गुरुवार, 28 अक्तूबर 2021

👉 स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान और प्रज्ञा केन्द्र (भाग २)

प्रमुख कार्यक्रम प्रज्ञा साहित्य का सम्पर्क क्षेत्र के लोगों को नियमित स्वाध्याय कराना है। संगठन का नामकरण इसी प्रमुख कार्यक्रम के आधार पर किया गया है। आयुर्वेद में औषधियों के नामकरण उनमें पड़ने वाले द्रव्यों में से जो प्रमुख होता है, उसके आधार पर किया जाता है। द्राक्षासव, अमृतारिष्ट, लवंगादिवटी, सितोपलादि चूर्ण, हींग आदि में पहले जिस प्रकार प्रमुख द्रव्य की चर्चा है, उसी प्रकार विचार क्रान्ति के लिए स्वाध्याय को सीधी और गहरा प्रभाव छोड़ने वाली प्रक्रिया माना गया है और इन संगठनों को इसी कार्यक्रम को सर्व प्रधान मानने के लिए कहा गया है।
   
संचालक मंडली के पाँच सदस्यों में से प्रत्येक को अपने परिवार सम्पर्क के पाँच- पाँच ऐसे व्यक्ति ढूँढ़ने चाहिए, जिनकी स्वाध्याय में विचारशीलता में रुचि है अथवा पैदा की जा सके। इस प्रकार पाँच सदस्यों की पाँच- पाँच की मंडली से तीस सदस्य हो जाते हैं। तीस फूलों का यह हार यदि युग देवता के गले में पड़ सके, तो अपनी गरिमा और देवता की शोभा बढ़ाने में पूरी तरह सफल हो सकता है। पाँचों संचालक अपनी- अपनी क्यारियों को ठीक तरह सँभालें संजोये। उन तक नियमित रूप से घर बैठे बिना मूल्य प्रज्ञा साहित्य पहुँचाने और वापिस लेने के व्रत निर्वाह का प्रथम चरण इतने भर से पूरा हो जाता है।
   
सर्व विदित है कि कार्लमार्क्स के विचारों ने एक शताब्दी के भीतर प्रायः आधी दुनियाँ को अपने विचारों में समेट लिया। रूसो के प्रतिपादन से प्रजातंत्र की जड़ जमी। ईसाई पादरियों ने विश्व के कोने- कोने में अपने धर्म की विशेषता समझाई। प्रायः दो तिहाई मनुष्य जाति को कुछ ही शताब्दियों के अन्दर ईसाई धर्मावलम्बी बना लिया। अमेरिका में से दास प्रथा समाप्त करने का बहुत कुछ श्रेय हैरियट स्टो को जाता है। बुद्ध और गाँधी ने अपने- अपने समय के विचारक्रान्ति प्रतिपादनों को जन- जन को परिचित करा सकने के कारण ही सफल बनाया था। इतिहास साक्षी है कि बन्दूक की तुलना में प्राणवान विचारों की सामर्थ्य कही अधिक समर्थ सिद्ध हुई है। जब सभी लोग बिना पढ़े थे, तब नारद की तरह वाणी ही प्रमुख सामर्थ्य थी, पर जब से शिक्षा का, प्रेस का साहित्य का विस्तार हुआ है तब से वाणी की तुलना में अधिक स्थायी, अधिक गंभीर, अधिक प्रभावी विचार देने में लेखनी की, साहित्य की शक्ति ही विश्व की सबसे बड़ी सामर्थ्य बन कर उभरी है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८०)

👉 भक्ति के अपूर्व सोपान हैं-श्रवण और कीर्तन

कुन्ती की कथा सभी के दिलों को छू गयी। हिमालय के श्वेत शिखरों की छांव में बैठे ऋषियों, सिद्धों, सन्तों, ज्ञानियों एवं भक्तों के समुदाय की भावनाएँ भीग गयीं। वे सोचने लगे कि एकान्त में, वन में, पर्वतों की गुफाओं-कन्दराओं में रहकर भगवान के नाम का जाप करना सहज है परन्तु लोक में, संसार में, समाज के बीच रहकर भगवान का सतत स्मरण करते रहना कठिन है। घर-परिवार के कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के बीच, पीड़ा और परेशानियों के बीच, दारूण शोक-सन्ताप से घिरे रहकर, भगवान का गुणानुवाद करना सहज नहीं है। जो अपमान, तिरस्कार के दंश को, जिन्दगी की हर विपदा को अपने प्यारे प्रभु का उपहार मानते हैं, उनसे श्रेष्ठ भक्त भला और कौन होगा? जो जीवन के कष्टों में भावविह्वल मन से भगवान का कीर्तन करते हैं, वही भगवान के सच्चे भक्त हैं क्योंकि वे जानते हैं कि भगवान अपने प्रिय भक्तों के हैं और भक्त अपने प्यारे भगवान के।

भक्त तो वह है जो जानता है कि भगवत्कृपा ही भगवद्विधान है। वह यह भी जानता है कि भगवान का विधान ही उनकी कृपा है, फिर शिकायत कैसी और किससे? वह जीता है इस अनुभूति में- कि चलते जाना है और शिकायत नहीं करनी है। चलते जाना है और अहोभाव से भरे रहना है। चलते जाना है और धन्यवाद देते जाना है। ओठ पर गीत रहे धन्यवाद का और पैर कभी रुके ही न। ऐसा हो सके तो भक्ति। कुन्ती की कथा में सभी को इस भक्ति का स्वाद लगा। दिल भींगे और आँखें छलकीं, गले रूंधे और वाणी मौन हुई। बस मन में विचारों के आरोह-अवरोह के स्वर उठते रहे। भावों में भक्तिकथा के कण बिखरते रहे। इसमें कब कितना समय बीता किसी को पता ही न चला। यह तो जैसे भावसमाधि की दशा थी जिसमें भक्ति-भक्त एवं भगवान मिल रहे थे। सप्तर्षियों सहित देवों-गन्धर्वोंे व सिद्धों का समूह विभोर होता रहा। देवर्षि नारद को भी जैसे अपनी सुधि न रही।

पर महर्षि वशिष्ठ का अन्तर्मन जैसे कथासूत्र को थामे था। वे इसमें आगे की और कई कड़ियाँ पिरोना चाहते थे। उन्होंने बड़ी सहजता से भावभरे नेत्रों से नारद को देखा। ब्रह्मापुत्र नारद, वशिष्ठ के नेत्रों का संकेत समझ गए। उन्होंने नजर उठाकर सभी की ओर देखा। सभी के मुख पर उत्सुकता की आभा थी, जिज्ञासा का प्रकाश था। वे सुनना चाहते थे देवर्षि की देववाणी को। सब के अन्तस के सकारात्मक संवेदनों ने नारद को भी पुलकित किया और उन्होंने भक्तिसूत्र के नवीन सत्य का उच्चार किया-
‘लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्तनात्’॥ ३७॥
लोक समाज में भी भगवद्गुण ‘श्रवण’ और ‘कीर्तन’ से (भक्ति साधन) सम्पन्न होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५१

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...