रविवार, 11 फ़रवरी 2018

👉 ‘उपासना’ की सफलता ‘साधना’ पर निर्भर है। (भाग 4)

🔶 पाप और पुण्य का उचित और अनुचित का अन्तर उनका दंड पुरस्कार ही मानव-समाज के भौतिक मेरुदंड को सीधा रखे हुए है। यदि उसे ही तोड़ दिया जाय तो फिर व्यक्ति और समाज की आचार संहिता का ईश्वर ही रक्षक है। पूजा उपासना का प्रयोजन मनुष्य को ईश्वर- विश्वासी अर्थात् धर्म मर्यादाओं का पालन करने के लिए व्रत-बन्ध धारण किये रहने वाला है। यदि पूजा पाप-दंड से मुक्ति दिलाती है तो फिर यही कहना पड़ेगा कि वह नैतिक, मानवीय धार्मिक और आत्मिक मूलभूत आधारों को ही नष्ट करेगी। ऐसी दशा में यह पूजा वस्तुतः नास्तिकता से भी महंगी पड़ेगी, पिछले दिनों यही हुआ है यही बताया सिखाया गया है। कथा-वार्ताओं में हम यही सुनने पढ़ते हैं, गुरु लोगों के पास यही सबसे बड़ा आकर्षण अपने मंत्र के पक्ष में है। भोले लोग सस्ते मोल में परमदंड की बहुत बड़ी विपत्ति से बचने के लिए फंसते हैं और दुहरी हानि भुगतते हैं। ईश्वरीय अकाट्य नियम इतने सरल नहीं है कि तनिक सी पूजा से छुई-मुई होकर सूख जायें। वे अत्यन्त कठोर हैं। विश्व का कण-कण उनकी पकड़ में जकड़ा हुआ है। ईश्वर को कोई पूजे या गाली दे, विश्व-व्यवस्था कर्मफल की अपरिहार्य प्रक्रिया में तनिक भी ढील करने वाली नहीं है। ऐसी दशा में पूजा जिस प्रलोभन से की गई थी, ईश्वर की प्रसन्नता की जिस आधार पर आशा बाँधी गई थी, वह बालू के महल की तरह ढह जाता है।

🔷 उपासना की सफलता का एक मात्र कारण है आत्मिक प्रगति की पहली मंजिल ‘साधना’ की उपेक्षा। गुण-कर्म स्वभाव का परिष्कार साधना का मूलभूत उद्देश्य है। उसका स्वरूप है आत्म-बोध, आत्म-चिन्तन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, आत्म-विकास। यही आत्म देव का सच्चा पंचोपचार पूजन है। जो उसे कर सकता है उसी की पूजा उपासना सफल होती है। निराकार निर्विकार परमेश्वर की साकार प्रतिमा उपासना को व्यावहारिक रूप देने के लिए बनाई जाती है। इसी प्रकार जल, दीप, नैवेद्य, पुष्प, चन्दन के पंच विधि पूजा उपकरण प्रयुक्त किये जाते हैं। इस देवार्पण के पीछे जीवन साधना की ओर इंगित करने वाला गहन तत्वज्ञान सन्निहित है। उसे यदि न समझा जाए और मात्र उपासनात्मक कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मान लिया जाए तो यही कहना पड़ेगा कि यथार्थता को भुला कर विडम्बना की उलझन में पैर फंसा दिया गया।

🔶 उपासना की पूर्व भूमिका जीवन साधना से आरम्भ होती है। तपश्चर्या का प्रयोजन मनोभूमि पर छाये हुए कुसंस्कारों का निराकरण है। एक बार समझ लेना चाहिए कि साधना ‘सर्फ’ पाउडर है और उपासना ‘टिनोपाल’ कपड़े को जर्क-वर्क धुला हुआ बनाना हो तो दोनों का उपयोग करना चाहिए। कपड़े को ‘सर्फ’ में धोकर मल रहित करना चाहिए और तदनन्तर ‘टिनापोल’ की नीली झलक देनी चाहिए। यह भूल नहीं करनी चाहिए कि धोने में बहुत झंझट समझ कर उसे उपेक्षित विस्मृत कर दिया जाय और मात्र टिनोपाल के छींटे लगाकर चमचमाते वस्त्र पहनने की आशा रखी जाय।'

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1972 पृष्ठ 8

http://literature.awgp.org/hindi/akhandjyoti/1972/May/v1.8

👉 असीम शांति

🔶 एक साधक ने अपने दामाद को तीन लाख रूपये व्यापार के लिये दिये। उसका व्यापार चल गया लेकिन उसने रूपये ससुरजी को नहीं लौटाये। आखिर दोनों में झगड़ा हो गया  झगड़ा इस सीमा तक बढ़ गया कि दोनों का एक दूसरे के यहाँ आना जाना बिल्कुल बंद हो गया। घृणा व द्वेष का आंतरिक संबंध अत्यंत गहरा हो गया। साधक हर समय हर संबंधी के सामने अपने दामाद की निंदा, निरादर व आलोचना करने लगे। उनकी साधना लड़खड़ाने लगी। भजन पूजन के समय भी उन्हें दामाद का चिंतन होने लगा। मानसिक व्यथा का प्रभाव तन पर भी पड़ने लगा। बेचैनी बढ़ गयी। समाधान नहीं मिल रहा था। आखिर वे एक संत के पास गये और अपनी व्यथा कह सुनायी।

🔷 संत श्री ने कहाः 'बेटा ! तू चिंता मत कर। ईश्वर कृपा से सब ठीक हो जायेगा। तुम कुछ फल व मिठाइयाँ लेकर दामाद के यहाँ जाना और मिलते ही उससे केवल इतना कहना, बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा कर दो।'

🔶 साधक ने कहाः "महाराज ! मैंने ही उसकी मदद की है और क्षमा भी मैं ही माँगू !"

🔷 संत श्री ने उत्तर दियाः "परिवार में ऐसा कोई भी संघर्ष नहीं हो सकता, जिसमें दोनों पक्षों की गलती न हो। चाहे एक पक्ष की भूल एक प्रतिशत हो दूसरे पक्ष की निन्यानवे प्रतिशत, पर भूल दोनों तरफ से होगी।"

🔶 साधक की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसने कहाः "महाराज ! मुझसे क्या भूल हुई ?" "बेटा ! तुमने मन ही मन अपने दामाद को बुरा समझा...अपनी इस भूल से तुमने अपने दामाद को दुःख दिया है। तुम्हारा दिया दुःख ही कई गुना हो तुम्हारे पास लौटा है। जाओ, अपनी भूलों के लिए क्षमा माँगो। नहीं तो तुम न चैन से जी सकोगे, न चैन से मर सकोगे। क्षमा माँगना बहुत बड़ी साधना है।"

🔷 साधक की आँखें खुल गयीं। संत श्री को प्रणाम करके वे दामाद के घर पहुँचे। सब लोग भोजन की तैयारी में थे। उन्होंने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा उनके दोहते ने खोला। सामने नाना जी को देखकर वह अवाक् सा रह गया और खुशी से झूमकर जोर जोर से चिल्लाने लगाः "मम्मी ! पापा !! देखो तो नाना जी आये हैं, नाना जी आये हैं....।"
माता पिता ने दरवाजे की तरफ देखा। सोचा, 'कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे !' बेटी हर्ष से पुलकित हो उठी, 'अहा ! पन्द्रह वर्ष के बाद आज पिता जी आये हैं।' प्रेम से गला रूँध गया, कुछ बोल न सकी। साधक ने फल व मिठाइयाँ टेबल पर रखीं और दोनों हाथ जोड़कर दामाद को कहाः "बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा करो।"

🔶 "क्षमा" शब्द निकलते ही उनके हृदय का प्रेम अश्रु बनकर बहने लगा। दामाद उनके चरणों में गिर गये और अपनी भूल के लिए रो-रोकर क्षमा याचना करने लगे। ससुरजी के प्रेमाश्रु दामाद की पीठ पर और दामाद के पश्चाताप व प्रेममिश्रित अश्रु ससुरजी के चरणों में गिरने लगे। पिता पुत्री से और पुत्री अपने वृद्ध पिता से क्षमा माँगने लगी। क्षमा व प्रेम का अथाह सागर फूट पड़ा। सब शांत, चुप ! सबकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। दामाद उठे और रूपये लाकर ससुर जी के सामने रख दिये। ससुरजी कहने लगेः "बेटा ! आज मैं इन कौड़ियों को लेने के लिए नहीं आया हूँ। मैं अपनी भूल मिटाने, अपनी साधना को सजीव बनाने और द्वेष का नाश करके प्रेम की गंगा बहाने आया हूँ।
मेरा आना सफल हो गया, मेरा दुःख मिट गया। अब मुझे आनंद का एहसास हो रहा है।"

🔷 दामाद ने कहाः "पिताजी ! जब तक आप ये रूपये नहीं लेंगे तब तक मेरे हृदय की तपन नहीं मिटेगी। कृपा करके आप ये रूपये ले लें।" साधक ने दामाद से रूपये लिये और अपनी इच्छानुसार बेटी व नातियों में बाँट दिये। सब कार में बैठे, घर पहुँचे। पन्द्रह वर्ष बाद उस अर्धरात्रि में जब माँ-बेटी, भाई-बहन, ननद-भाभी व बालकों का मिलन हुआ तो ऐसा लग रहा था कि मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये वहाँ पहुँच गया हो। सारा परिवार प्रेम के अथाह सागर में मस्त हो रहा था। क्षमा माँगने के बाद उस साधक के दुःख, चिंता, तनाव, भय, निराशा सब मिट गये और उसके अंदर असीम शांति आ गयी...

🔶 क्षमा मांग लेना और क्षमा कर देना आपको दिव्यता से भर देते हैं।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 12 Feb 2018


👉 आज का सद्चिंतन 12 Feb 2018


👉 धर्म धारणा की व्यवहारिकता

🔷 शान्ति के साधारण समय में सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र मालखाने में जमा रहते हैं; पर जब युद्ध सिर पर आ जाता है, तो उन्हें निकाल कर दुरुस्त एवं प्रयुक्त किया जाता है। तलवारों पर नये सिरे से धार धरी जाती है। घर के जेवर आमतौर से तिजोरी में रख दिये जाते हैं; पर जब उत्सव जैसे समय आता है, उन्हें निकालकर इस प्रकार चमका दिया जाता है, मानो नये बनकर आये हों। वर्तमान युगसंधि काल में अस्त्रों-आभूषणों की तरह प्रतिभाशालियों को प्रयुक्त किया जायेगा। व्यक्तियों को प्रखर प्रतिभा सम्पन्न करने के लिए यह आपत्तिकाल जैसा समय है। इस समय उनकी टूट-फूट को तत्परतापूर्वक सुधारा और सही किया जाना चाहिए।
  
🔶 अपनी निज की समर्थता, दक्षता, प्रामाणिकता और प्रभाव-प्रखरता एक मात्र इसी आधार पर निखरती है कि चिंतन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश हो। अनगढ़, अस्त-व्यस्त लोग गई-गुजरी जिन्दगी जीते हैं। दूसरों की सहायता कर सकना तो दूर, अपना गुजारा तक जिस-तिस के सामने गिड़गिड़ाते, हाथ पसारते या उठाईगिरी करके बड़ी कठिनाई से ही कर पाते हैं; पर जिनकी प्रतिभा प्रखर है, उनकी विशिष्टताएँ मणि-मुक्तकों की तरह झिलमिलाती हैं, दूसरों को आकर्षित- प्रभावित भी करती हैं और सहारा देने में भी समर्थ होती हैं। सहयोग और सम्मान भी ऐसों के ही आगे-पीछे चलता है। बीमारियों, कठिनाइयों और तूफानों से वे ही बच पाते हैं, जिनकी जीवनी शक्ति सुदृढ़ होती है।
  
🔷 समर्थता को ओजस्, मनस्विता को तेजस्ï और जीवट को वर्चस्ï कहते हैं। यही हैं वे दिव्य सम्पदाएँ, जिनके बदले इस संसार के हाट-बाजार से कुछ भी मनचाहा खरीदा जा सकता है। दूसरों की सहायता भी वे लोग ही कर पाते हैं, जिनके पास अपना वैभव और पराक्रम हो। अगले दिनों ऐसे ही लोगों की पग-पग पर जरूरत पड़ेगी, जिनकी प्रतिभा सामान्य जनों की तुलना में कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हो, संसार के वातावरण का सुधार वे ही कर सकेंगे, जिन्होंने अपने आपको सुधार कर यह सिद्ध कर दिया हो कि उनकी सृजन-क्षमता असंदिग्ध है। परिस्थितियों की विपन्नता को देखते हुए उन्हें सुधारे जाने की नितांत आवश्यकता है; पर इस अति कठिन कार्य को कर वे ही सकेंगे, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत करके यह सिद्ध कर दिया हो कि वे आड़े समय में कुछ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकने में सफल हो सकते हैं। इस स्तर को उपलब्ध कर सकने की कसौटी एक ही है-अपने व्यक्तित्व को दुर्गुणों से मुक्त करके, सर्वतोमुखी समर्थता से सम्पन्न कर लिया हो। सद्गुणों की सम्पदा प्रचुर परिणाम में अर्जित कर ली हो।
  
🔶 दूसरों को कैसा बनाया जाना चाहिए। इसके लिए मण्डल विनिर्मित करना होगा। उपकरण ढालने के लिए तदनुरूप साँचा बनाये बिना काम नहीं चलता। लोग कैसे बनें? कैसे बदलें? इस प्रयोग को सर्वप्रथम अपने ऊपर ही किया जाना चाहिए और बताया जाना चाहिए कि कार्य उतना कठिन नहीं है, जिनका कि समझा जाता है। हाथ-पैरों की हरकतें इच्छानुसार मोड़ी-बदली जा सकती हैं, तो कोई कारण नहीं है कि अपनी निज की प्रखरता को सदगुणों से सुसज्जित करके चमकाया-दमकाया न जा सके।
  
🔷 पिछले दिनों किसी प्रकार आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा और अनगढ़ता की स्थिति भी सहन की जाती थी; पर बदलते युग के अनुरूप अब तो हर किसी को अपने को नये युग का नया मनुष्य बनाने की होड़ लगानी पड़ेगी, ताकि उस बदलाव का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए, समूचे समाज को, सुविस्तृत वातावरण को बदले जाने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं विवश और बाधित भी किया जा सके।
  
🔶 काया-कलेवर जिसका जैसा ढल चुका है, वह प्राय: उसी आकार-प्रकार का रहेगा; पर गुण, कर्म, स्वभाव में अभीष्टï उत्कृष्टता का समावेश करते हुए ऐसा कुछ चमत्कार उत्पन्न किया जा सकता है, जिसके कारण इसी काया में देवत्व के दर्शन हो सकें। किसी अंधे के हाथ बटेर लग पाती हैं; किन्तु एक देवता ऐसा भी है, जिसकी समुचित साधना करने पर सत्परिणाम हाथों-हाथ नकद धर्म की तरह उपलब्ध होते देखे जा सकते हैं। वह देवता है- जीवन। इसका सुधरा हुआ स्वरूप ही कल्पवृक्ष है।  

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 ध्यानयोग की सफलता शान्त मनःस्थिति पर निर्भर है (अन्तिम भाग)

🔷 मस्तिष्क पर क्रोध, शोक, भय, हानि, असफलता, आतंक आदि के कारण वश आवेश आते हैं पर वे स्थायी नहीं होते कारण समाप्त होने अथवा बात पुरानी होने पर शिथिल एवं विस्मृत हो जाते हैं। उनका प्रभाव चला जाता है। पर कामनाओं की उत्तेजना ऐसी है जो निरन्तर बनी रहती है और दर्द की तरह मनः संस्थान में आवेश की स्थिति बनाये रहती है। घृणा, द्वेष, प्रतिशोध, आशंका, जैसे निषेधात्मक और लोभ, मोह, अहंता, वैभव, सत्ता, पद, यश, भोग, प्रदर्शनी जैसी भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं की विधेयात्मक कामनायें यदि उग्र हों तो दिन-रात सोते जागते कभी चैन नहीं मिल सकता और अपना अन्तःकरण निरन्तर उद्विग्न उत्तेजित बना रहता है। यह स्थिति ध्यान साधना के लिये-ब्रह्म सम्बन्ध के लिये सर्वथा अनुपयुक्त है।

🔶 शरीर, मन और भाव संस्थान को जितना अधिक शिथिल, शान्त, रिक्त, किया जा सके उतनी ही आत्म साधना के उपयुक्त मनोभूमि का निर्माण होता है कहना न होगा कि ऐसी स्थिति का अभ्यास कर लेने का प्रथम चरण पूरा कर लिया उनके ध्यान की सफलता एक प्रकार से सुनिश्चित ही हो जाती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1973 पृष्ठ 51
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1973/March/v1.51

👉 व्यवहार में औचित्य का समावेश करें (भाग 5)

🔶 मनीषियों ने क्रोध की निन्दा की है, किन्तु मन्यु को सराहा है। बाहर से देखने में दोनों ही तीखेपन के प्रतीक हैं, फिर भी उनमें एक मौलिक अन्तर यह है कि क्रोधी अपना सन्तुलन बिगाड़ लेता है, विवेक खो बैठता है। वह इस योग्य नहीं रहता कि संकट का सामना करने के लिए किसी साहसिकता और दूरदर्शी सूझबूझ का परिचय देना चाहिए। क्रोध दुहरी मुसीबत है। एक आक्रमण द्वारा पहुँचायी जाने वाली हानि और दूसरी अपने आपको सन्निपातग्रस्त अर्धविक्षिप्त की स्थिति में डाल देने की न्यौत बुलाई गई मुसीबत। क्रोधी घाटे में रहता है। विपत्ति को दूनी बढ़ा लेता है। मन्यु उस स्थिति का नाम है जिसमें आवेशग्रस्त न होकर अवांछनीयता से निपटने का कडुआ-मीठा उपाय सोचा और किया जाता है।

🔷 व्यक्तिगत हानि या अपमान पर क्रोध आता है जबकि दुष्टता द्वारा शालीनता को दी गई चुनौती के विरुद्ध उभरने वाले आक्रोश को मन्यु कहते हैं। आवश्यक नहीं कि यह अपने ऊपर आक्रमण होने पर ही उत्पन्न हो। कहीं भी अनाचार का अट्टहास देखकर मन्यु उभर सकता है और उसे निरस्त करने के लिए योजनाबद्ध निर्धारण कर सकता है। ऐसे शौर्य साहस में व्यक्तिगत शत्रुता नहीं वरन् दुष्टताजन्य उच्छृंखलता की कमर तोड़ देने जैसा भाव रहता है। भगवान राम ने असुरों द्वारा सताये गये ऋषियों का अस्थि समूह देखकर मन्यु व्यक्त किया था और ‘निशिचरहीन करौ मही’, ‘भुज उठाय प्रण कीन’ का संकल्प उद्घोष किया था।

🔶 अनीति से कौन, कब, कितना, किस प्रकार लड़ सकता है, इसकी रणनीति परिस्थिति के अनुरूप बननी चाहिए, किन्तु न्यूनतम इतना तो करना ही चाहिए कि अनाचार का समर्थन किसी भी स्थिति में न किया जाय, किसी भी कीमत पर उसे सहयोग न दिया जाय। न कभी दुरात्माओं की प्रशंसा करें और न उनके साथ घनिष्ठता बनाये रखकर परोक्ष रूप से अनीति का समर्थन करें। ऐसे लोगों के साथ असहयोग न्यूनतम प्रतिरोध है। इससे कम में तो किसी भी प्रकार बात बनती नहीं। अपनी असहमति और नाराजगी तो किसी न किसी रूप में प्रकट होती ही रहनी चाहिए। इतने से भी दुष्टता सहते रहने या उदासी उपेक्षा दिखाने से तो उस तथाकथित भलमनसाहत का गलत अर्थ लगता है और शांति हो जाने की आशा में सफल होने की अपेक्षा अशान्ति के और नये आधार उभरते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 How to live our life? (Part 3)

🔶 It is our job to follow what BHAGWAN desires of us. To rule over BHAGWAN, to put before BHAGWAN a new wish each day is a kind of prostitution. None of us should adorn BHAGWAN for worldly things rather it should be for partnership with BHAGWAN, for remembering BHAGWAN, for following BHAGWAN and for dedicating ourselves to BHAGWAN. if you do that kind of UPASANA, then I assure you that your UPASANA will bear fruits, you will get peace inside, not only internal satisfaction your personality will develop too and the ultimate outcome of personality development is that man acquires both material and spiritual successes in a full-fledged manner.
                                        
🔷 I request you to live a life which is light, happy and cheerful equally for both you and others only then you will get all pleasures of life. If you break into, you will be in loss. You must live your life to meet your obligations. Live happily. Live like a gardener and like an owner. If we live with mentality of a gardener, we will find enough whatever could be done to discharge our duties. The life of an owner happens to be very grave. The owner happens to be anxious about success or failure whereas a gardener is only concerned about whether he could discharge his duties rightly or not?
                                        
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 जीवंत विभूतियों से भावभरी अपेक्षाएँ (भाग 1)

(१७ अप्रैल १९७४ को शान्तिकुञ्ज में दिया गया उद्बोधन)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलें, 
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

🔷 देवियो, भाइयो! भगवान् ने गीता में ‘विभूति योग’ वाले दसवें अध्याय में एक बात बताई है कि जो कुछ भी यहाँ श्रेष्ठ दिखाई पड़ता है, ज्यादा चमकदार दिखाई पड़ता है, वह मेरा ही विशेष अंश है। जहाँ कहीं भी चमक ज्यादा दिखाई पड़ती है, वह मेरा विशेष अंश है। उन्होंने कहा, वृक्षों में मैं पीपल हूँ। छलों में मैं जुआ हूँ। वेदों में मैं सामवेद हूँ। साँपों में वासुकी मैं हूँ। अमुक में अमुक मैं हूँ-आदि मुझ में ये सारी विशेषताएँ हैं। मित्रो! आपको जहाँ-कहीं भी चमक दिखाई पड़ती है, वो सब भगवान् की विशेष दिव्य विभूतियाँ हैं और जहाँ कहीं भी जितना अधिक विभूतियों का अंश है, यह मानकर के हमको चलना पड़ेगा कि यहाँ इस जन्म में अथवा पहले जन्मों में इन्होंने किसी प्रकार से इस संपत्ति का उपार्जन किया है। अगर यह उपार्जन इन्होंने नहीं किया है, तो सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा उनमें ये विशेषता क्यों दिखाई पड़ती हैं? जिनके अंदर कुछ विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं, मित्रो! उनके कुछ विशेष कर्तव्य और विशेष जिम्मेदारियाँ हैं। इसलिए उनको उद्बोधन करना चाहिए। उन लोगों को, जिनके अंदर कुछ विशेष प्रभाव और विशेष चमक दिखाई पड़ती है।

🔶 मित्रो! विशेष प्रभाव और विशेष चमक क्या है? वह है जिनको हम विभूतियाँ कहते हैं। कुछ संपदाएँ होती हैं, कुछ विभूतियाँ होती हैं। संपदाएँ क्या होती हैं और विभूतियाँ क्या होती हैं? संपदा उसे कहते हैं जो कि बाप-दादों की हैं। वे उसे छोड़कर चले जाते हैं और हम उस कमाई को बैठकर खाया करते हैं, ये संपदाएँ हैं। ये स्त्रियों को भी मिल जाती हैं, बच्चों को भी मिल जाती हैं। ये कोढ़ियों को भी मिल जाती हैं, अंधों को मिल जाती हैं और पंगु को भी मिल जाती हैं- गूँगे-बहरे को भी मिल जाती हैं।

🔷 गूँगे-बहरे भी कई बार जुआ खेलते हैं और लाटरी लगाते हैं। लाटरी लगाने के बाद में उनको रुपया भी मिल जाता है। न मालूम किसको क्या मिल जाता है बाप-दादों की कमाई से? बाप-दादों की कमाई से मिनिस्टरों के लड़के-लड़कियों को ऐसे-ऐसे काम मिल जाते हैं, ऐसे-ऐसे धंधे मिल जाते हैं, जिससे उनको घर बैठे लाखों रुपए की आमदनी होती रहती है। इसे क्या कहते हैं? इसे हम संपदा कहते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 39)

👉 गुरुकृपा से असंभव भी संभव है

🔶 गुरुगीता गुरुभक्ति का सुमधुर गायन है। सद्गुरु भक्ति से साधक को सब कुछ सहज, सुलभ हो जाता है। गुरु प्रेम की छाँव में रहने वाला शिष्य जीवन के सभी विघ्नों-बाधाओं से अनायास ही सुरक्षित-संरक्षित रहता है। धन्य हैं वे लोग, जिनके अन्तःकरण में गुरु भक्ति का उदय हुआ है; क्योंकि इसके उदय होने से साधक का अन्तःकरण सदा ही दिव्य आलोक से आलोकित रहता है। अध्यात्मविद्या की सभी रहस्यात्मक प्रक्रियाएँ अपने आप ही उसके अन्तःकरण में स्फुरित होती रहती हैं। अनेकों अलौकिक अनुभव उसे हर क्षण धन्य करते रहते हैं। इन पंक्तियों में जो कुछ कहा जा रहा है, वह केवल वैचारिक-तार्किक यथार्थ भर नहीं है, बल्कि समर्पण पथ पर चल पड़े साधकों के अनुभवों का सार है। इसे प्रत्येक साधक आज, अभी और इन्हीं क्षणों में अनुभव कर सकता है।
    
🔷 गुरु भक्ति की इस तत्त्व कथा के पिछले क्रम में परम पूज्य गुरुदेव के इसी चैतन्य तत्त्व की अनुभूति कराने का प्रयास किया गया है। गुरुदेव सृष्टि में चल रहे उत्पत्ति एवं प्रलय रूप नाटक के नित्य साक्षी हैं। वे प्रभु जिस भी दिशा में विराज रहे हों, उसी दिशा में शिष्य को भक्तिपूर्वक पुष्पाञ्जलि अर्पित करना चाहिए। श्री गुरुदेव ही परात्पर एवं परम गुरु हैं। तीनों नाथ गुरु उनमें समाए  हैं। उन्हीं में गणपति का वास है। तन्त्र साधना के तीनों रहस्यमय पीठ उन्हीं में हैं। अष्ट भैरव, विरंचि चक्र, सभी मण्डल, पंचवीर, नवमुद्राएँ, चौसठ योगिनियाँ, सभी मातृकाएँ उन गुरुदेव के ही चेतना मण्डल में अवस्थित हैं। साधना की जितनी भी प्रक्रियाएँ हैं, उन सभी का कोई भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व उनसे अलग नहीं है। सभी कुछ उन्हीं शिष्यवत्सल प्रभु में समर्पित है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 64

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...