शनिवार, 18 फ़रवरी 2017
👉 आस्था से मिली संकट से मुक्ति
🔴 मेरे बेटे को अक्सर पेट में दर्द रहता था। थोड़ी बहुत इधर- उधर की दवाइयों से वह ठीक भी हो जाता। किसी ने सुझाया- डॉक्टर को दिखा दो, ताकि अच्छे से इलाज हो जाए। कई बार ऐसी लापरवाही से अन्दर ही अन्दर गम्भीर बीमारी पकड़ लेती है। मैंने भी सोचा दिखा ही दूँ, पर बात टलती गई। एक दिन इतना असहनीय दर्द शुरू हुआ कि वह छटपटाने और रोने चिल्लाने लगा। रविवार का दिन था। अधिकतर क्लीनिक और दवा की दुकानें बंद थीं। मजबूरन मुझे दोपहर की उस कड़ी धूप में उसे साइकिल पर बैठाकर डॉक्टर की खोज में निकलना पड़ा।
🔵 डॉ० जी० एल० कुशवाहा जो अभी नये डॉक्टर थे, मेडिकल कॉलेज से हाल ही में पढ़ाई करके आए थे, उन्होंने उसे सामान्य तौर पर देखकर दवा दे दी। जब बच्चा दवा खाता तो थोड़ी देर के लिए दर्द कम हो जाता। एक हफ्ते तक ऐसा ही चलता रहा। अगले हफ्ते जब डॉक्टर को जाकर यह बात बताई तो उन्होंने दवा बदल दी; पर इससे भी कोई लाभ नहीं हुआ। इसी तरह दवा बदलते हुए लगभग एक महीना बीत गया लेकिन कोई राहत नहीं मिली। डॉ० साहब ने चिन्ता जताते हुए उसे किसी नर्सिंग होम में ले जाने की बात कही और इसके लिए एक सीनियर डॉक्टर के पास भेजा। बच्चे का इलाज यहाँ एक महीने तक चला, लेकिन बच्चे के स्वास्थ्य में किसी प्रकार का कोई सुधार नहीं हुआ। वाराणसी के डॉ० रोहित गुप्ता ने बच्चे के विषय में रिपोर्ट दी कि बच्चे की आँत में कोई गड़बड़ी आ गई है। बच्चे का इन्डोस्कोपी कराया गया, जिसकी रिपोर्ट करीब १५ दिन के बाद मिलनी थी। बीच- बीच में बच्चे की हालत काफी नाजुक हो जाती, कभी पेट में दर्द होता, कभी सिर में दर्द होता। शरीर सूखकर कंकाल की तरह हो गया था। हम सभी बच्चे का दर्द देखकर बहुत परेशान थे। बच्चे के इलाज में काफी पैसे लग चुके थे। ढाई महीने बीत जाने के बाद भी स्वास्थ्य में कोई परिवर्तन नहीं आया। बार- बार ऑफिस से छुट्टी लेने के कारण परेशानी और बढ़ गई। आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर हो गई थी। मन- मस्तिष्क भी थकने लगे थे।
🔴 संयोग से इन्हीं दिनों किसी सज्जन से मुझे ‘‘गायत्री साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार’’ पुस्तक मिली। परिस्थितियों से मैं बहुत परेशान था। ध्यान हटाने के लिए एवं मन को श्रेष्ठ चिन्तन में लगाने के लिए मैं पुस्तक का अध्ययन करने लगा। उसमें मैंने बहुत से लोगों के बारे में पढ़ा, जिन्हें गायत्री साधना से प्रत्यक्ष लाभ मिला था। मैंने भी अनुष्ठान करने के बारे में सोचा। यदि सभी को कुछ न कुछ लाभ मिला है, तो हमें भी अवश्य मिलेगा। मैंने अनुष्ठान आरंभ कर दिया। बच्चे के स्वास्थ्य में थोड़ा बहुत सुधार भी हो रहा था। रिपोर्ट में आया कि बच्चे की आँत में घाव हो गया है।
🔵 इस नाजुक परिस्थिति में हमें कुछ सूझ नहीं रहा था। इसी बीच हमारा शांतिकुंज जाना हुआ। वहाँ जाकर हमने डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर साहब ने ऑपरेशन की सलाह दी और कहा कि कल आप ९.३० बजे ऑपरेशन के लिए आ जाइये। मैं बुरी तरह से डर गया था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ! मन ही मन गुरु देव से प्रार्थना कर रहा था। हमें गुरु देव का संरक्षण मिल रहा था, किन्तु उस समय इसका आभास नहीं हो रहा था। हुआ यह कि जब बच्चे को ऑपरेशन थियेटर में ले जाया जा रहा था तब वह इतना कमजोर था कि ऑपरेशन नहीं हो सकता। उसी वक्त खून चढ़ाया जाना था। मैंने अपना खून दे दिया। खून चढ़ते ही बच्चे को बुखार आ गया और बच्चे का ऑपरेशन नहीं हो सका।
🔴 लेकिन अगले दिन देखा गया कि बच्चा धीरे- धीरे स्वस्थ हो रहा है, तो डॉक्टर साहब ने कहा कि अब बच्चे को कोई दवा नहीं दी जायेगी। ऐसा क्यों कहा उस समय पता नहीं था। वास्तव में गुरु देव की चेतना सूक्ष्म रूप से बच्चे का इलाज कर रही थी। धीरे- धीरे बच्चा स्वस्थ हो गया। घर की परिस्थिति भी सामान्य हो गई। हमारी जिन्दगी दुबारा फिर अच्छे तरीके से चलने लगी।
🔵 यह कोई कहानी नहीं बल्कि हमारी जिन्दगी की प्रत्यक्ष घटना है। इस घटना ने गायत्री और गुरु देव के प्रति मेरे मन में गहरी आस्था और विश्वास का भाव जगा दिया।
🌹 श्यामबाबू पटेल, बादलपुर (उत्तरप्रदेश)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula
🔵 डॉ० जी० एल० कुशवाहा जो अभी नये डॉक्टर थे, मेडिकल कॉलेज से हाल ही में पढ़ाई करके आए थे, उन्होंने उसे सामान्य तौर पर देखकर दवा दे दी। जब बच्चा दवा खाता तो थोड़ी देर के लिए दर्द कम हो जाता। एक हफ्ते तक ऐसा ही चलता रहा। अगले हफ्ते जब डॉक्टर को जाकर यह बात बताई तो उन्होंने दवा बदल दी; पर इससे भी कोई लाभ नहीं हुआ। इसी तरह दवा बदलते हुए लगभग एक महीना बीत गया लेकिन कोई राहत नहीं मिली। डॉ० साहब ने चिन्ता जताते हुए उसे किसी नर्सिंग होम में ले जाने की बात कही और इसके लिए एक सीनियर डॉक्टर के पास भेजा। बच्चे का इलाज यहाँ एक महीने तक चला, लेकिन बच्चे के स्वास्थ्य में किसी प्रकार का कोई सुधार नहीं हुआ। वाराणसी के डॉ० रोहित गुप्ता ने बच्चे के विषय में रिपोर्ट दी कि बच्चे की आँत में कोई गड़बड़ी आ गई है। बच्चे का इन्डोस्कोपी कराया गया, जिसकी रिपोर्ट करीब १५ दिन के बाद मिलनी थी। बीच- बीच में बच्चे की हालत काफी नाजुक हो जाती, कभी पेट में दर्द होता, कभी सिर में दर्द होता। शरीर सूखकर कंकाल की तरह हो गया था। हम सभी बच्चे का दर्द देखकर बहुत परेशान थे। बच्चे के इलाज में काफी पैसे लग चुके थे। ढाई महीने बीत जाने के बाद भी स्वास्थ्य में कोई परिवर्तन नहीं आया। बार- बार ऑफिस से छुट्टी लेने के कारण परेशानी और बढ़ गई। आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर हो गई थी। मन- मस्तिष्क भी थकने लगे थे।
🔴 संयोग से इन्हीं दिनों किसी सज्जन से मुझे ‘‘गायत्री साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार’’ पुस्तक मिली। परिस्थितियों से मैं बहुत परेशान था। ध्यान हटाने के लिए एवं मन को श्रेष्ठ चिन्तन में लगाने के लिए मैं पुस्तक का अध्ययन करने लगा। उसमें मैंने बहुत से लोगों के बारे में पढ़ा, जिन्हें गायत्री साधना से प्रत्यक्ष लाभ मिला था। मैंने भी अनुष्ठान करने के बारे में सोचा। यदि सभी को कुछ न कुछ लाभ मिला है, तो हमें भी अवश्य मिलेगा। मैंने अनुष्ठान आरंभ कर दिया। बच्चे के स्वास्थ्य में थोड़ा बहुत सुधार भी हो रहा था। रिपोर्ट में आया कि बच्चे की आँत में घाव हो गया है।
🔵 इस नाजुक परिस्थिति में हमें कुछ सूझ नहीं रहा था। इसी बीच हमारा शांतिकुंज जाना हुआ। वहाँ जाकर हमने डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर साहब ने ऑपरेशन की सलाह दी और कहा कि कल आप ९.३० बजे ऑपरेशन के लिए आ जाइये। मैं बुरी तरह से डर गया था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ! मन ही मन गुरु देव से प्रार्थना कर रहा था। हमें गुरु देव का संरक्षण मिल रहा था, किन्तु उस समय इसका आभास नहीं हो रहा था। हुआ यह कि जब बच्चे को ऑपरेशन थियेटर में ले जाया जा रहा था तब वह इतना कमजोर था कि ऑपरेशन नहीं हो सकता। उसी वक्त खून चढ़ाया जाना था। मैंने अपना खून दे दिया। खून चढ़ते ही बच्चे को बुखार आ गया और बच्चे का ऑपरेशन नहीं हो सका।
🔴 लेकिन अगले दिन देखा गया कि बच्चा धीरे- धीरे स्वस्थ हो रहा है, तो डॉक्टर साहब ने कहा कि अब बच्चे को कोई दवा नहीं दी जायेगी। ऐसा क्यों कहा उस समय पता नहीं था। वास्तव में गुरु देव की चेतना सूक्ष्म रूप से बच्चे का इलाज कर रही थी। धीरे- धीरे बच्चा स्वस्थ हो गया। घर की परिस्थिति भी सामान्य हो गई। हमारी जिन्दगी दुबारा फिर अच्छे तरीके से चलने लगी।
🔵 यह कोई कहानी नहीं बल्कि हमारी जिन्दगी की प्रत्यक्ष घटना है। इस घटना ने गायत्री और गुरु देव के प्रति मेरे मन में गहरी आस्था और विश्वास का भाव जगा दिया।
🌹 श्यामबाबू पटेल, बादलपुर (उत्तरप्रदेश)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula
👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 42)
🌹 आराधना और ज्ञानयज्ञ
🔴 कहा जाता है कि विचारक्रान्ति की, ज्ञान की साधना में सभी दूरदर्शी विवेकवानों को लगना चाहिये। इसी निमित्त, लेखनी, वाणी तथा दृश्य, श्रव्य आधारों का ऐसा प्रयोग करना चाहिये जिससे सर्वसाधारण को युगधर्म पहचानने और कार्यान्वित करने की प्रेरणा मिल सके। सर्वजनीन और सार्वभौम ज्ञानयज्ञ ही आज का सर्वश्रेष्ठ परमार्थ है। इसकी उपेक्षा करके, सस्ती वाहवाही पाने के लिये कुछ भी देते, बखेरते और कहते, लिखते रहने से कुछ वास्तविक प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है।
🔵 इस चेतना को प्रखर प्रज्वलित करने के लिये युग साहित्य की प्राथमिक आवश्यकता है। उसी के आधार पर पढ़ने-पढ़ाने सुनने-सुनाने की बात बनती है। शिक्षितों को पढ़ाया और अशिक्षितों को सुनाया जाये, तो लोक प्रवाह को सही दिशा दी जा सकती है। इसके लिये प्रज्ञायुग के साधकों को झोला पुस्तकालय चलाने के लिये अपना समय और पैसा लगाना चाहिये। सत्साहित्य खरीदना सभी के लिये कठिन है, विशेषतया ऐसे समय में जबकि लोगों को भौतिक स्वार्थ साधनों के अतिरिक्त और कुछ सूझता नहीं। आदर्शों की बात सुनने-पढ़ने की अभिरुचि है ही नहीं। ऐसे समय में युग साहित्य पढ़ाने, वापस लेने के लिये शिक्षितों के घर जाया जाये, उन्हें पढ़ने योग्य सामग्री दी जाती और वापसी ली जाती रहे, तो इतने से सामान्य कार्य से ज्ञानयज्ञ का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन हर क्षेत्र में पूरा होने लगेगा। अशिक्षितों को सुनाने की बात भी इसी के साथ जोड़कर रखनी चाहिये।
🔴 विचारगोष्ठियों, सभा सम्मेलनों, कथा प्रवचनों का अपना महत्त्व है। इसे सत्संग कहा जा सकता है। लेखनी और वाणी के माध्यम से यह दोनों कार्य किसी न किसी रूप में हर कहीं चलते रह सकते हैं। अपना उदाहरण प्रस्तुत करना सबसे अधिक प्रभावोत्पादक होता है। लोग समझने लगे हैं कि आदर्शों की बात सिर्फ कहने-सुनने के लिये होती है। उन्हें व्यावहारिक जीवन में नहीं उतारा जा सकता। इस भ्रान्ति का निराकरण इसी प्रकार हो सकता है कि ज्ञानयज्ञ के अध्वर्यु विचारक्रान्ति के प्रस्तोता जो कहते हैं-दूसरों से जो कराने की अपेक्षा है, उसे स्वयं अपने व्यवहार में उतारकर दिखायें। अपने को समझाना, ढालना दूसरों को सुधारने की अपेक्षा अधिक सरल है। उपदेष्टाओं को आत्मिक प्रगति के आराधनारत होने वालों की, अपनी कथनी और करनी एक करके दिखानी चाहिये।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 कहा जाता है कि विचारक्रान्ति की, ज्ञान की साधना में सभी दूरदर्शी विवेकवानों को लगना चाहिये। इसी निमित्त, लेखनी, वाणी तथा दृश्य, श्रव्य आधारों का ऐसा प्रयोग करना चाहिये जिससे सर्वसाधारण को युगधर्म पहचानने और कार्यान्वित करने की प्रेरणा मिल सके। सर्वजनीन और सार्वभौम ज्ञानयज्ञ ही आज का सर्वश्रेष्ठ परमार्थ है। इसकी उपेक्षा करके, सस्ती वाहवाही पाने के लिये कुछ भी देते, बखेरते और कहते, लिखते रहने से कुछ वास्तविक प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है।
🔵 इस चेतना को प्रखर प्रज्वलित करने के लिये युग साहित्य की प्राथमिक आवश्यकता है। उसी के आधार पर पढ़ने-पढ़ाने सुनने-सुनाने की बात बनती है। शिक्षितों को पढ़ाया और अशिक्षितों को सुनाया जाये, तो लोक प्रवाह को सही दिशा दी जा सकती है। इसके लिये प्रज्ञायुग के साधकों को झोला पुस्तकालय चलाने के लिये अपना समय और पैसा लगाना चाहिये। सत्साहित्य खरीदना सभी के लिये कठिन है, विशेषतया ऐसे समय में जबकि लोगों को भौतिक स्वार्थ साधनों के अतिरिक्त और कुछ सूझता नहीं। आदर्शों की बात सुनने-पढ़ने की अभिरुचि है ही नहीं। ऐसे समय में युग साहित्य पढ़ाने, वापस लेने के लिये शिक्षितों के घर जाया जाये, उन्हें पढ़ने योग्य सामग्री दी जाती और वापसी ली जाती रहे, तो इतने से सामान्य कार्य से ज्ञानयज्ञ का महत्त्वपूर्ण प्रयोजन हर क्षेत्र में पूरा होने लगेगा। अशिक्षितों को सुनाने की बात भी इसी के साथ जोड़कर रखनी चाहिये।
🔴 विचारगोष्ठियों, सभा सम्मेलनों, कथा प्रवचनों का अपना महत्त्व है। इसे सत्संग कहा जा सकता है। लेखनी और वाणी के माध्यम से यह दोनों कार्य किसी न किसी रूप में हर कहीं चलते रह सकते हैं। अपना उदाहरण प्रस्तुत करना सबसे अधिक प्रभावोत्पादक होता है। लोग समझने लगे हैं कि आदर्शों की बात सिर्फ कहने-सुनने के लिये होती है। उन्हें व्यावहारिक जीवन में नहीं उतारा जा सकता। इस भ्रान्ति का निराकरण इसी प्रकार हो सकता है कि ज्ञानयज्ञ के अध्वर्यु विचारक्रान्ति के प्रस्तोता जो कहते हैं-दूसरों से जो कराने की अपेक्षा है, उसे स्वयं अपने व्यवहार में उतारकर दिखायें। अपने को समझाना, ढालना दूसरों को सुधारने की अपेक्षा अधिक सरल है। उपदेष्टाओं को आत्मिक प्रगति के आराधनारत होने वालों की, अपनी कथनी और करनी एक करके दिखानी चाहिये।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 नियमबद्धता और कर्तव्य-परायणता-बड़प्पन का आधार
🔴 मैसूर के दीवान की हैसियत से ये राज्य का दौरा कर रहे थे। एक गाँव में वे अकस्मात् बीमार पड गये। ऐसा तेज ज्वर चडा कि दो दिन तक चारपाई से न उठ सके। गांव के डॉक्टर को बीमारी का पता चला तो भागा-भागा आया और उनकी देखभाल की। उसके अथक परिश्रम से वे अच्छे हो गये।
🔵 डॉक्टर चलने लगे तो उन्होंने २५ रुपये का एक चेक उनकी फीस के बतौर हाथ में दिया। डॉ० हाथ जोडकर खडा हो गया और कहने लगा साहब! यह क्तो मेरा सौभाग्य था कि आपकी सेवा करने का अवसर मिला। मुझे फीस नही चाहिए।
🔴 चेक हाथ में थमाते हुए उन्होंने कहा बडे आदमी की कृपा छोटों के लिये दंड होती है। आप ऐसे अवसरों पर फीस इसलिये ले लिया कीजिये, ताकि गरीबों की बिना फीस सेवा भी कर सके। ऐसा न किया कीजिए कि दवाएँ किसी और पर खर्च कर पैसे किसी और से वसूल करे।
🔵 यह थी उनकी महानता। जहाँ बडे लोग अपनी सेवा मुफ्त कराने, अनुचित और अधिक सम्मान पाने में बडप्पन मानते हैं, वहाँ उन्होंने परिश्रम, नियमितता और कर्तव्यपालन में ही गौरव अनुभव किया, यदि यह कहा जाए कि अपने इन्ही गुणों से उन्होंने एक साधारण व्यक्ति से उठकर देश के सर्वाधिक ख्याति लब्ध इंजीनियर का पद पाया तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। वे नियम पालन में डॉक्टर के सामने क्या बडे-से-बडे व्यक्ति के सामने भी उतने ही तटस्थ रहे। कभी लचीलापन व्यक्त नहीं किया।
🔴 उन्हें भारत रत्न की उपाधि दी गई। अलंकरण समारोह में उपाधि ग्रहण करने के लिये वे दिल्ली आए। नियम है कि जिन्हें भारतरत्न की उपाधि से विभूषित किया जाता है वे राष्ट्रपति के अतिथि होते है और राष्ट्रपति भवन में ही निवास करते है। उन्हें भी यहीं ठहराया गया। राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद प्रतिदिन उनसे मिलते थे और उनकी सान्निध्यता में हर्ष अनुभव करते।
🔵 एक दिन जब राष्ट्रपति उनसे मिलने गए तो उन्होंने देखा कि वे अपना सामान बांध रहे हैं और जाने की तैयारी कर रहे हैं। उन्होने आते ही पूछा आप यह क्या कर रहे है, अभी तो आपका ठहरने का कार्यक्रम है।
🔴 उन्होंने उत्तर दिया हाँ तो पर अब कहीं दूसरी जगह ठहरना पडेगा। यहाँ का यह तो नियम है कि कोई व्यक्ति तीन दिन से अधिक नहीं ठहर सकता। राष्ट्रपति बोले आप तो अभी यही रुकिए।'' तो उन्होंने कहा नियम के सामने छोटे-बड़े सब एक है। मैं आपका स्नेह पात्र हूँ इस कारण नियम का उल्लंघन करूँ तो सामान्य लोग दुःखी न होंगे क्या और यह कहकर उन्होंने अपना सामान उठाया बाबू जी को प्रणाम किया और वहाँ से चले आए। शेष दिन दूसरी जगह ठहरे पर राष्ट्रपति के बहुत कहने पर भी वहाँ न रुके।
🔵 नियम पालन से मनुष्य बडा़ बने, केवल पद और प्रतिष्ठा पा लेना ही बडप्पन का चिन्ह नहीं। सूर्य चद्रमा तक जब सनातन नियमों की अवहेलना नहीं करते हुए पूज्य और प्रतिष्ठित हैं तो समुचित कर्तव्य और नियमो के पालन से मनुष्य का मूल्य कैसे घट सकता है? 'भले ही काम कितना ही छोटा क्यों न हो?
🔴 वह थे देश के महान इंजीनियर मोक्षगुंडम् विश्वैश्वरैया जिनकी प्रतिष्ठा और प्रशंसा भारतवर्ष ही नही इंगलैंड और अमेरिका तक में होती थी। पद के लिये नहीं वरन् कार्यकुशलता, नियम पालन अनुशासन और योग्यता जैसे गुणों के लिये।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 36, 37
🔵 डॉक्टर चलने लगे तो उन्होंने २५ रुपये का एक चेक उनकी फीस के बतौर हाथ में दिया। डॉ० हाथ जोडकर खडा हो गया और कहने लगा साहब! यह क्तो मेरा सौभाग्य था कि आपकी सेवा करने का अवसर मिला। मुझे फीस नही चाहिए।
🔴 चेक हाथ में थमाते हुए उन्होंने कहा बडे आदमी की कृपा छोटों के लिये दंड होती है। आप ऐसे अवसरों पर फीस इसलिये ले लिया कीजिये, ताकि गरीबों की बिना फीस सेवा भी कर सके। ऐसा न किया कीजिए कि दवाएँ किसी और पर खर्च कर पैसे किसी और से वसूल करे।
🔵 यह थी उनकी महानता। जहाँ बडे लोग अपनी सेवा मुफ्त कराने, अनुचित और अधिक सम्मान पाने में बडप्पन मानते हैं, वहाँ उन्होंने परिश्रम, नियमितता और कर्तव्यपालन में ही गौरव अनुभव किया, यदि यह कहा जाए कि अपने इन्ही गुणों से उन्होंने एक साधारण व्यक्ति से उठकर देश के सर्वाधिक ख्याति लब्ध इंजीनियर का पद पाया तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। वे नियम पालन में डॉक्टर के सामने क्या बडे-से-बडे व्यक्ति के सामने भी उतने ही तटस्थ रहे। कभी लचीलापन व्यक्त नहीं किया।
🔴 उन्हें भारत रत्न की उपाधि दी गई। अलंकरण समारोह में उपाधि ग्रहण करने के लिये वे दिल्ली आए। नियम है कि जिन्हें भारतरत्न की उपाधि से विभूषित किया जाता है वे राष्ट्रपति के अतिथि होते है और राष्ट्रपति भवन में ही निवास करते है। उन्हें भी यहीं ठहराया गया। राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद प्रतिदिन उनसे मिलते थे और उनकी सान्निध्यता में हर्ष अनुभव करते।
🔵 एक दिन जब राष्ट्रपति उनसे मिलने गए तो उन्होंने देखा कि वे अपना सामान बांध रहे हैं और जाने की तैयारी कर रहे हैं। उन्होने आते ही पूछा आप यह क्या कर रहे है, अभी तो आपका ठहरने का कार्यक्रम है।
🔴 उन्होंने उत्तर दिया हाँ तो पर अब कहीं दूसरी जगह ठहरना पडेगा। यहाँ का यह तो नियम है कि कोई व्यक्ति तीन दिन से अधिक नहीं ठहर सकता। राष्ट्रपति बोले आप तो अभी यही रुकिए।'' तो उन्होंने कहा नियम के सामने छोटे-बड़े सब एक है। मैं आपका स्नेह पात्र हूँ इस कारण नियम का उल्लंघन करूँ तो सामान्य लोग दुःखी न होंगे क्या और यह कहकर उन्होंने अपना सामान उठाया बाबू जी को प्रणाम किया और वहाँ से चले आए। शेष दिन दूसरी जगह ठहरे पर राष्ट्रपति के बहुत कहने पर भी वहाँ न रुके।
🔵 नियम पालन से मनुष्य बडा़ बने, केवल पद और प्रतिष्ठा पा लेना ही बडप्पन का चिन्ह नहीं। सूर्य चद्रमा तक जब सनातन नियमों की अवहेलना नहीं करते हुए पूज्य और प्रतिष्ठित हैं तो समुचित कर्तव्य और नियमो के पालन से मनुष्य का मूल्य कैसे घट सकता है? 'भले ही काम कितना ही छोटा क्यों न हो?
🔴 वह थे देश के महान इंजीनियर मोक्षगुंडम् विश्वैश्वरैया जिनकी प्रतिष्ठा और प्रशंसा भारतवर्ष ही नही इंगलैंड और अमेरिका तक में होती थी। पद के लिये नहीं वरन् कार्यकुशलता, नियम पालन अनुशासन और योग्यता जैसे गुणों के लिये।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 36, 37
👉 अहंकार का प्रदर्शन
🔴 राबिया बसरी कई संतों के संग बैठी बातें कर रही थी। तभी हसन बसरी वहाँ आ पहुँचे और बोले-''चलिए, झील के पानी पर बैठकर हम दोनों अध्यात्म चर्चा करें।'' हसन के बारे में प्रसिद्ध था कि उन्हें पानी पर चलने की सिद्धि प्राप्त है।
🔵 राबिया ताड़ गई कि हसन उसी का प्रदर्शन करना चाहते है। बोली-'' भैया, यदि दोनों आसमान में उड़ते- उड़ते बातें करें तो कैसा रहे?'' (राबिया के बारे में भी प्रसिद्ध था कि वे हवा में उड़ सकती हैं।) फिर गंभीर होकर बोलीं-''भैया, जो तुम कर सकते हो, वह हर एक मछली करती है; और जो मैं कर सकती हूँ वह हर मक्खी करती है।
🔴 सत्य करिश्मेबाजी से बहुत ऊपर है। उसे विनम्र होकर खोजना पड़ता है। अध्यात्मवादी को दर्प करके अपनी गुणवत्ता गँवानी नहीं चाहिए।'' हसन ने अध्यात्म का मर्म समझा और राबिया को अपना गुरु मानकर आत्म-परिशोधन में जुट गए ।
🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 11
🔵 राबिया ताड़ गई कि हसन उसी का प्रदर्शन करना चाहते है। बोली-'' भैया, यदि दोनों आसमान में उड़ते- उड़ते बातें करें तो कैसा रहे?'' (राबिया के बारे में भी प्रसिद्ध था कि वे हवा में उड़ सकती हैं।) फिर गंभीर होकर बोलीं-''भैया, जो तुम कर सकते हो, वह हर एक मछली करती है; और जो मैं कर सकती हूँ वह हर मक्खी करती है।
🔴 सत्य करिश्मेबाजी से बहुत ऊपर है। उसे विनम्र होकर खोजना पड़ता है। अध्यात्मवादी को दर्प करके अपनी गुणवत्ता गँवानी नहीं चाहिए।'' हसन ने अध्यात्म का मर्म समझा और राबिया को अपना गुरु मानकर आत्म-परिशोधन में जुट गए ।
🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 11
👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 14)
🌹 अद्भुत उपलब्धियों का आधार
🔴 मनुष्य आज जिस उन्नत व्यवस्था में पहुंचा है वह एक साथ एक दिन की घटना नहीं है। वह धीरे-धीरे क्रमानुसार विचारों के परिष्कार के साथ आज इस स्थिति में पहुंच सका है। ज्यों-ज्यों उसके विचार परिष्कृत, पवित्र तथा उन्नत होते गये उसी प्रकार अपने साधनों के साथ उसका जीवन परिष्कृत तथा पुरस्कृत होता गया। व्यक्ति-व्यक्ति के रूप में भी हम देख सकते हैं कि एक मनुष्य जितना सभ्य, सुशील और सुसंस्कृत है अपेक्षाकृत दूसरा उतना नहीं।
🔵 समाज में जहां आज भी सन्तों और सज्जनों की कमी नहीं है वहां चोर, उचक्के भी पाये जाते हैं। जहां बड़े-बड़े शिल्पकार और साहित्यकार मौजूद हैं वहां गोबर गणेशों की भी कमी नहीं है। मनुष्यों की यह वैयक्तिक विषमता भी विचारों, संस्कारों के अनुपात पर ही निर्भर करती है। जिसके विचार जिस अनुपात से परिमार्जित हो रहे हैं वह उसी अनुपात से पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता बनता जा रहा है।
🔴 विचार शक्ति के समान कोई भी शक्ति संसार में नहीं है। अरबों का उत्पादन करने वाले दैत्याकार कारखानों का संचालन, उद्वेलित जन-समुदाय का नियंत्रण, दुर्धर्ष सेनाओं का अनुशासन और बड़े-बड़े साम्राज्यों का शासन और असंख्यों जनता का नेतृत्व एक विचार बल पर ही किया जाता है, अन्यथा एक मनुष्य में एक मनुष्य के योग्य ही सीमित शक्ति रहती है, वह असंख्यों का अनुशासन किस प्रकार कर सकता है? बड़े-बड़े आततायी हुकुमरानों और सुदृढ़ साम्राज्यों को विचार बल से ही उलट दिया गया। बड़े-बड़े हिंस्र पशुओं और अत्याचारियों को विचार बल से ही प्रभावित कर सुशील बना लिया जाता है। विचार-शक्ति से बढ़कर कोई भी शक्ति संसार में नहीं है। विचार की शक्ति अपरिमित तथा अपराजेय है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 मनुष्य आज जिस उन्नत व्यवस्था में पहुंचा है वह एक साथ एक दिन की घटना नहीं है। वह धीरे-धीरे क्रमानुसार विचारों के परिष्कार के साथ आज इस स्थिति में पहुंच सका है। ज्यों-ज्यों उसके विचार परिष्कृत, पवित्र तथा उन्नत होते गये उसी प्रकार अपने साधनों के साथ उसका जीवन परिष्कृत तथा पुरस्कृत होता गया। व्यक्ति-व्यक्ति के रूप में भी हम देख सकते हैं कि एक मनुष्य जितना सभ्य, सुशील और सुसंस्कृत है अपेक्षाकृत दूसरा उतना नहीं।
🔵 समाज में जहां आज भी सन्तों और सज्जनों की कमी नहीं है वहां चोर, उचक्के भी पाये जाते हैं। जहां बड़े-बड़े शिल्पकार और साहित्यकार मौजूद हैं वहां गोबर गणेशों की भी कमी नहीं है। मनुष्यों की यह वैयक्तिक विषमता भी विचारों, संस्कारों के अनुपात पर ही निर्भर करती है। जिसके विचार जिस अनुपात से परिमार्जित हो रहे हैं वह उसी अनुपात से पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता बनता जा रहा है।
🔴 विचार शक्ति के समान कोई भी शक्ति संसार में नहीं है। अरबों का उत्पादन करने वाले दैत्याकार कारखानों का संचालन, उद्वेलित जन-समुदाय का नियंत्रण, दुर्धर्ष सेनाओं का अनुशासन और बड़े-बड़े साम्राज्यों का शासन और असंख्यों जनता का नेतृत्व एक विचार बल पर ही किया जाता है, अन्यथा एक मनुष्य में एक मनुष्य के योग्य ही सीमित शक्ति रहती है, वह असंख्यों का अनुशासन किस प्रकार कर सकता है? बड़े-बड़े आततायी हुकुमरानों और सुदृढ़ साम्राज्यों को विचार बल से ही उलट दिया गया। बड़े-बड़े हिंस्र पशुओं और अत्याचारियों को विचार बल से ही प्रभावित कर सुशील बना लिया जाता है। विचार-शक्ति से बढ़कर कोई भी शक्ति संसार में नहीं है। विचार की शक्ति अपरिमित तथा अपराजेय है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 22)
🌹 उदारता अपनाई ही जाए
🔵 घर के समर्थ कमाते हैं और उसी कमाई से परिवार के सभी सदस्य गुजारा करते हैं। यह जिम्मेदारी भी है, परम्परा भी और उदारता भी। सही वितरण यही है। पुण्य परमार्थ भी इसी को कहते हैं। मानवी गरिमा की सराहना इससे कम में करते बन ही नहीं पड़ती। सम्पत्ति की सार्थकता भी इसी में है कि उसे मिलजुल कर सभी लोग काम में लायें। गिरों को उठाने और उठों को आगे बढ़ाने में इसी प्रक्रिया को अपनाने से काम चलता है।
🔴 भारतीय धर्म परम्परा में गोग्रास, दैनिक पञ्च यज्ञ, मुसलमान धर्म में जकात, सिख धर्म में कड़ा-प्रसाद जैसे माध्यमों से दैनिक अनुदान निकालने की परम्परा है। समय भी सम्पदा है और साधनों को भी सम्पत्ति कहते हैं। दोनों ही वैभव ऐसे हैं, जो हर किसी के पास न्यूनाधिक मात्रा में होते ही हैं। यदि खुशहाली हो, तब तो कहना ही क्या, पर यदि तंगी और व्यस्तता के बीच भी रहना पड़ता हो, तो भी आवश्यक सुविधा साधनों में कटौती करके भी परमार्थ प्रयोजनों के लिए, उनका एक अंश नियमित रूप से निकालते ही रहना चाहिए। इसमें कंजूसी-कृपणता बरतना एक प्रकार से मानवी श्रेष्ठता को ही झुठलाना है।
🔵 दान धर्म भी है और अधर्म भी। हथियार से पुण्य भी बन पड़ता है और पाप भी। दानशीलता को यदि भाव संवेदनाओं और विचार परिष्कार में लगाया जाये तो ही समझना चाहिए कि युगधर्म के निर्वाह और उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में उस सदाशयता का सही नियोजन हो सका। अन्यथा धूर्तों द्वारा, मूर्ख आये दिन जिस तिस बहाने ठगे ही जाते रहते हैं और यह बहकाया जाता रहता है कि यह नियोजन पुण्य के लिए किया गया है। स्मरण रहे, उज्ज्वल भविष्य निर्माण की महती योजना, मन मस्तिष्क में आदर्शवादी भाव संवेदनाओं का उभार उपजाये बिना और किसी प्रकार सफल-सम्भव नहीं हो सकेगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 घर के समर्थ कमाते हैं और उसी कमाई से परिवार के सभी सदस्य गुजारा करते हैं। यह जिम्मेदारी भी है, परम्परा भी और उदारता भी। सही वितरण यही है। पुण्य परमार्थ भी इसी को कहते हैं। मानवी गरिमा की सराहना इससे कम में करते बन ही नहीं पड़ती। सम्पत्ति की सार्थकता भी इसी में है कि उसे मिलजुल कर सभी लोग काम में लायें। गिरों को उठाने और उठों को आगे बढ़ाने में इसी प्रक्रिया को अपनाने से काम चलता है।
🔴 भारतीय धर्म परम्परा में गोग्रास, दैनिक पञ्च यज्ञ, मुसलमान धर्म में जकात, सिख धर्म में कड़ा-प्रसाद जैसे माध्यमों से दैनिक अनुदान निकालने की परम्परा है। समय भी सम्पदा है और साधनों को भी सम्पत्ति कहते हैं। दोनों ही वैभव ऐसे हैं, जो हर किसी के पास न्यूनाधिक मात्रा में होते ही हैं। यदि खुशहाली हो, तब तो कहना ही क्या, पर यदि तंगी और व्यस्तता के बीच भी रहना पड़ता हो, तो भी आवश्यक सुविधा साधनों में कटौती करके भी परमार्थ प्रयोजनों के लिए, उनका एक अंश नियमित रूप से निकालते ही रहना चाहिए। इसमें कंजूसी-कृपणता बरतना एक प्रकार से मानवी श्रेष्ठता को ही झुठलाना है।
🔵 दान धर्म भी है और अधर्म भी। हथियार से पुण्य भी बन पड़ता है और पाप भी। दानशीलता को यदि भाव संवेदनाओं और विचार परिष्कार में लगाया जाये तो ही समझना चाहिए कि युगधर्म के निर्वाह और उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में उस सदाशयता का सही नियोजन हो सका। अन्यथा धूर्तों द्वारा, मूर्ख आये दिन जिस तिस बहाने ठगे ही जाते रहते हैं और यह बहकाया जाता रहता है कि यह नियोजन पुण्य के लिए किया गया है। स्मरण रहे, उज्ज्वल भविष्य निर्माण की महती योजना, मन मस्तिष्क में आदर्शवादी भाव संवेदनाओं का उभार उपजाये बिना और किसी प्रकार सफल-सम्भव नहीं हो सकेगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
👉 साधक कैसे बनें? (भाग 2)
👉 युग ऋषि की अमृतवाणी
🔴 अर्जुनदेव ने न कुछ किया था, न कराया था, केवल अपने आपको बना लिया था। इसीलिये उनके गुरु ने ये माना कि ये सबसे अच्छा आदमी है। सप्तऋषियों ने अपने आपको बनाया। उनके अन्दर तप की सम्पदा थी, ज्ञान की सम्पदा थी। हरिद्वार या जहाँ कहीं भी रहते चले, जो कुछ भी काम उन्होंने कर लिया, वो एक महानतम श्रेणी का उच्चस्तरीय काम कहलाया। अगर उनका व्यक्तित्व घटिया होता तो फिर बात कैसे बनती?
🔵 गाँधीजी ने अपने आपको बनाया, हजारों आदमी उनके पीछे चले। बुद्ध ने अपने आपको बनाया, हजारों आदमी उनके पीछे चले। हम अपने भीतर चुम्बकत्व पैदा करें। खदानों के अन्दर जो लोहे के कण, धातु के कण जमा हो जाते हैं, उसका कारण ये है कि जहाँ कहीं भी खदान होती है, वहाँ चुम्बकत्व रहता है। चुम्बकत्व से खदान छोटी-छोटी चीजों को खींचता रहता है। हम अपनी क्वॉलिटी बढ़ायें। हम अपना चुम्बकत्व बढ़ायें। हम अपना व्यक्तित्व बढ़ायें; चूँकि ये सबसे बड़ा करने के लिये काम है।
🔴 समाज की सेवा करें। हाँ! ठीक है। वो भी आपको करनी चाहिए, पर मैं ये कहता हूँ समाज सेवा से भी पहले ज्यादा महत्त्वपूर्ण इस बात को समझें कि हमको अपनी क्वॉलिटी बढ़ानी चाहिये। खनिज में से जो धातु निकलती हैं, वो कच्ची होती हैं, लेकिन जब पकाकर के ठीक कर ली जाती हैं, साफ-सुथरी बना दी जाती हैं, तो उन्हीं धातुओं का नाम-स्वर्ण, शुद्ध स्वर्ण हो जाता है। उसी का नाम फौलाद हो जाता है। हम अपने आपको फौलाद बनायें। अपने आपकी सफाई करें, अपने आपको धोयें, अपने आपको परिष्कृत करें।
🔵 इतना कर सकना, अगर हमारे लिये सम्भव हो जाये तो समझना चाहिए आपका ये सवाल पूरा हो गया, अब हम क्या करें? नहीं ये करें कि हम अच्छे बनें। समाज सेवा भी करना, पर समाज सेवा करने से पहले आवश्यक है कि समाज सेवा के लायक हथियार अपने आपको बना लें। ये ज्यादा अच्छा है। हम अपने आपकी सफाई करें। समाज सेवा भी करें, पर अपने आपकी सफाई को भूल नहीं जायें। मित्रो! एक और बात कह करके हम अपनी बात समाप्त करना चाहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/sadhak_kese_bane
🔴 अर्जुनदेव ने न कुछ किया था, न कराया था, केवल अपने आपको बना लिया था। इसीलिये उनके गुरु ने ये माना कि ये सबसे अच्छा आदमी है। सप्तऋषियों ने अपने आपको बनाया। उनके अन्दर तप की सम्पदा थी, ज्ञान की सम्पदा थी। हरिद्वार या जहाँ कहीं भी रहते चले, जो कुछ भी काम उन्होंने कर लिया, वो एक महानतम श्रेणी का उच्चस्तरीय काम कहलाया। अगर उनका व्यक्तित्व घटिया होता तो फिर बात कैसे बनती?
🔵 गाँधीजी ने अपने आपको बनाया, हजारों आदमी उनके पीछे चले। बुद्ध ने अपने आपको बनाया, हजारों आदमी उनके पीछे चले। हम अपने भीतर चुम्बकत्व पैदा करें। खदानों के अन्दर जो लोहे के कण, धातु के कण जमा हो जाते हैं, उसका कारण ये है कि जहाँ कहीं भी खदान होती है, वहाँ चुम्बकत्व रहता है। चुम्बकत्व से खदान छोटी-छोटी चीजों को खींचता रहता है। हम अपनी क्वॉलिटी बढ़ायें। हम अपना चुम्बकत्व बढ़ायें। हम अपना व्यक्तित्व बढ़ायें; चूँकि ये सबसे बड़ा करने के लिये काम है।
🔴 समाज की सेवा करें। हाँ! ठीक है। वो भी आपको करनी चाहिए, पर मैं ये कहता हूँ समाज सेवा से भी पहले ज्यादा महत्त्वपूर्ण इस बात को समझें कि हमको अपनी क्वॉलिटी बढ़ानी चाहिये। खनिज में से जो धातु निकलती हैं, वो कच्ची होती हैं, लेकिन जब पकाकर के ठीक कर ली जाती हैं, साफ-सुथरी बना दी जाती हैं, तो उन्हीं धातुओं का नाम-स्वर्ण, शुद्ध स्वर्ण हो जाता है। उसी का नाम फौलाद हो जाता है। हम अपने आपको फौलाद बनायें। अपने आपकी सफाई करें, अपने आपको धोयें, अपने आपको परिष्कृत करें।
🔵 इतना कर सकना, अगर हमारे लिये सम्भव हो जाये तो समझना चाहिए आपका ये सवाल पूरा हो गया, अब हम क्या करें? नहीं ये करें कि हम अच्छे बनें। समाज सेवा भी करना, पर समाज सेवा करने से पहले आवश्यक है कि समाज सेवा के लायक हथियार अपने आपको बना लें। ये ज्यादा अच्छा है। हम अपने आपकी सफाई करें। समाज सेवा भी करें, पर अपने आपकी सफाई को भूल नहीं जायें। मित्रो! एक और बात कह करके हम अपनी बात समाप्त करना चाहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/sadhak_kese_bane
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 55)
🌹 भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
🔴 गुरुदेव अदृश्य हो गए। हमें उनका दूत गोमुख तक पहुँचा गया। इसके बाद उनके बताए हुए स्थान पर एक वर्ष के शेष दिन पूरे किए।
🔵 समय पूरा होने पर वापस लौट पड़े। अब की बार इधर से लौटते हुए उन कठिनाइयों में से एक भी सामने नहीं आईं, जो जाते समय पग-पग पर हैरान कर रही थी। वे परीक्षाएँ थी, जो पूरी हो जाने पर लौटते समय कठिनाइयों का सामना करना भी क्यों पड़ता?
🔴 हम एक वर्ष बाद घर वापस लौट आए। वजन 18 पौंड बढ़ गया। चेहरा लाल और गोल हो गया था। शरीरगत शक्ति काफी बढ़ी हुई थी। हर समय प्रसन्नता छाई रहती थी। लौटने पर लोगों ने गंगाजी का प्रसाद माँगा। सभी को गंगोत्री की रेती में से एक चुटकी दे दी व गोमुख के जल का प्रसाद दे दिया। यही वहाँ से साथ लेकर भी लौटे थे। दीख सकने वाला प्रत्यक्ष प्रसाद यही एक ही था, जो दिया जा सकता था। वस्तुतः यह हमारे जीवन का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था। यद्यपि इसके बाद भी हिमालय जाने का क्रम बराबर बना रहा एवं गंतव्य भी वही है, फिर भी गुरुदेव के साथ विश्व व्यवस्था का संचालन करने वाली परोक्ष ऋषि सत्ता का प्रथम दर्शन अंतःस्थल पर अमिट छाप छोड़ गया। हमें अपने लक्ष्य, भावी जीवन क्रम, जीवन यात्रा में सहयोगी बनने वाली जागृत प्राणवान आत्माओं का आभास भी इसी यात्रा में हुआ। हिमालय की हमारी पहली यात्रा अनेक अनुभवों की कथा गाथा है, जो अन्य अनेकों के लिए प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकती है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 गुरुदेव अदृश्य हो गए। हमें उनका दूत गोमुख तक पहुँचा गया। इसके बाद उनके बताए हुए स्थान पर एक वर्ष के शेष दिन पूरे किए।
🔵 समय पूरा होने पर वापस लौट पड़े। अब की बार इधर से लौटते हुए उन कठिनाइयों में से एक भी सामने नहीं आईं, जो जाते समय पग-पग पर हैरान कर रही थी। वे परीक्षाएँ थी, जो पूरी हो जाने पर लौटते समय कठिनाइयों का सामना करना भी क्यों पड़ता?
🔴 हम एक वर्ष बाद घर वापस लौट आए। वजन 18 पौंड बढ़ गया। चेहरा लाल और गोल हो गया था। शरीरगत शक्ति काफी बढ़ी हुई थी। हर समय प्रसन्नता छाई रहती थी। लौटने पर लोगों ने गंगाजी का प्रसाद माँगा। सभी को गंगोत्री की रेती में से एक चुटकी दे दी व गोमुख के जल का प्रसाद दे दिया। यही वहाँ से साथ लेकर भी लौटे थे। दीख सकने वाला प्रत्यक्ष प्रसाद यही एक ही था, जो दिया जा सकता था। वस्तुतः यह हमारे जीवन का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था। यद्यपि इसके बाद भी हिमालय जाने का क्रम बराबर बना रहा एवं गंतव्य भी वही है, फिर भी गुरुदेव के साथ विश्व व्यवस्था का संचालन करने वाली परोक्ष ऋषि सत्ता का प्रथम दर्शन अंतःस्थल पर अमिट छाप छोड़ गया। हमें अपने लक्ष्य, भावी जीवन क्रम, जीवन यात्रा में सहयोगी बनने वाली जागृत प्राणवान आत्माओं का आभास भी इसी यात्रा में हुआ। हिमालय की हमारी पहली यात्रा अनेक अनुभवों की कथा गाथा है, जो अन्य अनेकों के लिए प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकती है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 56) 19 Feb
🔵 जिस प्रदेश में अपनी निर्जन कुटिया है, उसमें पेड़ पौधों के अतिरिक्त, जलचर, थलचर, नभचर जीव जन्तुओं की भी बहुतायत हैं। जब भ्रमण को निकलते हैं तो अनायास ही उनसे भेंट करने का अवसर मिलता है। आरम्भ के दिनों में वे डरते थे पर अब तो पहचान गये हैं। मुझे अपने कुटुम्ब का ही एक सदस्य मान लिया है। अब न वे मुझ से डरते हैं और न अपने को ही उनसे डर लगता है। दिन-दिन यह समीपता और घनिष्ठता बढ़ती जाती है। लगता है इस पृथ्वी पर ही एक महान् विश्व मौजूद है।
🔴 इस विश्व में प्रेम, करुणा, मैत्री, सहयोग, सौजन्य, सौन्दर्य, शान्ति, सन्तोष, आदि स्वर्ग के सभी चिह्न मौजूद हैं। उससे मनुष्य दूर है। उसने अपनी एक छोटी सी दुनिया अलग बना रखी है—मनुष्यों की दुनिया। इस अहंकारी और दुष्ट प्राणी ने ज्ञान-विज्ञान की लम्बी-चौड़ी बातें बहुत की हैं। महानता और श्रेष्ठता के, धर्म और नैतिकता के लम्बे-चौड़े विवेचन किये हैं। पर सृष्टि के अन्य प्राणियों के साथ उसने जो दुर्व्यवहार किया है उससे उस सारे पाखण्ड का पर्दाफाश हो जाता है जो वह अपनी श्रेष्ठता, अपने समाज और सदाचार की श्रेष्ठता बखानते हुए प्रतिपादित किया करता है।
🔵 आज विचार बहुत गहरे उतर गये, रास्ता भूल गया, कितने ही पशु-पक्षियों को आंखें भर-भर कर देर तक देखता रहा। वे भी खड़े होकर मेरी विचारधारा का समर्थन करते रहे। मनुष्य ही इस कारण सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी नहीं माना जा सकता कि उसके पास दूसरों की अपेक्षा बुद्धि बल अधिक है। यदि बल ही बड़प्पन का चिह्न हो तो दस्यु, सामन्त, असुर, दानव, पिशाच, बेताल ब्रह्म राक्षस आदि की श्रेष्ठता को मस्तक नवाना पड़ेगा।
🔴 श्रेष्ठता के चिन्ह हैं सत्य, प्रेम, न्याय, शील, संयम, उदारता, त्याग, सौजन्य, विवेक, सौहार्द्र। यदि इनका अभाव रहा तो बुद्धि का शस्त्र धारण किये हुए नर-पशु—उन विकराल नख और दांतों वाले हिंस्र पशुओं से कहीं अधिक भयंकर है। हिंस्र पशु भूखे होने पर ही आक्रमण करते हैं। पर यह बुद्धिधारी नर पशु तो तृष्णा और अहंकार के लिए ही भारी दुष्टता और क्रूरता का निरन्तर अभियान करता रहता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 इस विश्व में प्रेम, करुणा, मैत्री, सहयोग, सौजन्य, सौन्दर्य, शान्ति, सन्तोष, आदि स्वर्ग के सभी चिह्न मौजूद हैं। उससे मनुष्य दूर है। उसने अपनी एक छोटी सी दुनिया अलग बना रखी है—मनुष्यों की दुनिया। इस अहंकारी और दुष्ट प्राणी ने ज्ञान-विज्ञान की लम्बी-चौड़ी बातें बहुत की हैं। महानता और श्रेष्ठता के, धर्म और नैतिकता के लम्बे-चौड़े विवेचन किये हैं। पर सृष्टि के अन्य प्राणियों के साथ उसने जो दुर्व्यवहार किया है उससे उस सारे पाखण्ड का पर्दाफाश हो जाता है जो वह अपनी श्रेष्ठता, अपने समाज और सदाचार की श्रेष्ठता बखानते हुए प्रतिपादित किया करता है।
🔵 आज विचार बहुत गहरे उतर गये, रास्ता भूल गया, कितने ही पशु-पक्षियों को आंखें भर-भर कर देर तक देखता रहा। वे भी खड़े होकर मेरी विचारधारा का समर्थन करते रहे। मनुष्य ही इस कारण सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी नहीं माना जा सकता कि उसके पास दूसरों की अपेक्षा बुद्धि बल अधिक है। यदि बल ही बड़प्पन का चिह्न हो तो दस्यु, सामन्त, असुर, दानव, पिशाच, बेताल ब्रह्म राक्षस आदि की श्रेष्ठता को मस्तक नवाना पड़ेगा।
🔴 श्रेष्ठता के चिन्ह हैं सत्य, प्रेम, न्याय, शील, संयम, उदारता, त्याग, सौजन्य, विवेक, सौहार्द्र। यदि इनका अभाव रहा तो बुद्धि का शस्त्र धारण किये हुए नर-पशु—उन विकराल नख और दांतों वाले हिंस्र पशुओं से कहीं अधिक भयंकर है। हिंस्र पशु भूखे होने पर ही आक्रमण करते हैं। पर यह बुद्धिधारी नर पशु तो तृष्णा और अहंकार के लिए ही भारी दुष्टता और क्रूरता का निरन्तर अभियान करता रहता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024
All World Gayatri Pariwar Official Social Media Platform > 👉 शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel `S...