बुधवार, 15 मार्च 2017
👉 ...तब भी मैं अकेली नहीं थी
🔴 सन् २००१ की बात है। हम सोलह- सत्रह महिलाओं की टोली टाटानगर से शान्तिकुञ्ज के लिए चली। हमें नौ दिवसीय सत्र में भाग लेना था। साथ में एक- दो भाई भी थे।
🔵 सभी यह सोचकर बहुत खुश थे कि पहली बार लगातार कई दिनों तक सेवा दान का अवसर मिलेगा। हम बहिनों को भोजनालय में खाना बनाने का काम मिल गया। सभी ने मिल- जुलकर बड़े प्रसन्न मन से खाना बनाया। वैसे तो, मैंने गुरुदेव को कभी देखा नहीं था, पर ऐसा लगता था, मानो उन्हीं के लिए खाना बना रही हूँ। पूरे प्रवासकाल में बड़ा आनन्द आया।
🔴 नौ दिनों के बाद सभी भरे मन से विदा हुए। चूँकि हम टोली में थे, इसलिए सब की टिकट एक साथ ही बनी थी। नियत समय पर गाड़ी आई और हम सभी चढ़ भी गए। लेकिन आपा धापी में मैं जिस डिब्बे में चढ़ी थी, उसमें मेरे ग्रुप के कोई नहीं थे। घबराहट में उस डिब्बे से उतरकर दूसरे डिब्बों में जा- जाकर उन्हें ढूँढ़ने लगी- क्योंकि मेरे पास न तो टिकट था, न पैसे थे। मैं उन्हें ढूँढ़ ही रही थी कि इतने में गाड़ी खुल गई।
🔵 मैं डर गई कि कहीं बिना टिकट के पकड़ी जाऊँगी, तो मुसीबत आ जाएगी। उतर कर स्टेशन पर आ गई। गाड़ी की रफ्तार तेज होती जा रही थी। ट्रेन के डिब्बे एक- एक करके आँखों के आगे से गुजरते जा रहे थे। अपनी टोली की बहिनों को खोजने के क्रम में मैं डिब्बे के भीतर झाँकती हुई उनके नाम ले- लेकर जोर- जोर से पुकार रही थी। एक- एक कर सभी डिब्बे मेरी आँखों के सामने से गुजर गए।
🔴 मैं प्लेटफार्म पर ही खड़ी रह गई, किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में। तभी तेजी से जा रहे किसी व्यक्ति के टकरा जाने से मेरी तन्द्रा भंग हुई। थके- हारे कदमों से चलकर सामने के खाली बैंच पर जा बैठी। बैठी- बैठी यही सोच रही थी कि अब क्या किया जाए।
🔵 सोचते- सोचते थक गई, लेकिन कोई उपाय नहीं सूझा। समय तेजी से आगे बढ़ रहा था। धीरे- धीरे आने- जाने वालों की संख्या घटती जा रही थी।
🔴 थोड़ी ही देर में चारों ओर सन्नाटा छा गया। एक अनजाना- सा भय मुझे बेचैन किये जा रहा था। इक्का- दुक्का लोग दिख रहे थे। उन अपरिचितों से अपनी समस्या नहीं कह सकती थी, पता नहीं इनमें कौन कैसा है। कहीं किसी गलत आदमी से कह बैठी, तो बजाय घटने के मेरी परेशानियाँ और बढ़ जाएँगी।
🔵 इसी उधेड़- बुन में डूबी थी कि इतने में एक वृद्ध सज्जन आए। उन्होंने मुझसे पूछा- बेटी कहाँ जाना है? मैंने कहा- टाटानगर जाना है। उन्होंने बताया टाटानगर की गाड़ी तो अब कल रात में आएगी। फिर थोड़ा रुककर अपनेपन से कहने लगे, सारी रात अकेले प्लेटफार्म पर गुजारना तो तुम्हारे लिए ठीक नहीं हैं। इस समय कहीं जाना चाहती हो, तो बताओ?
🔴 मैं सोचने लगी, एक तो ये भी अकेले हैं, ऊपर से बूढ़े -- इनसे क्या कहूँ। फिर मन में आया कि कहीं पू. गुरुदेव ने मुझे मुसीबत में देख इन्हें मेरी सहायता के लिए प्रेरित किया हो। मैंने कहा- शांतिकुंज जाती, पर मेरे पास पैसे नहीं हैं।
🔵 वे बोले, चलो मैं तुम्हें शान्तिकुञ्ज पहुँचा देता हूँ। मैंने पूछा- आप कौन हैं? तो उन्होंने बताया मैं बलिया का हूँ। मैं फिर डरी- अकेले आदमी हैं, पता नहीं कैसे हों। वे मेरे हाव- भाव से मेरे मन की बात समझ गए, बोले- डरो नहीं बेटी, मेरे साथ मेरी पत्नी और बच्चे भी हैं। उन्होंने अँधेरे में एक ओर हाथ उठाकर दिखाया, थोड़ी दूर पर दो- तीन औरतें और कुछ बच्चे खड़े थे। वृद्ध ने एक टेम्पो बुलाया। हम सभी उसमें जा बैठे।
🔴 उन्होंने कहा- अच्छा ही हुआ कि तुम छूट गईं, नहीं तो उस ट्रेन से जाकर रास्ते भर बेकार परेशान होती। उनकी बातों का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया। २० मिनट के बाद गाड़ी शांतिकुंज के गेट पर पहुँची। तब तक काफी रात हो चुकी थी। सुरक्षा कर्मी ने गेट खोलने से मना कर दिया।
🔵 दो- तीन बार अनुरोध करने के बाद भी जब प्रहरी ने गेट नहीं खोला, तो वृद्ध ने ऊँची आवाज में डाँटकर कहा- मैं बाहर खड़ा हूँ और तुम कहते हो, गेट नहीं खुलेगा। बूढ़े बाबा की आवाज में ऐसा कुछ था कि सुरक्षाकर्मी ने तुरंत गेट खोल दिया। मैं तेजी से अंदर आ गई। आगे दाहिनी तरफ कुर्सी पर बैठे सुरक्षा अधिकारी ने मुझसे पूछा- कहाँ से आईं हैं? मैंने अपनी परिस्थिति और समस्या संक्षेप में बताई। जब मैंने बताया कि ये बाबा मुझे यहाँ ले आए, तो पूछने लगे- कौन बाबा?
🔴 मैंने पीछे मुड़कर देखा, तो वहाँ न तो वे वृद्ध पुरुष थे, न ही उनकी पत्नी और न उनके बच्चे। टेम्पो तक का पता नहीं था। सब कुछ खड़े- खड़े ही गायब हो चुका था। मैं हतप्रभ होकर सुरक्षाकर्मी की ओर पलटी। बहुत कोशिश करने पर भी मेरे मुँह से बोल नहीं फूट पा रहे थे।
🔵 सुरक्षा कर्मियों ने मेरी स्थिति को संदिग्ध समझकर पहले तो अन्दर जाने देने से साफ मना कर दिया, पर उनमें से एक ने मेरी दशा देखकर कुछ सोचते हुए कहा- आप यहाँ शांतिकुंज में किसी को जानती हैं? मुझे भास्कर भाई साहब याद आए। उत्साहित होकर मैंने उनका नाम लिया। उन लोगों ने तुरन्त उन्हें फोन पर सारी बातें बताईं।
🔴 कुछ ही देर में मेन गेट पर उन्होंने एक महिला को भेजा, जो टाटानगर की थीं। वो मुझे अच्छी तरह से पहचानती थीं। उन्होंने सुरक्षाकर्मियों को सन्तुष्ट किया और मुझे अपने साथ ले गई। रात काफी हो चुकी थी, इसलिए अधिक कुछ बातचीत नहीं हुई। हम सभी सो गए।
🔵 अगले दिन रसोई में गई, तो वह कोई विशेष दिन था इसलिए कई प्रकार के विशेष व्यंजन बन रहे थे। मैं भी उसमें शामिल हो गई। श्रद्धेया जीजी ने मेरी आपबीती सुनीं तो बोलीं तुम्हें एक दिन और यहाँ प्रसाद पाना था, इसीलिए नहीं जा सकी।
🔴 टिकट के पैसे की व्यवस्था में एक दिन और रुकना पड़ा। तीसरे दिन भास्कर भाईसाहब से पैसे लेकर मैं टाटानगर के लिए रवाना हुई। टाटानगर पहुँची, तो मालूम हुआ कि तीन दिन पहले की चली वह गाड़ी, जो मुझसे छूट गई थी, अभी दो घंटे पहले पहुँची है। उस ट्रेन से आने वाली बहिनों से पता चला कि रेल की पटरियों में पैदा की गई गड़बड़ी के कारण वह गाड़ी दो दिन तक रास्ते में ही खड़ी रही। अब तक मैं इस बात को अच्छी तरह से समझ चुकी थी कि ट्रेन छूट जाने के बाद मेरी असहाय अवस्था में बूढ़े के रूप में मेरी मदद करने वाले स्वयं परम पूज्य गुरुदेव ही थे।
🔵 वे पहले से ही जानते थे कि जो ट्रेन मुझसे छूट गई, वह रास्ते में धक्के खाती हुई दो दिनों बाद पहुँचेगी। तभी तो वे मुझे दिलासा देकर कह रहे थे कि ट्रेन का छूट जाना मेरे भले के लिए हुआ है। सचमुच अगर मैं इस ट्रेन से जाती तो मुझे भी टोली के दूसरे लोगों की तरह ही दो दिनों तक की यात्रा के दौरान विभिन्न प्रकार की असुविधाओं का सामना करना पड़ता। यह मेरा सौभाग्य ही था कि शांतिकुंज वापस जाकर मैंने स्वादिष्ट पकवान भी खाए और टोली के सभी परिजनों के पीछे- पीछे ही वापस टाटानगर पहुँच भी गई।
🌹 आशा शर्मा आदर्शनगर (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/dipyagya
🔵 सभी यह सोचकर बहुत खुश थे कि पहली बार लगातार कई दिनों तक सेवा दान का अवसर मिलेगा। हम बहिनों को भोजनालय में खाना बनाने का काम मिल गया। सभी ने मिल- जुलकर बड़े प्रसन्न मन से खाना बनाया। वैसे तो, मैंने गुरुदेव को कभी देखा नहीं था, पर ऐसा लगता था, मानो उन्हीं के लिए खाना बना रही हूँ। पूरे प्रवासकाल में बड़ा आनन्द आया।
🔴 नौ दिनों के बाद सभी भरे मन से विदा हुए। चूँकि हम टोली में थे, इसलिए सब की टिकट एक साथ ही बनी थी। नियत समय पर गाड़ी आई और हम सभी चढ़ भी गए। लेकिन आपा धापी में मैं जिस डिब्बे में चढ़ी थी, उसमें मेरे ग्रुप के कोई नहीं थे। घबराहट में उस डिब्बे से उतरकर दूसरे डिब्बों में जा- जाकर उन्हें ढूँढ़ने लगी- क्योंकि मेरे पास न तो टिकट था, न पैसे थे। मैं उन्हें ढूँढ़ ही रही थी कि इतने में गाड़ी खुल गई।
🔵 मैं डर गई कि कहीं बिना टिकट के पकड़ी जाऊँगी, तो मुसीबत आ जाएगी। उतर कर स्टेशन पर आ गई। गाड़ी की रफ्तार तेज होती जा रही थी। ट्रेन के डिब्बे एक- एक करके आँखों के आगे से गुजरते जा रहे थे। अपनी टोली की बहिनों को खोजने के क्रम में मैं डिब्बे के भीतर झाँकती हुई उनके नाम ले- लेकर जोर- जोर से पुकार रही थी। एक- एक कर सभी डिब्बे मेरी आँखों के सामने से गुजर गए।
🔴 मैं प्लेटफार्म पर ही खड़ी रह गई, किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में। तभी तेजी से जा रहे किसी व्यक्ति के टकरा जाने से मेरी तन्द्रा भंग हुई। थके- हारे कदमों से चलकर सामने के खाली बैंच पर जा बैठी। बैठी- बैठी यही सोच रही थी कि अब क्या किया जाए।
🔵 सोचते- सोचते थक गई, लेकिन कोई उपाय नहीं सूझा। समय तेजी से आगे बढ़ रहा था। धीरे- धीरे आने- जाने वालों की संख्या घटती जा रही थी।
🔴 थोड़ी ही देर में चारों ओर सन्नाटा छा गया। एक अनजाना- सा भय मुझे बेचैन किये जा रहा था। इक्का- दुक्का लोग दिख रहे थे। उन अपरिचितों से अपनी समस्या नहीं कह सकती थी, पता नहीं इनमें कौन कैसा है। कहीं किसी गलत आदमी से कह बैठी, तो बजाय घटने के मेरी परेशानियाँ और बढ़ जाएँगी।
🔵 इसी उधेड़- बुन में डूबी थी कि इतने में एक वृद्ध सज्जन आए। उन्होंने मुझसे पूछा- बेटी कहाँ जाना है? मैंने कहा- टाटानगर जाना है। उन्होंने बताया टाटानगर की गाड़ी तो अब कल रात में आएगी। फिर थोड़ा रुककर अपनेपन से कहने लगे, सारी रात अकेले प्लेटफार्म पर गुजारना तो तुम्हारे लिए ठीक नहीं हैं। इस समय कहीं जाना चाहती हो, तो बताओ?
🔴 मैं सोचने लगी, एक तो ये भी अकेले हैं, ऊपर से बूढ़े -- इनसे क्या कहूँ। फिर मन में आया कि कहीं पू. गुरुदेव ने मुझे मुसीबत में देख इन्हें मेरी सहायता के लिए प्रेरित किया हो। मैंने कहा- शांतिकुंज जाती, पर मेरे पास पैसे नहीं हैं।
🔵 वे बोले, चलो मैं तुम्हें शान्तिकुञ्ज पहुँचा देता हूँ। मैंने पूछा- आप कौन हैं? तो उन्होंने बताया मैं बलिया का हूँ। मैं फिर डरी- अकेले आदमी हैं, पता नहीं कैसे हों। वे मेरे हाव- भाव से मेरे मन की बात समझ गए, बोले- डरो नहीं बेटी, मेरे साथ मेरी पत्नी और बच्चे भी हैं। उन्होंने अँधेरे में एक ओर हाथ उठाकर दिखाया, थोड़ी दूर पर दो- तीन औरतें और कुछ बच्चे खड़े थे। वृद्ध ने एक टेम्पो बुलाया। हम सभी उसमें जा बैठे।
🔴 उन्होंने कहा- अच्छा ही हुआ कि तुम छूट गईं, नहीं तो उस ट्रेन से जाकर रास्ते भर बेकार परेशान होती। उनकी बातों का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया। २० मिनट के बाद गाड़ी शांतिकुंज के गेट पर पहुँची। तब तक काफी रात हो चुकी थी। सुरक्षा कर्मी ने गेट खोलने से मना कर दिया।
🔵 दो- तीन बार अनुरोध करने के बाद भी जब प्रहरी ने गेट नहीं खोला, तो वृद्ध ने ऊँची आवाज में डाँटकर कहा- मैं बाहर खड़ा हूँ और तुम कहते हो, गेट नहीं खुलेगा। बूढ़े बाबा की आवाज में ऐसा कुछ था कि सुरक्षाकर्मी ने तुरंत गेट खोल दिया। मैं तेजी से अंदर आ गई। आगे दाहिनी तरफ कुर्सी पर बैठे सुरक्षा अधिकारी ने मुझसे पूछा- कहाँ से आईं हैं? मैंने अपनी परिस्थिति और समस्या संक्षेप में बताई। जब मैंने बताया कि ये बाबा मुझे यहाँ ले आए, तो पूछने लगे- कौन बाबा?
🔴 मैंने पीछे मुड़कर देखा, तो वहाँ न तो वे वृद्ध पुरुष थे, न ही उनकी पत्नी और न उनके बच्चे। टेम्पो तक का पता नहीं था। सब कुछ खड़े- खड़े ही गायब हो चुका था। मैं हतप्रभ होकर सुरक्षाकर्मी की ओर पलटी। बहुत कोशिश करने पर भी मेरे मुँह से बोल नहीं फूट पा रहे थे।
🔵 सुरक्षा कर्मियों ने मेरी स्थिति को संदिग्ध समझकर पहले तो अन्दर जाने देने से साफ मना कर दिया, पर उनमें से एक ने मेरी दशा देखकर कुछ सोचते हुए कहा- आप यहाँ शांतिकुंज में किसी को जानती हैं? मुझे भास्कर भाई साहब याद आए। उत्साहित होकर मैंने उनका नाम लिया। उन लोगों ने तुरन्त उन्हें फोन पर सारी बातें बताईं।
🔴 कुछ ही देर में मेन गेट पर उन्होंने एक महिला को भेजा, जो टाटानगर की थीं। वो मुझे अच्छी तरह से पहचानती थीं। उन्होंने सुरक्षाकर्मियों को सन्तुष्ट किया और मुझे अपने साथ ले गई। रात काफी हो चुकी थी, इसलिए अधिक कुछ बातचीत नहीं हुई। हम सभी सो गए।
🔵 अगले दिन रसोई में गई, तो वह कोई विशेष दिन था इसलिए कई प्रकार के विशेष व्यंजन बन रहे थे। मैं भी उसमें शामिल हो गई। श्रद्धेया जीजी ने मेरी आपबीती सुनीं तो बोलीं तुम्हें एक दिन और यहाँ प्रसाद पाना था, इसीलिए नहीं जा सकी।
🔴 टिकट के पैसे की व्यवस्था में एक दिन और रुकना पड़ा। तीसरे दिन भास्कर भाईसाहब से पैसे लेकर मैं टाटानगर के लिए रवाना हुई। टाटानगर पहुँची, तो मालूम हुआ कि तीन दिन पहले की चली वह गाड़ी, जो मुझसे छूट गई थी, अभी दो घंटे पहले पहुँची है। उस ट्रेन से आने वाली बहिनों से पता चला कि रेल की पटरियों में पैदा की गई गड़बड़ी के कारण वह गाड़ी दो दिन तक रास्ते में ही खड़ी रही। अब तक मैं इस बात को अच्छी तरह से समझ चुकी थी कि ट्रेन छूट जाने के बाद मेरी असहाय अवस्था में बूढ़े के रूप में मेरी मदद करने वाले स्वयं परम पूज्य गुरुदेव ही थे।
🔵 वे पहले से ही जानते थे कि जो ट्रेन मुझसे छूट गई, वह रास्ते में धक्के खाती हुई दो दिनों बाद पहुँचेगी। तभी तो वे मुझे दिलासा देकर कह रहे थे कि ट्रेन का छूट जाना मेरे भले के लिए हुआ है। सचमुच अगर मैं इस ट्रेन से जाती तो मुझे भी टोली के दूसरे लोगों की तरह ही दो दिनों तक की यात्रा के दौरान विभिन्न प्रकार की असुविधाओं का सामना करना पड़ता। यह मेरा सौभाग्य ही था कि शांतिकुंज वापस जाकर मैंने स्वादिष्ट पकवान भी खाए और टोली के सभी परिजनों के पीछे- पीछे ही वापस टाटानगर पहुँच भी गई।
🌹 आशा शर्मा आदर्शनगर (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/dipyagya
👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 22)
🌹 परिष्कृत प्रतिभा, एक दैवी अनुदान-वरदान
🔴 भीष्म ने मृत्यु को धमकाया था कि जब तक उत्तरायण सूर्य न आवे, तब तक इस ओर पैर न धरना। सावित्री ने यमराज के भैंसे की पूँछ पकड़कर उसे रोक लिया था और सत्यवान के प्राण वापस करने के लिए बाधित किया था। अर्जुन ने पैना तीर चलाकर पाताल-गंगा की धार ऊपर निकाली थी और भीष्म की इच्छानुसार उनकी प्यास बुझाई थी। राणा सांगा के शरीर में अस्सी गहरे घाव लगे थे, फिर भी वे पीड़ा की परवाह न करते हुए अंतिम साँस रहने तक युद्ध में जूझते ही रहे थे। बड़े काम बड़े व्यक्तित्वों से ही बन पड़ते हैं। भारी वजन उठाने में हाथी जैसे सशक्त ही काम आते हैं। बकरों और गधों से उतना बन नहीं पड़ता, भले ही वे कल्पना करते, मन ललचाते या डींगे हाँकते रहें।
🔵 प्रतिभा जिधर भी मुड़ती है, उधर ही बुलडोजरों की तरह मैदान साफ करती चलती है। सर्वविदित है कि यूरोप का विश्वविजयी पहलवान सैंडो किशोर अवस्था तक अनेक बीमारियों से घिरा, दुर्बल काया लिए फिरते थे। पर जब उन्होंने समर्थ तत्त्वावधान में स्वास्थ्य का नये सिरे से सञ्चालन और बढ़ाना शुरू किया, तो कुछ ही समय में विश्वविजयी स्तर के पहलवान बन गये। भारत के चन्दगीराम पहलवान के बारे में अनेकों ने सुना है कि वह हिन्दकेसरी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। पहले वह अन्यमनस्क स्थिति में अध्यापकी से रोटी कमाने वाले क्षीणकाय व्यक्ति थे। उन्होंने अपने मनोबल से ही नई रीति-नीति अपनायी और खोयी हुई सेहत नये सिरे से न केवल पायी, वरन् इतनी बढ़ायी कि हिन्द केसरी उपाधि से विभूषित हुए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://awgpskj.blogspot.in/2017/03/21.html
🔴 भीष्म ने मृत्यु को धमकाया था कि जब तक उत्तरायण सूर्य न आवे, तब तक इस ओर पैर न धरना। सावित्री ने यमराज के भैंसे की पूँछ पकड़कर उसे रोक लिया था और सत्यवान के प्राण वापस करने के लिए बाधित किया था। अर्जुन ने पैना तीर चलाकर पाताल-गंगा की धार ऊपर निकाली थी और भीष्म की इच्छानुसार उनकी प्यास बुझाई थी। राणा सांगा के शरीर में अस्सी गहरे घाव लगे थे, फिर भी वे पीड़ा की परवाह न करते हुए अंतिम साँस रहने तक युद्ध में जूझते ही रहे थे। बड़े काम बड़े व्यक्तित्वों से ही बन पड़ते हैं। भारी वजन उठाने में हाथी जैसे सशक्त ही काम आते हैं। बकरों और गधों से उतना बन नहीं पड़ता, भले ही वे कल्पना करते, मन ललचाते या डींगे हाँकते रहें।
🔵 प्रतिभा जिधर भी मुड़ती है, उधर ही बुलडोजरों की तरह मैदान साफ करती चलती है। सर्वविदित है कि यूरोप का विश्वविजयी पहलवान सैंडो किशोर अवस्था तक अनेक बीमारियों से घिरा, दुर्बल काया लिए फिरते थे। पर जब उन्होंने समर्थ तत्त्वावधान में स्वास्थ्य का नये सिरे से सञ्चालन और बढ़ाना शुरू किया, तो कुछ ही समय में विश्वविजयी स्तर के पहलवान बन गये। भारत के चन्दगीराम पहलवान के बारे में अनेकों ने सुना है कि वह हिन्दकेसरी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। पहले वह अन्यमनस्क स्थिति में अध्यापकी से रोटी कमाने वाले क्षीणकाय व्यक्ति थे। उन्होंने अपने मनोबल से ही नई रीति-नीति अपनायी और खोयी हुई सेहत नये सिरे से न केवल पायी, वरन् इतनी बढ़ायी कि हिन्द केसरी उपाधि से विभूषित हुए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://awgpskj.blogspot.in/2017/03/21.html
👉 धर्म पर आस्था रखने वाले दया न छोडे़ं
🔵 नावेल्ड (अलवानिया) का एक छोटा देहाती गाँव है, जहाँ अधिकांश कृषक रहते हैं वहाँ की परंपरा और स्थिति ऐसी है, जिससे वहाँ अधिकांश व्यक्ति मांसाहार को स्वाभाविक भोजन मानते और प्रयोग करते हैं।
🔴 ऐसे ही एक कृषक परिवार का छोटा बालक न्यूनररिचे पास के मिशन स्कूल में भर्ती हुआ। स्कूल में सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त एक घंटा धर्म-शिक्षा की भी होती थी। ढर्रा मुद्दतों से चल रहा था। पादरी बाइबिल पढाते और लड़के उसे पढते। ऊँचे आदर्शों की चर्चा होती, ईसाई धर्म का गौरव बताया जाता पर था वह सब धर्म-शिक्षण-जानकारी की आवश्यकता पूरी करने तक ही सीमित।
🔵 एक दिन धर्म-शिक्षा के घंटे में पादरी प्रभु यीशु की सहृदयता और शिक्षा की विवेचना कर रहे थे। वे बता रहे थे- 'यीशु ने दया और करुणा की सरिता बहाई और अपने अनुयायियों को हर प्राणी के साथ दया का, सहृदय व्यवहार करने का उपदेश दिया। सच्चे ईसाई को ऐसा ही दयावान् होना चाहिए।"
🔴 यह सब एक लकीर पीटने के लिये पढा़-पढाया जाता था। पर बालक रिचे ने उसे गंभीर रूप में लिया। वह कई दिन तक लगातार यही सोचता रहा क्या हम सच्चे ईसाई नहीं है "क्या हम प्रमु यीशु के उपदेशों को कहते-सुनते भर ही है ? उन्हें अपनाते क्यों नहीं ? उन पर चलते क्यों नहीं ?
🔵 बालक ने कई दिन तक अपने घर में मांस के लिये छोटे जानवरों और पक्षियों का वध होते देखा था। उनके कष्ट और उत्पीडन को भी आँसू भरकर देखा था। कोमल भावना वाले बालक ने एक दिन इस दृश्य को देखकर, तडफते हुये प्राणी के साथ अपनी आत्मीयता जोड़ी तो उसे लगा जैसे उसी को काटा उधेडा जा रहा है। बेचारा घर से बाहर चला गया और सुबक सुबक कर घंटों रोता रहा।
🔴 तब वह इतना छोटा था कि अपने मनोभाव घर के लोगों पर ठीक तरह प्रकट नही कर सकता था पर अब वह बडा़ हो चला था, लगभग दस साल का। अपनी संवेदनाओं को प्रकट करने लायक शब्द उसके हाथ आ गये थे। अपनी वेदना उसने दूसरे दिन शिक्षक पादरी के सामने रखी और पूछा क्या मांस के लिए पशु-पक्षियों की हत्या करना ईसाई धर्म के और प्रमु यीशु की शिक्षाओ के अनुरूप है।
🔵 पादरी स्वयं मांस खाते थे। वहाँ घर-घर में माँस खाया जाता था। इसलिये स्पष्ट न कह सके। अगर-मगर के साथ दया और मांसाहार के प्रतिपादन के समर्थन की बात बताने लगे। आत्मय शिक्षक बालक के गले सुशिक्षित पादरी की लंबी-चौडी व्याख्या तनिक भी न उतरी। उसे लगा वह बहकाया जा रहा है। यदि दया, धर्म का अंग है, तो उसे धर्मात्मा लोग हर प्राणी के लिए प्रयोग क्यो न करें? यदि धर्म वास्तविक है तो उसे व्यवहार में क्यों न उतारा जाए ?
🔴 बालक रिचे ने निश्चय किया कि वह सच्चा ईसाई बनेगा, प्रभु यीशु का सच्चा अनुयायी। उसने मांस न खाने का निश्चय कर लिया। सामने भोजन आया तो उसने मांस की कटोरी दूर हटा दी। कारण पूछा गया तो उसने यह कहा-यदि हम धर्म पर आस्था रखते है तो हमें उसकी शिक्षाओं को व्यवहार में भी लाना चाहिए।
हत्यारे और रक्तपिपासु लोग धर्मात्म नही हो सकते।' घर के लोगों ने मांस न खाने से शरीर कमजोर हो जाने की दलील दी तो उसने पूछा-क्या शारीरिक कमजोरी आत्मिक पतन से अधिक घृणित है ? घर वालों का समझाना-बुझाना बेकार चला गया, रिचे ने माँस खाना छोडा सो छोड ही दिया।
🔵 ईसाई धर्म और यीशु की दया शिक्षा का प्रसंग जहाँ भी चलता तब रिचे रूखे कंठ और डब-डबाई आँखों से यही पूछता- क्या पेट को बूचडखाना बनाए रखने वालों को धर्म और परमेश्वर की चर्चा करने का अधिकार है ? लोगों के तर्क कुंठित हो जाते और सच्चाई के आगे सिर नीचा हो जाता।
🔴 बालक रिचे जब भी मांस की प्राप्ति के लिए होने वाले उत्पीड़न पर विचार करता तभी उसकी आत्मा रो पडती इस मनोदशा से उसकी माँ प्रभावित हुई फिर दोनों बडी बहिन। तीनों ने माँस छोडा। भावनओं का मोड अशुभ या शुभ की दिशा में जिधर भी मुड चले उधर बढ़ता ही जाता है। इस प्रकर सारे परिवार ने मांस खाना छोड़ दिया। यह हवा आगे बडी। पडोस और परिचय क्षेत्र में यह विचार जड जमाने लगा कि सच्चे धर्मात्मा को दयालु होना ही चाहिए। जो दयालु होगा वह मांसाहार कर कैसे सकेगा ?
🔵 रिचे बडे़ होकर पादरी बने। उन्होंने घर घर घूमकर सच्ची धार्मिकता का प्रचार किया और माँसाहार से विरति उत्पन्न कराई।
🔴 श्रद्धालु धर्म प्रेमियों की संस्था नामक संगठन ने अलबानिया में अनेकों धर्म-प्रचारकों तथा प्रचार-सामग्री के माध्यम से जो लोक शिक्षण किया, उससे प्रभावित होकर लाखों व्यक्तियों ने मांसाहार छोडा़ और धार्मिकता अपनाई। रिचे के सत्प्रयत्नों को धार्मिक क्षेत्रों में सराहा जाता रहा है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 83, 84
🔴 ऐसे ही एक कृषक परिवार का छोटा बालक न्यूनररिचे पास के मिशन स्कूल में भर्ती हुआ। स्कूल में सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त एक घंटा धर्म-शिक्षा की भी होती थी। ढर्रा मुद्दतों से चल रहा था। पादरी बाइबिल पढाते और लड़के उसे पढते। ऊँचे आदर्शों की चर्चा होती, ईसाई धर्म का गौरव बताया जाता पर था वह सब धर्म-शिक्षण-जानकारी की आवश्यकता पूरी करने तक ही सीमित।
🔵 एक दिन धर्म-शिक्षा के घंटे में पादरी प्रभु यीशु की सहृदयता और शिक्षा की विवेचना कर रहे थे। वे बता रहे थे- 'यीशु ने दया और करुणा की सरिता बहाई और अपने अनुयायियों को हर प्राणी के साथ दया का, सहृदय व्यवहार करने का उपदेश दिया। सच्चे ईसाई को ऐसा ही दयावान् होना चाहिए।"
🔴 यह सब एक लकीर पीटने के लिये पढा़-पढाया जाता था। पर बालक रिचे ने उसे गंभीर रूप में लिया। वह कई दिन तक लगातार यही सोचता रहा क्या हम सच्चे ईसाई नहीं है "क्या हम प्रमु यीशु के उपदेशों को कहते-सुनते भर ही है ? उन्हें अपनाते क्यों नहीं ? उन पर चलते क्यों नहीं ?
🔵 बालक ने कई दिन तक अपने घर में मांस के लिये छोटे जानवरों और पक्षियों का वध होते देखा था। उनके कष्ट और उत्पीडन को भी आँसू भरकर देखा था। कोमल भावना वाले बालक ने एक दिन इस दृश्य को देखकर, तडफते हुये प्राणी के साथ अपनी आत्मीयता जोड़ी तो उसे लगा जैसे उसी को काटा उधेडा जा रहा है। बेचारा घर से बाहर चला गया और सुबक सुबक कर घंटों रोता रहा।
🔴 तब वह इतना छोटा था कि अपने मनोभाव घर के लोगों पर ठीक तरह प्रकट नही कर सकता था पर अब वह बडा़ हो चला था, लगभग दस साल का। अपनी संवेदनाओं को प्रकट करने लायक शब्द उसके हाथ आ गये थे। अपनी वेदना उसने दूसरे दिन शिक्षक पादरी के सामने रखी और पूछा क्या मांस के लिए पशु-पक्षियों की हत्या करना ईसाई धर्म के और प्रमु यीशु की शिक्षाओ के अनुरूप है।
🔵 पादरी स्वयं मांस खाते थे। वहाँ घर-घर में माँस खाया जाता था। इसलिये स्पष्ट न कह सके। अगर-मगर के साथ दया और मांसाहार के प्रतिपादन के समर्थन की बात बताने लगे। आत्मय शिक्षक बालक के गले सुशिक्षित पादरी की लंबी-चौडी व्याख्या तनिक भी न उतरी। उसे लगा वह बहकाया जा रहा है। यदि दया, धर्म का अंग है, तो उसे धर्मात्मा लोग हर प्राणी के लिए प्रयोग क्यो न करें? यदि धर्म वास्तविक है तो उसे व्यवहार में क्यों न उतारा जाए ?
🔴 बालक रिचे ने निश्चय किया कि वह सच्चा ईसाई बनेगा, प्रभु यीशु का सच्चा अनुयायी। उसने मांस न खाने का निश्चय कर लिया। सामने भोजन आया तो उसने मांस की कटोरी दूर हटा दी। कारण पूछा गया तो उसने यह कहा-यदि हम धर्म पर आस्था रखते है तो हमें उसकी शिक्षाओं को व्यवहार में भी लाना चाहिए।
हत्यारे और रक्तपिपासु लोग धर्मात्म नही हो सकते।' घर के लोगों ने मांस न खाने से शरीर कमजोर हो जाने की दलील दी तो उसने पूछा-क्या शारीरिक कमजोरी आत्मिक पतन से अधिक घृणित है ? घर वालों का समझाना-बुझाना बेकार चला गया, रिचे ने माँस खाना छोडा सो छोड ही दिया।
🔵 ईसाई धर्म और यीशु की दया शिक्षा का प्रसंग जहाँ भी चलता तब रिचे रूखे कंठ और डब-डबाई आँखों से यही पूछता- क्या पेट को बूचडखाना बनाए रखने वालों को धर्म और परमेश्वर की चर्चा करने का अधिकार है ? लोगों के तर्क कुंठित हो जाते और सच्चाई के आगे सिर नीचा हो जाता।
🔴 बालक रिचे जब भी मांस की प्राप्ति के लिए होने वाले उत्पीड़न पर विचार करता तभी उसकी आत्मा रो पडती इस मनोदशा से उसकी माँ प्रभावित हुई फिर दोनों बडी बहिन। तीनों ने माँस छोडा। भावनओं का मोड अशुभ या शुभ की दिशा में जिधर भी मुड चले उधर बढ़ता ही जाता है। इस प्रकर सारे परिवार ने मांस खाना छोड़ दिया। यह हवा आगे बडी। पडोस और परिचय क्षेत्र में यह विचार जड जमाने लगा कि सच्चे धर्मात्मा को दयालु होना ही चाहिए। जो दयालु होगा वह मांसाहार कर कैसे सकेगा ?
🔵 रिचे बडे़ होकर पादरी बने। उन्होंने घर घर घूमकर सच्ची धार्मिकता का प्रचार किया और माँसाहार से विरति उत्पन्न कराई।
🔴 श्रद्धालु धर्म प्रेमियों की संस्था नामक संगठन ने अलबानिया में अनेकों धर्म-प्रचारकों तथा प्रचार-सामग्री के माध्यम से जो लोक शिक्षण किया, उससे प्रभावित होकर लाखों व्यक्तियों ने मांसाहार छोडा़ और धार्मिकता अपनाई। रिचे के सत्प्रयत्नों को धार्मिक क्षेत्रों में सराहा जाता रहा है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 83, 84
👉 सत्य का साथ कभी न छोड़े
🔴 स्वामी विवेकानंद प्रारंभ से ही एक मेधावी छात्र थे और सभी लोग उनके व्यक्तित्व और वाणी से प्रभावित रहते थे। जब वो अपने साथी छात्रों से कुछ बताते तो सब मंत्रमुग्ध हो कर उन्हें सुनते थे। एक दिन कक्षा में वो कुछ मित्रों को कहानी सुना रहे थे, सभी उनकी बातें सुनने में इतने मग्न थे की उन्हें पता ही नहीं चला की कब मास्टर जी कक्षा में आए और पढ़ाना शुरू कर दिया। मास्टर जी ने अभी पढऩा शुरू ही किया था कि उन्हें कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी।कौन बात कर रहा है? मास्टर जी ने तेज आवाज़ में पूछा। सभी छात्रों ने स्वामी जी और उनके साथ बैठे छात्रों की तरफ इशारा कर दिया। मास्टर जी क्रोधित हो गए।
🔵 उन्होंने तुरंत उन छात्रों को बुलाया और पाठ से संबधित प्रश्न पूछने लगे। जब कोई भी उत्तर नहीं दे पाया। तब अंत में मास्टर जी ने स्वामी जी से भी वही प्रश्न किया, स्वामी जी तो मानो सब कुछ पहले से ही जानते हों , उन्होंने आसानी से उस प्रश्न का उत्तर दे दिया। यह देख मास्टर जी को यकीन हो गया कि स्वामी जी पाठ पर ध्यान दे रहे थे और बाकी छात्र बात-चीत में लगे हुए थे।फिर क्या था।
🔴 उन्होंने स्वामी जी को छोड़ सभी को बेंच पर खड़े होने की सजा दे दी। सभी छात्र एक-एक कर बेच पर खड़े होने लगे, स्वामी जी ने भी यही किया। मास्टर जी बोले – नरेन्द्र तुम बैठ जाओ!नहीं सर, मुझे भी खड़ा होना होगा क्योंकि वो मैं ही था जो इन छात्रों से बात कर रहा था। स्वामी जी ने आग्रह किया। सभी उनकी सच बोलने की हिम्मत देख बहुत प्रभावित हुए।
🌹 स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग
🔵 उन्होंने तुरंत उन छात्रों को बुलाया और पाठ से संबधित प्रश्न पूछने लगे। जब कोई भी उत्तर नहीं दे पाया। तब अंत में मास्टर जी ने स्वामी जी से भी वही प्रश्न किया, स्वामी जी तो मानो सब कुछ पहले से ही जानते हों , उन्होंने आसानी से उस प्रश्न का उत्तर दे दिया। यह देख मास्टर जी को यकीन हो गया कि स्वामी जी पाठ पर ध्यान दे रहे थे और बाकी छात्र बात-चीत में लगे हुए थे।फिर क्या था।
🔴 उन्होंने स्वामी जी को छोड़ सभी को बेंच पर खड़े होने की सजा दे दी। सभी छात्र एक-एक कर बेच पर खड़े होने लगे, स्वामी जी ने भी यही किया। मास्टर जी बोले – नरेन्द्र तुम बैठ जाओ!नहीं सर, मुझे भी खड़ा होना होगा क्योंकि वो मैं ही था जो इन छात्रों से बात कर रहा था। स्वामी जी ने आग्रह किया। सभी उनकी सच बोलने की हिम्मत देख बहुत प्रभावित हुए।
🌹 स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग
👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 37)
🌹 श्रेष्ठ व्यक्तित्व के आधार सद्विचार
🔴 कितनी ही सज्जनोचित वेशभूषा में क्यों न हो, दुष्ट दुराचारी को देखते ही पहचान लिया जाता है, साधु तथा सिद्धों के वेश में छिपकर रहने वाले अपराधी अनुभवी पुलिस की दृष्टि से नहीं बच पाते और बात की बात में पकड़े जाते हैं। उनके हृदय का दुर्भाव उनका सारा आवरण भेद कर व्यक्तित्व के ऊपर बोलता रहता है।
🔵 जिस प्रकार के मनुष्य के विचार होते हैं वस्तुतः वह वैसा ही बन जाता है। इस विषय में एक उदाहरण बहुत प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि भृंगी पतंग झींगुर को पकड़ लाता है और बहुत देर तक उसके सामने रहकर गुंजार करता रहता है यहां तक कि उसे देखते-देखते बेहोश हो जाता है। उस बेहोशी की दशा में झींगुर की विचार परिधि निरन्तर उस भृंगी के स्वरूप तथा उसकी गुंजार से घिरी रहती है जिसके फलस्वरूप वह झींगुर भी निरन्तर में भृंगी जैसा ही बन जाता है। इसी भृंगी तथा कीट के आधार पर आदि कवि वाल्मीकि ने सीता और राम के प्रेम का वर्णन करते हुए एक बड़ी सुन्दर उक्ति अपने महाकाव्य में प्रस्तुत की है।
🔴 उन्होंने लिखा कि सीता ने अशोक-वाटिका की सहचरी विभीषण की पत्नी सरमा से एक बार कहा—सरमे! मैं अपने प्रभु राम का निरन्तर ध्यान करती रहती हूं। उनका स्वरूप प्रतिक्षण मेरी विचार परिधि में समाया रहता है। कहीं ऐसा न हो कि भृंगी और पतंग के समान इस विचार तन्मयता के कारण में राम-रूप हो ही जाऊं और तब हमारे दाम्पत्य-जीवन में बड़ा व्यवधान पड़ जायेगा। सीता की चिन्ता सुनकर सरमा ने हंसते हुए कहा—देवी! आप चिंता क्यों करती हैं, आपके दाम्पत्य-जीवन में जरा भी व्यवधान नहीं पड़ेगा।
🔵 जिस प्रकार आप भगवान के स्वरूप का विचार करती रहती हैं उसी प्रकार राम भी तो आपके रूप का चिन्तन करते रहते हैं। इस प्रकार यदि आप राम बन जायेंगे तो राम सीता बन जायेंगे। इससे दाम्पत्य-जीवन में क्या व्यवधान पड़ सकता है? परिवर्तन केवल इतना होगा कि पति पत्नी और पत्नी पति बन जायेगी।’’ इस उदाहरण में कितना सत्य है नहीं कहा जा सकता किन्तु यह तथ्य मनोवैज्ञानिक आधार पर पूर्णतया सत्य है कि मनुष्य जिन विचारों का चिन्तन करता है उसके अनुरूप ही बन जाता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 कितनी ही सज्जनोचित वेशभूषा में क्यों न हो, दुष्ट दुराचारी को देखते ही पहचान लिया जाता है, साधु तथा सिद्धों के वेश में छिपकर रहने वाले अपराधी अनुभवी पुलिस की दृष्टि से नहीं बच पाते और बात की बात में पकड़े जाते हैं। उनके हृदय का दुर्भाव उनका सारा आवरण भेद कर व्यक्तित्व के ऊपर बोलता रहता है।
🔵 जिस प्रकार के मनुष्य के विचार होते हैं वस्तुतः वह वैसा ही बन जाता है। इस विषय में एक उदाहरण बहुत प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि भृंगी पतंग झींगुर को पकड़ लाता है और बहुत देर तक उसके सामने रहकर गुंजार करता रहता है यहां तक कि उसे देखते-देखते बेहोश हो जाता है। उस बेहोशी की दशा में झींगुर की विचार परिधि निरन्तर उस भृंगी के स्वरूप तथा उसकी गुंजार से घिरी रहती है जिसके फलस्वरूप वह झींगुर भी निरन्तर में भृंगी जैसा ही बन जाता है। इसी भृंगी तथा कीट के आधार पर आदि कवि वाल्मीकि ने सीता और राम के प्रेम का वर्णन करते हुए एक बड़ी सुन्दर उक्ति अपने महाकाव्य में प्रस्तुत की है।
🔴 उन्होंने लिखा कि सीता ने अशोक-वाटिका की सहचरी विभीषण की पत्नी सरमा से एक बार कहा—सरमे! मैं अपने प्रभु राम का निरन्तर ध्यान करती रहती हूं। उनका स्वरूप प्रतिक्षण मेरी विचार परिधि में समाया रहता है। कहीं ऐसा न हो कि भृंगी और पतंग के समान इस विचार तन्मयता के कारण में राम-रूप हो ही जाऊं और तब हमारे दाम्पत्य-जीवन में बड़ा व्यवधान पड़ जायेगा। सीता की चिन्ता सुनकर सरमा ने हंसते हुए कहा—देवी! आप चिंता क्यों करती हैं, आपके दाम्पत्य-जीवन में जरा भी व्यवधान नहीं पड़ेगा।
🔵 जिस प्रकार आप भगवान के स्वरूप का विचार करती रहती हैं उसी प्रकार राम भी तो आपके रूप का चिन्तन करते रहते हैं। इस प्रकार यदि आप राम बन जायेंगे तो राम सीता बन जायेंगे। इससे दाम्पत्य-जीवन में क्या व्यवधान पड़ सकता है? परिवर्तन केवल इतना होगा कि पति पत्नी और पत्नी पति बन जायेगी।’’ इस उदाहरण में कितना सत्य है नहीं कहा जा सकता किन्तु यह तथ्य मनोवैज्ञानिक आधार पर पूर्णतया सत्य है कि मनुष्य जिन विचारों का चिन्तन करता है उसके अनुरूप ही बन जाता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 15)
🌹 आत्मबल से उभरी परिष्कृत प्रतिभा
🔵 इक्कीसवीं सदी से प्रारंभ होने वाला युग-अभियान संपन्न तो प्रतिभावान् मनुष्यों द्वारा ही होगा, पर उनके पीछे निश्चित रूप से ऐसी दिव्यचेतना जुड़ी हुई होगी, जैसी की फ्रांस की एक कुमारी जोन ऑफ आर्क ने रणकौशल से अपरिचित होते हुए भी अपने देश को पराधीनता के पाश से मुक्त कराने में सफलता प्राप्त की थी। महात्मा गाँधी और संत विनोबा जी जो कर सके, वह उस स्थिति में कदाचित् ही बन पड़ता जो वे बैरिस्टर, मिनिस्टर, नेता, अभिनेता, आदि बनकर कर सके होते।
🔴 चंद्रगुप्त जब विश्वविजय की योजना सुनकर सकपकाने लगा तो चाणक्य ने कहा-तुम्हारी दासी पुत्र वाली मनोदशा को मैं जानता हूँ। उससे ऊपर उठो और चाणक्य के वरद् पुत्र जैसी भूमिका निभाओ। विजय प्राप्त कराने की जिम्मेदारी तुम्हारी नहीं, मेरी है।’’ शिवाजी जब अपने सैन्यबल को देखते हुए असमंजस में थे कि इतनी बड़ी लड़ाई कैसे लड़ी जा सकेगी, तो समर्थ रामदास ने उन्हें भवानी के हाथों अक्षय तलवार दिलाई थी और कहा था-तुम छत्रपति हो गये, पराजय की बात ही मत सोचो। राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के बहाने बला और अतिबला का कौशल सिखाने ले गये थे; ताकि वे युद्ध लड़ सकें-असुरता का समापन और रामराज्य के रूप में ‘सतयुग की वापसी’ संभव कर सकें।
🔵 महाभारत लड़ने का निश्चय सुनकर अर्जुन सकपका गया था और कहने लगा कि ‘‘मैं अपने गुजारे के लिये तो कुछ भी कर लूँगा, फिर हे केशव! आप इस घोर युद्ध में मुझे नियोजित क्यों कर रहें है?’’ इसके उत्तर में भगवान् ने एक ही बात कही थी कि ‘‘इन कौरवों को तो मैंने पहले ही मारकर रख दिया है। तुझे यदि श्रेय लेना है तो आगे आ अन्यथा तेरे सहयोग के बिना भी वह सब हो जाएगा, जो होने वाला है। घाटे में तू ही रहेगा-श्रेय गँवा बैठेगा और उस गौरव से भी वंचित रहेगा जो विजेता और राज्यसिंहासन के रूप में मिला करता है।’’ अर्जुन ने वस्तुस्थिति समझी और कहने लगा-करिष्ये वचनं तव’’ अर्थात् आपका आदेश मानूँगा।
🔴 ऐसी ही हिचकिचाहट हनुमान, अंगद नल-नील आदि की रही होती तो वे अपनी निजी शक्ति के बल पर किसी प्रकार जीवित तो रहते, पर उस अक्षय कीर्ति से वंचित ही बने रहते, जो उन्हें अनंतकाल तक मिलने वाली है। युगसृजन में श्रेय किन्हीं को भी मिले, पर उसके पीछे वास्तविक शक्ति उस ईश्वरीय सत्ता की ही होगी, जिसने नई सृष्टि रचने जैसे स्तर की अभिनव योजना बनाई है और उसके लिये आवश्यक साधनों एवं अवसर विनिर्मित करने का साधन जुटाने वाला संकल्प किया है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔵 इक्कीसवीं सदी से प्रारंभ होने वाला युग-अभियान संपन्न तो प्रतिभावान् मनुष्यों द्वारा ही होगा, पर उनके पीछे निश्चित रूप से ऐसी दिव्यचेतना जुड़ी हुई होगी, जैसी की फ्रांस की एक कुमारी जोन ऑफ आर्क ने रणकौशल से अपरिचित होते हुए भी अपने देश को पराधीनता के पाश से मुक्त कराने में सफलता प्राप्त की थी। महात्मा गाँधी और संत विनोबा जी जो कर सके, वह उस स्थिति में कदाचित् ही बन पड़ता जो वे बैरिस्टर, मिनिस्टर, नेता, अभिनेता, आदि बनकर कर सके होते।
🔴 चंद्रगुप्त जब विश्वविजय की योजना सुनकर सकपकाने लगा तो चाणक्य ने कहा-तुम्हारी दासी पुत्र वाली मनोदशा को मैं जानता हूँ। उससे ऊपर उठो और चाणक्य के वरद् पुत्र जैसी भूमिका निभाओ। विजय प्राप्त कराने की जिम्मेदारी तुम्हारी नहीं, मेरी है।’’ शिवाजी जब अपने सैन्यबल को देखते हुए असमंजस में थे कि इतनी बड़ी लड़ाई कैसे लड़ी जा सकेगी, तो समर्थ रामदास ने उन्हें भवानी के हाथों अक्षय तलवार दिलाई थी और कहा था-तुम छत्रपति हो गये, पराजय की बात ही मत सोचो। राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के बहाने बला और अतिबला का कौशल सिखाने ले गये थे; ताकि वे युद्ध लड़ सकें-असुरता का समापन और रामराज्य के रूप में ‘सतयुग की वापसी’ संभव कर सकें।
🔵 महाभारत लड़ने का निश्चय सुनकर अर्जुन सकपका गया था और कहने लगा कि ‘‘मैं अपने गुजारे के लिये तो कुछ भी कर लूँगा, फिर हे केशव! आप इस घोर युद्ध में मुझे नियोजित क्यों कर रहें है?’’ इसके उत्तर में भगवान् ने एक ही बात कही थी कि ‘‘इन कौरवों को तो मैंने पहले ही मारकर रख दिया है। तुझे यदि श्रेय लेना है तो आगे आ अन्यथा तेरे सहयोग के बिना भी वह सब हो जाएगा, जो होने वाला है। घाटे में तू ही रहेगा-श्रेय गँवा बैठेगा और उस गौरव से भी वंचित रहेगा जो विजेता और राज्यसिंहासन के रूप में मिला करता है।’’ अर्जुन ने वस्तुस्थिति समझी और कहने लगा-करिष्ये वचनं तव’’ अर्थात् आपका आदेश मानूँगा।
🔴 ऐसी ही हिचकिचाहट हनुमान, अंगद नल-नील आदि की रही होती तो वे अपनी निजी शक्ति के बल पर किसी प्रकार जीवित तो रहते, पर उस अक्षय कीर्ति से वंचित ही बने रहते, जो उन्हें अनंतकाल तक मिलने वाली है। युगसृजन में श्रेय किन्हीं को भी मिले, पर उसके पीछे वास्तविक शक्ति उस ईश्वरीय सत्ता की ही होगी, जिसने नई सृष्टि रचने जैसे स्तर की अभिनव योजना बनाई है और उसके लिये आवश्यक साधनों एवं अवसर विनिर्मित करने का साधन जुटाने वाला संकल्प किया है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 19)
🌹 दीक्षा के अंग-उपअंग
🔴 उद्देश्य- यज्ञोपवीत के दो उद्देश्य हैं- पहला उद्देश्य ये है कि भगवान् का प्रतीक और प्रतिनिधि यज्ञोपवीतरूपी धागा अपने बाएँ कंधे पर स्थापित करके आदमी को ये अनुभव करना चाहिए कि मेरा शरीर अब मंदिर के तरीके से हो गया। पाँचों देवताओं का प्रतीक सम्मिश्रित यज्ञोपवीत अर्थात् भगवान् की शक्तियों का समन्वय यज्ञोपवीत मेरे कंधे पर विराजमान है और भगवान् ने जो जिम्मेदारियाँ मेरे कंधे पर रखी हैं इस मनुष्य के जीवन को देकर के, मैं उन जिम्मेदारियों को निभाऊँगा।
🔵 यज्ञोपवीत पहनने वाले को ये भाव रखना चाहिए कि मेरे हृदय के ऊपर भगवान् टँगे हुए हैं। यज्ञोपवीत के रूप में मेरा हृदय ऐसा होना चाहिए, जैसे भगवान् का है। वैसे मनुष्य का भी होना चाहिए। हृदय के अंदर करुणा होनी चाहिए, हृदय के अंदर निर्मलता होनी चाहिए। हृदय के अंदर दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिए और यज्ञोपवीत पहनने वाले को ध्यान रखना चाहिए कि मेरा कलेजा अर्थात् प्यार करने का स्तर।
🔴 कहते हैं कि हमारे कलेजे में ये आदमी समा गया है और हमारे कलेजे में ये बात चुभ गयी है। ये बात मुहावरे के रूप में प्यार का अर्थ समझाती है। कलेजा अर्थात् प्यार। हम भगवान् को सर्वतोमुखी प्यार करते हैं और यज्ञोपवीत को पीठ के ऊपर रखा जाता है और ये ध्यान किया जाता है और ये विश्वास किया जाता है कि भगवान् हमारे पीठ पर विराजमान हैं। हमको श्रेष्ठ मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा देंगे और भगवान् के वाहन को जिस तरीके से होना चाहिए, मैं उसी तरीके से बनकर रहूँगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/d.2
🔴 उद्देश्य- यज्ञोपवीत के दो उद्देश्य हैं- पहला उद्देश्य ये है कि भगवान् का प्रतीक और प्रतिनिधि यज्ञोपवीतरूपी धागा अपने बाएँ कंधे पर स्थापित करके आदमी को ये अनुभव करना चाहिए कि मेरा शरीर अब मंदिर के तरीके से हो गया। पाँचों देवताओं का प्रतीक सम्मिश्रित यज्ञोपवीत अर्थात् भगवान् की शक्तियों का समन्वय यज्ञोपवीत मेरे कंधे पर विराजमान है और भगवान् ने जो जिम्मेदारियाँ मेरे कंधे पर रखी हैं इस मनुष्य के जीवन को देकर के, मैं उन जिम्मेदारियों को निभाऊँगा।
🔵 यज्ञोपवीत पहनने वाले को ये भाव रखना चाहिए कि मेरे हृदय के ऊपर भगवान् टँगे हुए हैं। यज्ञोपवीत के रूप में मेरा हृदय ऐसा होना चाहिए, जैसे भगवान् का है। वैसे मनुष्य का भी होना चाहिए। हृदय के अंदर करुणा होनी चाहिए, हृदय के अंदर निर्मलता होनी चाहिए। हृदय के अंदर दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिए और यज्ञोपवीत पहनने वाले को ध्यान रखना चाहिए कि मेरा कलेजा अर्थात् प्यार करने का स्तर।
🔴 कहते हैं कि हमारे कलेजे में ये आदमी समा गया है और हमारे कलेजे में ये बात चुभ गयी है। ये बात मुहावरे के रूप में प्यार का अर्थ समझाती है। कलेजा अर्थात् प्यार। हम भगवान् को सर्वतोमुखी प्यार करते हैं और यज्ञोपवीत को पीठ के ऊपर रखा जाता है और ये ध्यान किया जाता है और ये विश्वास किया जाता है कि भगवान् हमारे पीठ पर विराजमान हैं। हमको श्रेष्ठ मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा देंगे और भगवान् के वाहन को जिस तरीके से होना चाहिए, मैं उसी तरीके से बनकर रहूँगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/d.2
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 76)
🌹 मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
🔴 प्रारम्भ में मथुरा में रहकर जिन गतिविधियों को चलाने के लिए हिमालय से आदेश हुआ था, उन्हें अपनी जानकारी की क्षमता द्वारा कर सकना कठिन था। न साधन, न साथ, न अनुभव, न कौशल। फिर इतने विशाल काम किस प्रकार बन पड़ें? हिम्मत टूटती सी देखकर मार्गदर्शक ने परोक्षतः लगाम हाथ में सँभाली। हमारे शरीर भर का उपयोग हुआ। बाकी सब काम कठपुतली नचाने वाला बाजीगर स्वयं करता रहा, लकड़ी के टुकड़े का श्रेय इतना ही है कि तार मजबूती से जकड़ कर रखे और जिस प्रकार नाचने का संकेत हुआ, वैसा करने से इंकार नहीं किया।
🔵 चार घण्टे नित्य लिखने के लिए निर्धारण किया। लगता रहा कि व्यास और गणेशजी का उदाहरण चल पड़ा। पुराण लेखन में व्यास बोलते गए थे। ठीक वही यहाँ हुआ। आर्ष ग्रन्थों का अनुवाद कार्य अति कठिन है। चारों वेद, १०८ पुराण उपनिषद, छहों दर्शन, चौबीसों स्मृतियाँ आदि-आदि सभी ग्रन्थों में हमारी कलम और उँगलियों का उपयोग हुआ। बोलती-लिखती कोई और अदृश्य शक्ति रही। अन्यथा इतना कठिन काम इतनी जल्दी बन पड़ना सम्भव न था। फिर धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण का प्रयोग पूरा करने वाली सैकड़ों की संख्या में लिखी गईं पुस्तकें मात्र एक ही व्यक्ति के बलबूते किस प्रकार होती रह सकती थीं? यह लेखन कार्य जिस दिन से आरम्भ हुआ, उस दिन से लेकर आज तक बन्द ही नहीं हुआ। वह बढ़ते-बढ़ते इतना हो गया कि जितना हमारे शरीर का वजन है।
🔴 प्रकाशन के लिए प्रेस की जरूरत हुई। अपने बलबूते पर हैंड प्रेस का जुगाड़ किस तरह जुटाया गया। जिसे काम कराना था, वह इतनी सी बाल क्रीड़ा को देखकर हँस पड़ा। प्रेस का विकास हुआ। ट्रेडिलें, सिलेंडर, आटोमैटिक, आफसेटें एक के बाद एक आती चली गईं। उन सबकी कीमतें व प्रकाशित साहित्य की लागत लाखों को पार कर गई।
🔵 ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ पत्रिका के अपने पुरुषार्थ से दो हजार तक ग्राहक बनने पर बात समाप्त हो गई थी। फिर मार्गदर्शक ने धक्का लगाया तो अब वह बढ़ते-बढ़ते छपती है, जो एक कीर्तिमान है। उसके और भी दस गुने बढ़ने की सम्भावना है। युग निर्माण योजना हिन्दी, युग शक्ति गायत्री गुजराती, युग शक्ति उड़िया आदि सब मिलाकर भी डेढ़ लाख के करीब हो जाती है। एक व्यक्ति द्वारा रचित इतनी उच्चकोटि की, इतनी अधिक संख्या में बिना किसी का विज्ञापन स्वीकार किए, इतनी संख्या में पत्रिका छपती है और घाटा जेब में से न देना पड़ता हो, यह एक कीर्तिमान है, जैसा अपने देश में अन्यत्र उदाहरण नहीं ढूँढ़ा जा सकता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/mathura
🔴 प्रारम्भ में मथुरा में रहकर जिन गतिविधियों को चलाने के लिए हिमालय से आदेश हुआ था, उन्हें अपनी जानकारी की क्षमता द्वारा कर सकना कठिन था। न साधन, न साथ, न अनुभव, न कौशल। फिर इतने विशाल काम किस प्रकार बन पड़ें? हिम्मत टूटती सी देखकर मार्गदर्शक ने परोक्षतः लगाम हाथ में सँभाली। हमारे शरीर भर का उपयोग हुआ। बाकी सब काम कठपुतली नचाने वाला बाजीगर स्वयं करता रहा, लकड़ी के टुकड़े का श्रेय इतना ही है कि तार मजबूती से जकड़ कर रखे और जिस प्रकार नाचने का संकेत हुआ, वैसा करने से इंकार नहीं किया।
🔵 चार घण्टे नित्य लिखने के लिए निर्धारण किया। लगता रहा कि व्यास और गणेशजी का उदाहरण चल पड़ा। पुराण लेखन में व्यास बोलते गए थे। ठीक वही यहाँ हुआ। आर्ष ग्रन्थों का अनुवाद कार्य अति कठिन है। चारों वेद, १०८ पुराण उपनिषद, छहों दर्शन, चौबीसों स्मृतियाँ आदि-आदि सभी ग्रन्थों में हमारी कलम और उँगलियों का उपयोग हुआ। बोलती-लिखती कोई और अदृश्य शक्ति रही। अन्यथा इतना कठिन काम इतनी जल्दी बन पड़ना सम्भव न था। फिर धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण का प्रयोग पूरा करने वाली सैकड़ों की संख्या में लिखी गईं पुस्तकें मात्र एक ही व्यक्ति के बलबूते किस प्रकार होती रह सकती थीं? यह लेखन कार्य जिस दिन से आरम्भ हुआ, उस दिन से लेकर आज तक बन्द ही नहीं हुआ। वह बढ़ते-बढ़ते इतना हो गया कि जितना हमारे शरीर का वजन है।
🔴 प्रकाशन के लिए प्रेस की जरूरत हुई। अपने बलबूते पर हैंड प्रेस का जुगाड़ किस तरह जुटाया गया। जिसे काम कराना था, वह इतनी सी बाल क्रीड़ा को देखकर हँस पड़ा। प्रेस का विकास हुआ। ट्रेडिलें, सिलेंडर, आटोमैटिक, आफसेटें एक के बाद एक आती चली गईं। उन सबकी कीमतें व प्रकाशित साहित्य की लागत लाखों को पार कर गई।
🔵 ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ पत्रिका के अपने पुरुषार्थ से दो हजार तक ग्राहक बनने पर बात समाप्त हो गई थी। फिर मार्गदर्शक ने धक्का लगाया तो अब वह बढ़ते-बढ़ते छपती है, जो एक कीर्तिमान है। उसके और भी दस गुने बढ़ने की सम्भावना है। युग निर्माण योजना हिन्दी, युग शक्ति गायत्री गुजराती, युग शक्ति उड़िया आदि सब मिलाकर भी डेढ़ लाख के करीब हो जाती है। एक व्यक्ति द्वारा रचित इतनी उच्चकोटि की, इतनी अधिक संख्या में बिना किसी का विज्ञापन स्वीकार किए, इतनी संख्या में पत्रिका छपती है और घाटा जेब में से न देना पड़ता हो, यह एक कीर्तिमान है, जैसा अपने देश में अन्यत्र उदाहरण नहीं ढूँढ़ा जा सकता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/mathura
👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 77)
🌹 हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ
🔴 हो सकता है अखण्ड दीपक अखण्ड यज्ञ का स्वरूप हो। धूपबत्तियों का जलना, हवन सामग्री की, जप मन्त्रोच्चारण की और दीपक, घी होमे जाने की आवश्यकता पूरी करता हो और इस तरह अखण्ड हवन करने की कोई स्वसंचालित प्रक्रिया बन जाती हो। हो सकता है जल भरे क्लश और स्थापना मे कोई अग्नि जल का संयोग रेल इंजन जैसा भाप शक्ति का सूक्ष्म प्रयोजन पूरा करता हो। हो सकता है अन्तर्ज्योति जगाने में इस बाह्य ज्योति से कुछ सहायता मिलती हो,जो हो अपने को इस अखण्ड ज्योति में भावनात्मक प्रकाश,अनुपम आनन्द,उल्लास से भर- पुल मिलता रहा।
🔵 बाहर चौकी पर रखा हुआ दीपक कुछ दिन तो बाहर- बाहर जलता दिखा,पीछे अनुभूति बदली और लगा कि हमारे अपने अन्तःकरण में यहि प्रकाश ज्योति ज्यों की त्यों जलती है और जिस प्रकार पूजा की कोठरी प्रकाश से आलोकित वैसे ही अपना समस्त अन्तरन्ग इससे ज्योतिर्मय हो रहा है। शरीर,मन और आत्मा मे स्थूल−सूक्ष्म और कारण कलेवर में हम जिस ज्योतिर्मयता का ध्यान करते रहे हैं, सम्भवतः वह उस अखण्ड दीपक की ही प्रतिक्रिया रही होगी। उपसना की सारी अवधि में भावना क्षेत्र वैसे ही प्रकाश बिखेरता है।
🔴 अपना सब कुछ प्रकाशमय है, अन्धकार के आवरण हट गये, अन्ध तमिस्रा की मोहग्रस्तता गई,प्रकाश पूर्ण भावनाएँ- विचारणाएँ और गतिविधियाँ शरीर और मन पर आच्छादित हैं।सर्वत्र प्रकाश का समुद्र लहलहा रहा है और हम तालाब की मछली की तरह उस ज्योति सरोवर में क्रीड़ा- कल्लोल करते, विचरण करते हैं। इन अनुभूतियों ने आत्म- बल,दिव्य और उल्लास को विकासमान् बनाने में इतनी सहायता पहुँचाई कि जिसका कुछ उल्लेख नही किया जा सकता।
🔵 हो सकता है यह कल्पना ही हो, पर सोचते जरूर हैं कि यदि यह अखण्ड ज्योति जलाई न गई होती तो पूजा की कोठरी के धुँधलापन की तरह शायद अन्तरंग भी धुधँला बना होता- अब तो वह दीपक दीपावली के दीप पर्व की तरह अपनी नस- नाड़ियों में जगमगाता दीखता है। अपनी भावभरी अनुभूतियों के प्रवाह में ही जब ३३ वर्ष पूर्व पत्रिका आरम्भ की तो संसार का सर्वोत्तम नाम जो हमें प्रिय लगता था- पसन्द आता था- '' अखण्ड ज्योति'' रख दिया। हो सकता है उसी भावावेश में प्रतिष्ठापित पत्रिका का छोटा सा विग्रह संसार में मंगलमय प्रगति की, प्रकाश की किरणें बिखेरने में समर्थ और सफल हो सका।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔴 हो सकता है अखण्ड दीपक अखण्ड यज्ञ का स्वरूप हो। धूपबत्तियों का जलना, हवन सामग्री की, जप मन्त्रोच्चारण की और दीपक, घी होमे जाने की आवश्यकता पूरी करता हो और इस तरह अखण्ड हवन करने की कोई स्वसंचालित प्रक्रिया बन जाती हो। हो सकता है जल भरे क्लश और स्थापना मे कोई अग्नि जल का संयोग रेल इंजन जैसा भाप शक्ति का सूक्ष्म प्रयोजन पूरा करता हो। हो सकता है अन्तर्ज्योति जगाने में इस बाह्य ज्योति से कुछ सहायता मिलती हो,जो हो अपने को इस अखण्ड ज्योति में भावनात्मक प्रकाश,अनुपम आनन्द,उल्लास से भर- पुल मिलता रहा।
🔵 बाहर चौकी पर रखा हुआ दीपक कुछ दिन तो बाहर- बाहर जलता दिखा,पीछे अनुभूति बदली और लगा कि हमारे अपने अन्तःकरण में यहि प्रकाश ज्योति ज्यों की त्यों जलती है और जिस प्रकार पूजा की कोठरी प्रकाश से आलोकित वैसे ही अपना समस्त अन्तरन्ग इससे ज्योतिर्मय हो रहा है। शरीर,मन और आत्मा मे स्थूल−सूक्ष्म और कारण कलेवर में हम जिस ज्योतिर्मयता का ध्यान करते रहे हैं, सम्भवतः वह उस अखण्ड दीपक की ही प्रतिक्रिया रही होगी। उपसना की सारी अवधि में भावना क्षेत्र वैसे ही प्रकाश बिखेरता है।
🔴 अपना सब कुछ प्रकाशमय है, अन्धकार के आवरण हट गये, अन्ध तमिस्रा की मोहग्रस्तता गई,प्रकाश पूर्ण भावनाएँ- विचारणाएँ और गतिविधियाँ शरीर और मन पर आच्छादित हैं।सर्वत्र प्रकाश का समुद्र लहलहा रहा है और हम तालाब की मछली की तरह उस ज्योति सरोवर में क्रीड़ा- कल्लोल करते, विचरण करते हैं। इन अनुभूतियों ने आत्म- बल,दिव्य और उल्लास को विकासमान् बनाने में इतनी सहायता पहुँचाई कि जिसका कुछ उल्लेख नही किया जा सकता।
🔵 हो सकता है यह कल्पना ही हो, पर सोचते जरूर हैं कि यदि यह अखण्ड ज्योति जलाई न गई होती तो पूजा की कोठरी के धुँधलापन की तरह शायद अन्तरंग भी धुधँला बना होता- अब तो वह दीपक दीपावली के दीप पर्व की तरह अपनी नस- नाड़ियों में जगमगाता दीखता है। अपनी भावभरी अनुभूतियों के प्रवाह में ही जब ३३ वर्ष पूर्व पत्रिका आरम्भ की तो संसार का सर्वोत्तम नाम जो हमें प्रिय लगता था- पसन्द आता था- '' अखण्ड ज्योति'' रख दिया। हो सकता है उसी भावावेश में प्रतिष्ठापित पत्रिका का छोटा सा विग्रह संसार में मंगलमय प्रगति की, प्रकाश की किरणें बिखेरने में समर्थ और सफल हो सका।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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