गोपाल्लव हजार गायों का स्वामी नगर-सेठ। धन की अथाह राशि थी उसके पास। किन्तु तो भी गोपाल्लव के जीवन में कोई रस नहीं था, शान्ति नहीं थी, कभी उसने सन्तोष का अनुभव किया हो ऐसा कभी भी नहीं हुआ। वैभव विलास से परिपूर्ण जीवन का एक क्षण भी तो उसे ऐसा याद नहीं आ रहा था जब उसने निर्द्वंदता प्राप्त की हो।
विषय-भोगी गोपाल्लव को यह सब भली प्रकार सोचने का अवसर तब मिला जब राजयक्ष्मा से पीड़ित होकर वह रोग शैया से जा लगा। गोपाल्लव सोच रहे- 'धन की आसक्ति, विषयों के सुख का आकर्षण कितना प्रबल है कि मनुष्य यह भी नहीं सोच पाता कि इस संसार से परे भी कुछ है क्या ? शरीर कृश और जराजीर्ण हो गया तब कहीं मृत्यु याद आती है और मनुष्य सोचता है कि जीवन व्यर्थ गया,पाया कुछ नहीं, गांठ में था सो भी खो दिया।'
गोपाल्लव पड़े यही सोच रहे थे तभी उसके कर्ण-कुहरों पर टकराई एक ध्वनि-बहुत मीठी, भक्ति की भावनाओं से ओत-प्रोत। ऐसा लगा द्वार पर ही बैठा हुआ कोई व्यक्ति भक्ति-गीत गा रहा है। मन को सच्चा सुख भावनाओं में मिलता है। जीवन भर के भूले भटके राही को परमपिता परमात्मा की क्षणिक अनुभूति भी कितना सुख कितना विश्राम देती है यह उस गोपाल्लव को देखता तो सहज ही पता चल जाता। भजन सुनने से ऐसा आराम मिला मानो जलते घावों पर किसी ने शीतल मरहम लगा दिया हो। गोपाल्लव को नींद आ गई आज वे पूर्ण-प्रगाढ़ नींद भर सोये।
नींद टूटी तो वह स्वर-अन्तर्धान हो चुका था। गोपाल्लव ने परिचारक से पूछा- "अभी थोड़ी देर पूर्व बाहर कौन गा रहा था उसे भीतर तो बुलाना, बड़ा ही कर्ण प्रिय स्वर था। उसने मुझे जो शान्ति प्रदान की वह अब तक कभी भी नहीं मिली।"
परिचारक ने हंसकर कहा- "वह कोई संगीतज्ञ नहीं था आर्य! वह तो नगर का मोची है यहीं बैठकर जूते गांठता है और दिन भर के निर्वाह योग्य धन मिलते ही उठकर चला जाता है। सुना है वह अपने ही बनाये पद गाता है, बड़ा ईश्वर भक्त है। तभी तो उसके हर शब्द से रस टपकता है।"
प्रातःकाल वही स्वर फिर सुनाई दिया। गोपाल्लव ने मोची को बुलाकर उसे एक स्वर्ण मुद्रा देते हुए कहा- "तात! यह लो स्वर्ण मुद्रा तुम्हारे कल के गीत ने मुझे अपूर्व शान्ति प्रदान की।"
स्वर्ण मुद्रा पाकर मोची बड़ा प्रसन्न हुआ। खुशी-खुशी घर लौट आया किन्तु उसके बाद कई दिन तक उसका स्वर सुनाई न दिया। सप्ताहान्त मोची आया और सीधे गोपाल्लव के पास जाकर बोला- ”अर्थ कामेष्वसक्तानाँ धर्म ज्ञानं विधीयते” तात! धन और इंद्रियों के वशवर्ती नहीं है जो वहीं धर्म और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। आत्म-कल्याण के मार्ग में यह दोनों वस्तुयें बाधक हैं।"
यह कहकर उसने स्वर्ण मुद्रा लौटा दी। गोपाल्लव ने पूछा- "कई दिन से आये नहीं।"
मोची ने उत्तर दिया- "आर्य! धन की तृष्णा बुरी होती है आपकी दी इस स्वर्ण मुद्रा की रक्षा और उसके उपयोग का चिन्तन करने के आगे मुझे अपना मार्ग ही भूल गया था इसीलिए तो इसे लौटाने आया हूँ।"
गोपाल्लव ने अनुभव किया धन का जीवनोपयोगी उपभोग ही पर्याप्त है परिग्रह से कभी शान्ति नहीं मिल सकती अपना धर्म धर्मार्थ व्यय कर उसने भी मोची की तरह परम शान्ति पाई।
📖 अखण्ड ज्योति जून 1971 पृष्ठ
विषय-भोगी गोपाल्लव को यह सब भली प्रकार सोचने का अवसर तब मिला जब राजयक्ष्मा से पीड़ित होकर वह रोग शैया से जा लगा। गोपाल्लव सोच रहे- 'धन की आसक्ति, विषयों के सुख का आकर्षण कितना प्रबल है कि मनुष्य यह भी नहीं सोच पाता कि इस संसार से परे भी कुछ है क्या ? शरीर कृश और जराजीर्ण हो गया तब कहीं मृत्यु याद आती है और मनुष्य सोचता है कि जीवन व्यर्थ गया,पाया कुछ नहीं, गांठ में था सो भी खो दिया।'
गोपाल्लव पड़े यही सोच रहे थे तभी उसके कर्ण-कुहरों पर टकराई एक ध्वनि-बहुत मीठी, भक्ति की भावनाओं से ओत-प्रोत। ऐसा लगा द्वार पर ही बैठा हुआ कोई व्यक्ति भक्ति-गीत गा रहा है। मन को सच्चा सुख भावनाओं में मिलता है। जीवन भर के भूले भटके राही को परमपिता परमात्मा की क्षणिक अनुभूति भी कितना सुख कितना विश्राम देती है यह उस गोपाल्लव को देखता तो सहज ही पता चल जाता। भजन सुनने से ऐसा आराम मिला मानो जलते घावों पर किसी ने शीतल मरहम लगा दिया हो। गोपाल्लव को नींद आ गई आज वे पूर्ण-प्रगाढ़ नींद भर सोये।
नींद टूटी तो वह स्वर-अन्तर्धान हो चुका था। गोपाल्लव ने परिचारक से पूछा- "अभी थोड़ी देर पूर्व बाहर कौन गा रहा था उसे भीतर तो बुलाना, बड़ा ही कर्ण प्रिय स्वर था। उसने मुझे जो शान्ति प्रदान की वह अब तक कभी भी नहीं मिली।"
परिचारक ने हंसकर कहा- "वह कोई संगीतज्ञ नहीं था आर्य! वह तो नगर का मोची है यहीं बैठकर जूते गांठता है और दिन भर के निर्वाह योग्य धन मिलते ही उठकर चला जाता है। सुना है वह अपने ही बनाये पद गाता है, बड़ा ईश्वर भक्त है। तभी तो उसके हर शब्द से रस टपकता है।"
प्रातःकाल वही स्वर फिर सुनाई दिया। गोपाल्लव ने मोची को बुलाकर उसे एक स्वर्ण मुद्रा देते हुए कहा- "तात! यह लो स्वर्ण मुद्रा तुम्हारे कल के गीत ने मुझे अपूर्व शान्ति प्रदान की।"
स्वर्ण मुद्रा पाकर मोची बड़ा प्रसन्न हुआ। खुशी-खुशी घर लौट आया किन्तु उसके बाद कई दिन तक उसका स्वर सुनाई न दिया। सप्ताहान्त मोची आया और सीधे गोपाल्लव के पास जाकर बोला- ”अर्थ कामेष्वसक्तानाँ धर्म ज्ञानं विधीयते” तात! धन और इंद्रियों के वशवर्ती नहीं है जो वहीं धर्म और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। आत्म-कल्याण के मार्ग में यह दोनों वस्तुयें बाधक हैं।"
यह कहकर उसने स्वर्ण मुद्रा लौटा दी। गोपाल्लव ने पूछा- "कई दिन से आये नहीं।"
मोची ने उत्तर दिया- "आर्य! धन की तृष्णा बुरी होती है आपकी दी इस स्वर्ण मुद्रा की रक्षा और उसके उपयोग का चिन्तन करने के आगे मुझे अपना मार्ग ही भूल गया था इसीलिए तो इसे लौटाने आया हूँ।"
गोपाल्लव ने अनुभव किया धन का जीवनोपयोगी उपभोग ही पर्याप्त है परिग्रह से कभी शान्ति नहीं मिल सकती अपना धर्म धर्मार्थ व्यय कर उसने भी मोची की तरह परम शान्ति पाई।
📖 अखण्ड ज्योति जून 1971 पृष्ठ