नैतिक आदर्शों का पालन शरीर के प्रतिबंधों पर नहीं मन की उच्चस्थिति पर निर्भर है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के षडरिपु जो मन में छिपे बैठे रहते हैं समय−समय पर हिंसा, झूठ, पाखंड, स्वार्थ, बेईमानी, रिश्वतखोरी, दहेज,कन्या विक्रय, वर विक्रय, माँसाहार जुआ, चोरी आदि सामाजिक बुराइयों के रूप में फूट पड़ते हैं। नाना प्रकार के दुष्कर्म यद्यपि अलग−अलग प्रकार के दीख पड़ते हैं पर उनका मूल एक ही है ‘मन की मलीनता’। जिस प्रकार पेट खराब होने से नाना प्रकार के शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मन मलीन होने पर हमारे वैयक्तिक और आन्तरिक जीवन में नाना प्रकार के कुकर्म बन पड़ते हैं। जिस प्रकार रोगों के कारण शरीर की पीड़ा उठानी पड़ती है उसी प्रकार मन की मलीनता से हमारा सारा बौद्धिक संस्थान—विचार क्षेत्र औंधा हो जाता है और कार्यशैली ऐसी ओछी बन पड़ती है कि पग−पग पर असफलता, चिन्ता, त्रास, शोक, विक्षोभ के अवसर उपस्थित होने लगते हैं। अव्यवस्थित मनोभूमि को लेकर इस संसार में न तो कोई महान बना है और न किसी ने अपने जीवन को सफल बनाया है। उसके लिए क्लेश और कलह, शोक और संताप दैन्य और दारिद्र ही सुनिश्चित हैं, न्यूनाधिक मात्रा में वे ही उसे मिलने हैं, वे ही मिलते भी रहते हैं।
एक स्मरणीय तथ्य
यह स्मरण रखने योग्य बात है, यह गाँठ बाँध लेने योग्य तथ्य है कि मनुष्य के जीवन में एकमात्र विभूति उसका मन है। इस मन को यदि संभाला और साधा न जाएगा, सुधारा और सुसंस्कृत न किया जाएगा तो वह नीचे बहने वाले जल की तरह स्वभावतः पतनोन्मुख होगा। मन को स्वच्छ बनाना—हमारे चेतन जगत का सबसे बड़ा पुरुषार्थ की ओर जिनके कदम बढ़े हैं उनके लिए लौकिक सफलताओं और समृद्धियों का द्वार प्रशस्त होता है और उन्हीं ने आत्मिक लक्ष प्राप्त किया है। मन पर चढ़े हुए मल आवरण जब हट जाते हैं तो अपनी आत्मा में ही परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होने लगते हैं। मन की मलीनता के रहते प्रत्येक दुख और अशुभ मनुष्य के आगे−पीछे ही घूमता रहेगा। देवत्व तो मानसिक स्वस्थता का ही दूसरा नाम है। जिसने अपना अन्तःकरण स्वच्छ कर लिया उसने इसी देह में देवत्व का लाभ उठाया है और इसी धरती पर स्वर्ग का आनन्द लिया है। ‘स्वच्छ मन’ जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। युग−निर्माण के लिए हमें इस पर पूरी सावधानी से ध्यान देना होगा।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 24
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यह स्मरण रखने योग्य बात है, यह गाँठ बाँध लेने योग्य तथ्य है कि मनुष्य के जीवन में एकमात्र विभूति उसका मन है। इस मन को यदि संभाला और साधा न जाएगा, सुधारा और सुसंस्कृत न किया जाएगा तो वह नीचे बहने वाले जल की तरह स्वभावतः पतनोन्मुख होगा। मन को स्वच्छ बनाना—हमारे चेतन जगत का सबसे बड़ा पुरुषार्थ की ओर जिनके कदम बढ़े हैं उनके लिए लौकिक सफलताओं और समृद्धियों का द्वार प्रशस्त होता है और उन्हीं ने आत्मिक लक्ष प्राप्त किया है। मन पर चढ़े हुए मल आवरण जब हट जाते हैं तो अपनी आत्मा में ही परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होने लगते हैं। मन की मलीनता के रहते प्रत्येक दुख और अशुभ मनुष्य के आगे−पीछे ही घूमता रहेगा। देवत्व तो मानसिक स्वस्थता का ही दूसरा नाम है। जिसने अपना अन्तःकरण स्वच्छ कर लिया उसने इसी देह में देवत्व का लाभ उठाया है और इसी धरती पर स्वर्ग का आनन्द लिया है। ‘स्वच्छ मन’ जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। युग−निर्माण के लिए हमें इस पर पूरी सावधानी से ध्यान देना होगा।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 24