गुरुवार, 11 मई 2017

👉 ऐसा तो भगवान से ही संभव है!

🔵 मंत्र दीक्षा मैंने सन् १९७२ में ही ले ली थी। अपने पैतृक गाँव खीर भोजना, वारसलीगंज, नवादा (बिहार) में ही वह संस्कार सम्पन्न हुआ था। १९७६ में बोकारो में गायत्री यज्ञ हुआ। आदरणीय रमेश चन्द्र शुक्ल जी वहाँ केन्द्रीय प्रतिनिधि के रूप में थे। उनसे पत्र लेकर पू. गुरुदेव के दर्शन हेतु शान्तिकुञ्ज आया। अप्रैल का महीना था। लेकिन वसन्त पूरे वातावरण में अभी तक व्याप्त था। ब्रह्ममुहूर्त में गुलाबी जाड़े की सुखद अनुभूति होती थी। यहाँ पाँच दिनों तक के शिविर में ही मेरे विचार और चिन्तन में आमूलचूल परिवर्तन होता चला गया।

🔴 दर्शन शास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते अध्यात्म की थोड़ी बहुत जानकारी तो थी, पर कर्मकाण्डी पंडितों की तिकड़मों के कारण उस पर आस्था नहीं जम पाती। यहाँ आकर अध्यात्म को लेकर अविश्वास का वह भाव बिल्कुल खत्म हो गया। एक दृढ़ आस्था मन में पनपने लगी, कोई सत्ता अवश्य है जिसके अनुसार सब कुछ अपने समय से चलता रहता है।

🔵 मिशन के विषय में मैं अधिक से अधिक जानना चाहता था। सेवा कार्य में सहयोग देने की भी इच्छा होती। मैंने आदरणीय श्री वीरेश्वर उपाध्याय भाई साहब से परामर्श किया और उनके बताए अनुसार अगले वर्ष मई, १९७७ में शान्तिकुञ्ज आकर एक मासीय सत्र किया। उसी समय संकल्प लिया कि वर्ष में छुट्टी के दो माह मैं यहाँ के कार्य में लगाऊँगा। स्थानीय समय दान के अलावा केन्द्र में समयदान १९७८ से देने लगा।

🔴 पहले छुट्टियों में घर जाता था। खेती- बाड़ी के काम में पिताजी की मदद करता था। वह सिलसिला बंद हो गया, तो पिताजी नाराज हुए। घर भेजी जाने वाली मासिक राशि में भी कटौती होती गई। अपने गाँव या आस- पास के गाँव के कोई परिचित मिल जाते, तो कहते- पिताजी तुमसे बहुत नाराज रहते हैं। कहते हैं, पता नहीं किस साधु महात्मा के चक्कर में पड़ गया है। न घर आता है, न ही पैसा दे पाता है। उसका नाम मत लीजिये। यह सब सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगता।

🔵 मैं असमंजस में था। पिताजी को मैं इस तरह से नाराज नहीं करना चाहता था। सेवा कार्य के संदर्भ में मैंने पिताजी को विश्वास में लेने की पूरी कोशिश की, लेकिन वे रत्ती भर भी नहीं पिघले। अन्त में थक हार कर मैंने मन ही मन गुरुदेव से प्रार्थना की। मुझे पूर्ण विश्वास था कि इसका वे ही कुछ समाधान निकालेंगे। १९७९ में पिताजी बद्रीनाथ जाने के लिए राजी हुए। पहले शान्तिकुञ्ज आकर सामान रखने की व्यवस्था बनाई गई। फिर पिताजी को साथ लेकर पूज्य गुरुदेव से मिलने गया। गुरुदेव बोले- बेटा, इन्हें बद्रीनाथ घुमा लाओ। पूज्य गुरुदेव की बातें सुनकर पिताजी को आश्चर्य हुआ। नीचे आकर वे हमसे पूछने लगे- इन्हें कैसे मालूम हुआ कि हम बद्रीनाथ जा रहे हैं? मैंने कहा- मुझे क्या मालूम? मैं तो आपके साथ ही हूँ।

🔴 बद्रीनाथ से लौटकर शान्तिकुञ्ज में दो- एक दिन रुकने के लिए पिताजी से पूछा, तो वे राजी हो गए। शान्तिकुञ्ज के स्नेहिल वातावरण ने उनका मन मोह लिया था। बोले मुझे यहाँ बहुत अच्छा लग रहा है। जब तक चाहो, रुको। इसी बीच एक दिन अपने कमरे में ही आश्चर्य से उत्तेजना पूर्ण स्वर में कहने लगे- अरे? गुरुजी तुम लोगों को बुड़बक (मूर्ख) बना कर रखे हुए हैं। ये आदमी नहीं हैं। ये भगवान के सिवा कुछ हो ही नहीं सकते। साश्चर्य मैंने पूछा- क्या हुआ, ऐसा क्यों कह रहे हैं? उन्होंने कहा- आज एक लड़का, जिसको मरे हुए घंटे भर से ज्यादा हो गया था, उसे उन्होंने जिन्दा कर दिया।

🔵 घटना को पूरे विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा- मरे हुए उस लड़के को लेकर कुछ लोग गुरुजी के पास गए। गुरुजी पश्चिम वाले कमरे से निकल रहे थे। शोर सुनकर पूरब वाले कमरे में गए। आकर लोगों से पूछा- क्या बात है? लोगों ने बताया- एक बच्चा मर गया है। बच्चा जमीन पर लेटा था। बच्चे की माँ छाती पीटकर रो रही थी। गुरुजी बोले- कुछ नहीं हुआ है। इतना कहते हुए उन्होंने झटके से बच्चे का हाथ पकड़कर उठा दिया। बोले- जा, इसे माता जी के पास ले जाकर प्रसाद खिला दे। सभी आश्चर्यचकित थे। मरे हुए को जिन्दा कर देना ऐसा तो मात्र भगवान ही कर सकते हैं!

🔴 इस घटना के बाद पिताजी की दृष्टि बदल गई। इसके बाद वे हमेशा मेरे सेवा कार्य को सराहते रहे- मेरा नाम लेते ही भावुक होकर कहते- वह जो कर रहा है, करता रहे, मुझे उसके पैसे और समय की जरूरत नहीं है। वह भगवान का काम कर रहा है, वह स्वयं तो तरेगा ही, हमारे सारे खानदान को भी तार देगा।

🌹  रामनरेश प्रसाद बोकारो (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/a/bha

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 12 May 2017


👉 आज का सद्चिंतन 12 May 2017


👉 Intercession & its Significance. (Part 2)

🔴 Very this has been quoted at one place in RAMAYANA---
                                  
‘‘KAK HOHI PIK BAKAHU MARALA’’ 

Look, so is the influence of a company that a crow becomes a cuckoo whereas heron, a swan. UPASANA or intercession means to be tuned or harmonized. Harmonization with whom-Harmonization with BHAGWAN; what kind of harmonization with BHAGWAN? Harmonization with BHAGWAN simply means specifications of BHAGWAN landing in our life. but it could not happen and  we never pursued BHAGWAN’s specifications to land in our life, rather we tried things against it, what is against it- as we & you generally do. Let our wickedness, meanness dominate BHAGWAN. We wish our BHAGWAN to be as wicked, as immoral as mean & useless as we all are and he must comply to our wishes only. Do you want that BHAGWAN must fulfill what you desire? Are you worthy enough that BHAGWAN should meet your demands?
                                 
🔵 You offer incense-sticks to him and in exchange you expect him to compensate you. You expect BHAGWAN to follow your dictation just in exchange of bribery of few incense-sticks. This can’t happen for it is a misunderstanding. No one knows how this misunderstanding came in the mind of people that BHAGWAN can be persuaded like a child and that he can be compelled to consent to our dictation as a child does. Is it possible? Son, that’s not possible. Suppose, we all are the devotees of HANUMAN and if we pray to him that our neighbor should die as he tortures us and our neighbor too prays to him that we should die. Both are devotees of HANUMAN, ok. Hanuman has no idea as to whose demand is genuine as both are his devotees. Hanuman is not sure about whose demand is due and whose’ is undue. Now tell whether Hanuman will kill the neighbor to meet our demand or kill us to meet neighbor’s demand?  You tell what will hanuman do now?  Do you harass hanuman? Son, there is no way to happen that. Please, no PUJA for the purpose of wishes. Kindly stop your PUJA-PATH if it is exclusively for the purpose of fulfilling some desire.

🌹  to be continue...
🌹 ~Pt Shriram Sharma Aachrya

👉 सम्मान पाने के लिए कष्टों से गुजरना पड़ता है।

🔵 बार-बार पैरों तले कुचले जाने के कारण मिट्टी अपने भाग्य पर रो पड़ी। अहो! मैं कैसी बदनसीबी हूँ कि सभी लोग मेरा अपमान करते हैं। कोई भी मुझे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता जबकि मेरे ही भीतर से प्रस्फुटित होने वाले फूल का कितना सम्मान है। फूलों की माला पिरोकर गले में पहनी जाती है। भक्त लोग अपने उपास्य के चरणों में चढ़ाते हैं। वनिताएं अपने बालों में गूंथ कर गर्व का अनुभव करती हैं। क्या ही अच्छा हो कि मैं भी लोगों के मस्तिष्क पर चढ़ जाऊं!

🔴 मिट्टी के अंदर से निकलती हुई आह को जानकर कुंभकार बोला- मिट्टी! तुम यदि सम्मान पाना चाहती हो तो तुम्हें बड़ा सम्मान दिला सकता हूँ लेकिन एक शर्त है।

🔵 'एक क्या तुम्हारी जितनी भी शर्ते हों, मुझे सभी स्वीकार हैं। बस मुझे लोगों के पैरों तले से हटा दो,' कुंभकार की बात को बीच में ही काटते हुए मिट्टी ने कहा।

🔴 'तो फिर ठीक है, तैयार हो जाओ'- कहते हुए कुंभकार ने जमीन खोदकर मिट्टी बाहर निकाली। उसे घर ले आया। पानी में डालकर उसे बहुत समय तक गीली रखा। इतना ही नहीं फिर पैरों से उसे खूब रौंदा। कष्टों को सहते हुए मिट्टी बोली, 'अरे भाई! मै सम्मान का पात्र कब बनूंगी?'

🔵 'मिट्टी बहिन! धैर्य रखो। अभी सहती जाओ, तुम्हें इसका मधुर फल जरूर मिलेगा।'

🔴 कुंभकार की बात सुनकर मिट्टी कुछ नहीं बोली।

🔵 कुंभकार ने मिट्टी को चाक पर चढ़ाया और उसे तेजी से घुमाते हुए घड़े का रूप दिया। फिर धूप में सुखाया। कष्ट सहते-सहते जब मिट्टी का धैर्य टूटने लगा तो कुंभकार बोला, 'बस बहन! अब केवल एक अग्नि-परीक्षा ही शेष है। और सभी में तुम उत्तीर्ण हो चुकी हो। यदि उसमें भी उत्तीर्ण रही तो लोग सती सीता की तरह तुम्हें भी मस्तक पर चढ़ा लेंगे। सीता को लोग सिर झुकाकर सम्मान देते हैं किन्तु तुम्हें तो वनिताएं सिर पर सजा कर घूमेंगी। '

🔴 आखिर मिट्टी ने सब कुछ सह कर अग्नि-परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। फिर क्या था! सचमुच सुंदरियां उसे सिर पर उठाए फिरने लगी। मिट्टी अपने सम्मान पर प्रफुल्लित हो उठी। आखिर सम्मान पाने के लिए कष्ट तो सहने ही पड़ते हैं।

👉 सेवा का मर्म

🔵 हममें सेवा करने की चाहत तो है, परन्तु हमारे हृदय में इससे कहीं अधिक ललक अपने नाम और ख्याति की है। सेवा धर्म-प्रेम का मार्ग है। प्रेम में व्यापार नहीं होता, पर हम एक व्यवसायी की भाँति प्रेम का व्यवसाय करते हैं। हम प्रेम के वशीभूत हो सेवा कहाँ करते हैं? हम तो एक प्रकार से अहसान करते हैं। जितना करते हैं, उससे अधिक उसका अहंकार करते हैं। सेवा-साधना तो अपने को समाज का अंग मानकर उसके लिए अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करना भर है। यह कोई अतिरिक्त अनुदान नहीं, जो हम समाज को देते हैं। हमारी भावना तो यह रहती है, मानो हम किसी को ऋण दे रहे हों। हम सेवा के लिए समय-साधनों आदि का विनियोग करते हैं। उन्हें इस दिशा में लगाने की क्षमता का विकास भी करते हैं, किन्तु अपनी निश्छल भावना का उपयुक्त विकास करना चूक जाते हैं।

🔴 हम सेवाकार्य में तप, त्याग के अभिमान को नहीं छोड़ते। अभिमान के कारण भेद एवं विशृंखलताएँ उत्पन्न होती हैं। केवल तप, त्याग और  बलिदान के द्वारा ही उन्हें हटाया जा सकता है।
  
🔵 क्या हमारे हृदय में सात्त्विक भावना मौजूद हैं? समाज, सभाएँ, आश्रम सभी कुछ मौजूद है। ये सब अपना-अपना काम कर रहे हैं। समाजसेवा का कार्य जो भी, जैसा भी और जितना भी होता है, वह अच्छा ही है। परन्तु दुःखी प्राणियों और पीड़ित वर्ग की गुप्त सेवा करने वाले लोग कहाँ हैं? हमारे हृदय में निर्धनों और निर्बलों के प्रति प्रेम एवं आदर का अभाव है। यह ठीक है कि बहुधा सेवा अपने से कम साधन वालों की ही की जाती है। पर इसका यह अर्थ तो नहीं कि उन्हें हीन तथा तिरस्कृत माना जाए। यह भाव रहते सेवा तो कभी हो ही नहीं सकती। जब हम यह मानें कि इनका भी कुछ हक है, जो इन्हें मिलना चाहिए, तभी सेवा की सार्थकता है अन्यथा भ्रान्त दृष्टिकोण से तो अहंकार ही बढ़ेगा।

🔴 कुछ व्यक्ति आध्यात्मिक जीवनयापन करते देखे तो जाते हैं, पर गरीबों-असहायों को शीतल छाया बिलकुल भी नहीं देते। इस सजला-सुफला, शस्यस्यामला भारतभूमि पर लाखों नर-नारी अन्न-वस्त्र, दवा-दारू, सेवा-सहायता के बिना आए दिन तड़प-तड़प कर अपने प्राण गवाँ रहे हैं और हम अपने नाम, प्रतिष्ठा और अधिकार के मद में उस ओर देखते तक नहीं। परहित के लिए हड्डियाँ तक दे डालने वाले दधीचि जैसे ऋषियों की भूमि में गुप्तदान और गुप्त-सेवा आदि की पवित्र, सात्विक भावनाओं के प्रति आदर क्या एकदम उठ गया? लगता है-त्याग, निस्पृहता एवं संवेदना अब इस जगत् में नहीं रही, परन्तु परमात्मप्रेम की ज्योति आज भी बुझी नहीं है। वह परम ज्योति जितने अन्तःकरणों को छू सके, उनमें प्रकाशित हो सके, प्रज्वलित हो सके, उतना ही शुभ होगा। इस शुभ में ही सेवा का मर्म निहित है।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 65

👉 नारी की महानता को समझें (भाग 2)

🔵 महादेवी वर्मा ने नारी की महानता के बारे में लिखा है-
‘नारी केवल माँस पिण्ड की संज्ञा नहीं है, आदिम काल से आज तक विकास पथ पर पुरुष का साथ देकर उसकी यात्रा को सफल बनाकर, उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर और अपने वरदानों से जीवन में अक्षय शक्ति भर कर मानवी ने जिस व्यक्तित्व, चेतना और हृदय का विकास किया है उसी का पर्याय नारी है।’

🔴 इसमें कोई सन्देह नहीं कि नारी धरा पर स्वर्गीय ज्योति की साकार प्रतिमा है। उसकी वाणी जीवन के लिए अमृत स्रोत है। उसके नेत्रों में करुणा, सरलता और आनन्द के दर्शन होते हैं। उसके हास्य में संसार की समस्त निराशा और कड़ुवाहट मिटाने की अपूर्व क्षमता है। नारी सन्तप्त हृदय के लिए शीतल छाया है। वह स्नेह और सौजन्य की साकार देवी है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री के शब्दों में ‘नारी पुरुष की शक्ति के लिए जीवन सुधा है। त्याग उसका स्वभाव है, प्रदान उसका धर्म, सहनशीलता उसका व्रत और प्रेम उसका जीवन है।’

🔵 कवीन्द्र रवीन्द्र ने नारी के हास में जीवन निर्झर का संगीत सुना है। जयशंकर प्रसाद ने कहा है-
नारी केवल तुम श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में॥

🔴 संसार के सभी महापुरुषों ने नारी में उसके दिव्य स्वरूप के दर्शन किये हैं जिससे वह पुरुष के लिए पूरक सत्ता के ही नहीं वरन् उर्वरक भूमि के रूप में उसकी उन्नति, प्रगति एवं कल्याण का साधन बनती है। स्वयं प्रकृति ही नारी के रूप में सृष्टि के निर्माण, पालन-पोषण संवर्धन का काम कर रही है। नारी के हाथ बनाने के लिए हैं बिगाड़ने के लिए नहीं। परिस्थिति वश-स्वभाव वश नारी कितनी ही कठोर बन जाय किन्तु उसकी वह सहज-कोमलता कभी ओझल नहीं हो सकती जिसके पावन अंक में संसार को जीवन मिलता है। प्रेमचन्द के शब्दों ‘नारी पृथ्वी की भाँति धैर्यवान् शान्त और सहिष्णु होती है।’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 ~अखण्ड ज्योति जून 1964 पृष्ठ 39
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/June/v1.39

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 99)

🌹 तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण

🔴 गुजारा अपनी जेब से एवं काम दिन-रात स्वयं की तरह मिशन का, ऐसा उदाहरण अन्य संस्थाओं में चिराग लेकर ढूँढ़ना पड़ेगा। यह सौभाग्य मात्र शान्तिकुञ्ज को मिला है कि उसे एम० ए०, एम०एस०सी०, एम०डी०, एम०एस०, पी०एच०डी०, आयुर्वेदाचार्य, संस्कृत आचार्य स्तर के कार्यकर्ता मिले हैं। उनकी नम्रता, सेवा साधना, श्रमशीलता एवं निष्ठा देखते ही बनती है। जबकि वरीयता योग्यता एवं प्रतिभा को दी जाती है, डिग्री को नहीं, ऐसा परिकर जुड़ना इस मिशन का बहुत बड़ा सौभाग्य है।

🔵 जो काम अब तक हुआ है, उसमें पैसे की याचना नहीं करनी पड़ी। मालवीय जी का मंत्र मुट्ठी भर अन्न और दस पैसा नित्य देने का संदेश मिल जाने से ही इतना बड़ा कार्य सम्पन्न हो गया। आगे इसकी और भी प्रगति होने की सम्भावना है। हम जन्मभूमि छोड़कर आए, वहाँ हाईस्कूल, फिर इंटर कालेज एवं अस्पताल चल पड़ा। मथुरा का कार्य हमारे सामने की अपेक्षा उत्तराधिकारियों द्वारा दूना कर दिया गया है। हमारे हाथ का कार्य क्रमशः अब दूसरे समर्थ व्यक्तियों के कंधों पर जा रहा है, पर मन में विश्वास है कि घटेगा नहीं। ऋषियों का जो कार्य आरम्भ करना और बढ़ाना हमारे जिम्मे था, वह अगले दिनों घटेगा नहीं। प्रज्ञावतार की अवतरण वेला में मत्स्यावतार की तरह बढ़ता-फैलता ही चला जाएगा। चाहे हमारा शरीर रहे या न रहे, किंतु हमारा परोक्ष शरीर सतत उस कार्य को करता रहेगा, जो ऋषि सत्ता ने हमें सौंपा था।

🔴 हिमालय यात्रा से हरिद्वार लौटकर आने के बाद जब आश्रम का प्रारंभिक ढाँचा बनकर तैयार हुआ तो विस्तार हेतु साधनों की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। समय की विषमता ऐसी थी कि जिससे जूझने के लिए हमें कितने ही साधनों, व्यक्तियों एवं पराक्रमों की आवश्यकता अपेक्षित थी। दो काम करने थे-एक संघर्ष, दूसरा सृजन। संघर्ष उन अवाञ्छनीयताओं से, जो अब तक की संचित सभ्यता, प्रगति और संस्कृति को निगल जाने के लिए मुँह बाए खड़ी है। सृजन उसका, जो भविष्य को उज्ज्वल एवं सुख-शान्ति से भरा पूरा बना सके। दोनों ही कार्यों का प्रयोग समूचे धरातल पर निवास करने वाले ५०० करोड़ मनुष्यों के लिए करना ठहरा था, इसलिए विस्तार क्रम अनायास ही अधिक हो जाता है।

🔵  निज के लिए हमें कुछ भी न करना था। पेट भरने के लिए जिस स्रष्टा ने कीट-पतंगों तक के लिए व्यवस्था बना रखी है, वह हमें क्यों भूखा रहने देगा। भूखे उठते तो सब हैं, पर खाली पेट सोता कोई नहीं। इस विश्वास ने निजी कामनाओं का आरम्भ में ही समापन कर दिया। न लोभ ने कभी सताया, न मोह ने। वासना, तृष्णा और अहंता में से कोई भी भव बंधन जैसी बँधकर पीछे न लग सकी। जो करना था, भगवान के लिए करना था, गुरुदेव के निर्देशन पर करना था। उन्होंने संघर्ष और सृजन के दो ही काम सौंपे थे, सो उन्हें करने में सदा उत्साह ही रहा। टालमटोल करने की प्रवृत्ति न थी और न कभी इच्छा हुई। जो करना सो तत्परता और तन्मयता से करना, यह आदत जन्मजात दिव्य अनुदान के रूप में मिली और अद्यावधि यथावत बनी रही।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/3.5

👉नारी की महानता को समझें (भाग 1)

🔵  नारी पुरुष की पूरक सत्ता है। वह मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत है। उसके बिना पुरुष का जीवन अपूर्ण है। नारी उसे पूर्ण करती है। मनुष्य का जीवन अन्धकारयुक्त होता है तो स्त्री उसमें रोशनी पैदा करती है। पुरुष का जीवन नीरस होता है तो नारी उसे सरस बनाती है। पुरुष के उजड़े हुए उपवन को नारी पल्लवित बनाती है।

🔴 इसलिए शायद संसार का प्रथम मानव भी जोड़े के रूप में ही धरती पर अवतरित हुआ था। संसार की सभी पुराण कथाओं में इसका उल्लेख है। हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथ मनुस्मृति में उल्लेख है-

द्विधा कृत्वाऽऽत्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽमवत्।
अर्धेन नारी तस्याँ स दिराजम सृजत्प्रभुः॥

🔵  ‘उस हिरण्यगर्भ ने अपने शरीर के दो भाग किए। आधे से पुरुष और आधे से स्त्री का निर्माण हुआ।’

🔴 इस तरह के कई आख्यान हैं जिनसे सिद्ध होता है कि पुरुष और नारी एक ही सत्ता के दो रूप हैं और परस्पर पूरक हैं। फिर भी कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व और त्याग के कारण नारी कहीं महान है पुरुष से। वह जीवन यात्रा में पुरुष के साथ नहीं चलती वरन् उसे समय पड़ने पर शक्ति और प्रेरणा भी देती है। उसकी जीवन यात्रा को सरस, सुखद, स्निग्ध और आनन्दपूर्ण बनाती है नारी, पुरुष की शक्तियों के लिए उर्वरक खाद का काम देती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 ~अखण्ड ज्योति जून 1964 पृष्ठ 39 

👉 आत्म-ज्ञान को प्राप्त करो। (भाग 3)

🔵 चारों वेद एक स्वर से कहते हैं कि वास्तव में तू ही अविनाशी आत्मा अथवा अमर ब्रह्म है। शान्ति तथा चतुराई से अपने ऊपर के एक-एक आवरण को तथा मन को इन्द्रिय विषयों से हटा ले। एकान्त वास कर। इन्द्रिय विषयों को विष समझ। दूरदर्शिता एवं अनासक्ति द्वारा अपने मन को वश में कर। विवेक, वैराग्य, शत-सम्पत तथा मुमुक्षत्व को सर्वश्रेष्ठ श्रेणी तक बढ़ा। सर्वदा ध्यानस्थ रह। एक क्षण भी व्यर्थ न जाने दे।

🔴 आकाश सौम्य और सर्वव्यापक है, इसीलिए ब्रह्म की उपमा आकाश से दी जाती है। प्रारम्भ में तू सौम्य ब्रह्म पर विचार कर सकता है। पहले आकाश पर विचार कर और फिर धीरे-धीर ब्रह्म पर। इस प्रकार गूढ़ चिन्तन में लीन हो जा।

🔵 ‘ओऽम्’ ब्रह्म का चिह्न है। अर्थात् परमात्मा का चिह्न है। ओऽम् पर विचार कर। जब तू ओऽम् का चिन्तन करेगा, तब तुझे अवश्य ही ब्रह्म का ध्यान होगा क्योंकि ब्रह्म का चिह्न ओऽम् है।

🔴 यह जान ले कि मन में उठने वाले क्षणिक विचार तथा संकल्प धोखा देने वाले हैं। तू मन तथा विचारों का दर्शक है परन्तु तू अपने उन विचारों में मग्न मत हो। अपने को ब्रह्मज्ञान के बीच में स्थित कर। अपने को सर्वश्रेष्ठ और उच्च स्थिति में रख। अपने आप को संदेह रहित, दुःख-रहित, निर्भय एवं क्लेश-रहित, और भ्रम-रहित बना तथा निर्मल सुख में स्थित होना सीख। काल और मृत्यु तेरे निकट नहीं आ सकते। तेरे लिए कोई बन्धन या रुकावट नहीं है। तू यह अनुभव करेगा कि तू इस ब्रह्माण्ड की समस्त ज्योतियों से सर्वश्रेष्ठ ज्योति है। अपूर्व सुख की यह स्थिति अवर्णनीय है। इसे अनुभव कर और प्रसन्न रह।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 स्वामी शिवानन्द जी
🌹 अखण्ड ज्योति सितम्बर 1942 पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1949/September/v1.3

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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