एक दिन सत्संग में एक सज्जन ने प्रश्न उठाया कि मन बड़ा चंचल है कैसे वश में किया जाय। बिना न के एकाग्र हुए भजन वृथा है। मन की चाल हवा से भी तेज है। क्षण भर में चौदह लोकों में घूम आता है। जाग्रत में ही नहीं, स्वप्न में भी चुप होकर नहीं बैठता। जन्म भर में कभी देखे सुने न हो, ऐसे-ऐसे अनोखे पदार्थ रच लेता है। यह बड़ा दुष्ट, चंचल प्रबल व ढीठ है।
एक दूसरे सज्जन ने कहा- मन की बात मत छेड़ो। मैं जब भजन करने बैठता हूँ तो और भी भागता है। बहुतेरा रोकता हूँ रुकता नहीं। मंत्र में लगाता हूँ तो बिना सिर पैर के ख्याली पुलाव पकाने लगता है। भगवान का ध्यान करना चाहता हूँ तो भागा-भागा फिरता है। राम-राम जपता हूँ तो ग्राम-ग्राम घूमता है। घर बाहर के, कचहरी दरबार के सब झगड़े भजन में लाकर खड़े कर देता है।
एक तीसरे सज्जन ने अपनी कठिनाई बताई कि-मैं तो इस मन की हरकतों से तंग आ गया हूँ। एक न एक बखेड़ा यह बराबर खड़े किये रहता है। मैं संसार से मुक्त होना चाहता हूँ तो मुझे लौटा-लौटा कर उसी में डालता है। सत्संग में जाना चाहता हूँ तो गप्प, ताश, शतरंज में लगा देता है। मन्दिर में दर्शन करने जाता हूँ तो सिनेमा के सामने ला खड़ा कर देता है। स्वाध्याय करना चाहता हूँ तो उपन्यास सामने जाकर रख देता है। गीता पढ़ने बैठता हूँ तो कहता है घर में दाल नहीं है, घी नहीं, मिर्च मसाला नहीं है, लकड़ी नहीं है, चलो, ले आओ। गीता फिर पढ़ लेना। यह तो रोज का गीत है। पेट पूजा तो प्रधान है। गीता का समरत्व योग भूखे पेट की ज्वाला नहीं शाँत कर सकता। मन की फरमाइशों के मारे तो तबियत परेशान हो गई है।
सबकी सुन लेने पर अन्त में उस सत्संग में उपस्थित एक महात्मा जी ने कहा कि-आप लोग उलटी गंगा बहा रहे हैं। आप लोगों के कहने के अनुसार तो आप कोई और हैं और मन कोई और। मगर बात असल में यह है कि आप ही से मन की सत्ता हैं। मन से आपकी सत्ता नहीं है। आप ही से मन निकला है। जैसे आप हैं वैसा आपका मन है। मन तो सरल, अबल और बेपेंदी का लोटा है। बिना कौड़ी पैसे का गुलाम है। वचन में बंधा हुआ है। इशारे पर काम करता है। जो-जो भोग आप माँगते हैं कि भजन नहीं करने देता। भजन करना आप चाहते ही कब हैं। धन में, स्त्री में, पुत्र में, नाम में, जुए मैं, माँस-मदिरा में, बीड़ी-सिगरेट में, सिनेमा, क्लब में आपकी रुचि है। इनसे आपको फुरसत ही कहाँ है। चौबीस घंटा में 23 घंटा इन्हीं का ध्यान करते हैं फिर एक घंटा राम नाम लेने का आडम्बर करते हैं और उस समय भी साँसारिक कार्यों का ताना बाना बुनते रहते हैं।
भाई! जो खाओगे उसकी डकार आवेगी। ग्रामोफोन में जो राग भरा जायेगा वही बजेगा। जैसे आप बनोगे वैसा मन भी बन जायेगा। आप चाहते हैं कि स्वाद में कमी न आने पावे। खाना-पीना राजसी व तामसी होता रहे। नेत्रों से सिनेमा आदि देखते रहें। कानों से फिल्मी संगीत सुनते रहें। वीर्यपात में भी कोई बन्धन न हो। आहार-विहार अनियमित होता रहे, मगर मन वश में हो जावे यह कैसे मुमकिन है। सभी विषयों पर लगाम लगाइये, मन आपसे आप आपका गुलाम हो जायेगा।
एक भेद की बात जान लीजिये कि वीर्य, प्राण व मन एक ही स्तर की वस्तुएं है। एक को रोक लेने पर दूसरी दोनों स्वयमेव रुक जाती है। मन को रोकिये प्राण व वीर्य वश में हो जाते हैं। वीर्य की गति ऊर्ध्वरत कीजिये तो मन व वीर्य पर आधिपत्य मिल जाता है। इन तीनों को वश में करने का एक भी साधन है और अलग-अलग भी। वीर्य पर विजय पाने के लिए मनसा वाचा कर्मण ब्रह्मचारी बनना पड़ेगा। सात्विक आहार व सात्विक विहार रखना पड़ेगा। आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्राओं द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करना पड़ेगा। इसी तरह प्राण को रोकने के लिए हठयोग, अष्टाँग योग, विशेष प्राणायामों आदि का साधन करना पड़ेगा। मगर यह सब क्रियाएं बड़ी कठिन व कष्ट साध्य हैं। सबसे सरल उपाय यह है कि आप लोग ध्यान सहित गायत्री का जप कीजिये और देखिये कि कितनी जल्दी आप मन को अपना चाकर बना लेते हैं। श्रद्धापूर्वक स्वर, ताल व लय से गायत्री मंत्र का जप करने से अभीष्ट की पूर्ति हो जाती है। भगवान ने कहा कि यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ। इसका मुख्य कारण है कि अन्य यज्ञों में जो बाहरी तैयारी, सहायता आदि की आवश्यकता पड़ती है। वे सब झंझटें जप यज्ञ में नहीं होती। जप यज्ञ में केवल सात्विक भाव, प्रेम साधना, तन्मयता, एकाग्रता की ही आवश्यकता पड़ती है। प्रेम भाव से किसी स्थान, अवस्था, समय व परिस्थिति में जप किया जा सकता है। गायत्री जप से जो मन की एकाग्रता होती है उसका वैज्ञानिक आधार भी है।
गायत्री मंत्र के अक्षरों व शब्दों का गुन्थन कुछ इस प्रकार का है कि उसके जप से स्वर यंत्रों में जो कंपन उत्पन्न होता है उसका प्रभाव पृष्ठ वंश में स्थित नस नाड़ियों में पड़ता रहता है। उन्हीं शब्दों के बार-बार दुहराने से कंपन के झटके चक्रों में लगा करते हैं और कुछ दिनों के अभ्यास के बाद वे चक्र खुलने लगते हैं। कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है। यह क्रियाएं अनजाने हुआ करती हैं।
गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं और तीन पद। ओउम् व व्याहृतियों का एक पद है। इस तरह चार पद हो जाते हैं। इन पदों व शब्दों का उच्चारण कुछ इस प्रकार किया जाता है कि ध्वनि में ताल, स्वर व लय का समावेश हो जाता है। एक स्वर में तालयुक्त लय के साथ जब जप किया जाता है तब ध्वनि का माधुर्य इतना बढ़ जाता है कि मन सब तरफ से खिंच कर इन्द्रियों सहित एक ओर लग जाता है। जप का यह तरीका गुरु मुख से ही जानने योग्य है। जैसे किसी एक योग को सीखने के लिए बार-बार अभ्यास करना पड़ता है उसी तरह गायत्री मंत्र के तालयुक्त जप का ढंग गुरु के पास रह कर अभ्यास द्वारा सीखा जाता है। जब जप ठीक ढंग से होने लगता है तब मन नहीं भागता है बल्कि उसी में आनन्द प्राप्त करने लगता है।
संगीत के जानकार जानते हैं कि विभिन्न राग-रागनियों के विभिन्न रूप होते हैं। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इसका पता लगा लिया था। पश्चिमी विद्वानों ने भी विज्ञान द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि खास तरह के राग छेड़ने पर एक खास तरह की आकृति बन जाती है। फ्राँस में दो बार इस विषय को लेकर प्रदर्शन व परीक्षण किये गये हैं। एक में मेडम लैंग ने एक राग छेड़ा तो फलस्वरूप देवी मेरी की आकृति शिशु जिजस क्राइष्ट को गोद में लिये हुई प्रकट होती दीख पड़ी। दूसरी बार एक भारतीय गायक ने भैरव राग छेड़ा था जिसके फलस्वरूप भैरव की भीषण आकृति प्रकट हुई थी।
इसी प्रकार इटली में एक युवती ने एक भारतीय से सामवेद की एक ऋचा को सितार पर बजाना सीखा। खूब अभ्यास कर लेने के अनन्तर उसने एक बार नदी के किनारे रेत में सितार रख कर उसी राग को छेड़ा। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ रेत पर एक चित्र सा बन गया। उसने अन्य कोई विद्वानों को यह बात बतलाई। उन्होंने उस चित्र का फोटो लिया। चित्र वाणी पुस्तक धारिणी सरस्वती का निकला। जब वह युवती तन्मय होकर उस राग को छेड़ती तब वही चित्र बन जाता।
इस प्रकार जब गायत्री मंत्र का जप ताल स्वर व लय के साथ किया जाता है तो राग से पुस्तक, पुष्प, कमण्डल, माला लिये हुए हंस पर आरुढ़ एक देवी का चित्र बन जाता है। उसको हमारे ऋषियों ने वेदमाता गायत्री की संज्ञा दी है। लय की विभिन्नता होने पर किसी को एक मुख वाली, किसी को पाँच मुख वाली गायत्री माता के दर्शन होते हैं। इसी प्रकार प्रातः ध्यान में दूसरा रूप रहता है, मध्याह्न ध्यान में दूसरा और सायंकालीन ध्यान में दूसरा रूप रहता है। मूल तत्व में माता का ही चित्र विभिन्न रूपों व कलाओं में भासित होता है। हर मनुष्य की प्रकृति पृथक-पृथक होती है। उसी के अनुसार और समय के भेद से जप के समय गायत्री माता का ध्यान विभिन्न रूपों में किया जाता है जब अभ्यास आगे बढ़ता है तब साधक माता के ध्यान में इतना तन्मय हो जाता है कि उसकी आत्मा उसी रूप में अवस्थित हो जाती है। उस समय जप ध्यान में लीन हो जाता है।
वैज्ञानिक बता रहे हैं कि जिन विचारों का उदय मस्तिष्क में बार-बार होता है वे वहाँ चित्रित हो जाते हैं। उसी प्रकार के भाव मस्तिष्क में घर बना लेते हैं। उनसे मन का इतना लगाव हो जाता है कि उन्हीं में वह आनन्द प्राप्त करने लगता है। उन्हीं में मग्न रहता है। इसी प्रकार जब गायत्री का जप ध्यान सहित किया जाता है तब वही संस्कार घर बनाने लगते हैं। दैवी गुणों का प्रादुर्भाव होने लगता है और पूर्व संस्कार और आसुरी वृत्तियाँ मिटने लगती हैं।
एक पात्र में जल भरा है। उसमें पिघला हुआ शीशा उड़ेला जाता है। जैसे-जैसे शीशे की धार पात्र की तरह धंसती जाती है वैसे ही वैसे पानी का अंश पात्र के ऊपर से बाहर बहकर निकलता जाता है। अन्त में शीशे की तह पात्र के मुँह तक आ जाती है तब पानी का कुल भाग पात्र से बाहर निकल जाता है। पात्र में शीशा ही शीशा दिखाई पड़ता है ।
इसी तरह जब साधक ध्यान सहित गायत्री का जप करता है तब मस्तिष्क रूपी पात्र मैं दैवी गुणों की धारा उड़ेलने लगता है और जल रूपी गंदे विचार बाहर गिरने लगते हैं। शुद्ध सात्विक भाव आने लगते हैं। काम, क्रोध, लोभ, सात्विक भाव आने लगते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मद, मत्सर दूर होने लगते हैं। मन शुद्ध-निर्मल होने से एकाग्र होने लगता है। वह भागा-भागा नहीं फिरता। आपका खरीदा गुलाम बन जाता है। जो चाहिए काम लीजिये।
मन की चंचलता दूर करने के लिए गायत्री जप यज्ञ से बढ़कर और कोई तरीका इतना सरल सुसाध्य व शीघ्र फल देने वाला नहीं है।
एक दूसरे सज्जन ने कहा- मन की बात मत छेड़ो। मैं जब भजन करने बैठता हूँ तो और भी भागता है। बहुतेरा रोकता हूँ रुकता नहीं। मंत्र में लगाता हूँ तो बिना सिर पैर के ख्याली पुलाव पकाने लगता है। भगवान का ध्यान करना चाहता हूँ तो भागा-भागा फिरता है। राम-राम जपता हूँ तो ग्राम-ग्राम घूमता है। घर बाहर के, कचहरी दरबार के सब झगड़े भजन में लाकर खड़े कर देता है।
एक तीसरे सज्जन ने अपनी कठिनाई बताई कि-मैं तो इस मन की हरकतों से तंग आ गया हूँ। एक न एक बखेड़ा यह बराबर खड़े किये रहता है। मैं संसार से मुक्त होना चाहता हूँ तो मुझे लौटा-लौटा कर उसी में डालता है। सत्संग में जाना चाहता हूँ तो गप्प, ताश, शतरंज में लगा देता है। मन्दिर में दर्शन करने जाता हूँ तो सिनेमा के सामने ला खड़ा कर देता है। स्वाध्याय करना चाहता हूँ तो उपन्यास सामने जाकर रख देता है। गीता पढ़ने बैठता हूँ तो कहता है घर में दाल नहीं है, घी नहीं, मिर्च मसाला नहीं है, लकड़ी नहीं है, चलो, ले आओ। गीता फिर पढ़ लेना। यह तो रोज का गीत है। पेट पूजा तो प्रधान है। गीता का समरत्व योग भूखे पेट की ज्वाला नहीं शाँत कर सकता। मन की फरमाइशों के मारे तो तबियत परेशान हो गई है।
सबकी सुन लेने पर अन्त में उस सत्संग में उपस्थित एक महात्मा जी ने कहा कि-आप लोग उलटी गंगा बहा रहे हैं। आप लोगों के कहने के अनुसार तो आप कोई और हैं और मन कोई और। मगर बात असल में यह है कि आप ही से मन की सत्ता हैं। मन से आपकी सत्ता नहीं है। आप ही से मन निकला है। जैसे आप हैं वैसा आपका मन है। मन तो सरल, अबल और बेपेंदी का लोटा है। बिना कौड़ी पैसे का गुलाम है। वचन में बंधा हुआ है। इशारे पर काम करता है। जो-जो भोग आप माँगते हैं कि भजन नहीं करने देता। भजन करना आप चाहते ही कब हैं। धन में, स्त्री में, पुत्र में, नाम में, जुए मैं, माँस-मदिरा में, बीड़ी-सिगरेट में, सिनेमा, क्लब में आपकी रुचि है। इनसे आपको फुरसत ही कहाँ है। चौबीस घंटा में 23 घंटा इन्हीं का ध्यान करते हैं फिर एक घंटा राम नाम लेने का आडम्बर करते हैं और उस समय भी साँसारिक कार्यों का ताना बाना बुनते रहते हैं।
भाई! जो खाओगे उसकी डकार आवेगी। ग्रामोफोन में जो राग भरा जायेगा वही बजेगा। जैसे आप बनोगे वैसा मन भी बन जायेगा। आप चाहते हैं कि स्वाद में कमी न आने पावे। खाना-पीना राजसी व तामसी होता रहे। नेत्रों से सिनेमा आदि देखते रहें। कानों से फिल्मी संगीत सुनते रहें। वीर्यपात में भी कोई बन्धन न हो। आहार-विहार अनियमित होता रहे, मगर मन वश में हो जावे यह कैसे मुमकिन है। सभी विषयों पर लगाम लगाइये, मन आपसे आप आपका गुलाम हो जायेगा।
एक भेद की बात जान लीजिये कि वीर्य, प्राण व मन एक ही स्तर की वस्तुएं है। एक को रोक लेने पर दूसरी दोनों स्वयमेव रुक जाती है। मन को रोकिये प्राण व वीर्य वश में हो जाते हैं। वीर्य की गति ऊर्ध्वरत कीजिये तो मन व वीर्य पर आधिपत्य मिल जाता है। इन तीनों को वश में करने का एक भी साधन है और अलग-अलग भी। वीर्य पर विजय पाने के लिए मनसा वाचा कर्मण ब्रह्मचारी बनना पड़ेगा। सात्विक आहार व सात्विक विहार रखना पड़ेगा। आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्राओं द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करना पड़ेगा। इसी तरह प्राण को रोकने के लिए हठयोग, अष्टाँग योग, विशेष प्राणायामों आदि का साधन करना पड़ेगा। मगर यह सब क्रियाएं बड़ी कठिन व कष्ट साध्य हैं। सबसे सरल उपाय यह है कि आप लोग ध्यान सहित गायत्री का जप कीजिये और देखिये कि कितनी जल्दी आप मन को अपना चाकर बना लेते हैं। श्रद्धापूर्वक स्वर, ताल व लय से गायत्री मंत्र का जप करने से अभीष्ट की पूर्ति हो जाती है। भगवान ने कहा कि यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ। इसका मुख्य कारण है कि अन्य यज्ञों में जो बाहरी तैयारी, सहायता आदि की आवश्यकता पड़ती है। वे सब झंझटें जप यज्ञ में नहीं होती। जप यज्ञ में केवल सात्विक भाव, प्रेम साधना, तन्मयता, एकाग्रता की ही आवश्यकता पड़ती है। प्रेम भाव से किसी स्थान, अवस्था, समय व परिस्थिति में जप किया जा सकता है। गायत्री जप से जो मन की एकाग्रता होती है उसका वैज्ञानिक आधार भी है।
गायत्री मंत्र के अक्षरों व शब्दों का गुन्थन कुछ इस प्रकार का है कि उसके जप से स्वर यंत्रों में जो कंपन उत्पन्न होता है उसका प्रभाव पृष्ठ वंश में स्थित नस नाड़ियों में पड़ता रहता है। उन्हीं शब्दों के बार-बार दुहराने से कंपन के झटके चक्रों में लगा करते हैं और कुछ दिनों के अभ्यास के बाद वे चक्र खुलने लगते हैं। कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है। यह क्रियाएं अनजाने हुआ करती हैं।
गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं और तीन पद। ओउम् व व्याहृतियों का एक पद है। इस तरह चार पद हो जाते हैं। इन पदों व शब्दों का उच्चारण कुछ इस प्रकार किया जाता है कि ध्वनि में ताल, स्वर व लय का समावेश हो जाता है। एक स्वर में तालयुक्त लय के साथ जब जप किया जाता है तब ध्वनि का माधुर्य इतना बढ़ जाता है कि मन सब तरफ से खिंच कर इन्द्रियों सहित एक ओर लग जाता है। जप का यह तरीका गुरु मुख से ही जानने योग्य है। जैसे किसी एक योग को सीखने के लिए बार-बार अभ्यास करना पड़ता है उसी तरह गायत्री मंत्र के तालयुक्त जप का ढंग गुरु के पास रह कर अभ्यास द्वारा सीखा जाता है। जब जप ठीक ढंग से होने लगता है तब मन नहीं भागता है बल्कि उसी में आनन्द प्राप्त करने लगता है।
संगीत के जानकार जानते हैं कि विभिन्न राग-रागनियों के विभिन्न रूप होते हैं। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इसका पता लगा लिया था। पश्चिमी विद्वानों ने भी विज्ञान द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि खास तरह के राग छेड़ने पर एक खास तरह की आकृति बन जाती है। फ्राँस में दो बार इस विषय को लेकर प्रदर्शन व परीक्षण किये गये हैं। एक में मेडम लैंग ने एक राग छेड़ा तो फलस्वरूप देवी मेरी की आकृति शिशु जिजस क्राइष्ट को गोद में लिये हुई प्रकट होती दीख पड़ी। दूसरी बार एक भारतीय गायक ने भैरव राग छेड़ा था जिसके फलस्वरूप भैरव की भीषण आकृति प्रकट हुई थी।
इसी प्रकार इटली में एक युवती ने एक भारतीय से सामवेद की एक ऋचा को सितार पर बजाना सीखा। खूब अभ्यास कर लेने के अनन्तर उसने एक बार नदी के किनारे रेत में सितार रख कर उसी राग को छेड़ा। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ रेत पर एक चित्र सा बन गया। उसने अन्य कोई विद्वानों को यह बात बतलाई। उन्होंने उस चित्र का फोटो लिया। चित्र वाणी पुस्तक धारिणी सरस्वती का निकला। जब वह युवती तन्मय होकर उस राग को छेड़ती तब वही चित्र बन जाता।
इस प्रकार जब गायत्री मंत्र का जप ताल स्वर व लय के साथ किया जाता है तो राग से पुस्तक, पुष्प, कमण्डल, माला लिये हुए हंस पर आरुढ़ एक देवी का चित्र बन जाता है। उसको हमारे ऋषियों ने वेदमाता गायत्री की संज्ञा दी है। लय की विभिन्नता होने पर किसी को एक मुख वाली, किसी को पाँच मुख वाली गायत्री माता के दर्शन होते हैं। इसी प्रकार प्रातः ध्यान में दूसरा रूप रहता है, मध्याह्न ध्यान में दूसरा और सायंकालीन ध्यान में दूसरा रूप रहता है। मूल तत्व में माता का ही चित्र विभिन्न रूपों व कलाओं में भासित होता है। हर मनुष्य की प्रकृति पृथक-पृथक होती है। उसी के अनुसार और समय के भेद से जप के समय गायत्री माता का ध्यान विभिन्न रूपों में किया जाता है जब अभ्यास आगे बढ़ता है तब साधक माता के ध्यान में इतना तन्मय हो जाता है कि उसकी आत्मा उसी रूप में अवस्थित हो जाती है। उस समय जप ध्यान में लीन हो जाता है।
वैज्ञानिक बता रहे हैं कि जिन विचारों का उदय मस्तिष्क में बार-बार होता है वे वहाँ चित्रित हो जाते हैं। उसी प्रकार के भाव मस्तिष्क में घर बना लेते हैं। उनसे मन का इतना लगाव हो जाता है कि उन्हीं में वह आनन्द प्राप्त करने लगता है। उन्हीं में मग्न रहता है। इसी प्रकार जब गायत्री का जप ध्यान सहित किया जाता है तब वही संस्कार घर बनाने लगते हैं। दैवी गुणों का प्रादुर्भाव होने लगता है और पूर्व संस्कार और आसुरी वृत्तियाँ मिटने लगती हैं।
एक पात्र में जल भरा है। उसमें पिघला हुआ शीशा उड़ेला जाता है। जैसे-जैसे शीशे की धार पात्र की तरह धंसती जाती है वैसे ही वैसे पानी का अंश पात्र के ऊपर से बाहर बहकर निकलता जाता है। अन्त में शीशे की तह पात्र के मुँह तक आ जाती है तब पानी का कुल भाग पात्र से बाहर निकल जाता है। पात्र में शीशा ही शीशा दिखाई पड़ता है ।
इसी तरह जब साधक ध्यान सहित गायत्री का जप करता है तब मस्तिष्क रूपी पात्र मैं दैवी गुणों की धारा उड़ेलने लगता है और जल रूपी गंदे विचार बाहर गिरने लगते हैं। शुद्ध सात्विक भाव आने लगते हैं। काम, क्रोध, लोभ, सात्विक भाव आने लगते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मद, मत्सर दूर होने लगते हैं। मन शुद्ध-निर्मल होने से एकाग्र होने लगता है। वह भागा-भागा नहीं फिरता। आपका खरीदा गुलाम बन जाता है। जो चाहिए काम लीजिये।
मन की चंचलता दूर करने के लिए गायत्री जप यज्ञ से बढ़कर और कोई तरीका इतना सरल सुसाध्य व शीघ्र फल देने वाला नहीं है।