🔶 ‘तुम्हें रुपये देने हैं या नहीं’ क्रुद्ध आवाज में दीवान भीमराव भी चिल्ला रहे थे। ‘मैं जल्दी ही दे दूँगा। इस बार सूखा पड़ गया इसलिए नहीं दे पाया। आपने तो मेरी सदा ही सहायता की है। थोड़ी दया और कीजिए साहब।’ दोनों हाथ जोड़कर गरीब कृषक कह रहा था।
🔷 ‘मैं कुछ नहीं जानता। बस मैं इतना ही कह रहा हूँ कि यदि तुमने एक सप्ताह के अन्दर पैसे नहीं दिये तो तुम्हारे घर की नीलामी करा दूँगा। तुम्हें रुपये इसलिये नहीं दिये थे कि उन्हें दबाकर बैठ जाओ। मूल देना तो दूर रहा, तुमने तो दो वर्ष में ब्याज तक नहीं दी है।’ दीवान जी चिल्लाकार बोले फिर वे क्रोध से पैर पटकते बैलगाड़ी में जाकर बैठ गये। उनके दोनों बेटे एक कोने में सहमें खड़े यह सब सुन रहे थे। पिता की दृष्टि उन पर गयी। तो बोले- ‘अरे तुम लोग क्या कर रहे हो यहाँ। स्कूल जाओ जल्दी से नहीं तो देर हो जायेगी।’
🔶 पिता का आदेश सुनकर घनश्याम और उसके भाई ने बस्ता उठाया और स्कूल की ओर दौड़ चले। रास्ते भर घनश्याम के मन में वही दृश्य उभरता रहा। दीवान जी का क्रोध से तमतमाया चेहरा और रौबीली आवाज जैसे उसके सामने अभी भी साकार थे। पिता का करुण चेहरा भी उसकी आँखों के आगे आ रहा था। उसने सुना था कि दीवान बड़ा कठोर है। जो कहता है, वह करते उसे देर नहीं लगती। वह अनेक गरीब व्यक्तियों को ऋण देकर उन्हें ऐसे ही सताया करता था। कई बार तो घनश्याम ने लोगों को उसकी मौत की कामना करते हुए भी सुना था।
🔷 यही बात सोचते-सोचते घनश्यामकृष्ण काले आगे बढ़ रहा था कि बाजार के बीच में उसे दीवान जी की बैलगाड़ी दिखाई दी। कुछ हल्ला-सा भी सुनाई दिया। लोग इधर-उधर भाग रहे थे। घनश्याम भी एक ऊँची दुकान पर चढ़ गया और देखने लगा कि मामला क्या है ? उसने देखा कि दीवान की गाड़ी के बैल बिगड़ गए थे, वे तेजी से भाग रहे थे। उनके साथ जुती गाड़ी घिसटती पीछे चल रही थी। गाड़ी पर बैठे दीवानजी के हाथ से लगाम छूट चुकी थी। कुछ पल बाद ही उसने देखा कि गाड़ी उलट गयी। जुआ तुड़ाकर एक बैल तो भाग गया, पर दूसरा दीवान जी को अपनी सींगों से मारने दौड़ा। लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे। किसी का यह साहस न हो पा रहा था कि दीवान जी को बचाए। एक बार घनश्याम के मन में आया- ‘इसको अपनी करनी का दण्ड मिल रहा है।’ पर शीघ्र ही उसे मास्टरजी की सीख याद आ गयी, जो सदा यह कहा करते थे कि संकट में पड़े हुए की रक्षा करना ही मनुष्यता है। वे बालकों को वीर बच्चों की कहानियाँ सुना-सुना कर उनमें वीरता का संचार किया करते थे।
🔶 घनश्याम अपने प्राणों की परवाह न कर वहाँ से कूदा और दौड़कर बैल के सामने जा खड़ा हुआ। लोग साँस रोके यह दृश्य देख रहे थे। घनश्याम ने तेजी से बैल की रस्सी पकड़ी और अपनी ओर खींचने लगा। क्रुध बैल और भी चिढ़ गया और दीवान को छोड़कर घनश्याम पर झपटा, पर घनश्याम तो पहले से ही इसके लिए तैयार था। उसने बिना समय खोए और साहस छोड़े विलक्षण चतुराई से जल्दी बैल की रस्सी एक खंभे से लपेट दी। बैल को बँधा देख और भय का कारण दूर जानकर लोग पास आने लगे। थोड़ी देर में बैल भी शांत हो गया। घनश्याम और दूसरे व्यक्तियों ने मिलकर दीवान जी को उठाया।
🔷 उन्होंने घनश्याम को गले लगाते हुए कहा- ‘बेटा ! आज तुमने अपने प्राणों की परवाह न करके मेरी रक्षा की है। मैं तुम्हारे उपकार से झुक गया हूँ। किसके बेटे हो तुम ?’
🔶 घनश्याम ने अपने पिता का नाम बताया तो उन्होंने ध्यान से उसकी ओर देखा। उन्हें याद आया कि जब वे किसान को डांट रहे थे, तो यही बच्चा सहमा-सा एक कोने में खड़ा था। उनका मन उन्हें धिक्कारने लगा- ‘एक मैं पापी हूँ, जो दूसरों को सताता हूँ और एक यह है, जिसने मुझ अपकारी का भी ऐसा उपकार किया है।’
🔷 उन्होंने घनश्याम का हाथ पकड़ा और बोले- ‘चलो मैं तुम्हारे पिता से मिलना चाहता हूँ।’
🔶 वह किसान तो दीवानजी को फिर से आया देखते ही काँपने लगा। घनश्याम को उनके साथ देखकर उसका मन और भी भयभीत हो गया। इस शरारती बालक ने न जाने क्या अपराध किया है। अब तो भगवान ही रक्षक हैं।’ वह मन ही मन सोचने लगा।
🔷 दीवानजी ने किसान को पूरी बात बतायी और कहा कि पूरा पैसा उसने माफ कर दिया है। किसान बहुतेरा कहता रहा- ‘नहीं-नहीं मैं आपका पैसा दे दूँगा, बस मुझे थोड़ा समय और दे दीजिए।’’ परन्तु दीवान ने उसकी बात स्वीकार न की। वे बोले- ‘मैं तुम्हारे ऋण को कभी चुका नहीं सकता।’
🔶 घनश्याम कृष्ण काले के साहस और दयालुता ने पिता के संकट को भी दूर कर दिया उसे वीर बच्चे के रूप में भी पुरस्कृत किया गया।
🔷 ‘मैं कुछ नहीं जानता। बस मैं इतना ही कह रहा हूँ कि यदि तुमने एक सप्ताह के अन्दर पैसे नहीं दिये तो तुम्हारे घर की नीलामी करा दूँगा। तुम्हें रुपये इसलिये नहीं दिये थे कि उन्हें दबाकर बैठ जाओ। मूल देना तो दूर रहा, तुमने तो दो वर्ष में ब्याज तक नहीं दी है।’ दीवान जी चिल्लाकार बोले फिर वे क्रोध से पैर पटकते बैलगाड़ी में जाकर बैठ गये। उनके दोनों बेटे एक कोने में सहमें खड़े यह सब सुन रहे थे। पिता की दृष्टि उन पर गयी। तो बोले- ‘अरे तुम लोग क्या कर रहे हो यहाँ। स्कूल जाओ जल्दी से नहीं तो देर हो जायेगी।’
🔶 पिता का आदेश सुनकर घनश्याम और उसके भाई ने बस्ता उठाया और स्कूल की ओर दौड़ चले। रास्ते भर घनश्याम के मन में वही दृश्य उभरता रहा। दीवान जी का क्रोध से तमतमाया चेहरा और रौबीली आवाज जैसे उसके सामने अभी भी साकार थे। पिता का करुण चेहरा भी उसकी आँखों के आगे आ रहा था। उसने सुना था कि दीवान बड़ा कठोर है। जो कहता है, वह करते उसे देर नहीं लगती। वह अनेक गरीब व्यक्तियों को ऋण देकर उन्हें ऐसे ही सताया करता था। कई बार तो घनश्याम ने लोगों को उसकी मौत की कामना करते हुए भी सुना था।
🔷 यही बात सोचते-सोचते घनश्यामकृष्ण काले आगे बढ़ रहा था कि बाजार के बीच में उसे दीवान जी की बैलगाड़ी दिखाई दी। कुछ हल्ला-सा भी सुनाई दिया। लोग इधर-उधर भाग रहे थे। घनश्याम भी एक ऊँची दुकान पर चढ़ गया और देखने लगा कि मामला क्या है ? उसने देखा कि दीवान की गाड़ी के बैल बिगड़ गए थे, वे तेजी से भाग रहे थे। उनके साथ जुती गाड़ी घिसटती पीछे चल रही थी। गाड़ी पर बैठे दीवानजी के हाथ से लगाम छूट चुकी थी। कुछ पल बाद ही उसने देखा कि गाड़ी उलट गयी। जुआ तुड़ाकर एक बैल तो भाग गया, पर दूसरा दीवान जी को अपनी सींगों से मारने दौड़ा। लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे। किसी का यह साहस न हो पा रहा था कि दीवान जी को बचाए। एक बार घनश्याम के मन में आया- ‘इसको अपनी करनी का दण्ड मिल रहा है।’ पर शीघ्र ही उसे मास्टरजी की सीख याद आ गयी, जो सदा यह कहा करते थे कि संकट में पड़े हुए की रक्षा करना ही मनुष्यता है। वे बालकों को वीर बच्चों की कहानियाँ सुना-सुना कर उनमें वीरता का संचार किया करते थे।
🔶 घनश्याम अपने प्राणों की परवाह न कर वहाँ से कूदा और दौड़कर बैल के सामने जा खड़ा हुआ। लोग साँस रोके यह दृश्य देख रहे थे। घनश्याम ने तेजी से बैल की रस्सी पकड़ी और अपनी ओर खींचने लगा। क्रुध बैल और भी चिढ़ गया और दीवान को छोड़कर घनश्याम पर झपटा, पर घनश्याम तो पहले से ही इसके लिए तैयार था। उसने बिना समय खोए और साहस छोड़े विलक्षण चतुराई से जल्दी बैल की रस्सी एक खंभे से लपेट दी। बैल को बँधा देख और भय का कारण दूर जानकर लोग पास आने लगे। थोड़ी देर में बैल भी शांत हो गया। घनश्याम और दूसरे व्यक्तियों ने मिलकर दीवान जी को उठाया।
🔷 उन्होंने घनश्याम को गले लगाते हुए कहा- ‘बेटा ! आज तुमने अपने प्राणों की परवाह न करके मेरी रक्षा की है। मैं तुम्हारे उपकार से झुक गया हूँ। किसके बेटे हो तुम ?’
🔶 घनश्याम ने अपने पिता का नाम बताया तो उन्होंने ध्यान से उसकी ओर देखा। उन्हें याद आया कि जब वे किसान को डांट रहे थे, तो यही बच्चा सहमा-सा एक कोने में खड़ा था। उनका मन उन्हें धिक्कारने लगा- ‘एक मैं पापी हूँ, जो दूसरों को सताता हूँ और एक यह है, जिसने मुझ अपकारी का भी ऐसा उपकार किया है।’
🔷 उन्होंने घनश्याम का हाथ पकड़ा और बोले- ‘चलो मैं तुम्हारे पिता से मिलना चाहता हूँ।’
🔶 वह किसान तो दीवानजी को फिर से आया देखते ही काँपने लगा। घनश्याम को उनके साथ देखकर उसका मन और भी भयभीत हो गया। इस शरारती बालक ने न जाने क्या अपराध किया है। अब तो भगवान ही रक्षक हैं।’ वह मन ही मन सोचने लगा।
🔷 दीवानजी ने किसान को पूरी बात बतायी और कहा कि पूरा पैसा उसने माफ कर दिया है। किसान बहुतेरा कहता रहा- ‘नहीं-नहीं मैं आपका पैसा दे दूँगा, बस मुझे थोड़ा समय और दे दीजिए।’’ परन्तु दीवान ने उसकी बात स्वीकार न की। वे बोले- ‘मैं तुम्हारे ऋण को कभी चुका नहीं सकता।’
🔶 घनश्याम कृष्ण काले के साहस और दयालुता ने पिता के संकट को भी दूर कर दिया उसे वीर बच्चे के रूप में भी पुरस्कृत किया गया।