सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

👉 Gita Sutra No 2 गीता सूत्र नं० 2

👉 गीता के ये नौ सूत्र याद रखें, जीवन में कभी असफलता नहीं मिलेगी
 
श्लोक-
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।

अर्थ-
योगरहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना भी नहीं होती। ऐसे भावनारहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसे सुख कहां से मिलेगा।

सूत्र –
हर मनुष्य की इच्छा होती है कि उसे सुख प्राप्त हो, इसके लिए वह भटकता रहता है, लेकिन सुख का मूल तो उसके अपने मन में स्थित होता है। जिस मनुष्य का मन इंद्रियों यानी धन, वासना, आलस्य आदि में लिप्त है, उसके मन में भावना ( आत्मज्ञान) नहीं होती। और जिस मनुष्य के मन में भावना नहीं होती, उसे किसी भी प्रकार से शांति नहीं मिलती और जिसके मन में शांति न हो, उसे सुख कहां से प्राप्त होगा। अत: सुख प्राप्त करने के लिए मन पर नियंत्रण होना बहुत आवश्यक है।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०६)

परम शुद्घ को मिलता है अध्यात्म का प्रसाद

यही निर्बीजता योग साधक का अन्तिम लक्ष्य है। अन्तर्यात्रा विज्ञान अस्तित्व में क्रियाशील रहे, तो यह अध्यात्म प्रसाद मिले बिना नहीं रहता। व्यवहार में परिस्थितियों से गहरा सामञ्जस्य, शरीर की स्थिरता, प्राणों की समधुर लय अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोगों की पृष्ठभूमि तैयार करती है। मन की एकाग्र, स्थिर एवं शान्त स्थिति में पवित्र धारणाओं के पुष्प मुस्कराते हैं। और तब शुरू होता है— चित्त के संस्कारों का परिशोधन। गहरे में अनुभव करें, तो यही संस्कार बीज हमारे जीवन में प्रवृत्ति एवं परिस्थितियों की फसल रचते हैं। इसीलिए सभी अध्यात्मवेत्ता अपने मार्गों की भिन्नता के बावजूद चित्त के परिशोधन को साधना जीवन का मुख्य कर्त्तव्य बताते रहे हैं। चित्त को समझना एवं सँवारना ही तप है और इसकी आत्मतत्त्व में विलीनता ही योग।

अब भवचक्र की बेड़ियों को तोड़ने के विषय में महर्षि पतंजलि कहते हैं-
निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः॥ १/४७॥
शब्दार्थ-निर्विचारवैशारद्ये= निर्विचार समाधि में विशारद होने पर (योगी को) अध्यात्मप्रसादः= अध्यात्म प्रसाद प्राप्त होता है।
भावार्थ- समाधि की निर्विचार अवस्था की परमशुद्धता उपलब्ध होने पर प्रकट होता है—अध्यात्म प्रसाद।
    
महर्षि पतंजलि ने अपने सूत्रों में अध्यात्म विज्ञान के गहरे निष्कर्ष गूँथे हैं। यह निष्कर्ष भी बड़ा गहन है। इसमें निर्विचार समाधि के तत्त्व को उन्होंने प्रकट किया है। महर्षि अपने योगदर्शन में बड़ी स्पष्ट रीति से समझाते हैं कि योग की यथार्थता- सार्थकता ध्यान में फलित होती है। इसके पूर्व जो भी है- वह सब तैयारी है ध्यान की। यह ध्यान गाढ़ा हुआ तो समाधि फलती है। और समाधि को विविध अवस्थाओं में सबसे पहले आती है- संप्रज्ञात अवस्थाएँ। ये संप्रज्ञात समाधियाँ हालाँकि सबीज है, फिर भी इसमें निर्विचार का मोल है। इसमें विचारों की लहरों से चित्त मुक्त होता है। बुद्धि के भ्रम दूर होते हैं। कर्म-क्लेश भी शिथिल होते हैं। इसकी प्रगाढ़ता में चित्त स्वच्छ हो जाता है, दर्पण की भाँति। और तब इसमें झलक उठती है—आत्मा की छवि। यही तो अध्यात्म का प्रसाद है।
    
इस सूत्र का सार कहें या फिर योग के सभी सूत्रों का सार- महर्षि पतंजलि के प्रतिपादन की मुख्य विषय वस्तु चित्त है। चित्त की अवस्थाएँ, इसमें आने वाले उतार-चढ़ाव, इसमें जमा होने वाले कर्मबीज, इन्हीं की तो शुद्धि करनी है। व्यवहार के रूपान्तरण, परिवर्तन से करें या फिर ध्यान की तल्लीनता से कार्य एक ही है- चित्त का शोधन। इसकी अशुद्धि के यूँ तो कई रूप है, पर मूल रूप एक ही है- संस्कार बीज। इन्हीं को चित्त की गहराई में जाकर खोजना है, खोदना है, बाहर निकालना है, जलाना है और अन्ततोगत्वा इन्हें सम्पूर्णतया समाप्त करके चित्त को शुद्ध करना है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १८०
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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