सोमवार, 11 दिसंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 11 Dec 2023

ईश्वर उपासना मानव जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता है। आत्मिक स्तर को सुविकसित, सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखने के लिए हमारी मनोभूमि में ईश्वर के लिए समुचित स्थान रहना चाहिए और यह तभी संभव है जब उसका अधिक चिन्तन, मनन, अधिक सामीप्य, सान्निध्य प्राप्त करते रहा जाय। भोजन के बिना शरीर का काम नहीं चल सकता, साँस लिए बिना रक्ताभिषरण की प्रक्रिया बिगड़ जाती है। इसी प्रकार ईश्वर की उपेक्षा करने के उपरान्त आन्तरिक स्तर भी नीरस, चिन्ताग्रस्त, अनिश्चित, अनैतिक, अव्यवस्थित एवं आशंकित बना रहता है।

भौतिक सुख- साधन, बाहुबल और बुद्धिबल के आधार पर कमाये जा सकते हैं पर गुण-कर्म-स्वभाव की उत्कृष्टता पर निर्धारित समस्त विभूतियाँ हमारे आन्तरिक स्तर पर ही निर्भर रहती हैं। इस स्तर के सुदृढ़ और समुन्नत बनाने में उपासना का भारी योग रहता है। इसलिए अत्यन्त आवश्यक कार्यों की भाँति ही उपासना को दैनिक कार्यक्रम में स्थान मिलना चाहिए। जिस प्रकार जीविका उपार्जन, आहार, विश्राम, सफाई, गृहस्थ पालन, विद्याध्ययन, मनोरंजन आदि का ध्यान रखा जाता है, वैसा ही ध्यान उपासना का भी रखा जाना चाहिए।

संसार की शांति और सुव्यवस्था इसी बात पर निर्भर है कि मनुष्य उच्चस्तरीय भावनाओं से ओत-प्रोत रहे। यह भावनाएँ भीतर से निकलती हैं, बाहर से नहीं थोपी जा सकती। अन्तःकरण पर प्रभाव डालने की शक्ति, श्रद्धा और विश्वास में ही सन्निहित रहती है। इसलिए जब तक इन तत्वों को न जगाया जायगा तब तक यह उत्कृष्टता की अन्तः प्रेरणा कहाँ जागृत होगी? और जब तक यह जागरण न होगा तब मनुष्य अधोगामी प्रवृत्तियों से ऊँचा न उठ सकेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हम अपना भविष्य और चरित्र स्वयं बनाते हैं।

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है। निज का उत्थान-पतन उसके वश की बात है। यह तथ्य जितना सच है, उतना ही यह भी सही है कि वातावरण का प्रभाव अपने ऊपर भी पड़ता है और  अपने व्यक्तित्व से परिवार एवं समाज का वातावरण भी प्रभावित होता है। बुरे वातावरण में रहकर कदाचित् ही कोई अपनी विशिष्टता बना सका हो। साथ ही, यह भी सच है कि वातावरण का प्रभाव भी पड़े बिना नहीं रहता।
  
अधिकतर समर्थ लोगों के क्रियाकलाप ही वातावरण बनाते हैं। बहुसंख्यक होने पर और एक प्रकार की गतिविधियाँ अपना लेने पर दुर्बल स्थिति के लोग भी अपना एक विशेष प्रकार का माहौल बना लेते हैं। व्यसनी, अनाचारियों का समुदाय भी ऐसा प्रभाव उत्पन्न करता है, जिससे सामान्य स्तर के लोग प्रभावित होने लगें। इसलिए अच्छे वातावरण में रहना और बुरे वातावरण से बचना भी उसी प्रकार आवश्यक है, जैसे स्वच्छ हवा में रहने और दुर्गन्ध से बचने का प्रयत्न किया जाता है। वह कहानी प्रसिद्ध है, जिसमें एक ही घोंसले से पकड़े गये दो तोते के बच्चे दो भिन्न प्रकार के व्यवसायियों ने पाले। वहाँ की स्थिति के अनुसार ही वे बोलना सीख गये। संत के यहाँ पला तोता ‘सीताराम-राधेश्याम’ कहता था और चोर के यहाँ पला ‘लूटो-खसोटो-मारो-काटो’ की रट लगाता था; क्योंकि उन्हें यही सब दिनभर सुनने को मिलता था। मनुष्य के संबंध में भी यही बात है। वह जैसे लोगों के साथ रहता है, जैसी परिस्थितियों में रहता है, जो कुछ समीपवर्ती लोगों को करते देखता है, उसी के अनुसार अपना स्वभाव भी ढाल लेता है। वह बंदर की तरह अनुकरणप्रिय जो है।
  
मनस्वी लोग अपनी आदर्शवादिता पर सुदृढ़ रहकर अनेकों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। कितनों को ही अनुकरण की प्रेरणा देते हैं। अपने औचित्य के कारण उस मार्ग पर चलने के लिए अनेकों को आकर्षित करते हैं। आवश्यक नहीं कि वह मार्ग सरल या परंपरागत ही हो, नवीन विचार भी अपने औचित्य के कारण प्रतिभाशाली लोगों द्वारा अपनाये जाने पर एक मार्ग बन जाते हैं। सर्वसाधारण को तो परंपराएँ ही सब कुछ प्रतीत होती हैं; पर विचारवान् लोग औचित्यवान् को देखते-परखते हैं, उसे ही चुनते-अपनाते हैं; पर असली बहुमूल्य मोतियों का कोई पारखी खरीददार न हो, ऐसी बात भी नहीं है। बुद्ध और गाँधी का मार्ग सर्वथा नया था, पर उनके प्रामाणिक व्यक्तित्व और औचित्य भरे प्रतिपादन का परिणाम था कि असंख्यों व्यक्ति उनके अनुयायी बने और एक नवीन वातावरण बना देने में सफल हुए; पर ऐसा होता तभी है, जब प्रतिभावान् अग्रगामी बनकर किसी उपयुक्त मार्ग को अपनायें और अपनी बात को तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण समेत समझायें, स्वयं उस मार्ग पर सुदृढ़ रहकर अन्यान्यों में मनोबल उत्पन्न करें।
  
प्रथा-परंपराओं में से अधिकांश ऐसी हैं, जो आज की स्थिति के अनुरूप नहीं रहीं, भले ही वे किसी जमाने में अपने समय के अनुरूप भूमिका निभाती रही हों। समय गतिशील है, वह आगे बढ़ता है, पीछे नहीं लौटता। चरण सदा आगे बढ़ते हैं, यदि कोई पीछे की तरफ उलटी गति से चलना आरंभ करे, तो विचित्र लगेगा, धीमे चलेगा और काँटे चुभने जैसे संकट में भी फँसेगा। फिर वापस लौटने में हाथ भी क्या लगेगा? उसमें समय की बर्बादी ही पल्ले पड़ेगी। आदिमकाल से लोग जिस रहन-सहन को अपनाने के लिए विवश थे, वह उस समय की सही सूझ-बूझ हो सकती है, पर अब न हम गुफाओं में घर बनाकर रह सकते हैं और न पत्ते लपेटकर ऋतु प्रभाव से बच सकते हैं। निर्वाह के लिए चिर पूर्वज जिन साधनों पर निर्भर थे, उन्हें अब इस प्रगतिशीलता के समय में कोई भी अपनाने के लिए तैयार न होगा। फिर भी हम पुरातन की दुहाई देते हैं और उन्हीं प्रचलनों की सराहना करते हैं, जो कभी परिस्थितिवश अपनाये जाते रहे हैं।
  
किसी को भी यह नहीं कहना चाहिए कि हमें परिस्थितियों से, व्यक्तियों से विवश होकर यह करना पड़ा। वातावरण का प्रभाव अवश्य पड़ता है, पर वह इतना प्रबल नहीं कि साहसी को बाधित कर सके, आदर्शों को तोड़ने-मोड़ने में समर्थ हो सके। अंततः यह निष्कर्ष अपनी यथार्थता सिद्ध करता है कि मनुष्य अपने भाग्य और भविष्य का निर्माता स्वयं है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...