गुरुवार, 16 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 16 Nov 2023

आत्म साधना का अर्थ है- व्यक्ति चेतना के स्तर को इतना परिष्कृत करना कि उस पर ब्रह्म चेतना के अनुग्रह का अवतरण सहज सम्भव हो सके। आत्म-सत्ता का चुम्बकत्व इस अनुदान को सहज आकर्षित कर सकता है, पहले इसकी महत्ता को जानें तो सही। सूक्ष्म जगत की विभूतियों को पकड़ने हेतु जिस सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, वह अपने आपको जाने बिना सम्भव नहीं। बिजली घर की बिजली, हमारे घर के बल्बों में उछल कर नहीं चली आती। इसके लिए सम्बन्ध जोड़ने वाले मध्यवर्ती तार बिछाने पड़ते हैं। ब्रह्माण्डीय चेतना से सम्बन्ध जोड़ने के लिये आदान-प्रदान के जो सूत्र जोड़े जाते हैं उसके लिये ‘आत्मा’ रूपी ‘सबस्टेशन’ को बड़े ‘पावर हाउस’ से जुड़ सकने योग्य भी बनाया जाता है। इससे कम में आत्मिक उपलब्धियों की सिद्धि सम्भव नहीं।

‘साधना से सिद्धि’ के सिद्धान्त को हृदयंगम करने के पूर्व यह यह समझना होगा कि आत्म-सत्ता का जीवन का, प्रयोजन क्या है। दूरदर्शिता का तकाजा है कि हम शरीर और मन रूपी उपकरणों का प्रयोग जानें और उन्हीं प्रयोजनों में तत्पर रहें, जिनके लिये प्राणिजगत का यह सर्वश्रेष्ठ शरीर- सुरदुर्लभ मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। आत्मा वस्तुतः परमात्मा का पवित्र अंश है। वह श्रेष्ठतम उत्कृष्टताओं से परिपूर्ण है। आत्मा को उसी स्तर का होना चाहिये, जिसका कि परमात्मा है। परमेश्वर ने मनुष्य को अपना युवराज चुना ही इसीलिये है कि वह सृष्टि को और सुन्दर, सुसज्जित बना सकें। उसका चिन्तन और कर्त्तृत्व इसी दिशा में नियोजित रहना चाहिये। यही है आत्मबोध, यही है आत्मिक जीवनक्रम। इसी को अपनाकर- जीवन में उतारकर हम अपने अवतरण की सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं।

आत्मबल का अर्थ है ईश्वरीय बल। इसका अर्थ हुआ परमेश्वर की परिधि में आने वाली समस्त शक्तियों और वस्तुओं पर आधिपत्य। आत्मबल उपार्जित व्यक्ति ही शक्ति का अवतार कहा जाता है। मनोगत दुर्भावनाएँ और शरीरगत दृष्प्रवृत्तियों का जो जितना परिशोधन करता चला जाता है, उसी अनुपात से उसका आत्म तेज निखरता चला जाता है। इससे उस तेजस्वी आत्मा का ही नहीं- समस्त संसार का भी कल्याण होता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 तीन महान् तत्त्व

🔷 अमृत, पारस और कल्पवृक्ष यह तीनों महान् तत्त्व सर्वसाधारण के लिए सुलभ हैं। हम जितना उनसे दूर रहते हैं उतने ही ये हमारे लिए दुर्लभ हैं परन्तु जब हम इनकी ओर कदम बढ़ाते हैं तो यह अपने बिल्कुल पास, अत्यन्त निकट आ जाते हैं। जिस ओर मुँह न हो उधर की चीजों का कोई अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता। पीठ पीछे क्या वस्तु रखी हुई है,  इसका पता नहीं चलता, किन्तु उलट कर जैसे ही हम मुँह फेरते हैं वैसे ही पीछे की चीज जो कुछ क्षण पहले तक अदृश्य थी, दिखाई देने लगती है। यह स्पष्ट है कि जिधर हमारी प्रवृत्ति होती है, जैसी हम इच्छा और आकांक्षाएँ करते हैं उसी के अनुरूप, वस्तुएँ भी उपलब्ध हो जाती है।
  
🔶 कहने को तो सभी कोई सुखदायक स्थिति में रहना और दु:खदायक स्थिति से बचना चाहते हैं, परन्तु यह हीन वीर्य चाहना, शेखचिल्ली के मनसूबों की तरह निष्फल और निरर्थक सिद्ध होती है। सच्ची चाहना की कसौटी यह है कि अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करने की लगन अन्त:करण की गहराई तक समाई हुई  हो। आकांक्षा की तीव्रता का स्पष्ट सबूत अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करने के प्रयत्न में भी जान से जुट जाना है। धुन का पक्का, निश्चित मार्ग का दृढ़  प्रतिज्ञ पथिक अपनी अविचल साधना के द्वारा ऊँचे से ऊँ चे सुदूर लक्ष्य तक आसानी से पहुँच जाता है। इस विश्व में कोई वस्तु ऐसी नहीं है कि मनुष्य सच्चे मन से इच्छा करने पर भी उसे प्राप्त न कर सके। लोभवश अनावश्यक वस्तुओं के संचय की लालसा में प्रकृति के नियम कुछ बाधक भले ही बनें, परन्तु आत्मिक सद्गुणों के विकास द्वारा सात्विक आनन्द प्राप्त करने की आकांक्षा तो सर्वथा उचित और आवश्यक होने के कारण पूर्णतया सरल है, उसकी पूर्ति में ईश्वरीय सहायता प्राप्त होती है। आत्म-कल्याण करने वाले सत् प्रयासों में भगवान् सदा ही अपना सहयोग देते हैं।
  
🔷 अमृत, पारस और कल्पवृक्ष मनुष्य के लिए पूर्णतया सुलभ हैं बशर्ते कि उन्हें प्राप्त करने का सच्चे मन से प्रयत्न किया जाय। अपने अविनाशी होने का दृढ़ विश्वास चिन्तन और मनन द्वारा अपनी अन्त: चेतना में भली प्रकार बिठाया जा सकता है। यह विश्वास इतना मजबूत होना चाहिए कि जीवन के किसी भी प्रश्र पर विचार किया जाय तो उस समय यह विश्वास स्पष्ट रूप से बीच में आ उपस्थित हो कि—यह जीवन, हमारे महा जीवन, अनन्त जीवन का अंश मात्र है। महा जीवन के लाभ-हानि को प्रधानता देने की नीति के आधार पर जीवन की गुत्थियों को सुलझाना चाहिए, उसी के अनुसार कार्यक्रम बनाना चाहिए। जब इस प्रकार का हमारा दृष्टिकोण निश्चित हो जाता है तो जीवन अत्यन्त पवित्र, निर्मल, निष्पाप, शान्तिदायक एवं आनन्दमय हो जाता है। यही अमृत है।
  
🔶 प्रेम की दृष्टि से सबको देखना, आत्मीयता, उदारता, सहानुभूति, सेवा, क्षमा, दया, सुधार, कल्याण, परमार्थ, त्याग के भाव रखकर लोगों से व्यवहार करना ऐसा उत्तम कार्य है, जिसकी प्रतिक्रिया बड़ी उत्तम होती है। व्यक्ति आज्ञाकारी, प्रशंसक, सहायक और सेवक बन जाता है। प्रेम मनुष्य जीवन का पारस है, इसका स्पर्श होते ही नीरस, शुष्क, तुच्छ व्यक्तियों में भी महानता उद्भुत होने लगती है। रोती हुई दुनियाँ को हँसती सूरत में बदल देने का जादू प्रेम में ही है। इसीलिए उसे पारस कहते हैं।
  
🔷 परिश्रम से, उद्योग से, कष्ट सहन से, अध्यवसाय से, कठिन से कठिन लक्ष्य तक मनुष्य पहुँच जाता है। तप से सारी सम्पदाएँ मिलती हैं। शक्ति संचय, परिश्रम, उत्साह, दृढ़ता, लगन यही तप के लक्षण हैं, जिसे तप की आदत है कल्पवृक्ष उसकी मुट्ठी में हैं, उसकी कोई इच्छा अधूरी न रहेगी, वह जो चाहेगा, वही प्राप्त कर लेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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