ईश्वर अपने हर भक्त को एक प्यार भरी जिम्मेदारी सौंपता है और कहता है इसे हमेशा सम्भाल का रखा जाय। लापरवाही से इधर-उधर न फेंका जाय। भक्तों में से हर एक को मिलने वाली इस अनुकम्पा का नाम है- दुःख। भक्तों को अपनी सच्चाई इसी कसौटी पर खरी साबित करनी होती है।
दूसरे लोग जब जिस-तिस तरीके से पैसा इकट्ठा का लेते हैं और मौज-मजा उड़ाते हैं तब भक्त को अपनी ईमानदारी की रोटी पर गुजारा करना होता है। इस पर बहुत से लोग बेवकूफ बताते हैं न बनायेंगे तो भी उनकी औरों के मुकाबले तंगी की जिन्दगी अपने को अखरती, और यह सुनना पड़ता है कि भक्ति का बदला खुशहाली में क्यों नहीं मिला। यह परिस्थितियाँ सामने आती हैं। इसलिए भक्त को बहुत पहले से ही तंगी और कठिनाई में रहने का अभ्यास करना पड़ता है। जो इससे इनकार करता है उसकी भक्ति सच्ची नहीं हो सकती। जो सौंपी हुई अमानत की जिम्मेदारी सम्भालने से इन्कार करे उसकी सच्चाई पर सहज ही सन्देह होता है।
दुनिया में दुःखियारों की कमी नहीं। इनकी सहायता करने की जिम्मेदारी भगवान भक्त जनों को सौंपते हैं। पिछड़े हुए लोगों को ऊंचा उठाने का काम हर कोई नहीं सम्भाल सकता। इसके लिए भावनाशील और अनुभवी आदमी चाहिए। इतनी योग्यता सच्चे ईश्वर भक्तों में ही होती है। करुणावान के सिवाय और किसी के बस का यह काम नहीं कि दूसरों के कष्टों को अपने कन्धों पर उठाये और जो बोझ से लदे हैं उनको हलका करें। यह रीति-नीति अपनाने वाले को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
ईश्वर का सबसे प्यारा बेटा है ‘‘दुःख’’। इसे सम्भाल कर रखने की जिम्मेदारी ईश्वर अपने भक्तों को ही सौंपता है। कष्ट को मजबूरी की तरह कई लोग सहते हैं। किन्तु ऐसे कम हैं जो इसे सुयोग मानते हैं और समझते हैं कि आत्मा की पवित्रता के लिए इसे अपनाया जाना आवश्यक है।
जो सम्पन्न हैं, जिन्हें वैभव का उपयोग करने की आदत है उन्हें भक्ति रस का आनन्द नहीं मिल सकता। उपयोग की तुलना में अनुदान कितना मूल्यवान और आनंददायक होता है, जिसे यह अनुभव हो गया वह देने की बात निरन्तर सोचता है। अपनी सम्पदा, प्रतिभा और सुविधा को किस काम में उपयोग करूं इस प्रश्न का भक्त के पास एक ही सुनिश्चित उत्तर रहता है दुर्बलों को समर्थ बनाने, पिछड़ों को बढ़ाने और गिरों को उठाने के लिए। इस प्रयोजन में अपनी विभूतियाँ खर्च करने के उपरान्त संतोष भी मिलता है और आनन्द भी होता है। यही है भगवान की भक्ति का प्रसाद जो ‘इस हाथ दे, उस हाथ ले’ के हिसाब से मिलता रहता है।
भक्त की परीक्षा पग-पग पर होती है। सच्चाई परखने के लिए और महानता बढ़ाने के लिए। खरे सोने की कसौटी पर कसने और आग पर तपाने में उस जौहरी को कोई एतराज नहीं होता जो खरा माल बेचने और खरा माल खरीदने का सौदा करता है। भक्त को इसी रास्ते से गुजरता पड़ता है। उसे दुःख प्यारे लगते हैं क्योंकि वे ईश्वर की धरोहर हैं और इसलिए मिलते हैं कि आनन्द, उल्लास, संतोष और उत्साह में क्षण भर के लिए भी कमी न आने पाये।
दूसरे लोग जब जिस-तिस तरीके से पैसा इकट्ठा का लेते हैं और मौज-मजा उड़ाते हैं तब भक्त को अपनी ईमानदारी की रोटी पर गुजारा करना होता है। इस पर बहुत से लोग बेवकूफ बताते हैं न बनायेंगे तो भी उनकी औरों के मुकाबले तंगी की जिन्दगी अपने को अखरती, और यह सुनना पड़ता है कि भक्ति का बदला खुशहाली में क्यों नहीं मिला। यह परिस्थितियाँ सामने आती हैं। इसलिए भक्त को बहुत पहले से ही तंगी और कठिनाई में रहने का अभ्यास करना पड़ता है। जो इससे इनकार करता है उसकी भक्ति सच्ची नहीं हो सकती। जो सौंपी हुई अमानत की जिम्मेदारी सम्भालने से इन्कार करे उसकी सच्चाई पर सहज ही सन्देह होता है।
दुनिया में दुःखियारों की कमी नहीं। इनकी सहायता करने की जिम्मेदारी भगवान भक्त जनों को सौंपते हैं। पिछड़े हुए लोगों को ऊंचा उठाने का काम हर कोई नहीं सम्भाल सकता। इसके लिए भावनाशील और अनुभवी आदमी चाहिए। इतनी योग्यता सच्चे ईश्वर भक्तों में ही होती है। करुणावान के सिवाय और किसी के बस का यह काम नहीं कि दूसरों के कष्टों को अपने कन्धों पर उठाये और जो बोझ से लदे हैं उनको हलका करें। यह रीति-नीति अपनाने वाले को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
ईश्वर का सबसे प्यारा बेटा है ‘‘दुःख’’। इसे सम्भाल कर रखने की जिम्मेदारी ईश्वर अपने भक्तों को ही सौंपता है। कष्ट को मजबूरी की तरह कई लोग सहते हैं। किन्तु ऐसे कम हैं जो इसे सुयोग मानते हैं और समझते हैं कि आत्मा की पवित्रता के लिए इसे अपनाया जाना आवश्यक है।
जो सम्पन्न हैं, जिन्हें वैभव का उपयोग करने की आदत है उन्हें भक्ति रस का आनन्द नहीं मिल सकता। उपयोग की तुलना में अनुदान कितना मूल्यवान और आनंददायक होता है, जिसे यह अनुभव हो गया वह देने की बात निरन्तर सोचता है। अपनी सम्पदा, प्रतिभा और सुविधा को किस काम में उपयोग करूं इस प्रश्न का भक्त के पास एक ही सुनिश्चित उत्तर रहता है दुर्बलों को समर्थ बनाने, पिछड़ों को बढ़ाने और गिरों को उठाने के लिए। इस प्रयोजन में अपनी विभूतियाँ खर्च करने के उपरान्त संतोष भी मिलता है और आनन्द भी होता है। यही है भगवान की भक्ति का प्रसाद जो ‘इस हाथ दे, उस हाथ ले’ के हिसाब से मिलता रहता है।
भक्त की परीक्षा पग-पग पर होती है। सच्चाई परखने के लिए और महानता बढ़ाने के लिए। खरे सोने की कसौटी पर कसने और आग पर तपाने में उस जौहरी को कोई एतराज नहीं होता जो खरा माल बेचने और खरा माल खरीदने का सौदा करता है। भक्त को इसी रास्ते से गुजरता पड़ता है। उसे दुःख प्यारे लगते हैं क्योंकि वे ईश्वर की धरोहर हैं और इसलिए मिलते हैं कि आनन्द, उल्लास, संतोष और उत्साह में क्षण भर के लिए भी कमी न आने पाये।