आत्म साधना का अर्थ है- व्यक्ति चेतना के स्तर को इतना परिष्कृत करना कि उस पर ब्रह्म चेतना के अनुग्रह का अवतरण सहज सम्भव हो सके। आत्म-सत्ता का चुम्बकत्व इस अनुदान को सहज आकर्षित कर सकता है, पहले इसकी महत्ता को जानें तो सही। सूक्ष्म जगत की विभूतियों को पकड़ने हेतु जिस सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, वह अपने आपको जाने बिना सम्भव नहीं। बिजली घर की बिजली, हमारे घर के बल्बों में उछल कर नहीं चली आती। इसके लिए सम्बन्ध जोड़ने वाले मध्यवर्ती तार बिछाने पड़ते हैं। ब्रह्माण्डीय चेतना से सम्बन्ध जोड़ने के लिये आदान-प्रदान के जो सूत्र जोड़े जाते हैं उसके लिये ‘आत्मा’ रूपी ‘सबस्टेशन’ को बड़े ‘पावर हाउस’ से जुड़ सकने योग्य भी बनाया जाता है। इससे कम में आत्मिक उपलब्धियों की सिद्धि सम्भव नहीं।
‘साधना से सिद्धि’ के सिद्धान्त को हृदयंगम करने के पूर्व यह यह समझना होगा कि आत्म-सत्ता का जीवन का, प्रयोजन क्या है। दूरदर्शिता का तकाजा है कि हम शरीर और मन रूपी उपकरणों का प्रयोग जानें और उन्हीं प्रयोजनों में तत्पर रहें, जिनके लिये प्राणिजगत का यह सर्वश्रेष्ठ शरीर- सुरदुर्लभ मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। आत्मा वस्तुतः परमात्मा का पवित्र अंश है। वह श्रेष्ठतम उत्कृष्टताओं से परिपूर्ण है। आत्मा को उसी स्तर का होना चाहिये, जिसका कि परमात्मा है। परमेश्वर ने मनुष्य को अपना युवराज चुना ही इसीलिये है कि वह सृष्टि को और सुन्दर, सुसज्जित बना सकें। उसका चिन्तन और कर्त्तृत्व इसी दिशा में नियोजित रहना चाहिये। यही है आत्मबोध, यही है आत्मिक जीवनक्रम। इसी को अपनाकर- जीवन में उतारकर हम अपने अवतरण की सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं।
आत्मबल का अर्थ है ईश्वरीय बल। इसका अर्थ हुआ परमेश्वर की परिधि में आने वाली समस्त शक्तियों और वस्तुओं पर आधिपत्य। आत्मबल उपार्जित व्यक्ति ही शक्ति का अवतार कहा जाता है। मनोगत दुर्भावनाएँ और शरीरगत दृष्प्रवृत्तियों का जो जितना परिशोधन करता चला जाता है, उसी अनुपात से उसका आत्म तेज निखरता चला जाता है। इससे उस तेजस्वी आत्मा का ही नहीं- समस्त संसार का भी कल्याण होता है।
‘साधना से सिद्धि’ के सिद्धान्त को हृदयंगम करने के पूर्व यह यह समझना होगा कि आत्म-सत्ता का जीवन का, प्रयोजन क्या है। दूरदर्शिता का तकाजा है कि हम शरीर और मन रूपी उपकरणों का प्रयोग जानें और उन्हीं प्रयोजनों में तत्पर रहें, जिनके लिये प्राणिजगत का यह सर्वश्रेष्ठ शरीर- सुरदुर्लभ मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। आत्मा वस्तुतः परमात्मा का पवित्र अंश है। वह श्रेष्ठतम उत्कृष्टताओं से परिपूर्ण है। आत्मा को उसी स्तर का होना चाहिये, जिसका कि परमात्मा है। परमेश्वर ने मनुष्य को अपना युवराज चुना ही इसीलिये है कि वह सृष्टि को और सुन्दर, सुसज्जित बना सकें। उसका चिन्तन और कर्त्तृत्व इसी दिशा में नियोजित रहना चाहिये। यही है आत्मबोध, यही है आत्मिक जीवनक्रम। इसी को अपनाकर- जीवन में उतारकर हम अपने अवतरण की सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं।
आत्मबल का अर्थ है ईश्वरीय बल। इसका अर्थ हुआ परमेश्वर की परिधि में आने वाली समस्त शक्तियों और वस्तुओं पर आधिपत्य। आत्मबल उपार्जित व्यक्ति ही शक्ति का अवतार कहा जाता है। मनोगत दुर्भावनाएँ और शरीरगत दृष्प्रवृत्तियों का जो जितना परिशोधन करता चला जाता है, उसी अनुपात से उसका आत्म तेज निखरता चला जाता है। इससे उस तेजस्वी आत्मा का ही नहीं- समस्त संसार का भी कल्याण होता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
All World Gayatri Pariwar Official Social Media Platform
Shantikunj WhatsApp
8439014110
Official Facebook Page
Official Twitter
Official Instagram
Youtube Channel Rishi Chintan
Youtube Channel Shantikunjvideo
Official Telegram