गलती हमारी ये होती है कि जब हम ये देखते हैं कि ये आदमी आतंकित कर सकता है और हमारा नुकसान कर सकता है तो हम उसकी हाँ में हाँ मिला देते हैं। खु्ल्लमखुल्ला विरोध की शक्ति नहीं रखते। उससे असहयोग कर नहीं सकते बल्कि उसके सहयोगी बन जाते हैं। मनुष्य की यह कायरता ही गुंड्डागर्दी और पापों को बढ़ाने में समर्थ होती है। मनुष्य अगर सीना तानकर खड़ा हो जाए और ये कहे कि हम आपकी गलत काम में सहायता नहीं कर सकते और हम आपके साथ नहीं हैं और हम आपका समर्थन नहीं कर सकते। ऐसा करने से दुष्टों की हिम्मत पचास फीसदी कम हो जाती है।
बहादुरी हममें लड़ने की न हो, तो कोई बात नहीं, पर कहने की तो हो। वोट माँगने के लिए आया, तो कहे कि साहब आपका चाल-चलन ऐसा नहीं है और आप इस लायक नहीं हैं कि हम आपको एसेम्बली में भेजें और हम आपको चुनाव में वोट नहीं देंगे। तो आदमी की आधी हिम्मत कम हो जाती है। हममें से बहुत से लोगों को इस बात का माद्दा ग्रहण करना ही चाहिए कि जो आदमी सही काम नहीं कर सकते हैं और जो गलत रास्ते पर जा रहे हैं, उनके साथ में हर आदमी राजी नामा न करें, समझौता न करें, समर्थक न बनें। उसकी हाँ में हाँ न मिलाएँ।
ठीक है, अगर विरोध करने की शक्ति अपने अन्दर नहीं है और लड़ने की शक्ति नहीं है तो कुछ देर के लिए चुप भी बैठ सकते हैं और उस लड़ाई के वक्त का इन्तजार भी कर सकते हैं। लेकिन समर्थन तो किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए और सहयोग तो किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए। उसका मित्र बनकर तो किसी भी हालत में नहीं रहना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि हम अनैतिकता का पोषण करते हैं, अनैतिकता का समर्थन करते हैं।
संघर्ष यहाँ से शुरू होता है। संघर्ष की पहली प्रक्रिया वह है कि हम किसी बुरे आदमी का सहयोग न करें। कोई जुआरी हमसे उधार माँगने आये कि हम ब्याज से पैसे दे देंगे, कहें कि हम पैसे नहीं दे सकते। ये असहयोग हुआ। जो आदमी बुरा है उसे बुरा कहना, अच्छा है उसे अच्छा कहना । नम्र शब्दों में हम कहें, ठीक है। इज्जत खराब न करें, ये भी ठीक है। लेकिन हमको जो बात है-जो फैक्ट है उसको खोल ही देना चाहिए। खोल देने से अच्छाई रहेगी।
यदि कोई बुरा आदमी सज्जनता की बाना पहने हैं, एक सियार-शेर का चमड़ा ओढ़कर रहता है और उसके बारे में लोगों की आँखें खुल जाएगी, तो क्या हर्ज की बात है? हमको सही कहना, अच्छे को अच्छा कहना, बुरे को बुरा कहना सीखना चाहिए और हमको गलत आदमियों का असहयोग करना सीखना चाहिए। उनके साथ में हम सहयोग न करें।
यहाँ से लड़ाई शुरू होती है और लड़ाई में दोनो तरफ के लोग घायल होते हैं। सामने वाला ही घायल हो जाये और अपने को चोट नहीं आयेगी ये कै से हो सकता है? अपने आपको भी चोट आ सकती है, ये मानकर लड़ाई के मैदान में आना चाहिए। संघर्ष के मोर्चे पर सिर्फ उसी को आना चाहिए, जो इस बात के लिए तैयार हो कि मैं एक ऐसा काम करने जा रहा हूँ, जिसमें मुझे लड़ाई-झगड़ा करना पड़ेगा। लड़ाई-झगड़ा करने में सामने वाला ही मारा जाता हो, सामने वाला ही घायल होता हो, सामने वाले को ही हरा दिया जाता हो, ऐसी बात तो नहीं है न। जो आदमी लड़ाई लड़ता है वो भी इस चपेट में आता है, वह भी घायल होता है, जख्म होता है। तो हमारे विरोध करने की कीमत पर अगर दूसरे लोग हमारे ऊपर हमला करेंगे, हमें नुकसान पहुँचाएँगे तो उसको भी देखेंगे। उसको भी समझेंगे, उसके लिए भी तैयार हैं। ये हिम्मत आदमी के भीतर उत्पन्न होनी चाहिए। इतनी हिम्मत अगर उत्पन्न हो जाए और आदमी के असहयोग करने का माद्दा विकसित हो जाए, बुरे को बुरा कहने का माद्दा विकसित हो जाये तो समझना चाहिए कि पाप, अनीति और अनाचार के विरूद्घ संघर्ष करने का पचास फीसदी मोर्चा फतह कर लिया।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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