🔵 शाँतिकुँज के कंप्यूटर कक्ष के ऊपर जो बड़े हॉल के रूप में परमवंदनीय माताजी का कक्ष है, वहीं पर गुरुदेव का पार्थिव शरीर रखा गया था। महायोगी की महत् चेतना का दिव्य आवास रही, उनकी देह आज चेतनाशून्य थी। पास बैठी हुई वंदनीया माताजी एवं परिवार के सभी स्वजन वेदना से विकल और व्याकुल थे। माताजी की अंतर्चेतना को तो प्रातः प्रवचन में ही गुरुदेव के देह छोड़ने की बाते पता थी तब से लेकर अब तक वह अपने कर्तव्यों में लीन थीं। सजल श्रद्धा की सजलता जैसे हिमवत् हो गई थी, अब वह महावियोग के ताप से पिघल रही थी। अंतिम प्रणाम भी समाप्त हो गया, परंतु कुछ लोग अभी हॉल में रुके थे। प्रणाम करके नीचे उतर रहे एक कार्यकर्ता को एक वरिष्ठ भाई ने ही इशारे से रोक लिया। परमपूज्य गुरुदेव की पार्थिव देह को उठाते समय माताजी ने उसे बुलाया एवं भीगे स्वरों में कहा ,"बेटा! तू भी कंधा लगा ले।" माँ के इन स्वरों को सुनकर उसका रोम-रोम कह उठा ,"धन्य हो माँ! वेदना की इस विकल घड़ी में भी तुम्हें अपने सभी बच्चों की भावनाओं का ध्यान है।"
🔴 सजल श्रद्धा एवं प्रखर प्रज्ञा के पास आज जहाँ चबूतरा बना है, तब वहाँ खाली जगह थी। वहीं चिता के महायज्ञ की वेदिका सजाई गई थी। ठीक सामने स्वागत कक्ष के पास माताजी तख्त पर बिछाए गए आसन पर बैठी थीं। पास ही परिवार के अन्य सभी सदस्य खड़े थे। आस-पास कार्यकर्त्ताओं की भारी भीड़ थी। सभी की वाणी मौन थी, पर हृदय मुखर थे। हर आँख अश्रु का निर्झर बनी हुई थी। आसमान पर भगवान् सूर्य इस दृश्य के साक्षी बने हुए थे। कण-कण में बिखरी माता गायत्री की समस्त चैतन्यता उसी दिन उसी स्थल पर सघनित हो गई थी। भगवान सविता देव एवं उनकी अभिन्न शक्ति माता गायत्री की उपस्थिति में गायत्री जयंती के दिन यज्ञपुरुष गुरुदेव अपने जीवन की अंतिम आहुति दे रहे थे। यह उनके जीवन-यज्ञ की पूर्णाहुति थी।
🔵 आज वह अपने शरीर को ‘इदं न मम् ‘ कहते हुए यज्ञवेदी में अर्पित कर चुके थे। यज्ञ ज्वालाएँ धधकीं। अग्निदेव अपने समूचे तेज के साथ प्रकट हुए। वातावरण में अनेकों की अनेक सिसकियाँ एक साथ मंद रव के साथ विलीन हुईं। समूचे परिवार का कण-कण और भी अधिक करुणार्द्र हो गया, सभी विह्वल खड़े थे। परमतपस्वी गुरुदेव का तेज अग्नि और सूर्य से मिल रहा था। सूर्य की सहस्रों रश्मियों से उनकी चेतना के स्वर झर रहे थे।
🔴 कुछ ऐसा लग रहा था, जैसे वह स्वयं कह रहें हों, "तुम सब परेशान न हो, मैं कहीं भी गया नहीं हूँ, यहीं पर हूँ और यहीं पर रहूँगा। मैंने तो केवल पुरानी पड़ गई देह को छोड़ा है, मेरी चेतना तो यहीं पर है। वह युगों-युगों तक यहीं रहकर यहाँ रहने वालों को, यहाँ आने वालों को प्रेरणा व प्रकाश देती रहेगी। मैं तो बस साकार से निराकार हुआ हूँ, पहचान सको तो मुझे शाँतिकुँज के क्रियाकलापों में पहचानो! ढूँढ़ो!" वर्ष 1990 की गायत्री जयंती में साकार से निराकार हुए प्रभु के इन स्वरों की सार्थकता इस गायत्री जयंती की पुण्य वेला में प्रकट हो रही है। हम सबको उन्हें शाँतिकुँज रूपी उनके विराट् शरीर की गतिविधियों में पाना है और स्वयं को इनके विस्तार के लिए अर्पित कर देना है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति मई 2002 पृष्ठ 50
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/2002/May.50