शनिवार, 7 नवंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६३)

ॐकार को जाना, तो प्रभु को पहचाना

अन्तर्यात्रा अचेतन की परतों में चेतनता की स्फूर्ति लाती है। यह एक ऐसा सच है, जिसकी समग्र बौद्धिक व्याख्या तो सम्भव नहीं है, लेकिन इसकी सम्पूर्ण अनुभूति बड़ी सहज है। जो अन्तर्यात्रा में संलग्न हैं, वे सब यही कहते हैं। अनुभव कहता है कि अन्तर्यात्रा का पथ अनगिन रहस्यों से भरा है। इस पथ पर कुछ दूर चलने पर एक ऐसा नया अनजान मोड़ जाता है कि सब कुछ बदला नजर आता है। सारे नजारे बदल जाते हैं। मनःस्थिति ही नहीं, परिस्थिति भी अपना एक नया रूप सामने लाती है।

ऐसे में यदा-कदा ही नहीं बल्कि बहुधा इस यात्रा के अवरुद्ध होने की घटना घटती है। अन्तर्यात्रा के इस दौर में चलने वाले पाँव थकते ही नहीं, बहकते भी हैं। पथ की थकान एवं पाँवों के बहकावे से बचना-उबरना आसान नहीं होता है। सच्चे योग साधक कब योगभ्रष्ट हो जाएँगे कोई ठिकाना नहीं। ऐसी स्थिति में एक ही उपाय है- परमात्मा के प्रति अविचलित श्रद्धा, प्रभु के नाम के प्रति अडिग निष्ठा।     

प्रभु के सामने साधक भी बालक ही है। वह जानना चाहता है कि 
प्रभु को किस नाम से जानें? किस तरह से उसका स्मरण करें? इसकी चर्चा महर्षि अपने अगले सूत्र में करते हैं। वह इसमें कहते हैं-

तस्य वाचकः प्रणवः ॥ १/२७॥

शब्दार्थ- तस्य= उस (ईश्वर का); वाचकः =  वाचक (नाम); प्रणवः = प्रणव (ॐकार) है।
अर्थात् उसे ‘ॐ’ के नाम से जाना जाता है।
    
महर्षि ने इस सूत्र में बताया है कि ‘ॐ’ है नाम प्रभु का। इस ॐ में उतने ही रहस्य हैं, जितने कि स्वयं प्रभु में है। ॐ को जान लिया, तो समझो स्वयं प्रभु को पहचान लिया। वेद, पुराण, उपनिषद् सभी एक स्वर से ओम् की महिमा का गान करते हैं। जो नाम का स्मरण करते हैं, उन्हें अपने आप ही नामी का परिचय मिल जाता है। प्रभु के नाम का स्मरण साधना की सबसे सरल किन्तु प्रभावकारी है। इस रीति से भी योग के शिखर तक पहुँचा जा सकता है। समाधि की सिद्धि पायी जा सकती है। नाम की रटन, नाम की लगन, नाम की धुन, नाम का ध्यान में यदि मन रम जाए, तो समझो कि साधना से सिद्धि का द्वार खुल गया।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १०८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 परीक्षा की कसौटी

परीक्षा में फेल हो गये, घाटा लग गया, नौकरी नहीं मिली, बीमार पड़ गये, स्वजनों से लड़ाई हो गई, जैसा चाहते थे वैसा प्रसंग न बन पड़ा तो उसमें निराश होने की क्या बात है। अगला प्रयास और भी उत्साह और श्रम से करने पर आज न सही, कल फिर सफलता का अवसर प्राप्त हो सकता है। एक राजा जब लड़ाई में 13 बार हार गया और शत्रु के सिपाही उसका पीछा कर रहे थे तब वह अपनी जान बचाये एक खोह में छिपा बैठा था। सब साधन नष्ट हो जाने से उसे निराशा घेरने लगी थी और भविष्य अन्धकारमय दीखता था। इतने में उसने सामने की दीवार पर देखा कि मकड़ी बार−बार जाला बुनती है और वह बार−बार टूट जाता है। फिर भी मकड़ी निराश नहीं होती और हर असफलता के बाद उसी हिम्मत के साथ फिर अपने काम में जुट जाती है। तेरह बार असफल होने के बाद चौदहवीं बार मकड़ी अपना टूटा तागा जोड़ने और जाला बनाने का काम आगे बढ़ाने में सफल हो गई। इस दृश्य का राजा के मन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने सोचा छोटी−सी कौड़ी−मकड़ी जब हिम्मत नहीं छोड़ती तो मेरे जैसे बुद्धिमान और क्षमता सम्पन्न मनुष्य के लिए हिम्मत छोड़ बैठना क्योंकर उचित हो सकता है?

राजा ने हिम्मत समेटी और फिर लड़ाई की तैयारी में पूरे उत्साह के साथ लग गया। चौदहवीं बार उसे सफलता मिल गई। हमारे लिए यह उदाहरण मार्गदर्शन का काम दे सकता है। पहलवान कई बार कुश्ती में पिछड़ जाते हैं पर क्या इससे वे कुश्ती लड़ना छोड़ देते हैं? घुड़ सवारी सीखते समय गिर पड़ने से कौन सवार घोड़े पर चढ़ना छोड़ बैठता है? छोटे बच्चे जब चलना और खड़ा होना सीखते हैं तो बार−बार गिरते और असफल रहते हैं पर इतने में ही वे कहाँ हिम्मत हारते हैं। कब अपना प्रयत्न छोड़ते हैं। वरन् हर असफलता के बाद और अधिक उत्साह तथा प्रसन्नता के साथ उठने चलने का उपक्रम करते हैं। हम इन छोटे बच्चों से बहुत कुछ सीख सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

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