लोगों की बुराई-भलाई इतना महत्व नहीं रखती जितनी हमारी दृष्टि, दृष्टि में दोष उत्पन्न हो जाए तो हर चीज अटपटी दिखाई देगी। रंगीन काँच का चश्मा पहन लिया जाए तो हर चीज उसी रंग की दिखाई देगी। पीलिया रोग वाले का चेहरा खून एवं मल-मूत्र ही पीला नहीं होता वरन् सभी चीजें उसे पीली दिखाई देने लगती हैं। कई व्यक्ति हर घड़ी किसी न किसी की निन्दा करते सुने जाते हैं, दूसरों के दोषों का वर्णन करने में उन्हें बड़ा मजा आता है, ऐसे लोग बहुधा अपने आपको आलोचक या सुधारक कहते हैं पर वस्तुतः बात दूसरी ही होती है। उनके मन में दूसरों के प्रति घृणा और द्वेष के भाव भरे होते हैं, वे ही दूसरों की निन्दा के रूप से बाहर निकलते रहते हैं।
जो आदमी लहसुन खाकर या शराब पीकर आया है, उसके मुँह में से इन पदार्थों की दुर्गन्ध स्पष्ट रूप से आती है। इसी प्रकार दुर्भावना युक्त ओछे आदमियों के मुख में से निन्दा, बुराई, दोष दर्शन, छिद्रान्वेषण की धारा ही प्रवाहित होती रहेगी। ऐसे लोग किसी की भलाई या सद्भावना पर विश्वास नहीं कर सकते, उन्हें सभी धूर्त या दुष्ट दिखाई देते हैं। ऐसे लोगों को दोष दृष्टा ही कहा जायेगा। उनकी अपनी दुर्बलता उनके चारों ओर धूर्तता दुष्टता के रूप में बिखरी दिखाई पड़ती है।
इस प्रकार का दोषदर्शी दृष्टिकोण मनुष्य के लिए एक भारी विपत्ति के समान है। प्रेम और द्वेष छिपाये नहीं छिपते। दुर्भावों में वह शक्ति है कि जिसके प्रति उस तरह के भाव रखे जायें तो उस तक किसी न किसी प्रकार जा ही पहुँचते हैं और वह किसी दिन जान ही लेता है कि अमुक व्यक्ति मेरा निन्दक या द्वेषी है। यह जान लेने पर उसके मन में भी प्रतिक्रिया होती ही, वह भी शत्रुता करेगा। इस प्रकार उस दोष दर्शी के शत्रु ही चारों ओर बढ़ते जायेंगे। शत्रुता के साथ विपत्ति जुड़ी हुई है, जिसके जितने ज्यादा शत्रु होंगे वह उतना ही चिंतित, परेशान एवं आपत्तिग्रस्त रहेगा। उसके मार्ग में समय-समय पर अनेकों बाधाएं आती ही रहेंगी। उन्नति के मार्ग में सहयोग देने वालों की अपेक्षा रोड़े अटकाने वाले ही अधिक होंगे। ऐसी स्थिति अपने लिए उत्पन्न कर लेना कोई बुद्धिमता की बात नहीं है। निन्दात्मक दृष्टिकोण अपनाये रखना एक अबुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य ही कहा जा सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
जो आदमी लहसुन खाकर या शराब पीकर आया है, उसके मुँह में से इन पदार्थों की दुर्गन्ध स्पष्ट रूप से आती है। इसी प्रकार दुर्भावना युक्त ओछे आदमियों के मुख में से निन्दा, बुराई, दोष दर्शन, छिद्रान्वेषण की धारा ही प्रवाहित होती रहेगी। ऐसे लोग किसी की भलाई या सद्भावना पर विश्वास नहीं कर सकते, उन्हें सभी धूर्त या दुष्ट दिखाई देते हैं। ऐसे लोगों को दोष दृष्टा ही कहा जायेगा। उनकी अपनी दुर्बलता उनके चारों ओर धूर्तता दुष्टता के रूप में बिखरी दिखाई पड़ती है।
इस प्रकार का दोषदर्शी दृष्टिकोण मनुष्य के लिए एक भारी विपत्ति के समान है। प्रेम और द्वेष छिपाये नहीं छिपते। दुर्भावों में वह शक्ति है कि जिसके प्रति उस तरह के भाव रखे जायें तो उस तक किसी न किसी प्रकार जा ही पहुँचते हैं और वह किसी दिन जान ही लेता है कि अमुक व्यक्ति मेरा निन्दक या द्वेषी है। यह जान लेने पर उसके मन में भी प्रतिक्रिया होती ही, वह भी शत्रुता करेगा। इस प्रकार उस दोष दर्शी के शत्रु ही चारों ओर बढ़ते जायेंगे। शत्रुता के साथ विपत्ति जुड़ी हुई है, जिसके जितने ज्यादा शत्रु होंगे वह उतना ही चिंतित, परेशान एवं आपत्तिग्रस्त रहेगा। उसके मार्ग में समय-समय पर अनेकों बाधाएं आती ही रहेंगी। उन्नति के मार्ग में सहयोग देने वालों की अपेक्षा रोड़े अटकाने वाले ही अधिक होंगे। ऐसी स्थिति अपने लिए उत्पन्न कर लेना कोई बुद्धिमता की बात नहीं है। निन्दात्मक दृष्टिकोण अपनाये रखना एक अबुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य ही कहा जा सकता है।
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