सोमवार, 25 अप्रैल 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २१

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

बाहरी रहन-सहन के कारण उन्हें गरीब ही समझा जाता है ' मरने के बाद जब घड़ों भरी हुई धन-दौलत जमीन में से निकलती है तब आश्चर्य करना पड़ता है कि लोगों को जिंदगी भर इसके इतने धनी होने का भेद प्रकट न हो पाया। बहुत लोग ऐसे रहस्यमय भेद अपने अंदर छिपाए पड़े रहते हैं जिनका पता उनके सगे- संबंधियों तक को नहीं लग पाता। गुप्त पुलिस के आदमी इस विद्या में बडे होते हैं वे अपनी असलियत का पता नहीं लगने देते और दूसरों सगे-संबंधी बनकर ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि बड़े- बड़े भेदों को निकाल लाते हैं।

इससे प्रकट होता है कि दूसरों को उतनी बात का पता चल पाता है जितनी आसानी से उनके सामने आ जाती है। सामने रखी गेंद का अगला भाग देखा जा सकता है पर उसका पृष्ठ भाग है यह तब तक नहीं मालूम हो सकता जब तक कि उसे उलट-पलट कर न देखा जाए। सच तो यह है कि किसी वस्तु के बारे में हम बहुत ही थोडे अंशों में जानकारी रखते हैं। अपने शरीर के भीतरी अंग किस गतिविधि से कार्य कर रहे हैं, अपने रक्त में किन रोगों के कीटाणु प्रवेश कर रहे हैं? निजी बातों का इतना पता नहीं तो दूसरे लोगों के मनोभाव, आचरण, कैसे हैं इसको ठीक-ठीक मालूम करना और भी कठिन है  मोटी-मोटी प्रकट बातों को देखकर किसी के गुण- अवगुणों के बारे में लोग अपनी सम्मति निर्धारित करते हैं और एक से एक सुनकर दूसरा भी अपनी सहमति वैसी ही बना लेता है। दो-चार पूर्ण- अपूर्ण बातों के आधार पर ही अक्सर सारा समाज अपनी भली- बुरी धारणा बना लेता है। व्यक्ति चाहे बदल गया हो पर वह धारणा मुद्दतों तक चलती जाती है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए आप अपने सुद्गुणों को प्रकाश में लाने का प्रयत्न कीजिए। जो अच्छाइया, भलाइयाँ योग्यताएँ उत्तमताएँ विशेषताएँ हैं उन्हें छिपाया मत कीजिए वरन इस प्रकार रखा करिए जिससे वे अनायास ही लोगों की दृष्टि में आ जावें। अपने बारे में बढ-चढ कर बातें करना ठीक नहीं, शेखीखोरी ठीक नहीं, अहंकार से प्रेरित होकर अपनी बड़ाई के पुल बाँधना यह भी ठीक नहीं, अच्छी बात को बुरी तरह रखने में उसका सौंदर्य नष्ट हो जाता है।
 
दूसरे प्रसंगों के सिलसिले में कलापूर्ण ढंग से, मधुर वाणी से इस कार्य को बड़ी सुंदरता पूर्वक किया जा सकता है । अप्रिय सत्य को प्रिय सत्य बना कर कहने मैं बुद्धि-कौशल की परीक्षा है, बुराई की इसमें कुछ बात नहीं। जो गाय पाँच सेर दूध देती है क्या हर्ज है यदि इस बात से दुसरे लोग भी परिचित हो जाएँ?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३२

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👉 भक्तिगाथा (भाग १२३)

भक्त को लोकहानि की कैसी चिन्ता

भक्त प्रह्लाद की भक्तिकथा को सुनकर सबके मन आह्लादित हो उठे। उन क्षणों में वहाँ सभी के मनों में एक ही सत्य स्पन्दित होने लगा कि सच्चा भक्त कभी चिन्तित नहीं होता। फिर भला ऐसा हो भी क्यों न? जिसकी सारी चिन्ताओं का भार स्वयं भगवान वहन करें, वह क्यों चिन्तित हो। वैसे भी भक्त का दायित्व अपने भगवान का सतत चिन्तन करना है, व्यर्थ की चिन्ता करना नहीं। इन्हीं विचार वीथियों में सभी की मानसिक चेतना देर तक भ्रमण करती रही। इन भक्ति तरंगों के संग-संग ऋषिमण्डल व देवमण्डल सहित अन्य जनों ने भी अपना सन्ध्या वन्दन सम्पन्न किया। ऐसा करते हुए भगवान् सूर्यदेव धरती के दूसरी छोर पर प्रकाश, प्रखरता एवं पवित्रता का वितरण करने के लिए प्रस्थान कर गए। उनके प्रस्थान करते ही नील गगन में निशा देवी के धीमे पगों की आहट सुनायी देने लगी। इसी के साथ उनका तारों जड़ा श्याम परिधान समूचे नभमण्डल पर छा गया।

क्षण बीते-पल बीते। इसी के साथ नभ में चन्द्रोदय हो गया और तब भगवती निशा का श्याम परिधान धवल चन्द्रिका में नहा उठा। यह सर्वथा अनूठा व अनोखा दृश्य था। हिमालय के रजत शृंगों पर निशानाथ राशि की राशि चाँदनी उड़ेलने लगे। आस-पास के पर्वत शिखरों से प्रवाहित होने निर्झर, चन्द्रदेव की चन्द्रिका को अपनी जलराशि में समेटने-घोलने एवं प्रवाहित करने लगे। ऋषियों-देवों, सिद्धों व गन्धर्वों का समुदाय इस मनमोहक दृश्य को निहार रहा था। यह मनोहर दृश्य उनके भावों में और भी अधिक पुलकन उत्पन्न कर रहा था। देवर्षि नारद को अभी भी अपने प्रिय प्रह्लाद की स्मृतियाँ घेरे थीं। इन्हीं स्मृतियों में एक मीठी सी याद ब्राह्मण कुमार श्रुतसेन की भी उभरी। उन्हें याद आने लगा कि श्रुतसेन सदा प्रह्लाद के साथ अपना समय व्यतीत करते थे। नारायण नाम संकीर्तन में सबसे आगे थे। भार्गव शुक्राचार्य का शिष्य होने के बावजूद उसमें तमस व रजस का लेश भी न था। उसमें थी तो केवल शुद्ध सात्त्विकता।

भगवान श्रीनारायण के नाम का सत्प्रभाव कहें या फिर पिछले जन्मों के शुभ संस्कारों से मिली प्रतिभा अथवा भार्गव शुक्राचार्य जैसे महामनस्वी आचार्य के सान्निध्य का सुफल, वह देवशास्त्र, दर्शन, उपनिषद् आदि के साथ अन्य सभी विद्याओं व कलाओं में पारंगत हो गया। शुक्राचार्य चाहते थे कि श्रुतसेन अपने जीवन की सभी उपलब्धियों को उनकी कृपा माने। जाने-अनजाने बार-बार वह यह प्रयास भी करते पर श्रुतसेन बार-बार विनम्रतापूर्वक दुहरा देता, गुरुदेव सभी कुछ आपके आशीष एवं भगवान् नारायण की मंगलमय कृपा से सम्भव हो सका है। श्रुतसेन के इस कथन से शुक्राचार्य का अहं आहत हो जाता। यहाँ तक कि वह अपने चोटिल अहं के साथ श्रुतसेन का अनिष्ट करने पर विचार करने लगते।
देवर्षि को अभी भी वे सारी बातें याद थीं। बल्कि यूं कहें कि वे सारी बातें उनके मन के क्षितिज पर अपने आप ही उभर रही थीं। देवर्षि इन्हीं में स्वयं को पता नहीं कब तक भूले रहते, यदि महर्षि पुलह ने उन्हें टोका न होता। महर्षि उन्हें काफी देर से देखे जा रहे थे। कुछ देर तक यूं ही देखते रहने के बाद उन्होंने धीमे स्वर में कहा- ‘‘किस चिन्तन में खोये हैं देवर्षि!’’ ऋषिश्रेष्ठ पुलह के इस तरह टोकने पर देवर्षि कुछ बोल तो नहीं पाये बस मुस्करा दिए। तभी महात्मा सत्यधृति ने विनम्र स्वर में कहा- ‘‘हम सबको आपके अगले सूत्र की प्रतीक्षा है।’’ ‘‘यह सत्य है।’’ ऐसा कहते हुए अनेकों ने सत्यधृति का समर्थन किया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४३

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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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