बुधवार, 14 जून 2017

👉 देने का आनंद, पाने का आनंद

🔵 भ्रमण एवं भाषणों से थके हुए स्वामी विवेकानंद अपने निवास स्थान पर लौटे। उन दिनों वे अमेरिका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे। वे अपने हाथों से भोजन बनाते थे। एक दिन वे भोजन करने की तैयारी कर रहे थे कि कुछ बच्चे पास आकर खड़े हो गए।

🔴 उनके पास सामान्यतया बच्चों का आना-जाना लगा ही रहता था। बच्चे भूखे थे। स्वामीजी ने अपनी सारी रोटियां एक-एक कर बच्चों में बांट दी। मकान मालकिन वहीं बैठी सब देख रही थी। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।

🔵 आखिर उससे रहा नहीं गया और उसने स्वामीजी से पूछ ही लिया- “आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डाली, अब आप क्या खाएंगे?”

🔴 स्वामीजी के अधरों पर मुस्कान दौड़ गई। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- “मां! रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने वाली वस्तु है। इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही। देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है।“

🔵 “ऐसे उदारमना और सरल व्यक्तित्वों को एवं उनकी जननी भारतभूमि को सत्-सत् नमन!!”

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 112)

🌹 ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म

🔵 महर्षि व्यास ने नर एवं नारायण पर्वत के मध्य वसुधारा जल प्रपात के समीप व्यास गुफा में गणेश जी की सहायता से पुराण लेखन का कार्य किया था। उच्चस्तरीय कार्य हेतु एकाकी, शान्ति, सतोगुणी वातावरण की अभीष्टता। आज की परिस्थितियों में, जबकि प्रेरणादायी साहित्य का अभाव है, पुरातन ग्रंथ लुप्त हो चले, शान्तिकुञ्ज में विराजमान तंत्री ने आज से पच्चीस वर्ष से पूर्व ही चारों वेद, अट्ठारह पुराण, एक सौ आठ उपनिषद्, छहों दर्शन, चौबीस गीताएँ, आरण्यक, ब्राह्मण आदि ग्रंथों का भाष्य कर सर्वसाधारण के लिए सुलभ एवं व्यावहारिक बनाकर रख दिया था। साथ ही जनसाधारण की हर समस्या पर व्यवहारिक समाधान परक युगानुकूल साहित्य सतत लिखा है, जिसने लाखों व्यक्तियों के मन मस्तिष्क प्रभावित कर सही दिशा दी है। प्रज्ञापुराण के अट्ठारह खण्ड नवीनतम सृजन हैं, जिसमें कथा साहित्य के माध्यम से उपनिषद्-दर्शन को जन सुलभ बनाया गया है।

🔴 पतंजलि ने रुद्रप्रयाग में अलकनंदा एवं मंदाकिनी के संगम स्थल पर योग विज्ञान के विभिन्न प्रयोगों का आविष्कार और प्रचलन किया था। उन्होंने प्रमाणित किया कि मानवी काया में ऊर्जा का भण्डार निहित है। इस शरीर तंत्र के ऊर्जा केंद्रों को प्रसुप्ति से जागृति में लाकर मनुष्य देवमानव बन सकता है, ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न बन सकता है। शान्तिकुञ्ज में योग साधना के विभिन्न अनुशासनों योगत्रयी, कायाकल्प एवं आसन-प्राणायाम के माध्यम से इस मार्ग पर चलने वाले जिज्ञासु साधकों की बहुमूल्य यंत्र उपकरणों से शारीरिक-मानसिक परीक्षा सुयोग्य चिकित्सकों से कराने उपरांत साधना लाभ दिया जाता है एवं भावी जीवन सम्बन्धी दिशाधारा प्रदान की जाती है।

🔵 याज्ञवल्क्य ने त्रियुगी नारायण में यज्ञ विद्या अन्वेषण किया था और उनके भेद-उपभेदों का परिणाम मनुष्य एवं समग्र जीवन जगत के स्वास्थ्य सम्वर्धन हेतु, वातावरण शोधन, वनस्पति सम्वर्धन एवं वर्षण के रूप में जाँचा परखा था। हिमालय के इस दुर्गम स्थान पर सम्प्रति एक यज्ञकुण्ड में अखण्ड अग्नि है, जिसे शिव-पार्वती के विवाह के समय से प्रज्ज्वलित माना जाता है। यह उस परम्परा की प्रतीक अग्नि शिखा है, आज यज्ञ विज्ञान की लुप्त प्राय शृंखला को फिर से खोजकर समय के अनुरूप अन्वेषण करने का दायित्त्व ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने अपने कंधों पर लिया है। यज्ञोपचार पद्धति (यज्ञोपैथी) के अनुसंधान हेतु समय के अनुरूप एक सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला आधुनिक उपकरणों से युक्त ब्रह्मवर्चस् प्रांगण के मध्य में विद्यमान है। वनौषधि यजन से शारीरिक, मानसिक रोगों के उपचार, मनोविकार शमन, जीवनीशक्ति वर्धन, प्राणवान पर्जन्य की वर्षा एवं पर्यावरण संतुलन जैसे प्रयोगों के निष्कर्ष देखकर जिज्ञासुओं को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/brahman.2

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 15 Jun 2017


👉 आज का सद्चिंतन 15 Jun 2017


👉 दो सत्यानाशी कार्य

🔴 दिसम्बर मास में कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी। सन्ध्या हो चुकी थी। बाहर दरवाजे पर एक भिखारी रोटी माँग रहा था। यों तो बहुत से भिखारी नित्य आते हैं, पर आज के याचक की वाणी में कुछ विशेष आकर्षण था। उसे देखने के लिये मुझे घर से बाहर आने को विवश होना पड़ा। दरवाजा खोल कर देखता हूँ कि एक अस्थि पंजर नवयुवक भिक्षुक सामने खड़ा है और रोटी की याचना कर रहा है। एक-एक हड्डी दिखाई पड़ रही थी, तो भी उसके चेहरे से ऐसा प्रतीत होता था कि यह पेशेवर भिखारी नहीं है, वरन् कोई विपत्ति का मारा है।

🔵 मैंने उस भिखारी को प्रेम से पास बिठा लिया और उसकी इस दशा का कारण पूछा। पर मेरे बहुत कहने पर तैयार हो गया। उसने कहना आरम्भ किया -

🔴 मेरा जन्म एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इकलौता होने के कारण लाड़-प्यार वश मैं बालकपन में कुछ पढ़-लिख न सका। किशोर अवस्था आते ही माता-पिता का परलोक वास हो गया। मैं अकेला रह गया। बिना पढ़ा होने के कारण व्यापार की कुछ देख−रेख न कर सका। मुनीमों की बन आई। वे लूट करने लगे। इधर मेरे कई नये मित्र उत्पन्न हुए, उन्होंने ऐश-आराम की कीचड़ में घसीट लिया। दुकान की ओर से मेरा मन बिल्कुल फिर गया।

🔵 जवानी के मजे लेता हुआ मित्रों के साथ इधर उधर फिरने लगा। तिजोरियाँ खाली हो गई, जायदाद से ज्यादा कर्ज चढ़ गया, मुनीम लोग दुकान को खोखली करके चले गये। कर्जदारों ने जायदाद को नीलाम करा लिया। ऐसी दशा में मित्र लोग भी किनारा कर गये। उनने अच्छी तरह बोलना भी छोड़ दिया। मैं लाचार था, दो-तीन वर्ष में ही अपनी सारी सम्पदा गँवा कर दर-दर का भिखारी हो गया। बिना पढ़ा होने से कोई अच्छी नौकरी मिली नहीं।

🔴 अभ्यास न होने और लज्जा के कारण छोटी मंजूरी कर न सका। कोई मार्ग न था, घर छोड़ कर निकल पड़ा और देश परदेश भीख माँगता हुआ किसी प्रकार जीवन निर्वाह कर रहा हूँ। यही मेरी अपनी कथा है।”

🔵 भिखारी की आँखों में आँसू भर आये थे, मेरा भी हृदय छलक पड़ा। माता-पिता का वह लाड़-प्यार जो बालकों को अशिक्षित एवं अयोग्य रहने देता है कितना घातक है, यह देख कर मुझे बड़ा दुख हुआ। साथ ही उन मित्र कहलाने वाले डाकुओं पर क्षोभ आया, जो खाते-पीते घरों के बालकों को फँसाने के लिए अपना जाल ताने फिरते हैं और अपने स्वार्थ के लिए उन्हें बिलकुल बरबाद कर देते हैं।

🔴 भिक्षुक भिक्षा लेकर चला गया, पर मेरे मन पर यह अमिट प्रभाव छोड़ गया कि भले घरों के बालकों को नष्ट करने वाली दो ही बातें हैं-

👉 (1) माता-पिता का अनावश्यक लाड़ प्यार।
👉 (2) दुष्ट मित्रों की संगति। इसके द्वारा लाख के घर खाक हो जाते हैं।


अखण्ड ज्योति अगस्त 1942

👉 युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति (अंतिम भाग)

🌹  परीक्षा की वेला आ गई-

🔵 हम अपना उत्तरदायित्व उन कन्धों पर सौंपने जा रहे है जो उसके लिए उपयुक्त हों। युग परिवर्तन की इस सन्धि वेला में आध्यात्मिक व्यक्तियों पर ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी आई है। वे उसे पूरा करने में प्रमाद बरतेंगे तो ईश्वर उन्हें कभी क्षमा न करेगा। स्वर्ग, मुक्ति, ऋद्धि, सिद्धि साक्षात्कार, कुण्डलिनी एवं लौकिक सुख-सुविधाओं के लिए नहीं इन दिनों हर सच्चे अध्यात्मवादी की साधना देशधर्म, समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए होनी चाहिए। उसी के उपयुक्त अपने विचारों और कार्यक्रमों को ढालने के लिए हर आध्यात्मिक व्यक्ति को कटिबद्ध होना चाहिए।

🔴 साल में एक बार छात्रों की परीक्षा होती है, उस पर उनके आगामी वर्ष का आधार बनता है। प्रबुद्ध आत्माओं की परीक्षा का भी कभी-कभी समय आया करता है। त्रेता में दूसरे लोग कायरताग्रस्त हो चुप हो बैठे थे, तब रीछ बन्दरों ने वह परीक्षा उत्तीर्ण की थी। द्वापर में पाँच पाण्डवों ने भगवान का मनोरथ पूरा किया था। पिछले दिनों गुरु गोविन्दसिंह के साथी सिखों ने और समर्थ गुरु रामदास के शिवाजी आदि मराठा शिष्यों ने ईश्वर भक्ति की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। गायत्री की पुकार पर भी कितनों ने ही अपनी श्रेष्ठता का परिचय दिया था। नव-निर्माण की ऐतिहासिक वेला में अब फिर प्रबुद्ध तेजस्वी, जागृत और उदात्त आध्यात्मिक भूमिका वाले ईश्वर भक्तों की पुकार हुई है।

🔵 समय आने पर दूध पीने वाले मजनुओं की तरह हमें आंखें नहीं चुरानी चाहिए। यह समय ईश्वर से नाना प्रकार के मनोरथ पूरे करने के लिए अनुनय विनय करने का नहीं, वरन् उसकी परीक्षा कसौटी पर चढ़कर खरे उतरने का है। युग की पुकार ईश्वर की इच्छा का ही सन्देश लेकर आई है। माँगने की अपेक्षा देने का प्रश्न सामने उपस्थित किया है और अपनी भक्ति एवं आध्यात्मिकता को खरी सिद्ध करने की चुनौती प्रस्तुत की है। इस विषम बेला में हमें विचलित नहीं होना है वरन् श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ना है।

🌹 जिनमें साहस हो आगे आवें-
🔴 हमारा निज का कुछ भी कार्य या प्रयोजन नहीं है। मानवता का पुनरुत्थान होने जा रहा है। ईश्वर उसे पूरा करने वाले हैं। दिव्य आत्माएँ उसी दिशा में कार्य कर भी रही हैं। उज्ज्वल भविष्य की आत्मा उदय हो रही है, पुण्य प्रभाव का उदय होना सुनिश्चित है। हम चाहे तो उसका श्रेय ले सकते हैं और अपने आपको यशस्वी बना सकते हैं। देश को स्वाधीनता मिली, उसमें योगदान देने वाले अमर हो गये। यदि वे नहीं भी आगे आते तो भी स्वराज्य तो आता ही वे बेचारे और अभागे मात्र बनकर रह जाते। ठीक वैसा ही अवसर अब है। बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति अवश्यम्भावी है। उसका मोर्चा राजनैतिक लोग नहीं धार्मिक कार्यकर्त्ता संभालेंगे। यह प्रक्रिया युग-निर्माण योजना के रूप में आरम्भ हुई है। हम चाहते हैं इसके संचालन का भार मजबूत हाथों में चला जाए। ऐसे लोग अपने परिवार में जितने भी हों, जो भी हों, जहाँ भी हों, एकत्रित हो जाएँ और अपना काम सँभाल लें। उत्तर-दायित्व सौंपने की, प्रतिनिधि नियुक्त करने की योजना के पीछे हमारा यही उद्देश्य है।

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति 1965 जनवरी पृष्ठ 53
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/January/v1.53

👉 आत्मचिंतन के क्षण 14 June

🔴 भविष्य की कल्पना करते समय शुभ और अशुभ दोनों की विकल्प सामने है। यह अपनी ही इच्छा पर निर्भर है कि शुभ सोचा जाए अथवा अशुभ। शुभ को छोड़कर कोई व्यक्ति अशुभ कल्पनाएँ करता है तो इसमें किसी और का दोष नहीं है, दोषी है तो वह स्वयं ही, इसलिए कि उसने शुभ चिन्तन का विकल्प सामने रहते हुए भी अशुभ चिन्तन को ही अपनाया।

🔵 भय और मनोबल, अशुभ और शुभ चिन्तन आशंकाएं और आशाएँ सब बन के ही खेल है। इनमें पहले वर्ग का चुनाव जहाँ व्यक्ति को आत्मघाती स्थिति में धकेलता है वही दूसरे प्रकार का चुनाव उसे उत्कर्ष तथा प्रगति के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करता है। सर्वविदित है कि आत्मघात, व्यक्तित्व का हनन था। असफलता का चुनाव व्यक्ति किन्हीं विवशताओं के कारण ही चुनता है अन्यथा सभी अपना विकास, प्रगति और अपने अभियानों में सफलता चाहते हैं। जब सभी लोग सफलता और प्रगति की ही आकाँक्षा करते हैं तो मन में समाये भय के भूत को जगाकर क्यों असफलताओं को आमन्त्रित करता है ? इसके लिए मन की उस दुर्बलता को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है जिसे आत्मविश्वास का अभाव कहा जाता है।
                                              
🔴 भविष्य के प्रति आशंका, भय को आमंत्रण मनुष्य की नैसर्गिक क्षमताओं को कुँद बना देते हैं। अस्तु, जिन्हें जीवन में सफलता प्राप्त करने की आशंका है उन्हें चाहिए कि वे अशुभ चिन्तन, भविष्य के प्रति आशंकित रहने और व्यर्थ के भयों को पालने की आदत से छुटकारा प्राप्त करें।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 इक्कीसवीं सदी का संविधान - हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 12)

🌹  मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रख रहेंगे।

🔵 शरीर की तरह मन के संबंध में भी लोग प्रायः भूल करते हैं। शरीर को सजाने-सँवारने को महत्त्व देकर लोग उसे स्वस्थ, निरोगी एवं सशक्त बनाने की बात भूल जाते हैं। मन के बारे में भी ऐसा ही होता है। लोग मन को महत्त्व देकर मनमानी करने में लग जाते हैं, मनोबल बढ़ाने और मन को स्वच्छ एवं सुसंस्कृत बनाने की बात पर ध्यान नहीं दिया जाता। इस भूल के कारण जीवन में कदम-कदम पर विडम्बनाओं में फँसना पड़ता है। तंदुरुस्ती के साथ मन की दुरुस्ती का भी ध्यान रखना अनिवार्य है। स्वस्थ शरीर में मन विकृत हो तो उद्दंडता, अहंकार प्रदर्शन, परपीड़ा जैसे निकृष्ट कार्य होने लगते हैं। गुंडे-बदमाशों से लेकर राक्षसों तक के अपराध जगत में जो कुछ हो रहा है, उसे अस्वस्थ मन का उपद्रव कहा जा सकता है। मन यदि अच्छी दिशा में मुड़ जाए, आत्मसुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास में रुचि लेने लगे तो जीवन में एक चमत्कार ही प्रस्तुत हो सकता है।

🔴 शरीर के प्रति कर्तव्य पालन करने की तरह मन के प्रति भी हमें अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना चाहिए। कुविचारों और दुर्भावनाओं से मन गंदा, मलिन और पतित होता है, अपनी सभी विशेषताओं और श्रेष्ठताओं को खो देता है। इस स्थिति से सतर्क रहने और बचने की आवश्यकता को अनुभव करना हमारा पवित्र कर्तव्य है। मन को सही दिशा देते रहने के लिए स्वाध्याय की वैसी ही आवश्यकता है, जैसे शरीर को भोजन देने की। आत्म-निर्माण करने वाली, जीवन की समस्याओं को सही ढंग से सुलझाने वाली उत्कृष्ट विचारधारा की पुस्तकें पूरे ध्यान, मनन और चिंतन के साथ पढ़ते रहना ही स्वाध्याय है। यदि सुलझे हुए विचारों के, जीवन विद्या के ज्ञाता कोई संभ्रांत सज्जन उपलब्ध हो सकते हों तो उनका सत्संग भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है।    

🔵 मानव जीवन की महत्ता को हम समझें। इस स्वर्ण अवसर के सदुपयोग की बात सोच, अपनी गुत्थियों में से अधिकांश की जिम्मेदारी अपनी समझें और उन्हें सुलझाने के लिए अपने गुण, कर्म व स्वभाव में आवश्यक हेर-फेरा करने के लिए सदा कटिबद्ध रहें। इस प्रकार की उपलब्धि आत्म निर्माण की प्रेरणा देने वाले सत्साहित्य से, प्रबुद्ध मस्तिष्क के सत्पुरुषों की संगति से एवं आत्म निरीक्षण एवं आत्म-चिंतन से किसी भी व्यक्ति को सहज ही हो सकती है। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.19

http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Sankalpaa/body

👉 नारी जागरण की दूरगामी सम्भावनाएँ (भाग 3)

🔵 नारी को भी मनुष्य माना जा सके। दोनों के बीच भेदभाव बरती जाने वाली सामन्तवादी अन्धकार युग की मान्यता को उलटकर सतयुगी प्रचलन के साथ जोड़ा जा सके। आज तो लड़की-लड़के के सम्बन्ध में दृष्टिकोण का असाधारण अन्तर है। लड़की के जन्मते ही परिवार का मुँह लटक जाता है और लड़का होने पर बधावा बँटने और नगाड़े बजने लगते हैं। लड़का कुल का दीपक और लड़की पराए घर का कूड़ा समझी जाती है। वरपक्ष दहेज की लम्बी चौड़ी माँगें करते हैं और लड़की के अभिभावक विवशता के आगे सिर झुकाकर लुट जाने के लिए आत्म समर्पण करते है। पति के तनिक में अप्रसन्न होने पर उन्हें परित्यक्ता बना दिया जाता और रोते-कल्पते जैसे-तैसे भला-बुरा जीवन जीने की घटनाएँ इतनी कम नहीं होती जिनको आजादी दी जा सके।

🔴 दहेज के लिए यातनाएँ दिए जाने की कुछ घटनाएँ तो अखबारों तक में छप जाती है। पर जो भीतर ही भीतर दबा दी जाती है, उनकी संख्या छपने वाली घटनाओं से अनेक गुनी अधिक है। पतिव्रत पालन के लिए लौह अंकुश रहता है पर पत्नीव्रता का कहीं अता-पता नहीं। विधुर प्रसन्नता पूर्वक विवाह करते है पर विधवाओं को ऐसी छूट कहाँ? नारियाँ सती होती है, पर नर वैसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते। नारियाँ घूँघट मार कर रहती है। नाक, कान छिदवाकर सजधज से रहने के लिए उन्हें इसलिए बाधित किया जाता है कि वे अपना रमणी, कामिनी, भोग्या और दासी होने की नियति का स्वेच्छा पूर्वक उत्साह पूर्वक मानस बनाए जा सकें।

🔵 लोक मानस का यह लौह आवरण हटे बिना नारी को नर के समतुल्य बनाने और उन्हें अपनी प्रतिभा का परिपूर्ण परिचय देकर प्रगति पथ पर कंधे से कंधा मिलाकर चलते रहने का अवसर आखिर कैसे मिल सकता है? आवश्यकता इस लौह आवरण के ऊपर लाखों करोड़ों छैनी हथौड़े चलाने की है, ताकि निविड़ बंधनों ने आधी जनसंख्या की मुश्कें कसकर जिस प्रकार डाली हुई है, उनसे छुटकारा पाने के लिए उपयुक्त वातावरण बन सके। अपने मिशन का नारी जागरण अभियान इसी गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न कर रहा है। उसका मन विष वृक्ष की जड़ काटने का है। पत्तों पर जमी धूलि पोंछ कर चिन्ह पूजा कर लेने से तो आत्म प्रवंचना और लोक विडम्बना भर बन पड़ती है।

🔴 नारी जागरण अभियान के लिए जो महिला मंडल गठित किए जा रहे है। उनका शुभारम्भ श्रीगणेश तो हल्के फुल्के कार्यक्रम को हाथ में लेकर ही किया जा रहा है। पर यह नव सृजन का भूमि पूजन मात्र है। वस्तु स्थिति अवगत कराने के लिए उस आन्दोलन को जन्म देना पड़ेगा जो मानवी स्वतंत्रता और समता का लक्ष्य पूरा करके ही विराम ले।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1988 पृष्ठ 59
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1988/October/v1.59

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...