शुक्रवार, 4 मार्च 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 18)

गुरुचेतना में समाने की साहसपूर्ण इच्छा

शिष्य संजीवनी के प्रत्येक नए सूत्र के साथ यात्रा रहस्यमय होती जाती है। शिष्यत्व निखरता चला जाता है। शिष्य की अन्तर्चेतना का चुम्बकत्व इतना सघन हो जाता है कि उस पर स्वतः ही गुरुकृपा बरसती चली जाती है। गुरुदेव की शक्तियाँ उसमें आप ही समाती चली जाती हैं। कई बार साधकों के मन में जिज्ञासा अंकुरित होती है कि गुरुदेव की कृपा पाने के लिए क्या करें? उनका दिव्य प्रेम हमें किस तरह मिलें? किस भाँति परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य शक्तियों के अनुदान से हम अनुग्रहीत हों? इन सारे सवालों का एक ही जवाब है- शिष्यत्व विकसित करें। शिष्य संजीवनी में बताए जा रहे सूत्र ही वह विधि है जिसके द्वारा सहज ही साधक में शिष्यत्व का विकास होता है। उसमें अपने सद्गुरु की कृपा शक्ति को ग्रहण-धारण करने की पात्रता पनपती है।

इसमें बताया जा रहा प्रत्येक सूत्र अनुभव सम्मत है। जिसके वचन है, उसने इन सूत्रों के प्रत्येक अक्षर में समाए सच को अनुभव किया है। इसकी प्रक्रिया एवं परम्परा अभी भी गतिमान है। इस सत्य का अनुभव आप आज और अभी कर सकते हैं। जो शिष्य संजीवनी के सूत्रों को आत्मसात करने की कोशिश कर रहे हैं- वे जानते हैं कि प्रतिदिन उनके पाँव अध्यात्म के रहस्यमय लोक की ओर बढ़ रहे हैं। हर नया सूत्र उन्हें नयी गति-नयी ऊर्जा एवं नया प्रकाश दे रहा है।

पाँचवे सूत्र में भी सत्य का यही उजाला है। शिष्य संजीवनी का वही गुणकारी रूप है। इसमें कहा गया है- जो तुम्हारे भीतर है, केवल उसी की इच्छा करो। क्योंकि तुम्हारे भीतर समस्त संसार का प्रकाश है। इसी प्रकाश से तुम्हारा साधना पथ प्रकाशित होगा। यदि तुम इसे अपने भीतर नहीं देख सकते, तो कहीं और उसे ढूँढना बेकार है। जो तुमसे परे है, केवल उसी की इच्छा करो। वह तुमसे परे है, इसलिए जब तुम उसे प्राप्त कर लेते हो, तो तुम्हारा अहंकार नष्ट चुका होता है। जो अप्राप्य है, केवल उसी की इच्छा करो। वह अप्राप्य है, क्योंकि पास पहुँचने पर वह बराबर दूर हटता जाता है। तुम प्रकाश में प्रवेश करोगे, किन्तु तुम ज्योति को कभी भी छू न सकोगे।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/guruc
आलोचना से डरें नहीं- उसके लिये तैयार रहें। (भाग 2)

यदि गलतफहमी या द्वेषवश आलोचना की गई है तो उसे हँसकर उपेक्षा से टाल देना चाहिए। जिसमें वास्तविकता न होगी ऐसी बात अपने आप हवा में उड़ जायगी। मिथ्या निन्दा करने वाले क्षणभर के लिए ही कुछ गफलत पैदा कर सकते हैं पर कुछ ही समय में वस्तु स्थिति स्पष्ट हो जाती है और पर कीचड़ उछालने वाले को स्वतः ही उस दुष्कृत्य पर पछताना पड़ता है। मिथ्या दोषारोपण से कभी किसी का स्थायी अहित नहीं हो सकता। क्षणिक निन्दा स्तुति का कोई मूल्य नहीं। पानी की लहरों की तरह वे उठती और विलीन होती रहती हैं।

प्रशंसात्मक आलोचना सुनने का यदि वस्तुतः अपना मन ही हो तो सचमुच ही अपने को ऐसा बनाने का प्रयत्न करना चाहिए जिससे दूसरे लोग विवश होकर प्रशंसा करने लगें। मुख से न कहें तो भी हर किसी के मन में उच्च चरित्र व्यक्ति के बारे में जो श्रद्धा सद्भावना अनायास हो जाती है उसे तो कोई रोक ही नहीं सकता। इसके अतिरिक्त अपनी अन्तरात्मा-सन्मार्ग गामी गतिविधियों पर सन्तोष और प्रसन्नता अनुभव करती हैं। यह आत्म प्रशंसा सब से अधिक मूल्य वाली है। अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने और शेखी बघारने की आत्मप्रशंसा बुरी है पर अन्तःकरण जब अपनी सत्प्रवृत्तियों को देखते हुए सन्तोष व्यक्त करता है तो उस आत्म प्रशंसा की अनुभूति रोम रोम पुलकित कर देती है।

दूसरों के मुँह निन्दात्मक आलोचना सुनना यदि अपने को सचमुच बुरा लगता हो तो उसका एक ही तरीका है कि हम अपने आप अपनी आलोचना करना आरम्भ करें। जिस प्रकार दूसरों के दोष दुर्गुण देखने और समझने के लिए अपनी बुद्धि कुशाग्र रहती है; वैसा-ही छिद्रान्वेषण अपना करना चाहिए।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति सितम्बर 1972 पृष्ठ 20
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/September. 20

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