करनी पड़ी थी- ॥ सेनयोसूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥ हे अच्युत! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरा रथ खड़ा कीजिए। सबसे पहले साक्षी भाव, फिर साधक। यहाँ तक कि साधना के परम शास्त्र को साक्षी भाव के बिना समझा भी नहीं जा सकता।

🔴  यह साक्षी भाव जिन्दगी की गहनता में पहुँचे बिना नहीं मिलता। वह साक्षी अपना ही अन्तरतम है। यहीं सद्गुरु के वचनों का मर्म समझ में आता है। परिधि पर भूल की जा सकती है, पर केन्द्र पर भूल नहीं होती। परिधि पर होने के कारण ही जिन्दगी विकृत हुई है। जीवन अनुभवों ने, रास्तों ने, मार्गों ने, संसार ने, अनेक- अनेक जन्मों ने, संस्कारों ने इस जीवन को विकृत किया है। परिधि पर होने के कारण ही जिन्दगी में धूल- ध्वांस भर गयी है। इसी के कारण हमसे बार- बार भूलें होती हैं। बार- बार हम चूकते हैं और चूकते ही रहते हैं। वर्तमान के जीवन में यदि कुछ खोया है तो साक्षी भाव खो गया है। हम कर्त्ता हो गए हैं और यह कर्त्ता कर्म के निकट खड़ा हो गया है, जबकि उसे अन्तरात्मा में स्थित होना चाहिए। बस इसी वजह से जिन्दगी दुष्चक्र बनकर रह गयी है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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सोमवार, 9 मई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 43) :- सदगुरु संग बनें साधना-समर के साक्षी

🔴  शिष्य संजीवनी के सूत्र जब शिष्यों के जीवन में घुलते हैं तो साधना का शास्त्र जन्म लेता है। यह शास्त्र दूसरे तमाम शास्त्रों से एकदम अलग है। क्योंकि इससे कागद कारे होने की बजाय जीवन उजला होता है। जहाँ अन्य शास्त्र निर्जीव होते हैं, वहीं इसमें जीवन छलकता है, जागृति चमकती है। इस फर्क का कारण केवल इतना है कि दूसरे शास्त्रों का लेखन कागज के पन्नों पर किया जाता है। लेकिन यहाँ तो जिन्दगी के फलक पर कर्म के अक्षर उकेरे जाते हैं।

🔵  जिन्होंने ऐसा करने का साहस किया है, वे इसके महत्त्व और महिमा को पहचानते हैं। उन्हें यह अनुभव हुए बिना नहीं रहता कि शिष्यत्व की साधना का सुफल कितने आश्चर्यों से भरा है। हां इतना जरूर है कि इसके लिए जीवन संग्राम में युद्ध करने की कुशलता सीखनी पड़ती है।

🔴  जीवन का यह महासंग्राम अन्य युद्धों से काफी अलग है। साधना के इस महासमर में अपूर्व कुशलता चाहिए। यह कुशलता कैसी हो इसके लिए शिष्य संजीवनी के दसवें सूत्र को अपने जीवन में घोलना होगा। इसमें शिष्यत्व की साधना के विशेषज्ञ जन कहते हैं- भावी साधना समर में साक्षी भाव रखो। और यद्यपि तुम युद्ध करोगे, पर तुम योद्धा मत बनना।

🔵  हां यह सच है कि वह तुम्ही हो, फिर भी अभी की स्थिति में तुम सीमित हो। अभी तुमसे भूल सम्भव है। लेकिन वह शाश्वत और निःसंशय है। जब वह एक बार तुममे प्रवेश करके तुम्हारा योद्धा बन गया, तो समझो कि वह कभी भी तुम्हारा त्याग न करेगा और महाशान्ति के दिन तुम से एकात्म हो जाएगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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बुधवार, 4 मई 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 42) :- एक उलटबाँसी काटने के बाद बोने की तैयारी

🔴  बुद्ध ने यही किया, महावीर ने यही किया, रमण महर्षी एवं परमयोगी श्री अरविन्द ने यही किया। प्रत्येक साधक यही करता है। हर एक शिष्य को यही करना है। इस अवस्था के ज्ञान के अक्षय कोष शिष्य के लिए खुल जाते हैं। श्री सद्गुरु उसे दक्षिणामूर्ति शिव के रूप में दर्शन देते हैं। सच में बड़ी आश्चर्य मिश्रित श्रद्धा और भक्ति के अलौकिक प्रवाह का उदय होता है उस समय। ये अपने परम पू. गुरुदेव ही दक्षिणामूर्ति शिव हैं। यह अनुभूति ऐसी है जिसे अनुभवी ही जान सकते हैं। इसे ठीक- ठीक न तो कहा जा सकता है और न ठीक तरह से सुना जा सकता है। जो जानता है उसके लिए बोलना सम्भव नहीं है। और यदि वह बोले भी तो सुनने वाले लिए ठीक तरह से समझना सम्भव नहीं है।

🔵  गुरुदेव तो सदा से अपना खजाना लुटाने के लिए तैयार खड़े हैं, लेकिन शिष्य में पाने के लिए पात्रता इसी अवस्था में आती है। गुरुदेव के अनुदानों के रूप में शिष्य अपनी साधना की फसल काटता है। शिष्य को उसकी फसल सौंपते हुए गुरुदेव उससे कहते हैं कि अब तुम इसको बो डालो। एक बीज भी बेकार न जाने पाये। तुम बुद्ध पुरुषों की परम्परा को आगे बढ़ाओ। तुम जाग्रत हो गये अब औरों को जगाओ। सबने यही कही किया है- मैंने भी और मेरे गुरुदेव ने भी। तुम्हें भी अपने गुरुओं के योग्य शिष्य के रूप में यही करना है। ज्ञान की गंगा थमने न पाये- उठो पुत्र! आगे बढ़ो! इस आज्ञा का अनुपालन ही शिष्य का धर्म है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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सोमवार, 2 मई 2016

शिष्य संजीवनी (भाग 41) :- एक उलटबाँसी काटने के बाद बोने की तैयारी

जो शिष्य हैं उनकी समर्पित भावनाओं में तांत्रिक प्रश्र स्वयं ही अपना समाधान पाते जाते हैं। ज्यों- ज्यों प्रश्रों के समाधान होते जाते हैं- त्यों तर्क विलीन हो जाते हैं। तब श्रद्धा का उदय होता है। श्रद्धा तर्क के विलय ही परम भाव दशा है। यहाँ न तो तर्कों का अभाव है और न ही तर्कों की दमन, बल्कि तर्कों की सम्पूर्ण विलीनता है। सघन श्रद्धा में ही नीरवता प्रकट होती है। परम शान्ति अथवा समाधि इसी के अनेकों रूप हैं। भेद शब्दों का है भावों का नहीं। यह सत्य शास्त्र अथवा पण्डित नहीं अनुभवी साधक बताते हैं। श्रद्धा की सम्पूर्णता को समाधि का नाम देना अतिशयोक्ति नहीं अनुभूति है। ईश्वर प्रणिधान की चर्चा करते हुए महिष पतंजलि भी इससे अपनी सांकेतिक सहमति जताते हैं।

इस नीरवता की भावदशा में परम ज्ञान का उदय होता है। यही परम प्रज्ञा के महामंदिर का द्वार है। यहीं साधक का ब्राह्मी चेतना से संवाद होता है। यहीं उसे उसके सद्गुरु का परम ब्रह्म परमेश्वर के रूप में साक्षात्कार होता है। ‘गुरुर्ब्रह्मा, गुरुविष्णु गुरुरेव महेश्वरः, गुरुः साक्षात् परमब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः’ इस मंत्र के अर्थ की अनुभूति चेतना की इसी अवस्था में होती है। यहीं उससे कहा जाता है कि तुम अब काट चुके अब बोने की तैयारी करो। जिन्दगी के सामन्य क्रियाकलापों में बोने के बाद काटा जाता है। पर यहाँ बड़ी उलटबाँसी है, यहाँ काटने के बाद बोया जाता है।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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रविवार, 1 मई 2016

शिष्य संजीवनी (भाग 40) :- एक उलटबाँसी काटने के बाद बोने की तैयारी

अब तुम वह हो जिसने आत्मा को विकसित अवस्था में देख लिया है और पहचान लिया है। अब तुमने नीरवता के नाद को सुन लिया है। यह वह क्षण है जिसमें तुम उस ज्ञान मन्दिर में जा सकते हो, जो परम प्रज्ञा का मंदिर है और जो कुछ तुम्हारे लिए वहाँ लिखा है, उसे पढ़ो। नीरवता की वाणी सुनने का अर्थ है, यह समझ जाना कि एक मात्र पथ- निर्देश अपने भीतर से ही प्राप्त होता है। प्रज्ञा के मन्दिर में जाने का अर्थ है, उस अवस्था में प्रविष्ट होना, जहाँ ज्ञान प्राप्ति सम्भव होती है। तब तुम्हारे लिए वहाँ बहुत से शब्द लिखे होंगे और वे ज्वलन्त अक्षरों में लिखे होंगे। ताकि तुम उन्हें सरलतापूर्वक पढ़ सको। ध्यान रहे शिष्य के तैयार होने भर की देर है, श्री गुरुदेव तो पहले से ही तैयार हैं।’

अब तक कहे गये पिछले सभी सूत्रों में यह सूत्र कहीं अधिक गहन है। लेकिन साधना का सारा व्यावहारिक ज्ञान इसी में हैं। जो साधना सत्य से परिचित हैं, उन्हें इसका अहसास है कि साधना के सारे पथ, सारे मत अपनी सारी विविधताओं- भिन्नताओं के बावजूद एक ही बात सुझाते हैं- नीरवता। ध्यान की विधियाँ, महामंत्रों के जप, प्राणायाम की प्रक्रियाएँ सिर्फ इसीलिए है कि साधक के अन्तःकरण में नीरवता स्थापित हो सके। यह नीरवता जो कि सभी आध्यात्मिक साधनाओं का सार है- शिष्य को अपनी सच्चाई में अनायास प्राप्त हो जाती है। उसकी समर्पित भावनाएँ- सघन श्रद्धा अपने आप ही उसे नीरवता का वरदान दे डालती है।

आत्म पथ के जिज्ञासुओं के लिए यहाँ यह कहने का मन है कि मन को चंचल बनाने का एक ही कारण है मानव की तर्क बुद्धि। जितनी तर्क क्षमता उतना ही उद्वेग उतनी ही चंचलता। पर साथ ही इसमें हमारी जागरूकता के शुभ संकेत भी छुपे हैं। ये तर्क न हो- तर्कों का अभाव हो तो व्यक्ति का अन्तःकरण जड़ता से भर जायेगा। तर्कों के अभाव का अर्थ है ‘जड़ता’। यह स्थिति मूढ़ों की होती है।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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