मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

👉 गृहस्थ-योग (अन्तिम भाग) 28 Dec

🌹 सद्व्यवहार की आवश्यकता

🔵 गृह-कलह की चिनगारी जिस घर में सुलग जाती है, उसमें बड़ा अप्रिय, कटु और दुखदायी वातावरण बना रहता है। इसका कारण अधिकांश में यह होता है कि एक दूसरे के प्रति उचित शिष्टता और सम्मान का खयाल नहीं रखा जाता। आर्थिक, हानि-लाभ के आधार पर उतने कलह नहीं होते जितने शिष्टता, सम्मान, सभ्यता, मधुरता के अभाव के कारण होते हैं। यह कमी दूर की जानी चाहिये। परिवार के हर सदस्य को उचित सम्मान प्राप्त करने का अधिकार है, किसी के अधिकारों पर अनावश्यक कुठाराघात न होना चाहिए। जो कोई अशिष्टता, उच्छृंखलता, उद्दण्डता, अपमान या कटु भाषण की नीति अपनाना हो उसे प्रेमपूर्वक समझाया बुझाया जाना चाहिये और आपसी स्नेह भाव में कमी के कारणों को ढूंढ़कर उचित समाधान करना चाहिये।

🔴 जरासी बात पर तुनककर न्यारे साझे की तुच्छता नहीं फैलने देनी चाहिये। जहां तक सम्भव हो सम्मिलित परिवार ही रहना चाहिए। सम्मिलित रहने में आत्मिक विकास की जितनी सुविधा है उतनी अलग रहने में नहीं है। परन्तु यदि ऐसा लगे कि आपसी मनोमालिन्य बढ़ रहा है, गृह-कलह शांत होने में सफलता नहीं मिलती या अलग रहने में अधिक सुख-शांति की सम्भावना ही हो तो प्रेमपूर्वक अलग अलग ही जाना चाहिए।

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सतयुग की वापसी (भाग 22) 28 Dec

🌹 समग्र समाधान—  मनुष्य में देवत्व के अवतरण से

🔴 विकृतियाँ दीखती भर ऊपर हैं, पर उनकी जड़ अन्तराल की कुसंस्कारिता के साथ जुड़ी रहती है। यदि उस क्षेत्र को सुधारा, सँभाला, उभारा जा सके, तो समझना चाहिए कि चिन्तन, चरित्र और व्यवहार बदला और साथ ही उच्चस्तरीय परिवर्तन भी सुनिश्चित हो गया।       

🔵 भगवान् असंख्य ऋद्धि-सिद्धियों का भांडागार है। उसमें संकटों के निवारण और अवांछनीयताओं के निराकरण की भी समग्र शक्ति है। वह मनुष्य के साथ सम्बन्ध घनिष्ठ करने के लिए भी उसी प्रकार लालायित रहता है, जैसे माता अपने बालक को गोद में उठाने, छाती से लगाने के लिए लालायित रहती है। मनुष्य ही है जो वासना, तृष्णा के खिलौने से खेलता भर रहता है और उस दुलार की ओर से मुँह मोड़े रहता है, जिसे पाकर वह सच्चे अर्थों में कृतकृत्य हो सकता था। उसे समीप तक बुलाने और उसका अतिरिक्त उत्तराधिकार पाने के लिए यह आवश्यक है कि उसके बैठने के लिए साफ-सुथरा स्थान पहले से ही निर्धारित कर लिया जाए। यह स्थान अपना अन्त:करण ही हो सकता है।   

🔴 अन्त:करण की श्रद्धा और दिव्य चेतना के संयोग की उपलब्धि, दिव्य संवेदना कहलाती है, जो नए सिरे से, नए उल्लास के साथ उभरती है। यही उसकी यथार्थता वाली पहचान है, अथवा मान्यता तो प्रतिमाओं में भी आरोपित की जा सकती है। तस्वीर देखकर भी प्रियजन का स्मरण किया जा सकता है, पर वास्तविक मिलन इतना उल्लास भरा होता है कि उसकी अनुभूति अमृत निर्झरिणी उभरने जैसी होती है। इसका अवगाहन करते ही मनुष्य कायाकल्प जैसी देवोपम स्थिति में जा पहुँचता है। उसे हर किसी में अपना आपा हिलोरें लेता दीख पड़ता है और समग्र लोकचेतना अपने भीतर घनीभूत हो जाती है। ऐसी स्थिति में परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ बन जाता है। दूसरों की सुविधा अपनी प्रसन्नता प्रतीत होती है और अपनी प्रसन्नता का के न्द्र दूसरों की सेवा-सहायता में घनीभूत हो जाता है। ऐसा व्यक्ति अपने चिन्तन और क्रियाकलापों को लोक-कल्याण में, सत्प्रवृत्ति-संवर्धन में ही नियोजित कर सकता है। व्यक्ति के ऊपर भगवत् सत्ता उतरे, तो उसे मनुष्य में देवत्व के उदय के रूप में देखा जा सकता है। यदि यह अवतरण व्यापक हो, तो धरती पर स्वर्ग के अवतरण की परिस्थितियाँ ही सर्वत्र बिखरी दृष्टिगोचर होंगी।
 
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आज का सद्चिंतन 28 Dec 2016


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 Dec 2016


👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 6) 28 Dec

🌹 स्नान और उसकी अनिवार्यता

🔴 रेशम के कपड़े पूजा में प्रयुक्त करते समय प्राचीन काल की और आज की परिस्थिति के अन्तर को भी ध्यान में रखना होगा। प्राचीन काल में कीड़े बड़े होकर जब उड़ जाते थे तब उसके छोड़े हुए खोखले ही से रेशम निकाला जाता था। यह अहिंसक उपलब्धि थी। पर आज तो अधिकांश रेशम जीवित कीड़ों को पानी में उबाल कर उनका खोखला उपलब्ध करके प्राप्त किया जाता है। इसमें मारने वालों की तरह पहनने वाले भी अहिंसा के नियम का उल्लंघन करने के दोषी बनते हैं। इस प्रकार अहिंसा युक्त तरीके से प्राप्त हुआ रेशम पूजा उपचार में तो निषिद्ध ही माना जाय। अच्छा तो यह है कि उनका उपयोग सामान्य पहनने के लिए भी न किया जाय।

🔵 पशु चर्म के आसनों के सम्बन्ध में भी यही बात है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि जंगलों में रहते थे। वहां अपनी मौत से मरे हुए वन्य पशुओं का चमड़ा जहां-तहां आसानी से उपलब्ध होता रहता था। आच्छादन के अन्य साधन उन दिनों वनवासी लोगों के लिए सहज उपलब्ध भी न थे। ऐसी दशा में उनके लिए आच्छादन में मृग, सिंह, व्याघ्र आदि का आसन, आच्छादन प्रयुक्त करना उचित था। पर आज तो जितना भी पशु चर्म उपलब्ध होता है उसमें 99 प्रतिशत वध किए गये पशुओं का ही होता है। इस प्रकार हिंसा पूर्वक प्राप्त किये गये चमड़े और मांस में कोई अन्तर नहीं पड़ता।

🔴 आज जब आसन के लिए ऊनी, सूती, कुशा, चटाई आदि के अनेक प्रकार के बिना हिंसा के प्राप्त आसन सर्वत्र उपलब्ध हैं, तो फिर पशुचर्म का उपयोग करने की क्या आवश्यकता? अहिंसक विधि से बनने वाले आसन ही उपयुक्त हैं। इस दृष्टि से कुशासन को अधिक पवित्र मानने की परम्परा ही अधिक उपयुक्त है। धोना न बन पड़े तो भी धूप में सुखाकर आच्छादनों को पवित्र करने का शुद्धि कृत्य तो चलते ही रहना चाहिए। स्नान में जितनी शिथिलता अनिवार्य हो उतनी ही कमी करना चाहिए। जितना अधिक बन पड़े उसी का प्रयत्न करना चाहिए।

🔵 उपासना काल के मध्य में यदि मूत्र विसर्जन के लिए जाना पड़े तो हाथ-पैर धोकर फिर बैठा जा सकता है। छींक, अपानवायु, जम्हाई आदि आने पर तीन आचमन कर लेने से शुद्धि हो जाती है। बीच में शौच जाना पड़े तो स्नान अनिवार्य नहीं। जितना बन पड़े हाथ, पैर, मुंह धो लेने आदि से भी काम चल सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 25)

🌹 अपनी दुनियाँ के स्वयं निर्माता
🔵  आप सरल मार्ग को अपनाइए, लड़ने, बड़बड़ाने और कुढ़ने की नीति छोड़कर दान, सुधार, स्नेह के मार्ग का अवलम्बन लीजिए। एक आचार्य का कहना है कि ‘‘प्रेम भरी बात, कठोर लात से बढ़कर है।’’ हर एक मनुष्य अपने अंदर कम या अधिक अंशों में सात्विकता को धारण किए रहता है। आप अपनी सात्विकता को स्पर्श करिए और उसकी सुप्तता में जागरण उत्पन्न कीजिए। जिस व्यक्ति में जितने सात्विक अंश हैं, उन्हें समझिए और उसी के अनुसार उन्हें बढ़ाने का प्रयत्न कीजिए। अंधेरे से मत लड़िए वरन् प्रकाश फैलाइए, अधर्म बढ़ता हुआ दीखता हो, तो निराश मत हूजिए वरन् धर्म प्रचार का प्रयत्न कीजिए।

🔴 बुराई को मिटाने का यही एक तरीका है कि अच्छाई को बढ़ाया जाय। आप चाहते हैं कि इस बोतल से हवा निकल जाय, तो उसमें पानी भर दीजिए। बोतल में से हवा निकालना चाहें पर उसके स्थान पर कुछ भरें नहीं तो आपका प्रयत्न बेकार जाएगा। एक बार हवा को निकाल देंगे, दूसरी बार फिर भर जाएगी। गाड़ी जिस स्थान पर खड़ी हुई है, वहाँ खड़ी रहना पसंद नहीं करते, तो उसे खींच कर आगे बढ़ा दीजिए, आपकी इच्छा पूरी हो जाएगी। आप गाड़ी को हटाना चाहें, पर उसे आगे बढ़ाना पसंद न करें, इतना मात्र संतोष कर लें कि कुछ क्षण के लिए पहियों को ऊपर उठाए रहेंगे, उतनी देर तो स्थान खाली रहेगा, पर जैसे ही उसे छोड़ेंगे, वैसे ही वह जगह फिर घिर जाएगी।

🔵 संसार में जो दोष आपको दिखाई पड़ते हैं, उनको मिटाना चाहते हैं तो उनके विरोधी गुणों को फैला दीजिए। आप गंदगी बटोरने का काम क्यों पसंद करें? उसे दूसरों के लिए छोड़िए। आप तो इत्र छिड़कने के काम को ग्रहण कीजिए। समाज में मरे हुए पशुओं के चमड़े उधेड़ने की भी जरूरत है पर आप तो प्रोफेसर बनना पसंद कीजिए। ऐसी चिंता न कीजिए कि मैं चमड़ा न उधेडूँगा तो कौन उधेड़ेगा? विश्वास रखिए, प्रकृति के साम्राज्य में उस तरह के भी अनेक प्राणी मौजूद हैं। अपराधियों को दण्ड देने वाले स्वभावतः आवश्यकता से अधिक हैं।

🔴 बालक किसी को छेड़ेगा तो उसके गाल पर चपत रखने वाले साथी मौजूद हैं, पर ऐसे साथी कहाँ मिलेंगे, जो उसे मुफ्त दूध पिलाएँ और कपड़े पहनाएँ। आप चपत रखने का काम दूसरों को करने दीजिए। लात का जवाब घूँसों से देने में प्रकृति बड़ी चतुर है। आप तो उस माता का पवित्र आसन ग्रहण कीजिए, जो बालक को अपनी छाती का रस निकाल कर पिलाती है और खुद ठंड में सिकुड़ कर बच्चे को शीत से बचाती है। आप को जो उच्च दार्शनिक ज्ञान प्राप्त हुआ है, इसे विद्वान, प्रोफेसर की भाँति पाठशाला के छोटे-छोटे छात्रों में बाँट दीजिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 9)

🌞 जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय

🔴 वह पावन दिन वसंत पर्व का दिन था। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त था। नित्य की तरह संध्या वंदन का नियम निर्वाह चल रहा था। प्रकाश पुंज के रूप में देवात्मा का दिव्य-दर्शन, उसी कौतूहल से मन में उठी जिज्ञासा और उसके समाधान का यह उपक्रम चल रहा था। नया भाव जगा उस प्रकाश पुंज से घनिष्ठ आत्मीयता का। उनकी महानता, अनुकम्पा और साथ ही अपनी कृतज्ञता का। इस स्थिति ने मन का कायाकल्प कर दिया था। कल तक जो परिवार अपना लगता था, वह पराया होने लगा और जो प्रकाश पुंज अभी-अभी सामने आया था, वह प्रतीत होने लगा कि मानों यही हमारी आत्मा है।

🔵 इसी के साथ हमारा भूतकाल बँधा हुआ था और अब जितने दिन जीना है, वह अधिक अवधि भी इसी के साथ जुड़ी रहेगी। अपनी ओर से कुछ कहना नहीं। कुछ चाहना नहीं, किंतु दूसरे का जो आदेश हो उसे प्राण-प्रण से पालन करना। इसी का नाम समर्पण है। समर्पण मैंने उसी दिन प्रकाश पुँज देवात्मा को किया और उन्हीं को न केवल मार्गदर्शक वरन् भगवान् के समतुल्य माना। उस सम्बन्ध निर्वाह को प्रायः साठ वर्ष से अधिक होने को आते हैं। बिना कोई तर्क बुद्धि लड़ाए, बिना कुछ नननुच किए, उनके इशारे पर एक ही मार्ग पर गतिशीलता होती रही है। सम्भव है या नहीं अपने बूते यह हो सकेगा या नहीं, इसके परिणाम क्या होंगे? इन प्रश्नों में से एक भी प्रश्न आज तक मन में उठा नहीं।

🔴 उस दिन मैंने एक और नई बात समझी कि सिद्ध पुरुषों की अनुकम्पा मात्र लोक-हित के लिए, सत्प्रवृत्ति-संवर्धन के निमित्त होती है। उनका न कोई सगा सम्बन्धी होता है न उदासीन विरोधी। किसी को ख्याति, सम्पदा या कीर्ति दिलाने के लिए उनकी कृपा नहीं बरसती। विराट ब्रह्म-विश्व मानव ही उनका आराध्य होता है। उसी के निमित्त अपने स्वजनों को वे लगाते हैं, अपनी इस नवोदित मान्यता के पीछे रामकृष्ण-विवेकानन्द का, समर्थ रामदास-शिवाजी का, चाणक्य-चंद्रगुप्त का, गाँधी-बिनोवा का, बुद्ध-अशोक का गुरु-शिष्य सम्बन्ध स्मरण हो आया। जिनकी आत्मीयता में ऐसा कुछ न हो, सिद्धि-चमत्कार, कौतुक-कौतूहल, दिखाने या सिखाने का क्रिया-कलाप चलता रहा हो, समझना चाहिए कि वहाँ गुरु और शिष्य की क्षुद्र प्रवृत्ति है और जादूगर-बाजीगर जैसा कोई खेल-खिलवाड़ चल रहा है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 9)

🌞  हमारा अज्ञातवास और तप-साधना का उद्देश्य

🔵 शाप और वरदानों के आश्चर्यजनक परिणामों की चर्चा से हमारे प्राचीन इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं। श्रवणकुमार को तीर मारने के दण्ड स्वरूप उसके पिता ने राजा दशरथ को शाप दिया था कि वह भी पुत्र शोक में इसी प्रकार विलख- विलख कर मरेगा। तपस्वी के मुख से निकला हुआ वचन असत्य नहीं हो सकता था, दशरथ को उसी प्रकार मरना पड़ा था। गौतम ऋषि के शाप से इन्द्र और चन्द्रमा जैसे देवताओं की दुर्गति हुई। राजा सगर के दस हजार पुत्रों को कपिल के क्रोध करने के फलस्वरूप जलकर भस्म होना पड़ा। प्रसन्न होने पर देवताओं की भाँति तपस्वी ऋषि भी वरदान प्रदान करते थे और दुःख दारिद्र से पीड़ित अनेकों व्यक्ति सुख- शान्ति के अवसर प्राप्त करते थे।

🔴 पुरुष ही नहीं तप साधना के क्षेत्र में भारत की महिलाएँ भी पीछे न थीं। पार्वती ने प्रचण्ड तप करके मदन- दहन करने वाले समाधिस्थ शंकर को विवाह करने के लिए विवश किया। अनुसूया ने अपनी आत्म शक्ति से ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नन्हें- नन्हें बालकों के रूप में परिणत कर दिया। सुकन्या ने अपने वृद्ध पति को युवा बनाया। सावित्री ने यम से संघर्ष करके अपने मृतक पति के प्राण लौटाये। कुन्ती ने सूर्य तप करके कुमारी अवस्था में सूर्य के समानतेजस्वी कर्ण को जन्म दिया। क्रुद्ध गान्धारी ने कृष्ण को शाप दिया कि जिस प्रकार मेरे कुल का नाश किया है वैसे ही तेरा कुल इसी प्रकार परस्पर संघर्ष में नष्ट होगा। उसके वचन मिथ्या नहीं गये। सारे यादव आपस में ही लड़कर नष्ट हो गए। दमयन्ती के शाप से व्याध को जीवित ही जल जाना पड़ा। इड़ा ने अपने पिता मनु का यज्ञ सम्पन्न कराया और उनके अभीष्ट प्रयोजन को पूरा करने में सहायता की। इन आश्चर्यजनक कार्यों के पीछे उनकी तप शक्ति की महिमा प्रत्यक्ष है।

🔵 देवताओं और ऋषियों की भाँति ही असुर भी यह भली- भाँति जानते थे कि तप में ही शक्ति की वास्तविकता केन्द्रित है। उनने भी प्रचण्ड तप किया और वरदान प्राप्त किए जो सुर पक्ष के तपस्वी भी प्राप्त न कर सके थे। रावण ने अनेकों बार सिर का सौदा करने वाली तप साधना की और शंकरजी को इंगित करके अजेय शक्तियों का भण्डार प्राप्त किया। कुम्भकरण ने तप द्वारा ही छ:- छ: महीने सोने- जागने का अद्भुत वरदान पाया था। मेघनाथ, अहिरावण और मारीचि को विभिन्न मायावी शक्तियाँ भी उन्हें तप द्वारा मिली थीं। भस्मासुर ने सिर पर हाथ रखने से किसी को भी जला देने की शक्ति तप करके ही प्राप्त की थी। हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष सहस्रबाहु, बालि आदि असुरों के पराक्रम का भी मूल आधार तप ही था। विश्वामित्र और राम के लिए सिर दर्द बनी हुई ताड़का श्रीकृष्ण चन्द्र के प्राण लेने का संकल्प करने वाली पूतना हनुमान को निगल जाने में समर्थ सुरसा, सीता को नाना प्रकार के कौतूहल दिखाने वाली त्रिजटा आदि अनेकों असुर नारियाँ भी ऐसी थी जिनने आध्यात्मिक क्षेत्र में अच्छा खासा परिचय दिया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 8)


🌞  हमारा अज्ञातवास और तप-साधना का उद्देश्य

🔵 ब्रह्मचर्य तप का प्रधान अंग माना गया है। बजरंगी हनुमान, बालब्रह्मचारी भीष्मपितामह के पराक्रमों से हम सभी परिचित हैं। शंकराचार्य, दयानन्दप्रभृति अनेकों महापुरुष अपने ब्रह्मचर्य व्रत के आधार पर ही संसार की महान् सेवा कर सके। प्राचीन काल में ऐसे अनेकों ग्रहस्थ होते थे जो विवाह होने पर भी पत्नी समेत अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते थे।

🔴 आत्मबल प्राप्त करके तपस्वी लोग उस तप बल से न केवल अपना आत्म कल्याण करते थे वरन् अपनी थोड़ी सी शक्ति अपने शिष्यों को देकर उनको भी महापुरुष बना देते थे। विश्वामित्र के आश्रम में रह कर रामचन्द्र जी का, संदीपन ऋषि के गुरुकुल में पढ़कर कृष्णचन्द्र जी का ऐसा निर्माण हुआ कि भगवान ही कहलाये। समर्थ गुरु रामदास के चरणों में बैठकर एक मामूली सा मराठा बालक, छत्रपति शिवाजी बना। रामकृष्ण परमहंस से शक्ति कण पाकर नास्तिक नरेन्द्र, संसार का श्रेष्ठ धर्म प्रचारक विवेकानन्द कहलाया। प्राण रक्षा के लिए मारे-मारे फिरते हुए इन्द्र को महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियां देकर उसे निर्भय बनाया, नारद का जरासा उपदेश पाकर डाकू बाल्मीकि महर्षि बाल्मीकि बन गया।

🔵 उत्तम सन्तान प्राप्त करने के अभिलाषी भी तपस्वियों के अनुग्रह से सौभाग्यान्वित हुए हैं। श्रृंगी ऋषि द्वारा आयोजित पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा तीन विवाह कर लेने पर भी संतान न होने पर राजा दशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए। राजा दिलीप ने चिरकाल तक अपनी रानी समेत वशिष्ठ के आश्रम में रहकर गौ चरा कर जो अनुग्रह प्राप्त किया उसके फलस्वरूप ही डूबता वंश चला, पुत्र प्राप्त हुआ। पाण्डु जब सन्तानोत्पादन में असमर्थ रहे तो व्यास जी के अनुग्रह से परम प्रतापी पांच पाण्डव उत्पन्न हुए। श्री जवाहरलाल नेहरू के बारे में कहा जाता है कि उनके पिता मोतीलाल नेहरू जब चिरकाल तक संतान से वंचित रहे तो उनकी चिन्ता दूर करने के लिए हिमालय निवासी एक तपस्वी ने अपना शरीर त्यागा और उनका मनोरथ पूर्ण किया। अनेकों ऋषि-कुमार अपने माता-पिता के प्रचण्ड आध्यात्मबल को जन्म से ही साथ लेकर पैदा होते थे और वे बालकपन में वे कर्म कर लेते थे जो बड़ों के लिए भी कठिन होते हैं। लोमश ऋषि के पुत्र श्रृंगी ऋषि ने राजा परीक्षत द्वारा अपने पिता के गले में सर्प डाला जान देखकर क्रोध में शाप दिया कि सात दिन में यह कुकृत्य करने वाले को सर्प काट लेगा। परीक्षत की सुरक्षा के भारी प्रयत्न किये जाने पर सर्प से काटे जाने का ऋषि कुमार का शाप सत्य ही होकर रहा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 8)

🌞 जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय

🔴  ‘‘हम सूक्ष्म दृष्टि से ऐसे सत्पात्र की तलाश करते रहे, जिसे सामयिक लोक-कल्याण का निमित्त कारण बनाने के लिए प्रत्यक्ष कारण बताएँ। हमारा यह सूक्ष्म शरीर है। सूक्ष्म शरीर से स्थूल कार्य नहीं बन पड़ते। इसके लिए किसी स्थूल शरीर धारी को ही माध्यम और शस्त्र की तरह प्रयुक्त करना पड़ता है। यह विषम समय है। इसमें मनुष्य का अहित होने की अधिक सम्भावनाएँ हैं। उन्हीं का समाधान करने के निमित्त तुम्हें माध्यम बनाना है। जो कमी है, उसे दूर करना है। अपना मार्गदर्शन और सहयोग देना है। इसी निमित्त तुम्हारे पास आना हुआ है। अब तक तुम अपने सामान्य जीवन से ही परिचित थे। अपने को साधारण व्यक्ति ही देखते थे। असमंजस का एक कारण यह भी है। तुम्हारी पात्रता का वर्णन करें, तो भी कदाचित तुम्हारा संदेह निवारण न हो। कोई किसी बात पर अनायास ही विश्वास करे, ऐसा समय भी कहाँ है? इसीलिए तुम्हें पिछले तीन जन्मों की जानकारी दी गई।’’

🔵 सभी पूर्व जन्मों का विस्तृत विवरण जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत तक का दर्शाने के बाद उन्होंने बताया कि किस प्रकार वे इन सभी में हमारे साथ रहे और सहायक बने।

🔴 वे बोले-‘‘यह तुम्हारा दिव्य जन्म है। तुम्हारे इस जन्म में भी सहायक रहेंगे और इस शरीर से वह कराएँगे, जो समय की दृष्टि से आवश्यक है, सूक्ष्म शरीरधारी प्रत्यक्ष जन-संपर्क नहीं कर सकते और न घटनाक्रम स्थूल शरीरधारियों द्वारा ही सम्पन्न होते हैं, इसलिए योगियों को उन्हीं का सहारा लेना पड़ता है।

🔵 तुम्हारा विवाह हो गया सो ठीक हुआ। यह समय ऐसा है, जिसमें एकाकी रहने से लाभ कम और जोखिम अधिक है। प्राचीन काल में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, गणेश, इन्द्र आदि सभी सपत्नीक थे। सातों ऋषियों की पत्नियाँ थीं, कारण कि गुरुकुल आरण्यक स्तर के आश्रम चलाने में माता की भी आवश्यकता पड़ती है और पिता की भी। भोजन, निवास, वस्त्र, दुलार आदि के लिए भी माता चाहिए और अनुशासन, अध्यापन, अनुदान पिता की ओर से ही मिलता है। गुरु ही पिता है और गुरु की पत्नी ही माता है, उसी ऋषि परम्परा के निर्वाह के लिए यह उचित भी है, आवश्यक भी। आजकल भजन के नाम पर जिस प्रकार आलसी लोग संत का बाना पहनते और भ्रम जंजाल फैलाते हैं, तुम्हारे विवाहित होने से मैं प्रसन्न हूँ। इसमें बीच में व्यवधान तो आ सकता है, पर पुनः तुम्हें पूर्व जन्म में तुम्हारे साथ रही सहयोगिनी पत्नी के रूप में मिलेगी, जो आजीवन तुम्हारे साथ रहकर महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहेगी। पिछले दो जन्मों में तुम्हें सपत्नीक रहना पड़ा है। यह न सोचना कि इससे कार्य में बाधा पड़ेगी। वस्तुतः इससे आज, परिस्थितियों में सुविधा ही रहेगी एवं युगपरिवर्तन के प्रयोजन में भी सहायता मिलेगी।’’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 24)

🌹 अपनी दुनियाँ के स्वयं निर्माता
🔵 नीच योनियों से उठकर मनुष्य जाति के रूप में माता के गर्भ से नवीन प्रसव हुए बालक बहुत ही अपूर्ण होते हैं, इसमें मनुष्य समाज के अनुरूप सारी योग्यताएँ आरम्भ में नहीं होतीं। यह बालक दिन में भी सो जाते हैं, रात को जागते भी रहते हैं, कपड़ों पर मल-मूत्र भी कर देते हैं, भूख लगने जैसी साधारण आवश्यकता को पूरा करने के लिए ऐसे रोते-चिल्लाते हैं कि घर गूँज उठता है। इससे उत्पात अवश्य बना रहता है। जिस माता का प्रजनन निरंतर तीव्र गति से जारी रहता है, उसका घर इन उत्पातों से भी भरा ही रहेगा, परंतु क्या कोई पिता, माता, भाई, बहन इन नवजात शिशुओं के उत्पातों से घबराकर घर छोड़ देता है या इस बढ़ोत्तरी से डरकर घर को रहने के अयोग्य घोषित कर देता है। सच तो यह है कि वह उत्पात भी उदार हृदय वालों के लिए एक अच्छा-खासा मनोरंजन और दिन काटने का सहारा होता है।

🔴  हर उन्नत आत्मा का कर्त्तव्य है कि वह आत्मविकास के लिए दूसरों की उन्नति का भी प्रयत्न करे। गिरे हुओं को उठने और बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे। समाज में तमोगुण उबलते रहेंगे, उनसे डरने या घबराने की जरूरत नहीं है, आत्मोन्नति चाहने वाली आत्मा का कर्तव्य है कि उन उत्पातों में सुधार करते हुए अपनी भुजाएँ मजबूत बनाएँ। दुष्टता को बढ़ने न देना, पाशविक तत्त्वों को मनुष्य तत्त्व में न घुलने देने का प्रयत्न करते रहना आवश्यक है। चतुर हलवाई दूध को मक्खियों से बचाता रहता है, ताकि दूध अशुद्ध न हो जाए। कर्म-कौशल यह कहता है कि समाज में पाप-वृत्तियों को बढ़ने से रोकना चाहिए। इस विरोध-कर्म में बड़ी होशियारी की जरूरत है। यही तलवार की धार है, इस पर चलना सचमुच योग कहा जाएगा।

🔵 बुराइयों से भरे हुए इस विश्व में आपका कार्य क्या होना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर भगवान सूर्यनारायण हमें देते हैं। वे प्रकाश फैलाते हैं, अंधेरा अपने आप भाग जाता है, बादल मेह बरसाते हैं, ग्रीष्म का ताप अपने आप ठंडा हो जाता है, हम भोजन खाते हैं, भूख अपने आप बुझ जाती है, स्वास्थ्य के नियमों की साधना करते हैं, दुर्बलता अपने आप दूर हो जाती है, ज्ञान प्राप्त करते हैं, अज्ञान अपने आप दूर हो जाता है। सीधा रास्ता यह है कि संसार में से बुराइयों को हटाने के लिए अच्छाइयों का प्रसार करना चाहिए। अधर्म को मिटाने के लिए धर्म का प्रचार करना चाहिए। रोग निवारण का सच्चा उपाय यह है कि जनता की बुद्धि में स्वास्थ्य के नियम की महत्ता डाली जाए।

🔴 बीमार होने पर दवा देना ठीक है, पर समाज को निरोग करने में बेचारे अस्पताल असमर्थ है। दण्ड नीति का भी एक स्थान है, पर वह अस्पताल की जरूरत पूरी करती है। तात्कालिक आवश्यकता का उपचार करती है, मूल कारणों का निवारण दण्ड नीति द्वारा नहीं हो सकता। विरोध, ऑपरेशन के समान एक तात्कालिक कार्य है। एक मात्र ऑपरेशन करना ही जिस डॉक्टर का काम हो, वह कसाई कहलाएगा। उस डॉक्टर की महिमा है,जो घाव को भर देता है। ऐसा डॉक्टर किस काम का जो पीव निकालने के लिए फोड़ा तो चीरे पर ऐसी बुरी तरह चीरे कि घाव बहुत बढ़ जाए और चिकित्सा की मूर्खता में ऑपरेशन का घाव बढ़ते-बढ़ते गहरा पहुँच कर हड्डी को सड़ा दे और रोगी के लिए प्राणघातक बन जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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