शान्ति और परमानन्द का रूप है भक्ति
इतना कहने के बाद देवर्षि ने वहाँ उपस्थित जनों की ओर देखा और बोले- ‘‘यदि आप सब श्रेष्ठजन अनुमति दें तो भक्तश्रेष्ठ प्रह्लाद का कथाप्रसंग कहूँ।’’ प्रह्लाद का नाम सुनकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ तथा विश्वामित्र तो रोमांचित हो उठे। वे दोनों लगभग एक साथ ही बोले- ‘‘भक्त प्रह्लाद धन्य हैं, उनके स्मरण से ही मन पावन हो जाता है। उनके बारे में कहना-सुनना जन्म व जीवन को धन्य करता है।’’ वशिष्ठ एवं विश्वामित्र के कथन ने देवर्षि नारद को उत्साहित किया। वे कहने लगे- ‘‘भक्त प्रह्लाद का जन्म मेरे ही आश्रम में हुआ था। मैं जानता हूँ कि जीवन की जटिलताएँ व समस्याएँ उनके जन्म से पहले ही उनके जीवन में थीं। अलौकिक चमत्कारी सिद्धियों एवं प्रचण्ड तान्त्रिक शक्तियों के स्वामी भार्गव शुक्राचार्य एवं त्रिलोकविजयी परम समर्थ सम्राट हिरण्यकश्यप ने उनसे अकारण वैर पाल रखा था।
निर्दोष प्रह्लाद उनकी दृष्टि में दोषी थे। यदि उनका कोई दोष था तो वह थी केवल उनकी भक्ति की भावना। नारायण नाम के स्मरण में लीन रहने वाले प्रह्लाद को विनष्ट करने के लिए ये दोनों कृतसंकल्पित थे। इनकी अनेकों समर्थ शक्तियों के सामने प्रह्लाद के पास केवल प्रभुनाम व प्रभुभक्ति का सहारा था। उनका विश्वास उनकी निष्ठा, उनकी श्रद्धा, उनकी आस्था- बस यही भक्त प्रह्लाद की दिव्य शक्तियाँ थीं। प्रह्लाद इन्हीं को अपना अमोघ कवच मानते थे। जबकि भार्गव शुक्राचार्य एवं उनके शिष्य सम्राट हिरण्यकश्यप दोनों इनका उपहास उड़ाते थे। मृतसंजीवनी विद्या के आचार्य शुक्र को अपनी अलौकिक शक्तियों एवं तंत्र विज्ञान पर भरोसा था। उनकी सोच थी कि उनकी प्रचण्ड शक्तियों के सामने यह भोला-मासूम बालक भला क्या कर लेगा?
इसी सोच के बलबूते अपनी शक्ति के दम्भ में उन्मत्त भार्गव शुक्राचार्य प्रह्लाद पर एक के बाद एक कड़े प्रहार करने लगे। कभी तो वह पुत्तलिका प्रयोग करते, तो कभी वह कृत्या का विनाशक प्रयोग करते। इधर सम्राट हिरण्यकश्यप भी पीछे न था। उसने राक्षसों को प्रह्लाद को यातनाएँ देने के लिए नियुक्त कर रखा था। ये राक्षस कभी तो प्रह्लाद को पर्वत की ऊँचाई से गिरा देते। कभी वे उन्हें समुद्र में फिकवा देते। कभी वे इन्हें हाथियों के झुण्ड के पाँवों के नीचे डाल देते। इन महासमर्थ एवं अति पराक्रमी तथा अजेय समझे जाने वाले इन गुरु-शिष्य के कृत्यों को जो देखता वही सहम जाता। पर नारायण नाम को अपना आश्रय मानने वाले प्रह्लाद सर्वथा निर्भय एवं निश्चिन्त थे। उन्हें न तो कोई चिन्ता थी और न डर।
उनकी माता कयाधू सदा अपने लाडले के लिए चिन्तित एवं भयभीत रहती। प्रह्लाद जब-तब उसे समझाया करते, माता चिन्ता की कोई बात नहीं। भगवान नारायण हैं न। मेरे प्रभु सदा भक्तवत्सल हैं। रही बात विपदाओं-विपत्तियों की तो ये केवल भक्त की ही परीक्षा नहीं लेती, इन क्षणों में परीक्षा भगवान की भी होती है। भक्त की परीक्षा इस बात की होती है कि भक्त की निष्ठा, श्रद्धा, आस्था कितनी सच्ची व अडिग है। भगवान की परीक्षा इस बात की होती है कि वे कितने भक्तवत्सल एवं कितने समर्थ हैं। ये बातें अपनी माता को समझाते हुए प्रह्लाद हँस देते और कहते- माता कोई भी विपदा भगवान से बड़ी नहीं होती। मेरे ऊपर आचार्यश्री एवं पिताश्री ने अब तक जो भी विनाशक प्रहार किए हैं, उससे यही प्रमाणित हुआ है। इसीलिए मैं सर्वथा शान्त एवं परमानन्द में मग्न रहता हूँ। मुझे चिन्ता तो बस पिताश्री के लिए होती है कि कहीं सर्वसमर्थ प्रभु उनके इस आचरण के लिए उन पर कुपित न हो जाएँ।
प्रह्लाद की इन बातों को सुनकर उनकी माता कयाधू को थोड़ी आश्वस्ति मिलती, लेकिन थोड़ी देर बाद वे पुनः चिन्ता में पड़ जातीं। कई बार ऐसा भी हुआ कि उन्होंने मुझे बुलवाया अथवा वह स्वयं मुझसे मिलने आयीं। जब भी वे मुझसे मिलतीं, उनकी चिन्ता पराकाष्ठा पर होती। उनकी इस चिन्ता को देखकर मैं सर्वदा उनसे कहता- चिन्ता न करो महारानी! भगवान कभी भी अपने प्रिय भक्त को अकेला नहीं छोड़ते। भक्त सदा-सर्वदा अपने इष्ट-आराध्य की गोद में रहता है। यह किसी को दिखे अथवा न दिखे परन्तु सत्य यही है। सम्राट हिरण्यकश्यप एवं भार्गव शुक्राचार्य इसे भले न देख सकें लेकिन प्रह्लाद हमेशा ही अपने नारायण की गोद में हैं। इतना ही नहीं मैंने उन्हें यह भी बताया कि एक सत्य यह भी जान लें महारानी कि केवल प्रह्लाद के हृदय में ही नारायण नहीं बसते, भगवान नारायण के हृदय में भी अपने प्रिय प्रह्लाद का वास है।
भगवान का अपने भक्त से सतत जुड़ाव ही भक्त को सर्वथा शान्त एवं परमानन्द में मग्न रहता है। महारानी कयाधू मेरी बातें सुनतीं एवं मौन रहतीं। हाँ! उनकी चिन्ता भय एवं निराशा जरूर कम हो जाते पर प्रह्लाद तो सर्वथा निश्चिन्त थे। समय बीतता गया सम्राट एवं आचार्य के अत्याचार बढ़ते गए और एक दिन भक्त प्रह्लाद की आस्था ने स्तम्भ को फाड़कर नृसिंह रूप में स्वयं को प्रकट कर दिया। भगवान नृसिंह के विकराल रूप एवं भयावह गर्जन के सामने हिरण्यकश्यप तो मूर्छित सा हो गया। रही बात भार्गव शुक्राचार्य की तो वे भय के मारे कहीं जा छुपे। परन्तु प्रह्लाद तो अपने भगवान को सम्मुख पा हर्षित थे। भगवान ने पल भर में अपने भक्त की सभी समस्याएँ मिटा दीं। इसलिए जो भक्तिपथ पर चलता है उसे किसी भी समस्या के बारे में चिन्तित नहीं होना पड़ता।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४१
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