🔶 पाप और पुण्य का उचित और अनुचित का अन्तर उनका दंड पुरस्कार ही मानव-समाज के भौतिक मेरुदंड को सीधा रखे हुए है। यदि उसे ही तोड़ दिया जाय तो फिर व्यक्ति और समाज की आचार संहिता का ईश्वर ही रक्षक है। पूजा उपासना का प्रयोजन मनुष्य को ईश्वर- विश्वासी अर्थात् धर्म मर्यादाओं का पालन करने के लिए व्रत-बन्ध धारण किये रहने वाला है। यदि पूजा पाप-दंड से मुक्ति दिलाती है तो फिर यही कहना पड़ेगा कि वह नैतिक, मानवीय धार्मिक और आत्मिक मूलभूत आधारों को ही नष्ट करेगी। ऐसी दशा में यह पूजा वस्तुतः नास्तिकता से भी महंगी पड़ेगी, पिछले दिनों यही हुआ है यही बताया सिखाया गया है। कथा-वार्ताओं में हम यही सुनने पढ़ते हैं, गुरु लोगों के पास यही सबसे बड़ा आकर्षण अपने मंत्र के पक्ष में है। भोले लोग सस्ते मोल में परमदंड की बहुत बड़ी विपत्ति से बचने के लिए फंसते हैं और दुहरी हानि भुगतते हैं। ईश्वरीय अकाट्य नियम इतने सरल नहीं है कि तनिक सी पूजा से छुई-मुई होकर सूख जायें। वे अत्यन्त कठोर हैं। विश्व का कण-कण उनकी पकड़ में जकड़ा हुआ है। ईश्वर को कोई पूजे या गाली दे, विश्व-व्यवस्था कर्मफल की अपरिहार्य प्रक्रिया में तनिक भी ढील करने वाली नहीं है। ऐसी दशा में पूजा जिस प्रलोभन से की गई थी, ईश्वर की प्रसन्नता की जिस आधार पर आशा बाँधी गई थी, वह बालू के महल की तरह ढह जाता है।
🔷 उपासना की सफलता का एक मात्र कारण है आत्मिक प्रगति की पहली मंजिल ‘साधना’ की उपेक्षा। गुण-कर्म स्वभाव का परिष्कार साधना का मूलभूत उद्देश्य है। उसका स्वरूप है आत्म-बोध, आत्म-चिन्तन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, आत्म-विकास। यही आत्म देव का सच्चा पंचोपचार पूजन है। जो उसे कर सकता है उसी की पूजा उपासना सफल होती है। निराकार निर्विकार परमेश्वर की साकार प्रतिमा उपासना को व्यावहारिक रूप देने के लिए बनाई जाती है। इसी प्रकार जल, दीप, नैवेद्य, पुष्प, चन्दन के पंच विधि पूजा उपकरण प्रयुक्त किये जाते हैं। इस देवार्पण के पीछे जीवन साधना की ओर इंगित करने वाला गहन तत्वज्ञान सन्निहित है। उसे यदि न समझा जाए और मात्र उपासनात्मक कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मान लिया जाए तो यही कहना पड़ेगा कि यथार्थता को भुला कर विडम्बना की उलझन में पैर फंसा दिया गया।
🔶 उपासना की पूर्व भूमिका जीवन साधना से आरम्भ होती है। तपश्चर्या का प्रयोजन मनोभूमि पर छाये हुए कुसंस्कारों का निराकरण है। एक बार समझ लेना चाहिए कि साधना ‘सर्फ’ पाउडर है और उपासना ‘टिनोपाल’ कपड़े को जर्क-वर्क धुला हुआ बनाना हो तो दोनों का उपयोग करना चाहिए। कपड़े को ‘सर्फ’ में धोकर मल रहित करना चाहिए और तदनन्तर ‘टिनापोल’ की नीली झलक देनी चाहिए। यह भूल नहीं करनी चाहिए कि धोने में बहुत झंझट समझ कर उसे उपेक्षित विस्मृत कर दिया जाय और मात्र टिनोपाल के छींटे लगाकर चमचमाते वस्त्र पहनने की आशा रखी जाय।'
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1972 पृष्ठ 8
http://literature.awgp.org/hindi/akhandjyoti/1972/May/v1.8
🔷 उपासना की सफलता का एक मात्र कारण है आत्मिक प्रगति की पहली मंजिल ‘साधना’ की उपेक्षा। गुण-कर्म स्वभाव का परिष्कार साधना का मूलभूत उद्देश्य है। उसका स्वरूप है आत्म-बोध, आत्म-चिन्तन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, आत्म-विकास। यही आत्म देव का सच्चा पंचोपचार पूजन है। जो उसे कर सकता है उसी की पूजा उपासना सफल होती है। निराकार निर्विकार परमेश्वर की साकार प्रतिमा उपासना को व्यावहारिक रूप देने के लिए बनाई जाती है। इसी प्रकार जल, दीप, नैवेद्य, पुष्प, चन्दन के पंच विधि पूजा उपकरण प्रयुक्त किये जाते हैं। इस देवार्पण के पीछे जीवन साधना की ओर इंगित करने वाला गहन तत्वज्ञान सन्निहित है। उसे यदि न समझा जाए और मात्र उपासनात्मक कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मान लिया जाए तो यही कहना पड़ेगा कि यथार्थता को भुला कर विडम्बना की उलझन में पैर फंसा दिया गया।
🔶 उपासना की पूर्व भूमिका जीवन साधना से आरम्भ होती है। तपश्चर्या का प्रयोजन मनोभूमि पर छाये हुए कुसंस्कारों का निराकरण है। एक बार समझ लेना चाहिए कि साधना ‘सर्फ’ पाउडर है और उपासना ‘टिनोपाल’ कपड़े को जर्क-वर्क धुला हुआ बनाना हो तो दोनों का उपयोग करना चाहिए। कपड़े को ‘सर्फ’ में धोकर मल रहित करना चाहिए और तदनन्तर ‘टिनापोल’ की नीली झलक देनी चाहिए। यह भूल नहीं करनी चाहिए कि धोने में बहुत झंझट समझ कर उसे उपेक्षित विस्मृत कर दिया जाय और मात्र टिनोपाल के छींटे लगाकर चमचमाते वस्त्र पहनने की आशा रखी जाय।'
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1972 पृष्ठ 8
http://literature.awgp.org/hindi/akhandjyoti/1972/May/v1.8