लोक व्यवहार की मर्यादाओं से जुड़ी है भक्ति
श्रुतसेन की भक्तिगाथा सुनते हुए सभी के भावों में भक्ति की अनूठी लहर उठी। भक्ति के अमृतकण उनके अस्तित्त्व में बिखरने लगे। सुनने वालों के अन्तर्मन में अनोखी मिठास सी घुल रही थी। इस बीच देवर्षि दो पल के लिए रूके तो सभी को एक साथ लगा कि जैसे इस घुमड़ते-उफनते भावप्रवाह में अचानक कोई अवरोध आ गया। महर्षि क्रतु से तो रहा ही न गया। वह बोले- ‘‘देवर्षि! श्रुतसेन के बारे में कुछ अधिक सुनने का मन है।’’ ऋषि क्रतु के इस कथन की सहमति में अनेकों स्वर उभरे। जिसे सुनकर नारद ने कहा- ‘‘जिस तरह से आप सब वत्स श्रुतसेन के बारे में कुछ अधिक सुनना चाहते हैं, ठीक उसी तरह मैं उस महान भक्त के बारे में कुछ और अधिक कहना चाहता हूँ।’’
‘‘अहा! यह तो अति उत्तम बात हुई।’’ गन्धर्वश्रेष्ठ चित्रसेन ने सुमधुर स्वर में कहा- ‘‘भक्त का जीवन होता ही इतना पावन है। उसके जीवन के प्रत्येक घटनाक्रम एवं प्रसंग में भगवान की भक्ति एवं भगवान् की चेतना घुली होती है। इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष सान्निध्य जितना अधिक हो जीवन के लिए उतना ही श्रेष्ठ एवं शुभ है।’’ ‘‘निश्चित ही गन्धर्वराज चित्रसेन सर्वथा उचित कह रहे हैं।’’ गायत्री के महातेज को स्वयं में समाहित करने वाले विश्वामित्र ने कहा। उन्होंने देवर्षि नारद को स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखते हुए बोला- ‘‘हे भक्ति के आचार्य! सचमुच ही भक्ति से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं है। यह सत्य मैं स्वतः के अनुभव से कह सकता हूँ। मैंने स्वतः के जीवन में तप एवं ज्ञान के अनेक शिखरों को पार किया है। इनके सौन्दर्य से मैं अभिभूत भी हुआ हूँ। लेकिन भक्ति के सौन्दर्य के सामने यह सभी तुच्छ हैं।’’
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के इस कथन की प्रायः सभी ने सराहना करते हुए उनकी विनम्रता एवं सदाशयता की प्रशंसा की। ऋषिमण्डल एवं देवमण्डल में सभी उनकी महानता से सुपरिचित थे। सभी को उनकी सामर्थ्य का ज्ञान था। इतना ही नहीं प्रायः सब को इस महान सत्य का भी पता था कि महर्षि का बाह्य व्यक्तित्व दुर्धर्ष तपस्वी एवं परम ज्ञानी का होते हुए भी उनका आन्तरिक व्यक्तित्व सुकोमल भक्त का है। भक्त, भक्ति एवं भगवान उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय है। यही वजह है कि वह भक्त श्रुतसेन के बारे में कुछ और जानना-सुनना चाहते थे।
देवर्षि नारद को भी यह सत्य पता था। इसलिए उन्होंने बिना एक क्षण की देर लगाए अपनी स्मृतियों के कोष को निहारा, जहाँ श्रुतसेन की सुनहली स्मृतियाँ अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रही थी। इसे समेटते हुए उन्होंने कहा- ‘‘सचमुच ही वत्स श्रुतसेन का व्यक्तित्व भगवान से ओत-प्रोत था। जो भी विपत्तियाँ उनके जीवन में आ रही थीं, उनसे वह तनिक भी विचलित न थे। बाधाओं, विषमताओं से उन्हें कोई भी शिकायत न थी। विनयशीलता तो उनमें कूट-कूट कर भरी थी। सम्राट हिरण्यकश्यप हों या फिर भार्गव शुक्राचार्य, इन दोनों का वह हृदय की गहराइयों से सत्कार व सम्मान करते थे।
ऐसे कई अवसर आए जब सम्राट हिरण्यकश्यप एवं भार्गव शुक्राचार्य को उनके विनय ने विचलित कर दिया। उन्होंने अपने सेवकों एवं शिष्यों को बड़ी कड़ाई से हिदायत देते हुए कहा, श्रुतसेन को मेरे सम्मुख न लाया करो। मुझे भय है कि कहीं उसका विनय, उसके द्वारा पूरी सच्चाई से किया सत्कार, मेरे हृदय को ही न परिवर्तित कर दे। अलग-अलग अवसरों पर यह सत्य सम्राट हिरण्यकश्यप एवं भार्गव शुक्राचार्य दोनों ने ही शब्दों की थोड़ी फेर-बदल के साथ व्यक्त किया। श्रुतसेन के इस अनूठे लोकव्यवहार पर स्वयं मुझे भी आश्चर्य हुआ।
इसलिए जब मैं उससे मिला तो जानना चाहा- वत्स! तुम इतनी विषमाताओं में इतना लोकव्यवहार किस तरह से निभा लेते हो? उत्तर में श्रुतसेन ने हल्की सी मधुर मुस्कान से साथ कहा- देवर्षि! यह सब बहुत आसान है। हृदय में भक्ति का उदय हो जाय तो फिर लोकव्यवहार में कोई अड़चन नहीं रहती। उसका पहला कारण यह है कि भक्त को अपने भगवान के सिवा अन्य कोई चाहत नहीं रहती। इसका दूसरा कारण यह है कि भक्त सभी में अपने आराध्य को ही निहारता है और भक्त कभी भी अपने आराध्य के साथ कठोर तो हो ही नहीं सकता।
श्रुतसेन की ये बातें उसी क्षण मेरे दिल को छू गयीं। मैंने सोचा जब श्रुतसेन जैसे सिद्धभक्त इतना लोकव्यवहार निभाते हैं तब उन्हें तो लोकव्यवहार का पालन करना ही चाहिए, जिन्होंने अभी भक्ति के मार्ग में पाँव रखा है। फिर उसी पल मेरे हृदय में इस भक्ति सूत्र का आविर्भाव हुआ-
‘न तदसिद्धौ लोकव्यवहारौ हेयः
किन्तु फलत्यागस्तत्साधनं च कार्यमेव’॥ ६२॥
जब तक भक्ति में सिद्धि न मिले, तब तक लोक व्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिए बल्कि फलत्याग कर, निष्काम भाव से उस भक्ति का साधन करना चाहिए।
श्रुतसेन से बातें करते हुए, अनायास ही यह सूत्र मेरे मुख से उच्चारित हो गया। इसे सुनकर श्रुतसेन ने साधु! साधु!! अतिश्रेष्ठ!!! ऐसा कहते हुए मेरी सराहना की। तब मैने पूछा- वत्स! इसमें सराहना की क्या बात है? उत्तर में उन्होंने कहा- देवर्षि! सराहना सूत्र के शब्दों की नहीं बल्कि इनमें निहित गूढ़ अर्थ की है। ऐसा क्या गूढ़ अर्थ अनुभव किया तुमने? इस पर श्रुतसेन ने कहा- भक्ति की महाबाधा अहंकार है। जो लोकव्यवहार की मर्यादाओं एवं वर्जनाओं का सम्मान करता है, उसका अहंकार स्वतः ही विगलित हो जाता है। इस अहंता के साथ दो अन्य बाधाएँ वासना एवं तृष्णा भी स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं क्योंकि लोकव्यवहार की प्रायः सभी मर्यादाएँ एवं वर्जनाएँ इन्हीं तीनों वासना, तृष्णा एवं अहंता के नियमन व नाश के लिए हैं।
जो भी भगवत्स्मरण करते हुए लोकव्यवहार की मर्यादाओं एवं वर्जनाओं को हृदय से मान लेता है, उसके लिए भक्ति का सुपथ स्वतः ही प्रकाशित हो जाता है। सच कहें तो देवर्षि! लोकव्यवहार एवं भक्ति का परस्पर कोई विरोध है ही नहीं, बल्कि उल्टे ये दोनों तो एक दूसरे के परस्पर सहयोगी एवं पूरक हैं। सारी लोकमर्यादाएँ एवं वर्जनाएँ इसलिए हैं कि परिवार एवं समाज के कलह एवं संघर्ष को मिटाया जा सके। गहराई से देखें तो कलह एवं संघर्ष का कारण सुख की चाहत है। व्यक्ति में सुख की चाहत असीमित एवं समाज में सुख के साधन सीमित। अब सुख के साधन तो असीमित किए नहीं जा सकते। हाँ! सुख की चाहत अवश्य नियंत्रित की जा सकती है। लोकव्यवहार की सभी मर्यादाएँ एवं वर्जनाएँ इसी उद्देश्य के लिए हैं।
श्रुतसेन का यह चिन्तन देवर्षि को बहुत भाया। वह कुछ और अधिक सोच पाते, इससे पहले ही अपनी वार्ता के सूत्र को आगे बढ़ाते हुए श्रुतसेन ने कहा- भक्त का सुख तो अपने भगवान में होता है। भक्त की भक्ति स्वतः ही उसकी वासना, तृष्णा एवं अहंता को नियंत्रित व रूपान्तरित कर देती है। ऐसी स्थिति में लोकव्यवहार उसके लिए सर्वदा सुलभ एवं सहज हो जाता है।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४६
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