गुरुवार, 16 जनवरी 2020

Aastikata Aur Sajjanata Ki Riti Niti | आस्तिकता और सज्जनता की रीति नीति ...



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👉 पीला पत्ता क्यों गिरा?


👉 मानसिक आरोग्य का आधार

शरीर रोगी होने से देह दुख पाती है; मन रोगी होने पर हमारा अन्तःकरण नरक की आग में झुलसता रहता है। कई व्यक्ति देह से तो निरोग दीखते हैं पर भीतर ही भीतर इतने अशान्त और उद्विग्न रहते हैं कि उनका कष्ट रोगग्रस्तों से भी कहीं अधिक दिखाई पड़ता है। ईर्ष्या द्वेष, क्रोध, प्रतिशोध की आग में जो लोग जलते रहते हैं उन्हें आग से जलने पर छाले पड़े हुए रोगी की अपेक्षा अधिक अशान्ति और उद्विग्नता रहती है। घाटा, अपमान, भय, आशंका, चिन्ता, शोक, असफलता, निराशा आदि कारणों से खिन्न बने हुए मन में इतनी गहरी व्यथा होती है कि उससे छूटने के लिए कई तो आत्म-हत्या तक कर बैठते हैं और कइयों से उसी उद्वेग में ऐसे कुकृत्य बन पड़ते हैं जिनके लिए उन्हें जीवन भर पश्चात्ताप करना पड़ता है। ओछी तबियत के कुछ आदमी हर किसी को बुरा समझने, हर किसी में बुराई ढूँढ़ने के आदी होते हैं, उन्हें बुराई के अतिरिक्त और कुछ कहीं भी-दीख नहीं पड़ता। ऐसे लोगों को यह दुनिया काली डरावनी रात की तरह और हर आदमी प्रेत-पिशाच की तरह भयंकर आकृति धारण किये चलता-फिरता नजर आता है। इस प्रकार की मनोभूमि के लोगों की दयनीय दशा का अनुमान लगाने में भी व्यथा होती है।

क्रूर, निर्दयी, अहंकारी, उद्दंड, दस्यु, तस्कर, ढीठ, अशिष्ट, गुंडा प्रकृति के लोगों के शिर पर एक प्रकार का शैतान हर घड़ी चढ़ा रहता है। नशे में मदहोश उन्मत्त की तरह उनकी वाणी, क्रिया एवं चेष्टाएँ होती हैं। कुछ भी आततायीपन वे कर गुजर सकते हैं। तिल को ताड़ समझ सकते हैं, खटका मात्र सुनकर क्रुद्ध विषधर सर्प की तरह वे किसी पर भी हमला कर सकते हैं। ऐसी पैशाचिक मनोभूमि के लोगों के भीतर श्मशान जैसी प्रतिहिंसा और दर्प की आग जलती हुई प्रत्यक्ष देखी जा सकती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 QUERIES ABOUT JAP AND DAILY UPASANA (Part 2)

Q.4. What is the most suitable time of the day for Upasana?  

Ans. Brahm Muhoort i.e. an hour before sunrise in the morning, and just before sunset in the evening to an hour thereafter bring forth maximum result. During day Upasana may be carried out any time according to one’s convenience. Although a fixed routine in timings is recommended yet it is not mandatory. As a matter of fact, mental Jap may be carried on even while walking, travelling or lying on the bed. (The movements of lips, vocal chord and tongue are forbidden in the latter case.)

Q.5. Is  Gayatri Jap permissible during night time?

Ans. Sages had advised Jap during the day-time for two reasons. One: the nights are meant exclusively for rest. Any activity during the night (including Upasana) is likely to affect one’s health.
Two: since Sun is the deity of Gayatri, the radiations from the Sun are readily obtained from sunlight during day. Nevertheless, Upasana during the night is not a taboo. One may choose his own convenient time for Jap without any apprehension regarding the procedure.

Q.6. Is Jap permissible along-with other activities?

Ans. One may perform Jap even while walking or without taking a bath or during other physical activities. On such occasions, however, it should only be a mental process without movement of lips, larynx and tongue. Instead of taking the help of a rosary, a clock may be used for keeping a count.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 52

👉 सच्ची सम्पदा एवं विभूतियाँ

धन, यश, स्वास्थ्य, विद्या, सहयोग आदि विभूतियों के आधार पर इस संसार में नाना प्रकार की सम्पदायें और सुविधायें प्राप्त की जाती हैं। और यह विभूतियाँ मनुष्य की मानसिक स्थिति के अनुरूप आती या चली जाती हैं। भाग्य, देवता, ईश्वर, परिस्थिति आदि को भी दुख−सुख का कारण माना जाता है, पर थोड़ी और गहराई तक जाने पर यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि भाग्य एवं ईश्वर का वरदान एवं अभिशाप भी मनुष्य के अपने विचारों एवं कार्यों के आधार पर ही प्राप्त होता है। न तो ईश्वर अन्यायी है और न भाग्य लिखने वाला विधाता बावला है जो जिसका प्रारब्ध बिना विचारे चाहे जैसा लिख डाला करे। इस बाह्य जगत में अव्यवस्था चल भी सकती है, यहाँ रिश्वत, पक्षपात या भूल−चूक की गुँजाइश रहती है, पर सूक्ष्म जगत में ईश्वरीय विधान एवं कार्यफल के क्षेत्र में किसी प्रकार की गड़बड़ी संभव नहीं। वहाँ मनुष्य का कर्तृत्व ही परखा जाता है और उसी आधार पर प्रारब्ध का निर्माण किया जाता है। वस्तुतः पुरुषार्थ ही प्रारब्ध बनकर सामने आया हुआ है। आज का पुरुषार्थ अगले कल प्रारब्ध बनने वाला है। कर्म और उसका फल मिलने में देर−सवेर का जो अंतर रह जाता है वही भाग्य और ईश्वर को हमारे कर्म से बाहर की कोई स्वतन्त्र वस्तु मानने का भ्रम पैदा करता है। वस्तुतः कर्म ही प्रधान है। उसी का नाम आगे−पीछे भाग्य बन जाता है। मीठे दूध का नाम गुण और रूप भी तो समयानुसार बदलकर खट्टे गाढ़े दही के रूप में हो जाता है। प्रारब्ध और पुरुषार्थ का अन्तर भी दूध और दही जैसा ही नाममात्र का है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 21

👉 सद्गुरु प्रेम

प्रेम के दो पहलू हैं- विरह और मिलन। जिसने प्रेम किया है, वही इस सच को जान सकता है। प्रेम सद्गुरु से हो तो यह सच और भी सघन हो जाता है। प्रेम का पहला अनुभव विरह में होता है और इस अनुभव की पूर्णता मिलन में आती है। विरह न हो तो मिलन कभी होता ही नहीं है। ऐसे में सद्गुरु मिल भी जाय तो उनकी पहचान ही नहीं हो पाती। उन्हें अपने जैसा मनुष्य समझने का भ्रम बना रहता है। उनके अस्तित्व में व्याप्त गुरुतत्त्व से परिचय-पहचान और उसमें अपने व्यक्तित्व का समर्पण-विसर्जन-विलय नहीं बन पड़ता।
  
विरह में व्यक्तित्व पकता है- उसमें जन्म होता है साधक का, भक्त का और शिष्य का। इस अवस्था में चुभते हैं अनेक प्रश्न कंटक, होती हैं अनगिन परीक्षाएँ, तब आती है मिलन की उपलब्धि। सच यही है कि विरह तैयारी है और मिलन उपलब्धि। आँसुओं से रास्ते को पाटना पड़ता है तभी मिलता है सद्गुरु के मन्दिर का द्वार। रो-रोकर काटनी पड़ती है विरह की लम्बी रात, तभी आती है मिलन की सुबह। जिसकी आँखें जितनी ज्यादा रोती हैं, उसकी सुबह उतनी ही ताजा होती है। जितने आँसू बहे होते हैं, उतने ही सुन्दर सूरज का जन्म होता है।
  
शिष्य के विरह पर निर्भर है कि उसका सद्गुरु मिलन कितना प्रीतिकर, कितना गहन और कितना गम्भीर होगा। जो आसानी से मिलता है, वह आसानी से बिछुड़ता भी है। मिलकर कभी भी न बिछुड़ने वाले सद्गुरु बहुत रोने के बाद ही मिलते हैं। और आँसू भी साधारण आँसू नहीं, हृदय ही जैसे पिघल-पिघल कर आँसुओं में बहता है। जैसे रक्त आँसू बन जाता है, जैसे प्राण ही आँसू बन जाते हैं।
  
विरह अवस्था है पुकार की। शिष्य को भरोसा है कि सद्गुरु हैं तो अवश्य, पर न जाने क्यों दीख नहीं रहे। विरह का अर्थ है कि हम तुम्हें तलाशेंगे। कितनी ही हो कठिन यात्रा, कितनी ही दुर्गम क्यों न हो, हम सब दाँव पर लगाएँगे, मगर तुमसे मिलकर ही रहेंगे, शिष्य का हृदय चीत्कार कर हर पल यही कहता है, तुम जो अदृश्य हो तुम्हें दृश्य बनना ही होगा। तुम जो दूर स्पर्श के पार हो, तुमसे आलिंगन करना ही होगा।
  
अदृश्य हो चुके अपने सद्गुरु से आलिंगन की आकांक्षा, उनके अदृश्य रूप को अपनी आँखों में भर लेने की आकांक्षा विरह है। शिष्य के लिए इसमें कड़ी अग्नि परीक्षाएँ हैं। उसे गलना, जलना और मिटना पड़ता है। जिस दिन राख-राख हो जाता है उसका अस्तित्त्व, उस दिन उसी राख से सद्गुरु का मिलन प्रारम्भ हो जाता है। और तभी आती है सद्गुरु प्रेम की पूर्णता।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १६२

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...