मंगलवार, 27 सितंबर 2016

👉 Samadhi Ke Sopan समाधि के सोपान (भाग 41)

🔵 सहिष्णुता बढ़ाओ। तुम पूरी तरह अनुत्तरदायी तथा आक्रमक हो। इसके पूर्व कि तुम दूसरों के दोष देखो तथा निर्ममता पूर्वक उनकी आलोचना करो, अपनी भंयकर भूलों को देखो। यदि तुम अपनी जीभ पर लगाम नहीं लगा सकते तो उसे तुम्हारे ही विरुद्ध बकने दो, दूसरों  के विरुद्ध नहीं। पहले अपना घर सम्हालो। ये शिक्षायें आत्मसाक्षात्कार के सर्वोच्च दर्शन के अनुकूल ही हैं। क्योंकि चरित्र के बिना आत्म -साक्षात्कार हो ही नहीं सकता। नम्रता, निरहंकारिता, सज्जनता, सहनशीलता, दूसरों के दोष न देखना, ये सब गुण आत्मसाक्षात्कार के व्यवहारिक तथ्य हैं। दूसरे तुम्हारे साथ क्या करते हैं इस ओर ध्यान न दो। अपने आत्मविकास में लगे रहो। जब तुमने यह सीख लिया तब एक बहुत बड़े रहस्य को जान लिया।

🔴 अहंकार ही सबके मूल में है। अहंकार को उखाड़ फेंको। वासना के संबंध में सतत सावधान रही। जब तक शरीर चिता पर न चढ़ जाय तब तक पूर्णत: इन्द्रियजित होने का निश्चय नहीं हो सकता। यदि तुम इसी जीवन में मुक्त होना चाहते हो तो अपने हृदय को श्मशान बना कर अपनी सारी इच्छाओं को उसमें भस्म कर दो। अंध आज्ञाकारिता सीखो। तुम एक बच्चे के अतिरिक्त और क्या हो ? क्या हो वास्तविक ज्ञान है ? जैसे बच्चे को ले जाया जाता है उसी प्रकार तुम भी स्वयं को ले जाया जाने दो। स्वयं को मेरी इच्छा के प्रति पूर्णत: समर्पित कर दो। क्या मैं प्रेम में तुम्हारी माँ के समान नहीं हूँ ? और फिर मैं तुम्हारे पिता के समान भी हूँ क्योंकि मैं तुम्हें दण्ड भी देता हूँ। यदि तुम गुरु होना चाहते हो तो सर्वप्रथम शिष्य होना सीखो। तुम्हें अनुशासन की आवश्यकता है।

🔵 पहले मेरे कार्य के लिए तुम्हारा उत्साह बचकाना तथा उत्तेजना पूर्ण था। अब वह सच्ची अन्तर्दृष्टि से युक्त होता जा रहा है। बच्चा विचार-  हीन होता है, युवक आकांक्षी होता है, प्रौढ़ व्यक्ति ही उपादेय होता है। मैं तुम्हें आध्यात्मिक अर्थ में प्रौढ़ बनाना चाहता हूँ। मैं तुम्हें गंभीर, दायित्वपूर्ण, निष्ठावान, सुअनुशासित तथा चरित्र की दृढ़ता और निष्ठा के द्वारा मेरे प्रति अपने प्रेम और निष्ठा को प्रगट करने वाला बनाऊँगा। बढ़ो! मेरा आशीर्वाद तथा प्रेम सदैव तुम्हारे साथ है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 Samadhi Ke Sopan समाधि के सोपान (भाग 40)


मेरी आत्मा में श्रीगुरुदेव की वाणी ने कहा -

🔵 वत्स! स्वयं तुम्हारे विकास के इतिहास से अधिक रुचिकर और कुछ नहीं है। व्यक्तित्व का विकास ही जीवन को रुचिपूर्ण बनाता है। साक्षी बनो। एक ओर खड़े हो जाओ तथा अपने व्यक्तित्व का इस प्रकार निरीक्षण करो मानों वह तुमसे भिन्न कोई वस्तु हो। अपने स्वेच्छाचारी विचारों तथा चंचल इच्छाओं का निरीक्षण करो। गत कल की अनुभूतियों का कितना क्षणिक महत्व है। आगामी दस वर्षों में भी क्या आना जाना है?

🔴 इस बात का विचार कर जीवन में अविचल रहो। जो कुछ भी सांसारिक है उसका कुछ भी महत्व नहीं है। वह चला जायेगा। इसलिये आत्मिक वस्तु में ही समय लगाओ। अनासक्त बनो। ध्यान में डूब जाओ। तुम्हारी वृत्ति साधुओं की सी हो। किसी भी अनुभव या विचार का महत्व चरित्र निर्माण की उसकी प्रवृत्ति पर ही निर्भर करता है। इस बातका अनुभव कर जीवन का एक नया दृष्टिकोण प्राप्त करो।

🔵 संसारी लोग क्षणभंगुर मिट्टी के लोंदे, अपने इस शरीर के लिए कितना समय देते है। उनका मन इन क्षणभंगुर वस्तुओं के लिए कितना चिन्तित रहता है। वे लोग इन नाशवान वस्तुओं के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। वे सब माया से ग्रस्त हैं। अत: संसारी वस्तुओं की चिन्ता में न पड़ो। संसारी लोगों का संग त्याग दो। मन कितना सूक्ष्म है। वह सदैव भौतिक वस्तुओं को आदर्शान्वित करने की ही चेष्टा करता है। यही माया का जादू है। ऊपर से दिखने वाले तड़क भड़क तथा मिथ्या सौंदर्य से मोहित न होओ।

🔴 अन्तर्दृष्टि न खोओ। अनादिकाल से यह संघर्ष चल रहा है। तुम्हारी आत्मा के प्रति ईश्वर का जो प्रेम है उसकी तुलना में संसारासक्ति क्या है? आसक्ति शरीर के प्रति होती है इसलिए बंधन है। किन्तु तुम मुझे अपनी आत्मा से प्रेम करते हो वही अंतर है। वत्स! संसार को भयानकता तथा मिथ्यात्व का बोध करने के लिए तुम कठिन पीड़ा से होकर निकलो, यह दोष नहीं है। तुम जितना अधिक कष्ट पाते हो उतने ही मेरे निकट आते हो।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

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