बादलों का पानी जमीन पर गिरता है। जमीन से ढलान पर बहने वाली नदियों में जाता है और नदियाँ समुद्र के गहरे गर्त में जा गिरती हैं। पतन का यही स्वाभाविक क्रम है। मन को यदि रोका न जाये तो वह भी इसी दिशा में स्वभावतः चल पड़ेगा। इसलिए वर्षा के पानी को समुद्र के गर्त में से बचाकर किसी उपयोगी कार्य में लगाना या दिशा विशेष में बहाना हो तो उस पर भी रोकथाम लगानी होगी। पशुओं को खूँटे से बाँध कर ही निर्धारित कामों में लगाया जा सकता है अन्यथा वे छुट्टल छोड़ देने पर जिस-तिस का खेत उजाड़ेंगे। निरर्थक घूमेंगे और आपस में लड़ेंगे। इसलिए उन्हें अनुशासन में रखने के लिए मर्यादाओं का घेरा डालना और बंधन बाँधना पड़ेगा। मजबूत और ऊँचा बाँध बनाकर ही नदियों से सिंचाई के काम की नहरें निकाली जाती हैं।
मन को चिन्तन पक्ष में प्रशिक्षित करने के लिए उसे संयम के अनुबन्ध अपनाने के लिए प्रशिक्षित करना पड़ेगा। इन अनुबंधों को संयम कहते हैं। संयम के चारों पक्षों को गत अंक में अवगत कराया जा चुका है। इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम, और विचार संयम सीख लें तो समझना चाहिए कि अबोध मन वयस्क हो गया और उसने नहाने, कपड़ा धोने, दाँत माँजने, बिस्तर उठाने, बुहारी लगाने जैसे उपक्रम अपनाकर साफ-सुथरा रहना सीख लिया। उन्हें न अपनाने पर कल्पनाएँ और इच्छाएँ ऐसा नटखटपन करती रहेंगी जैसा अबोध बालक करते हैं। वे चन्दा मामा से लेकर तारा गणों की गेंदें बनाने के लिए मचल सकते हैं। इन अभिलाषाओं को- माँगों को- कोई पूरा नहीं कर सकता। तृष्णा की खाई इतनी गहरी है कि उसके लिए अनेकों जन्मों का परिश्रम खपाया जाये तो भी उसको पाटा नहीं जा सकता। अन्ततः अब या फिर कभी उन विडम्बनाओं में से कल्पनाओं को उबारना पड़ेगा तो उसके लिए चिन्तन पर अंकुश लगाने, इच्छाओं पर अंकुश लगाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग मिलेगा नहीं।
चिन्तन के उपरान्त मनुष्य की बड़ी शक्ति है- प्रयास श्रम एवं समय का सुनियोजन। जीवन का तात्पर्य वर्षों की लम्बाई नहीं, वरन् यह है कि उसके समय घटकों का किस प्रकार, किस निमित्त उपयोग किया गया। अनेकों थोड़े दिन जीते हैं, किन्तु अभिमन्यु और भगतसिंह की तरह, विवेकानन्द और रामतीर्थ की तरह अल्प आयु में ही अपने को, अपने समाज को कृत्य-कृत्य कर जाते हैं। कितने ही ऐसे होते हैं जो परम अवधि सौ वर्ष तक जी लेते हैं, पर रहते दूसरों पर भार बनकर ही हैं। ऐसे दीर्घ जीवन से क्या अपना और क्या दूसरों का लाभ?
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1986 पृष्ठ 3
मन को चिन्तन पक्ष में प्रशिक्षित करने के लिए उसे संयम के अनुबन्ध अपनाने के लिए प्रशिक्षित करना पड़ेगा। इन अनुबंधों को संयम कहते हैं। संयम के चारों पक्षों को गत अंक में अवगत कराया जा चुका है। इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम, और विचार संयम सीख लें तो समझना चाहिए कि अबोध मन वयस्क हो गया और उसने नहाने, कपड़ा धोने, दाँत माँजने, बिस्तर उठाने, बुहारी लगाने जैसे उपक्रम अपनाकर साफ-सुथरा रहना सीख लिया। उन्हें न अपनाने पर कल्पनाएँ और इच्छाएँ ऐसा नटखटपन करती रहेंगी जैसा अबोध बालक करते हैं। वे चन्दा मामा से लेकर तारा गणों की गेंदें बनाने के लिए मचल सकते हैं। इन अभिलाषाओं को- माँगों को- कोई पूरा नहीं कर सकता। तृष्णा की खाई इतनी गहरी है कि उसके लिए अनेकों जन्मों का परिश्रम खपाया जाये तो भी उसको पाटा नहीं जा सकता। अन्ततः अब या फिर कभी उन विडम्बनाओं में से कल्पनाओं को उबारना पड़ेगा तो उसके लिए चिन्तन पर अंकुश लगाने, इच्छाओं पर अंकुश लगाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग मिलेगा नहीं।
चिन्तन के उपरान्त मनुष्य की बड़ी शक्ति है- प्रयास श्रम एवं समय का सुनियोजन। जीवन का तात्पर्य वर्षों की लम्बाई नहीं, वरन् यह है कि उसके समय घटकों का किस प्रकार, किस निमित्त उपयोग किया गया। अनेकों थोड़े दिन जीते हैं, किन्तु अभिमन्यु और भगतसिंह की तरह, विवेकानन्द और रामतीर्थ की तरह अल्प आयु में ही अपने को, अपने समाज को कृत्य-कृत्य कर जाते हैं। कितने ही ऐसे होते हैं जो परम अवधि सौ वर्ष तक जी लेते हैं, पर रहते दूसरों पर भार बनकर ही हैं। ऐसे दीर्घ जीवन से क्या अपना और क्या दूसरों का लाभ?
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