🔵 समस्त विश्व को समान प्रेम की दृष्टि से देखो। अपनी व्यक्तिगत मित्रता की निष्ठा के द्वारा राह समझ लो कि प्रत्येक व्यक्तिगत जीवन में मौलिक रूप में वही सुन्दर ज्योति प्रकाशित हो रही है जिसे तुम उसमें देखते हो, जिसे तुम भाई के प्रिय नाम से पुकारते हो। विश्वजनीन बनो। अपने शत्रु से भी प्रेम करो। शत्रु मित्र का यह भेद केवल सतह पर ही है। गहरे! भीतर गहरे में केवल ब्रह्म ही है। सभी वस्तु तथा व्यक्ति में केवल ब्रह्म को ही देखना सीखो। किन्तु फिर भी उप्रियता तथा स्वभाव के कलह से बचने के लिये पर्याप्त सावधान रहो।
🔴 सर्वोच्च अर्थ में वास्तविक संबंध वही है जिसमें संबंधत्व का भान ही नहीं है और इसीलिये आध्यात्मिक है। व्यष्टि के बदले समष्टि को पहचानना सीखो। शरीर के स्थान पर आत्मा को पहचानना सीखो। तब तुम अपने मित्र के अधिक निकट होओगे। मृत्यु भी तुम्हें अलग न कर सकेगी तथा स्वयं के भीतर स भी प्रकार के भेदों को जीत -लेने के कारण तुम्हारी दृष्टि में कोई शत्रु भी न होगा। सभी रूपों में जो सौंदर्य है उसे देखो किन्तु उसे प्राप्त करने को इच्छा के बदले उसकी पूजा करो। प्रत्येक जीव तथा रूप तुम्हारे लिये आध्यात्मिक सन्देह हो।
🔵 सभी विचार जिस स्वभाव से उत्पन्न होते हैं, उसी से संबंधित होते हैं। इसलिये दूसरों की बातें सुनने पर उसके अनुभवात्मक पक्ष को देखो, तर्क को नहीं। तब कोई वाद विवाद उत्पन्न नहीं होगा, तथा तुम्हारे स्वयं के अनुभव को नई प्रेरणा मिलेगी। फिर यह भी जान रखो कि मौन प्राय : उत्तम होता है तथा बोलना और तर्क करना हमारी शक्तियों का अपव्यय करता है। तथा सदैव यह स्मरण रखो कि अपने हीरों को बैंगनवालों के सामने कभी न डालो। उसी प्रकार सभी भावनायें भी स्वभाव से ही संबंधित होती हैं।
🔴 अत: उनके प्रति आसक्त होने के बदले उनके साक्षी बनो। यह जान लो कि विचार तथा भावनाएँ दोनों ही माया के क्षेत्र के अन्तर्गत हैं। किन्तु माया का भी अध्यात्मीकरण करना होगा। अपने जीव भाव को परमात्मभाव के अधिकार में हो जाने दो। इसलिये अनासक्त रहो। क्योंकि तुम आज जो सोचते हो तथा अनुभव करते हो वह कल, हो सकता है, तुम्हें आगे न बढ़ाये। तथा सर्वोपरि यह जान लो कि अपने सच्चे स्वरूप में तुम भाव और विचारों से मुक्त हो। भाव और विचार तुम्हारे सत्य स्वरूप को प्रगट करने में सहायक मात्र होते हैं। इसलिये अपने भाव और विचारों को महान् तथा विश्वजनीन होने दो तथा सर्वोपरि उन्हें पूर्णतः निस्वार्थ होने दो। तब इस संसार के घोर अहंकार में भी तम उस शाश्वत ज्योति को देख सकोगे। भले ही प्रारभ में वह क्षीण क्यों न प्रतीत हो।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर
🔴 सर्वोच्च अर्थ में वास्तविक संबंध वही है जिसमें संबंधत्व का भान ही नहीं है और इसीलिये आध्यात्मिक है। व्यष्टि के बदले समष्टि को पहचानना सीखो। शरीर के स्थान पर आत्मा को पहचानना सीखो। तब तुम अपने मित्र के अधिक निकट होओगे। मृत्यु भी तुम्हें अलग न कर सकेगी तथा स्वयं के भीतर स भी प्रकार के भेदों को जीत -लेने के कारण तुम्हारी दृष्टि में कोई शत्रु भी न होगा। सभी रूपों में जो सौंदर्य है उसे देखो किन्तु उसे प्राप्त करने को इच्छा के बदले उसकी पूजा करो। प्रत्येक जीव तथा रूप तुम्हारे लिये आध्यात्मिक सन्देह हो।
🔵 सभी विचार जिस स्वभाव से उत्पन्न होते हैं, उसी से संबंधित होते हैं। इसलिये दूसरों की बातें सुनने पर उसके अनुभवात्मक पक्ष को देखो, तर्क को नहीं। तब कोई वाद विवाद उत्पन्न नहीं होगा, तथा तुम्हारे स्वयं के अनुभव को नई प्रेरणा मिलेगी। फिर यह भी जान रखो कि मौन प्राय : उत्तम होता है तथा बोलना और तर्क करना हमारी शक्तियों का अपव्यय करता है। तथा सदैव यह स्मरण रखो कि अपने हीरों को बैंगनवालों के सामने कभी न डालो। उसी प्रकार सभी भावनायें भी स्वभाव से ही संबंधित होती हैं।
🔴 अत: उनके प्रति आसक्त होने के बदले उनके साक्षी बनो। यह जान लो कि विचार तथा भावनाएँ दोनों ही माया के क्षेत्र के अन्तर्गत हैं। किन्तु माया का भी अध्यात्मीकरण करना होगा। अपने जीव भाव को परमात्मभाव के अधिकार में हो जाने दो। इसलिये अनासक्त रहो। क्योंकि तुम आज जो सोचते हो तथा अनुभव करते हो वह कल, हो सकता है, तुम्हें आगे न बढ़ाये। तथा सर्वोपरि यह जान लो कि अपने सच्चे स्वरूप में तुम भाव और विचारों से मुक्त हो। भाव और विचार तुम्हारे सत्य स्वरूप को प्रगट करने में सहायक मात्र होते हैं। इसलिये अपने भाव और विचारों को महान् तथा विश्वजनीन होने दो तथा सर्वोपरि उन्हें पूर्णतः निस्वार्थ होने दो। तब इस संसार के घोर अहंकार में भी तम उस शाश्वत ज्योति को देख सकोगे। भले ही प्रारभ में वह क्षीण क्यों न प्रतीत हो।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर