सुख का केन्द्र और स्रोत आत्मा
पदार्थों का उपभोग इन्द्रियों द्वारा होता है। इन्द्रियों के सक्रिय और सजीव होने से ही किसी रस, सुख अथवा आनन्द की अनुभूति होती है। जब तक मनुष्य सक्षम अथवा युवा बना रहता है, उसकी इन्द्रियां सतेज बनी रहती हैं। पदार्थ और विषयों का आनन्द मिलता रहता है। पर जब मनुष्य वृद्ध अथवा अशक्त हो जाता है—उन्हीं पदार्थों में जिनमें पहले विभोर कर देने वाला आनन्द मिलता था, एकदम नीरस और स्वादहीन लगने लगते हैं। उनका सारा सुख न जाने कहां विलीन हो जाता है। वास्तविक बात यह है कि अशक्तता की दशा अथवा वृद्धावस्था में इन्द्रियां निर्बल तथा अनुभवशीलता से शून्य हो जाती हैं। उनमें किसी पदार्थ का रस लेने की शक्ति नहीं रहती। इन्द्रियों का शैथिल्य ही पदार्थों को नीरस, असुखद तथा निस्सार बना देता है।
वृद्धावस्था ही क्यों? बहुत बार यौवनावस्था में भी सुख की अनुभूतियां समाप्त हो जाती हैं। इन्द्रियों में कोई रोग लग जाने अथवा उनको चेतना हीन बना देने वाली कोई घटना घटित हो जाने पर भी उनकी रसानुभूति की शक्ति नष्ट हो जाती है। जैसे रसेन्द्रिय जिह्वा में छाले पड़ जायें तो मनुष्य कितने ही सुस्वाद पदार्थों का सेवन क्यों न करे, उसे उसमें किसी प्रकार का आनन्द न मिलेगा। पाचन क्रिया निर्बल हो जाय तो कोई भी पौष्टिक पदार्थ बेकार हो जायेगा। आंखें विकार युक्त हो जायें तो सुन्दर से सुन्दर दृश्य भी कोई आनन्द नहीं दें पाते। इस प्रकार देख सकते हैं कि सुख पदार्थ में नहीं बल्कि इन्द्रियों की अनुभूति शक्ति में है।
अब देखना यह है कि इन्द्रियों की शक्ति क्या है? बहुत बार ऐसे लोग देखने को मिलते हैं, जिनकी आंखें देखने में सुन्दर स्वच्छ तथा विकार-हीन होती हैं, लेकिन उन्हें दिखलाई नहीं पड़ता। परीक्षा करने पर पता चलता है कि आंखों का यन्त्र भी ठीक है। उनमें आने-जाने वाली नस-नाड़ियों की व्यवस्था भी ठीक है। तथापि दिखलाई नहीं देता। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियां हाथ-पांव, नाक-कान आदि की भी दशा हो जाती है। सब तरफ से सब वस्तुयें ठीक होने पर भी इन्द्रिय निष्क्रिय अथवा निरनुभूति ही रहती है। इसका अर्थ यह हुआ कि रस की अनुभूति इन्द्रियों की स्थूल बनावट से नहीं होती। बल्कि इससे भिन्न कोई दूसरी वस्तु है, जो रस की अनुभूति कराती है। वह वस्तु क्या है? वह वस्तु है चेतना, जो सारे शरीर और मन प्राण में ओत-प्रोत रहकर मनुष्य की इन्द्रियों को रसानुभूति की शक्ति प्रदान करती है। इसी सब ओर से शरीर में ओत-प्रोत चेतना को आत्मा कहते हैं। आनन्द अथवा सुख का निवास आत्मा में ही है। उसी की शक्ति से उसकी अनुभूति होती है और वही जीव रूप में उसका अनुभव भी करती है। सुख न पदार्थों में है और न किसी अन्य वस्तु में। वह आत्मा में ही जीवात्मा द्वारा अनुभव किया जाता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ४३
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी