आत्मिक क्षेत्र में सबसे बड़ी शक्ति ‘श्रद्धा’ है। श्रद्धा, अन्धविश्वास, मूढ़ मान्यता या कल्पना लोक की उड़ान या भावुकता नहीं, वरन् एक प्रबल तत्त्व है। भौतिक जगत में विद्युत शक्ति की महत्ता एवं उपयोगिता से अगणित प्रकार के कार्य सम्पन्न होते देखे जाते हैं। यदि बिजली न हो तो वैज्ञानिक उपलब्धियों में से तीन चौथाई निरर्थक हो जायेगी ठीक इसी प्रकार आत्मिक जगत में श्रद्धा की बिजली की महत्ता है। मनोयोग और भावनाओं के सम्मिश्रण से जो सुदृढ़ निश्चय एवं विश्वास विनिर्मित होता है। उसे भौतिक बिजली से कम, नहीं वरन् अधिक ही शक्ति-शाली समझना चाहिए। आत्म निर्माण का विशाल काय भवन उच्च आदर्शों के प्रति अटूट निष्ठा की चट्टान पर ही खड़ा किया जाता है।
समय ही जीवन है। समय ही उत्कर्ष है। समय ही महानता के उच्चतम शिखर तक चढ़ दौड़ने का सोपान है। महाकाल की उपासना का जो स्वरूप समझ सका है उसी को मृत्युंजय बनने का सौभाग्य मिला है और किसी के साथ भी मखौल किया जा सकता है पर महाकाल के साथ नहीं। सिंह के दाँत गिनने की धृष्टता किसी को नहीं करनी चाहिए। समय के दुरुपयोग की भूल अपने भाग्य और भविष्य को ठुकराने, लतियाने की तरह है। जो समय गँवाता है वह प्रकारान्तर से अपने उत्कर्ष और आनन्द का द्वार ही बन्द करता है।
शक्ति के स्रोत मनुष्य के भीतर छिपे पड़े है, पर कोई विरले ही हैं जो उन्हें समझते, अनुभव करते और काम में लातें है। यही है असफलताओं का कारण जिसे अक्सर लोग दूसरों पर थोपना चाहते हैं। आत्म प्रवंचना के रूप में दूसरों को भला बुरा कह कर कोई कुछ जी हलका कर सकता है पर उससे कुछ काम नहीं चलता। अवरोधों की मंजिल पार करते हुए प्रगति की दिशा में चलना और सफलता वरण करना उसी के लिए सम्भव है जो अपने को समझने सुधारने और समर्थ बनाने के लिए कटिबद्ध होता है।
समय ही जीवन है। समय ही उत्कर्ष है। समय ही महानता के उच्चतम शिखर तक चढ़ दौड़ने का सोपान है। महाकाल की उपासना का जो स्वरूप समझ सका है उसी को मृत्युंजय बनने का सौभाग्य मिला है और किसी के साथ भी मखौल किया जा सकता है पर महाकाल के साथ नहीं। सिंह के दाँत गिनने की धृष्टता किसी को नहीं करनी चाहिए। समय के दुरुपयोग की भूल अपने भाग्य और भविष्य को ठुकराने, लतियाने की तरह है। जो समय गँवाता है वह प्रकारान्तर से अपने उत्कर्ष और आनन्द का द्वार ही बन्द करता है।
शक्ति के स्रोत मनुष्य के भीतर छिपे पड़े है, पर कोई विरले ही हैं जो उन्हें समझते, अनुभव करते और काम में लातें है। यही है असफलताओं का कारण जिसे अक्सर लोग दूसरों पर थोपना चाहते हैं। आत्म प्रवंचना के रूप में दूसरों को भला बुरा कह कर कोई कुछ जी हलका कर सकता है पर उससे कुछ काम नहीं चलता। अवरोधों की मंजिल पार करते हुए प्रगति की दिशा में चलना और सफलता वरण करना उसी के लिए सम्भव है जो अपने को समझने सुधारने और समर्थ बनाने के लिए कटिबद्ध होता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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