सोमवार, 16 मई 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २८

प्रशंसा का मिठास चखिए और दूसरों को चखाइए

अपने दोषों की ओर से ओंखें बंद करके उन्हें बढने दें या आत्मनिरीक्षण करना छोड दें, ऐसा हमारा कथन नहीं हैं। हमारा निवेदन इतना ही है किं बुराइयों को भुला कर अच्छाइयों को प्रोत्साहित करिए। अपने में जो दोष हैं, जो दुर्भाव हैं उन्हें ध्यानपूर्वक देखिए और उनको कठोर परीक्षक की तरह तीव्र दृष्टि से जाँचते- . रहिए। जो त्रुटियाँ दिखाई पड़े उनके विरोधी सद्गुणों को प्रोत्साहन देना आरभ करिए यही उन दोषों के निवारण का सही तरीका है। मान लीजिए कि आपको क्रोध अधिक आता है तो उसकी चिंता छोड कर प्रसन्नता का, मधुर भाषण का अभ्यास कीजिए क्रोध अपने आप दूर हो जाएगा। यदि क्रोध का ही विचार करते रहेंगे तो विनयशीलता का अभ्यास न हो सकेगा। यदि कोई आपको आदेश करे कि भजन करते समय बंदर का ध्यान मत आने देना, तो बंदर का ध्यान आए बिना न रहेगा। वैसे भजन करने में कभी बंदर का ध्यान नहीं आता पर निषेध किया जाए तो बढोत्तरी होगी। बुराई कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है, भलाई के अभाव को बुराई कहते हैं, पाप कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है,पुण्य के अभाव को पाप कहते हैं। यदि भलाई की ओर, पुण्य' की ओर आपकी प्रवृत्ति हो तो बुराई अपने आप घटने लगेगी और एक दिन उसका पूर्णत: लोप हो जाएगा।
 
पीठ थपथपाने में घोडा खुश होता है, गरदन खुजाने से गाय प्रसन्न होती है, हाथ फिराने से कुत्ता हर्ष प्रकट करता है, प्रशंसा से हृदय हुलस आता है। आप दूसरों की प्रशंसा करने में कंजूसी मत किया कीजिए जिनमें जो अच्छे गुण देखें, उनकी मुक्त कंठ से सराहना किया करें, सफलता पर बधाई देने के अवसरों को हाथ से न जाने दिया करें। इसकी आदत डालना घर से आरंभ करें अपने भाई-बहिनों बालक-बालिकाओं की अच्छाइयों को उनके सामने कहा कीजिए। अपनी पत्नी के रूप, सेवाभाव, परिश्रम, आत्मत्याग की भूरि- भूरि प्रशंसा किया कीजिए। बड़ों के प्रति प्रशंसा प्रकट करने का रूप कृतज्ञता है। उनके द्वारा जो सहायता प्राप्त होती है उसके लिए कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए। किसी ने आपके ऊपर अहसान किया हो तो शुक्रिया, धन्यवाद, मैं आपका ऋणी ' आदि शब्दों के द्वारा थोड़ा-बहुत प्रत्युपकार उसी समय चुका दिया कीजिए। बाद में आप देखेगे कि चारों ओर कितना मिठास बरसता है। शत्रु-मित्र बन जाते हैं। आपकी वाणी के प्रशंसा युक्त मिठास से आकर्षित होकर मित्र और प्रिय पात्रों का दल आपके पीछे-पीछे लगा फिरेगा। आज यह बातें छोटी भलें ही प्रतीत होती हैं परंतु अनुभव के पश्चात आप पावेंगे कि प्रशंसा परायणता में जितना आध्यात्मिक लाभ है, उससे भी अधिक भौतिक लाभ है। धनी बनने, प्रेम पात्र बनने, नेता बनने, शत्रु रहित बनने की यह कुंजी है। दूसरों का हदय जीतने की यह अचूक दवा है।

आप अपने में अच्छाइयाँ देखिए 'दूसरों  में अच्छाईयाँ देखिए इस संसार में श्रेष्ठताएँ उत्कृष्टताएँ संपदाए कम नहीं हैं। आप उन्हें देखिए रूचिपूर्वक पहिचानिए और आग्रह पूर्वक ग्रहण करिए,ऐसा करने से आपके अंदर-बाहर, चारों ओर अच्छाइयों से भरा हुआ प्रसन्नतापूर्ण वातावरण एकत्रित हो जाएगा। इस वातावरण मे आपको आनन्द का, उल्लास का दर्शन होगा।

आनंददायक उल्लास प्रदान करने वाली परिस्थितियाँ वस्तुएँ बाहर नहीं हैं। जड भूतों में, चैतन्य आत्मा को उल्लसित करने वाली कोई शक्ति नहीं है। आप बाहर की ओर देखना छोड़ कर अपने अंतःकरण को तलाश कीजिए। क्योंकि अखंड आनंद का अक्षय स्रोत वहीं छिपा हुआ है। अपने सत् तत्वों को जागृत कीजिए उन्हें विकसित और समुन्नत कीजिए आपका जीवन उल्लास से परिपूर्ण हो जावेगा।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ४०

👉 भक्तिगाथा (भाग १३०)

दोषों को भी प्रभु को अर्पित करता है भक्त

‘‘क्लेशों से क्लान्त, कलंकित, अनेकों मनोग्रन्थियों के मार से दबा सुशान्त न तो कुछ सोच पा रहा था, न कुछ समझ पा रहा था। जिन्दगी की सारी राहें उसके लिए खो चुकी थीं। सब ओर घना अंधियारा छाया हुआ था। ऐसे घने मानसिक अंधकार से घिरा सुशान्त इधर-उधर मारा-मारा घूमता था। लावण्या ने उसे अपने यहाँ से निकाल दिया था। जिन मित्रों पर उसे गर्व था, वे सभी मित्र कब के उससे दूर जा चुके थे। पिता के द्वारा अर्जित विपुल चल एवं अचल सम्पत्ति धीरे-धीरे लावण्या के चरणों में समर्पित हो चुकी थी। अब तो बस दुत्कार-फटकार, अपमान-असम्मान ही बचा था। पंडित शशांक शर्मा के जो मित्र पहले उसे स्नेह भाव से देखा करते थे, वे अब उससे मुँह फेर चुके थे।

स्मृतियों के धुंधलेपन में उसे अब यह भी याद नही रह गया था कि वह पंडित शशांक शर्मा का सुपुत्र है। वह विप्रकुल में जन्मा है और उसने अपना बचपन संध्यावन्दन करते हुए वेदमाता गायत्री की आराधना में बिताया है। अब जो स्मृतियाँ कभी उभरती-उफनती थीं, वे सभी बड़े ही विदू्रप जीवन की थीं। उनमें लावण्या थी, जिसके सम्पर्क में उसका सदाचरण विषाक्त हुआ था। वे मित्र थे, जिनके कुसंग में वह कुपथ पर चला था। लेकिन अब ये सब भी उससे किनारा कर गये थे। बचा रह गया था तो केवल उसका दुर्भाग्य, जो उसे बार-बार मरण के लिए प्रेरित करता था। कलंक व अपमान की असंख्य चोटों से आहत उसके मन में मर जाने के अलावा अन्य कोई भी विचार नहीं आता था।

अपने विचार प्रवाह में डूबता-उतराता एक दिन वह पास के अरण्य में चला गया। वहाँ पर एक पहाड़ी थी, न जाने किस प्रेरणा से वह उस पर चढ़ता गया। इस पहाड़ी के नीचे एक नदी बहती थी- मकराक्षी। इस नदी में अनेकों मगरमच्छ रहते थे। उसने सोचा इसी नदी में कूद कर जीवन की समाप्ति कर ले। नदी में गिरने के बाद यह अधम शरीर किसी न किसी मगर के मुख का ग्रास बन जाएगा। यह सोचते हुए जैसे ही उसने छलांग लगाने की चेष्टा की, वैसे ही दैवयोग से मैं आ गया। मैंने उसका हाथ पकड़कर कहा- पुत्र! जब संसार अपने सभी द्वार बंद कर लेता है, उस समय पमरेश्वर उसके लिए अपने हृदय का द्वार खोल देते हैं। सुशान्त को मेरा यह स्नेहपूर्ण व्यवहार अटपटा व विचित्र लगा। पर जब उसने मेरी आँखों में देखा तो वहाँ उसे आत्मीय स्नेह नजर आया। काफी देर तक तो वह यूं ही गुमसुम खड़ा रहा। फिर वह मेरे से जोर से चिपट कर बिलखते हुए रोने लगा। रोते-रोते जब उसकी हिचकियाँ थमीं तब उसने कहा- महर्षि क्या अभी भी मेरे जीवन में कुछ सार्थक होना सम्भव है?

क्यों नहीं पुत्र! तुम जो हो जैसे हो, वैसे ही तुम परमेश्वर में समर्पित हो जाओ। क्या अपने दोषों को भी मैं भगवान को अर्पित कर दूँ। उत्तर में मैंने कहा- हाँ पुत्र! दोषों को भी। क्योंकि जब दोष भगवान के पावन चरणों में अर्पित होते हैं तब वे रूपान्तरित होकर सद्गुण में बदल जाते हैं।’’ जब महर्षि सुशान्त का विवरण सुना रहे थे, तब देवर्षि नारद उन्हें भावपूर्ण नेत्रों से निहारे जा रहे थे। जब उन्होंने दोषों को प्रभु अर्पित करने की बात कही तो देवर्षि के मुख से अचानक निकल गया- ‘‘अहा! यह कितना सत्य कथन है।’’ देवर्षि के कहने से महर्षि क्रतु का ध्यान उनकी ओर गया और वह बोले- ‘‘अरे मैं तो सुशान्त की कथा सुनाने के फेर में यह भूल ही गया कि हम सबको आपके सूत्र की प्रतीक्षा है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २५५

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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