बुधवार, 29 जून 2016

👉 आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध (भाग 3)


🔴 सन्तान को सुयोग्य और स्वावलम्बी बना देना पर्याप्त है। उत्तराधिकार में उनके लिए विपुल सम्पत्ति छोड़ने की बात सोचने का अर्थ है उन्हें अपाहिज और परावलम्बी बनने जैसी हीन वृत्ति का शिकार बनाना। इससे बालकों को अन्ततः हानि ही हानि उठानी पड़ती है। वे परस्पर झगड़ते हैं, आलसी, अहंकारी और दुर्व्यसनी बनते हैं। कमाई वही फलती-फूलती हैं जो नीति पूर्वक कठोर श्रम करते हुए कमाई जाती है। बच्चे इसी मार्ग पर चलते हुए अपना गुजारा करें इसी में औचित्य हैं। उनके लिए सम्पदा छोड़ मरने की कृपणता अपनाने में कोई औचित्य नहीं है।

🔵 बुद्धिमत्ता इसी में है कि परिवार के भरे निर्वाह से जो कुछ बचता हो उसे समाज का ऋण चुकाने में-लोक मंगल में उदारता पूर्वक हाथों-हाथ व्यय किया जाता रहे। इस अर्थ नीति को अब युग मान्यता मिल चुकी है। साम्यवाद-समाजवाद के अंतर्गत यही व्यवस्था बनने जा रही है। प्रजातन्त्र राष्ट्र भी बढ़ी हुई सम्पत्ति को भारी टैक्सों द्वारा लोक हित के लिए बल-पूर्वक वापिस ले रहे हैं। अध्यात्म मार्ग में तो अपरिग्रह और दान पुण्य की महिमा आरम्भ से ही गाई जाती रही है। साधु, ब्राह्मण वैसी ही निर्वाह पद्धति की सार्थकता अपने ऊपर प्रयोग करते हुए चिरकाल से सिद्ध करते रहे हैं।

🔴 वित्तेषणा-तृष्णा की बढ़ी हुई मात्रा अनीति उपार्जन के लिए प्रोत्साहित करती हैं विविध विधि अपराध उसी के कारण होते रहते हैं। यदि निर्वाह के लिए उपार्जन तक सन्तुष्ट रहा जा सके तो श्रम, धन और मनोयोग की पर्याप्त बचत हो सकती है और उसे महान प्रयोजनों में लगाने पर जीवन को धन्य बनाने वाले आधार खड़े हो सकते हैं। इन उज्ज्वल सम्भावनाओं से वित्तेषणा ही हमें वंचित करती है। तृष्णा को सीमित किया जा सके तो दूसरे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य सामने आ सकते हैं और उनमें संलग्न रह कर महामानवों जैसी गतिविधियाँ अपनाया जाना सम्भव हो सकता है।

🔵 लोकेषणा में श्रेष्ठ सत्कर्म करते हुए लोक श्रद्धा अर्जित करने का उच्चस्तर ही अपनाये जाने योग्य है। शेष नीचे की सभी उद्धत अर्हताएँ हेय मानी जाने योग्य है। अहंकार प्रदर्शन के लिए लोग अनावश्यक ठाठ-बाठ रोपते हैं। अमीरी का सम्मान पाने के लिए जितना समय और धन व्यय किया जाता है, प्रदर्शन का आडम्बर संजोया जाता है, शेखीखोरी का घटा टोप रोपा जाता है, उसे छल प्रपंच भरी विडम्बना के अतिरिक्त और क्या कहा जाय ? इस जंजाल में जितनी शक्ति खपती हैं यदि उसकी चौथाई भी महानता के सम्पादन में लग सके तो वास्तविक उन्नति का विशालकाय भवन निर्माण उतने भर से ही सम्भव हो सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1977 पृष्ठ 18
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1977/October.18


Jhola Pustaakalay-Pandit Shriram Sharma Acharya- Lecture 1985
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