रविवार, 14 जून 2020

👉 नारी सम्बन्धी अतिवाद को अब तो विराम दें (भाग २)

इस अमानवीय प्रतिबन्ध की प्रतिक्रिया बुरी हुई। नारी शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत पिछड़ गई। भारत में नर की अपेक्षा नारी की मृत्यु दर बहुत अधिक है। मानसिक दृष्टि से वह आत्महीनता की ग्रन्थियों में जकड़ी पड़ी है। सहमी, झिझकी, डरी, घबराई, दीन- हीन अपराधिन की तरह वह यहाँ- वहाँ लुकती छिपती देखी जा सकती है अन्याय अत्याचार और अपमान पग- पग पर सहते- सहते क्रमशः अपनी सभी मौलिक विशेषताएँ खोती चली गई। आज औसत नारी उस नीबू की तरह है, जिसका रस निचोड़ कर उसे कूड़े में फेंक दिया जाता है। नव यौवन के दो चार वर्ष ही उसकी उपयोगिता प्रेमी पतिदेव की आँखों में रहती है। अनाचार की वेदी पर जैसे ही उस सौन्दर्य की बलि चढ़ी कि वह दासी मात्र रह जाती है। आकर्षण की तलाश में भौंरे फिर नये- नये फूलों की खोज में निकलते और इधर- उधर मँडराते दीखते हैं। जीवन की लाश का भार ढोती हुई, गोदी के बच्चों के लिए वह किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करती है। जो था वह दो चार वर्ष में लुट गया, अब बेचारी को कठोर परिश्रम के बदले पेट भरने के लिए रोटी और पहनने को कपड़े भर पाने का अधिकार है। बन्दिनी का अन्तःकरण इस स्थिति के विरुद्ध भीतर ही भीतर कितना ही विद्रोही बना बैठा रहे, प्रत्यक्षतः वह कुछ न कर सकने की परिस्थितियों में ही जकड़ी होती है, सो गम खाने और आँसू पीने के अतिरिक्त उसके पास कुछ चारा नहीं रह जाता।
 
तीसरा एक और अतिवाद पनपा। अध्यात्म के सन्दर्भ से एक और बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष- दुर्गुणों की, पाप- पतन की जड़ है। इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग- मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। इस सनक के प्रतिपादन में न जाने क्या- क्या मनगढ़न्त गढ़कर खड़ी कर दी गई। लोग घर छोड़कर भागने में, स्त्री, बच्चों को बिलखता छोड़कर भीख माँगने और दर- दर भटकने के लिए निकल पड़े। समझा गया इसी तरह योग साधना होती होगी इसी तरह स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि मिलती होगी। पर देखा ठीक उलटा गया। आन्तरिक अतृप्ति ने उनकी मनोभूमि को सर्वथा विकृत कर दिया और वे तथाकथित सन्त महात्मा सामान्य नागरिकों की अपेक्षा भी गई गुजरी मनःस्थिति के दलदल में फँस गये। विरक्ति का जितना ही ढोंग उनने बनाया अनुरक्ति की प्रतिक्रिया उतनी ही उग्र होती चली गई। उनका अन्तरंग यदि कोई पढ़ सकता हो, तो प्रतीत होगा कि मनोविकारों ने उन्हें कितना जर्जर कर रखा है। स्वाभाविक की उपेक्षा करके अस्वाभाविक के जाल- जंजाल में बुरी तरह जकड़ गये हैं। ऐसे कम ही विरक्त मिलेंगे जिनने बाह्य जीवन में जैसे नारी के प्रति घृणा व्यक्त की है, वैसे ही अन्तरंग में भी उसे विस्मृत करने में सफल हो पाये हो। सच्चाई यह है कि विरक्ति का दम्भ अनुरक्ति को हजार गुना बढ़ा देता है। बन्दर का चिन्तन न करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा करते ही बरबस बन्दर स्मृति पटल पर आकर उछलकूद मचाने लगता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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