बुधवार, 15 सितंबर 2021

👉 सेवाभाव ओर संस्कार

एक संत ने एक विश्व- विद्यालय का आरंभ किया, इस विद्यालय का प्रमुख उद्देश्य था ऐसे संस्कारी युवक-युवतियों का निर्माण करना था जो समाज के विकास में सहभागी बन सकें।

एक दिन उन्होंने अपने विद्यालय में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसका विषय था - "जीवों पर दया एवं प्राणिमात्र की सेवा।"

निर्धारित तिथि को तयशुदा वक्त पर विद्यालय के कॉन्फ्रेंस हॉल में प्रतियोगिता आरंभ हुई।

किसी छात्र ने सेवा के लिए संसाधनों की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि- हम दूसरों की तभी सेवा कर सकते हैं, जब हमारे पास उसके लिए पर्याप्त संसाधन हों।

वहीं कुछ छात्रों की यह भी राय थी कि सेवा के लिए संसाधन नहीं, भावना का होना जरूरी है।

इस तरह तमाम प्रतिभागियों ने सेवा के विषय में शानदार भाषण दिए।

आखिर में जब पुरस्कार देने का समय आया तो संत ने एक ऐसे विद्यार्थी को चुना, जो मंच पर बोलने के लिए ही नहीं आया था।

यह देखकर अन्य विद्यार्थियों और कुछ शैक्षिक सदस्यों में रोष के स्वर उठने लगे।

संत ने सबको शांत कराते हुए बोले:- 'प्यारे मित्रो व विद्यार्थियो, आप सबको शिकायत है कि मैंने ऐसे विद्यार्थी को क्यों चुना, जो प्रतियोगिता में सम्मिलित ही नहीं हुआ था।
दरअसल, मैं जानना चाहता था कि हमारे विद्यार्थियों में कौन सेवाभाव को सबसे बेहतर ढंग से समझता है।

इसीलिए मैंने प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर एक घायल बिल्ली को रख दिया था।
आप सब उसी द्वार से अंदर आए, पर किसी ने भी उस बिल्ली की ओर आंख उठाकर नहीं देखा।

यह अकेला प्रतिभागी था, जिसने वहां रुक कर उसका उपचार किया और उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ आया।

सेवा-सहायता डिबेट का विषय नहीं, जीवन जीने की कला है।
जो अपने आचरण से शिक्षा देने का साहस न रखता हो, उसके वक्तव्य कितने भी प्रभावी क्यों न हों, वह पुरस्कार पाने के योग्य नहीं है।'

सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६३)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

आइन्स्टाइन एक ऐसे फार्मूले की खोज में थे, जिससे जड़ और चेतन की भिन्नता को एकता में निरस्त किया जा सके। प्रकृति अपने आप में पूर्ण नहीं है, उसे पुरुष द्वारा प्रेरित प्रोत्साहित और फलवती किया जा रहा है। यह युग्म जब तक सिद्ध नहीं हो जाता, तब तक विज्ञान के कदम लंगड़ाते हुए ही चलेंगे।

जड़ और चेतन के बीच की खाई अब पटने ही वाली है। द्वैत को अद्वैत में परिणत करने का समय अब बहुत समीप आ गया है। विज्ञान क्रमशः इस दिशा में बढ़ रहा है कि वह जड़ को चेतन और चेतन को जड़ सिद्ध करके दोनों को एक ही स्थान पर संयुक्त बनाकर खड़ा करके। जीवन रासायनिक पदार्थों से—पंचतत्वों से बना है इस सिद्धान्त को सिद्ध करते-करते हम वहीं पहुंच जाते हैं जहां यह सिद्ध हो सकता है कि जीवन से पदार्थों की उत्पत्ति हुई है।

उपनिषद् का कहना है कि ईश्वर ने एक से बहुत बनने की इच्छा की, फलतः यह बहुसंख्यक प्राणी और पदार्थ बन गये। यह चेतन से जड़ की उत्पत्ति हुई। नर-नारी कामेच्छा से प्रेरित होकर रति कर्म में निरत होते हैं फलतः रज शुक्र के संयोग से भ्रूण का आरम्भ होता है। यह भी मानवी चेतना से जड़ शरीर की उत्पत्ति है। जड़ से चेतन उत्पन्न होता है, इसे पानी में काई और मिट्टी में घास उत्पन्न होते समय देखते हैं। गन्दगी में मक्खी-मच्छरों का पैदा होना, सड़े हुए फलों में कीड़े उत्पन्न होना यह जड़ से चेतन की उत्पत्ति है।

पदार्थ विज्ञानी इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि ‘जड़’ प्रमुख है। चेतन उसी की एक स्थिति है। ग्रामोफोन का रिकार्ड और उसकी सुई का घर्षण प्रारम्भ होने पर आवाज आरम्भ हो जाती है, उसी प्रकार अमुक स्थिति में—अमुक अनुपात में इकट्ठे होने पर चेतन जीव की स्थिति में जड़ पदार्थ विकसित हो जाते हैं। जीव-विज्ञानी अपने प्रतिपादनों में इसी तथ्य को प्रमुखता देते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०१
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६३)

अभिमानी से दूर हैं ईश्वर

देवर्षि के मुख से उच्चारित सूत्र को सुनकर ऋषिगण पुलकित हुए और देवगण हर्षित। सभी ने इस सच को जान लिया था कि यदि भावों में भक्ति समा जाय तो अध्यात्म के सभी तत्त्व स्वतः प्रकाशित हो जाते हैं। अन्तःकरण अनोखी उजास से भर जाता है। भगवान और भक्त के मिलन का प्रधान अवरोध अहं तो भक्ति की आहट पाते ही गिर जाता है। और यदि भक्ति न रहे तो साधन कोई भी, और कितने भी क्यों न किए जाएँ परन्तु विषय भोगों की लालसा-लपटें उठाने वाली हवाएँ, विवेक के दीप को कभी न कभी बुझा ही देती हैं। यदि चित्त चेतना में ऐसा हो गया तो फिर बचा रह जाता है बस अहं का उन्मादी खेल। साधना का सच और साधकों का सच युगों से यही रहा है। युग-युग में अध्यात्म पथ के पथिक यही अनुभव करते रहे हैं।
    
भगवान् के लीला पार्षद नारद के अन्तःसरोवर में उठ रही चिन्तन की इन उर्मियों ने उन्हें गहरे अतीत में धकेल दिया। वह बस भावमग्न हो सोचते रहे। हालांकि वहाँ उपस्थित सभी को उनके अगले सूत्र की प्रतीक्षा थी। पर उनके भावों का आवेग थम ही नहीं रहा था। वह अपनी अनुभूतियों में डूबे हुए थे। ये अनुभूतियाँ उन्हें आत्मसमीक्षा के लिए प्रेरित कर रही थीं। उनका अपना अतीत उनसे कुछ कह रहा था। यह वह गहरा अनुभव था जिसने उन्हें भक्ति का एक सत्य दिया था। जिसे वह अब तक अपने सूत्र में पिरो चुके थे। यह देवर्षि की अपनी आपबीती थी। हालांकि उन्होंने अपने अन्तर्भाव किसी से नहीं कहे परन्तु यह पार्थिव चेतना की भूमि नहीं थी, यह तो प्रज्ञा-लोक था। इस लोक में, प्रज्ञा के आलोक में सभी कुछ प्रकाशित था।
    
इस आलोक की प्रखर दीप्ति में रमे ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने मधुर स्वर में कहा- ‘‘देवर्षि हम सभी आपके भक्ति सत्य की प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’ उत्तर में नारद ने अहं विगलित मौन के साथ उन्हें निहारा और फिर मन्द स्वर में बोले-
‘ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च’॥२७॥
ईश्वर को भी अभिमान से द्वेष है और दैन्य से प्रिय भाव है।’’
    
इस सूत्र का उच्चारण करते हुए नारद ने सभी महनीय जनों की ओर देखा, उनके मुख पर कुछ और अधिक सुनने की लालसा थी। वे जानना चाहते थे इस सूत्र में पिरोया रहस्यपूर्ण सत्य।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११३

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