बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

👉 मन्त्र पूत जल का कमाल


🔴 इस बार की अमेरिका यात्रा में सघन कार्यक्रम थे। दिन में पाँच-छह प्रोग्राम। उसके बीच उन कार्यक्रम स्थलों की दूरी भी नापनी थी, साथ ही मिलने वाले आस्थावान, प्रश्रकर्ता भी विभिन्न प्रकार के। अतः शरीर थक कर चूर था। सोचा, रास्तें में आराम करेंगे। विराट वायुयान ३५० यात्री लेकर लॉस एन्जिल्स से उड़ान भरी, ताइवान, सिंगापुर होते हुए उसे दिल्ली पहुँचना था। बारह-तेरह घंटे की यात्रा थी। अतः लगा कि अब रात्रि आराम से कटेगी।

🔵 अचानक एक सवा घंटे बाद एक यात्री की तबियत अत्यधिक खराब हो गई। पायलट को कुछ सूझा नहीं। उसने एनाउन्स किया कि यदि वायुयान वापस ले जाते हैं तो तीन घंटे अतिरिक्त लगेंगे जाने-आने में, व आगे बढ़ते है तो यात्री की जान को खतरा है। अतः यदि वायुयान में कोई डाक्टर हो तो कृपया मदद करें।

🔴 उद्घोषणा सुनकर मैं तुरन्त पायलट के पास पहुंच गया। उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि यह व्यक्ति डॉक्टर हो सकता है। हम देवसंस्कृति का प्रचार करके जो लौट रहे थे। पीली धोती-कुर्ता, माथे पर तिलक, गले में रूद्राक्ष, हाथ में ब्रह्मदंड किसी सन्यासी से कम नहीं थे, सो उसने अपने विश्वास हेतु हमसे कुछ अंग्रेजी में पश्र पूछे। जब जवाब सही मिला विश्वास हुआ तब हमें मरीज तक ले जाया गया। हमने देखा उसे बहुत बेचैनी हो रही थी। थैले से निकाल कर हमने कुछ दर्दनाशक दवाईयाँ दी पर सब व्यर्थ। फिर थोड़ा तेल मंगवा कर उसके पैरों को मलने लगे। तब पायलट ने कहा- ‘‘आप तो बस बताते जाइये, परिचारिकाएँ हैं सब करेंगी।’’ फिर भी उसकी बेचैनी देखते हुए हम लगे रहे।
  
🔵 उसने जब हमें उसी बीच अकेला पाया तब कहा- ‘‘जरा सी कोकीन है क्या?’’ उसने समझा-सन्यासी है तो शायद कहीं इसके पास भी मिल जाय। आज के सन्यासियों के प्रति लोगों की मान्यता देखकर हमें बहुत संताप हुआ। पहले तो हमें उस व्यक्ति के ड्रग्स लेने का शक था लेकिन उसके इतना कहने पर अब तो पूर्ण विश्वास हो गया। अब हमने उसी के अनुरूप इलाज प्रारंभ किया।
  
🔴 गुरुसत्ता का स्मरण कर एक गिलास जल मँगाया। उसे गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर उसे पिला दिया। चूँकि  उसे नशे की काफी आदत थी इसलिये उसके बिना वह अधिक बेचैन था। सारी रात मालिश करते, नब्ज टटोलते, दवा देते व्यतीत हुई। अन्त में उसे नींद आई। तब तक पौ फट चुकी थी। लगभग आधे घंटे बाद सभी को स्थान छोड़ना था। 
  
🔵 ऋषिवर के मंत्रपूत जल ने अपना कमाल दिखा दिया था। हम सभी टोली के भाई गौरवान्वित थे एक भला कार्य सम्पन्न करके।

🌹 - डॉ०प्रणव पण्ड्या, देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से

प्रेरणादायक प्रसंग 9 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 9 Feb 2017


👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 32) 9 Feb

🌹 जीवन साधना के सुनिश्चित सूत्र   
🔴 क्या करें? प्रश्न के उत्तर में एक पूरक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या नहीं हो रहा है? और ऐसे क्या अनुपयुक्त हो रहा है, जिसे नहीं सोचा या नहीं किया जाना चाहिये था। किन्हीं सुविकसित और सुसंस्कृत बनने वालों के निजी दृष्टिकोण, स्वभाव और दिशा निर्धारण को समझते हुये यह देखा जाना चाहिये कि वैसा कुछ अपने से बन पड़ रहा है या नहीं? यदि नहीं बन पड़ रहा है तो उनका कारण और निवारण क्या हो सकता है? इस प्रकार के निर्धारण जीवन साधना के साधकों के लिये अनिवार्य रूप से आवश्यक है। जो अपनी त्रुटियों की उपेक्षा करता रहता है, जो अगले दिनों अधिक प्रखर और अधिक प्रामाणिक बनने की बात नहीं सोच सकता, उस प्रकार की योजना बनाकर उनके लिये कटिबद्ध होने की तत्परता नहीं दिखा सकता, उसके सम्बन्ध में यह आशा नहीं की जा सकती कि वह किसी ऐसी स्थिति में पहुँच सकेगा जिसमें अपने गर्व-गौरव अनुभव करने का अवसर मिल सके। साथ ही दूसरों का सहयोग, सम्मान पाकर अधिक ऊँची स्थिति तक पहुँच सकना सम्भव हो सके।

🔵 साधक के लिये आलस्य, प्रमाद, असंयम, अपव्यय एवं उन्मत्त और अस्त-व्यस्त रहना प्रमुख दोष है। अचिन्त्य चिन्तन और अकर्मों को अपनाना पतन-पराभव के यही दो कारण हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता में अपने को जकड़े रहने वाले अपनी और दूसरों की दृष्टि में गिर जाते हैं। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता से रिश्ता तोड़ लेने पर लोग समझते हैं कि इस आधार पर नफे में रहा जा सकेगा। पर बात यह है कि ऐसों को सर्वसाधारण की उपेक्षा सहनी पड़ती है और असहयोग की शिकायत बनी रहती है।                        

🔴 अपना चिन्तन, चरित्र, स्वभाव और व्यवहार यदि ओछेपन से ग्रसित हो तो उसे उसी प्रकार धो डालने का प्रयत्न करना चाहिये जैसे कि कीचड़ से सन जाने पर उस गन्दगी को धोने का अविलम्ब प्रयत्न किया जाता है। गन्दगी से सने फिरना किसी के लिये भी अपमान की बात है। इसी प्रकार मानवी गरिमा से अलंकृत होने पर भी क्षुद्रताओं और निकृष्टताओं का परिचय देना न केवल दुर्भाग्य सूचक है, वरन साथ में यह अभिशाप भी जुड़ता है कि कोई महत्त्वपूर्ण, उत्साहवर्द्धक और अभिनन्दनीय प्रगति कर सकने का आधार कभी हाथ ही नहीं आता।    

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अध्यवसायी-ईश्वरचंद्र

🔴 पं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर के पिता दो-तीन रुपये मासिक के मजदूर थे। घर का गुजारा ही कठिनता से हो पाता था, तब पुत्र को पढ़ा सकने का प्रश्न ही न उठता था। किंतु उनकी यह इच्छा जरूर थी कि उनका पुत्र पढ़-लिखकर योग्य बने पर आर्थिक विवशता ने उन्हें इस इच्छा को महत्त देने से रोके रखा।

🔵 ईश्वरचंद्र जब कुछ सयाने हुए तो गाँव के लडकों को स्कूल जाता देखकर पिता से रोते हुए बोले- "मैं भी पढ़ने जाऊँगा।" पिता ने परिस्थिति बतलाते हुए कह- बेटा तेरे भाग्य में विद्या ही होती तो मेरे जैसे निर्धन के यही क्यों पैदा होता? कुछ और बडे होकर मेहनत मजदूरी करने की सोचना, जिससे ठीक तरह से पेट भर सके। पढ़ाई के विषय में सोचना फिजूल बात है।''

🔴 पिता की निराशापूर्ण बात सुनकर ईश्वरधंद्र मन मसोसकर रह गये। इससे अधिक वह बालक और कर भी क्या सकता था? पिता का उत्तर पाकर भी उसका उत्साह कम नहीं हुआ। उसने पढ़ने वाले अनेक छात्रों को मित्र बनाया और उनकी किताब से पूछकर पढ़ने लगा। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने अक्षर-ज्ञान प्राप्त कर लिया और एक दिन कोयले से जमीन पर लिखकर, पिता को दिखलाया। पिता विद्या के प्रति उसकी लगन देखकर मन-ही मन निर्धनता को कोसने लगे। पुत्र को पढाने के लिए उनका हृदय अधीर हो उठा।

🔵 एक दिन कुछ अधिक कमाने के लिए वे ईश्वरचंद को लेकर कलकत्ता की ओर चल दिए। रास्ते में एक जगह सुस्ताने के लिए रुककर उन्होंने कहा-न जाने कितनी दूर चले आऐ हैं ? अनायास ही ईश्वरचंद्र बोल उठा- ६ मील पिताजी! उन्होंने आश्चर्य से पूछा- तुझे कैसे पता चला 'ईश्वरचंद्र ने बतलाया कि पास के मील पत्थर पर ६ लिखा है। पिता यह जानकर हर्ष-विभोर हो गये कि ईश्वरचंद्र ने चलते-चलते मील के पत्थरों से ही अंग्रेजी अंकों का ज्ञान कर लिया। वे उसे लेकर वही से घर वापस लौट पडे। रास्ते भर सोचते आए कि यदि ऐसे जिज्ञासु तथा उत्साही पुत्र को पढने से वंचित रखा तो यह बहुत बडा अपराध होगा। मैं एक वक्त खाऊँगा, घर को आधा पेट रखूँगा, किंतु ईश्वरचंद्र को पाठशाला अवश्य भेजूँगा। घर आकर उन्होंने ईश्वरचंद्र को गाँव की पाठशाला में भरती करा दिया।

🔴 गाँव से आगे पढा़ सकना तो पिता के लिये सर्वथा असंभव था। उन्होंने इनकार किया। इस पर ईश्वरचंद्र ने प्रार्थना की कि वे उसे किसी विद्यालय में भरती भर करा दें उसके बाद उसे कोई खर्च न दें। वह शहर में स्वयं उसका प्रबंध कर लेगा। पिता ने उनकी बात मान ली और उसे कलकत्ता के एक संस्कृत विद्यालय मे भरती करा दिया। विद्यालय में पहुँचकर ईश्वरचंद्र ने अपनी सेवा, लगन तथा योग्यता के बल पर शिक्षको को यही तक प्रसन्न कर लिया कि उनकी फीस माफ हो गई। पुस्तकों के लिए वह अपने सहपाठिर्यो का साझीदार हो जाता था।

🔵 अपनी इस व्यवस्था के साथ संतुष्ट रहकर ईश्वरचद्र ने अध्ययन में इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष की आयु पहुंचते पहुँचते उन्होंने व्याकरण, साहित्य, अलंकार, स्मृति तथा वेदांत शास्त्र में निपुणता प्राप्त कर ली। उनकी असंदिग्ध विद्वता तथा तदनुकूल आचरण से प्रभावित होकर विद्वानों की एक सभा ने उन्हें मानपत्र के साथ "विद्यासागर" की उपाधि से विभूषित किया और उसके मूल्यांकन में अनुरोधपूर्वक फोर्ट विलियम संस्कृत कालेज में प्रधान पंडित के पद पर नियुक्त कर लिए गये। परिश्रम एवं पुरुषार्थ का सहारा लेने वाले ईश्वरचंद का जीवन ही बदल गया। वहाँ लोग उनके दो-चार रुपये मासिक का मजदूर बनने की सोच रहे थे और कही वे भारत के ऐतिहासिक व्यक्ति बनकर राष्ट्र के श्रद्धा पात्र बनकर अमर हो गये।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹  संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 17, 18

👉 बलि का तेज चला गया

🔴 राजा बलि असुर कुल में उत्पन्न हुए थे पर वे बड़े सदाचारी थे और अपनी धर्म परायपता के उनने बहुत वैभव और यश कमाया था। उनका पद इन्द्र के समान हो गया। पर धीरे- धीरे जब धन सें उत्पन्न होने वाले अहंकार, आलस्य, दुराचार जैसे दुर्गुण बढ़ने लगे तो उनके भीतर वाली शक्ति खोखली होने लगी।

🔵 एक दिन इन्द्र की बलि से भेंट हुई तो सबने देखा कि बलि के शरीर से एक प्रचण्ड तेज निकलकर इन्द्र के शरीर में चला गया है और बलि श्री विहीन हो गये।

🔴 उस तेज से पूछा गया कि आप कौन हैं? और क्यों बलि के शरीर से निकलकर इन्द्र की देह में गये? तो तेज ने उत्तर दिया कि मैं सदाचरण है। मैं जहां भी रहता हूँ वहीं सब विभूतियाँ रहती हैं।

🔵 बलि ने तब तक मुझे धारण किया जब तक उसका वैभव बढ़ता रहा था। जब इसने मेरी उपेक्षा कर दी तो मैं सौभाग्य को साथ लेकर, सदाचरण में तत्पर इन्द्र के यहाँ चला आया हूँ।

🔴 बलि का सौभाग्य सूर्य अस्त हो गया और इन्द्र का चमकने लगा, उसमें सदाचरण रूपी तेज की समाप्ति ही प्रधान कारण थी।

🔵 ऐसे भी व्यक्ति होतै हैं जो अपने व्यक्तित्व को ऊँचा उठाकर अपने को महामानव स्तर तक पहुँचा देते है, जन सम्मान पाते हैं। ऐसे निष्ठावानों से भारतीय- संस्कृति सदा से गौरवान्वित होती रही है।

🌹 प्रज्ञा पुराण भाग 1 पृष्ठ 12

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 4)

🌹 विचार शक्ति सर्वोपरि

🔴 ईश्वर के मन में, ‘एकोऽहं बहुस्यामि’ का विचार आते ही यह सारी जड़-चेतनमय सृष्टि बनकर तैयार हो गई, और आज भी वह उसको विचार के आधार पर ही स्थिति है और प्रलयकाल में विचार निर्धारण के आधार पर ही उसी ईश्वर में लीन हो जायेगी। विचारों में सृजनात्मक और ध्वंसात्मक दोनों प्रकार की अपूर्व, सर्वोपरि और अनन्त शक्ति होती है। जो इस रहस्य को जान जाता है, वह मानो जीवन के एक गहरे रहस्य को प्राप्त कर लेता है। विचारणाओं का चयन करना स्थूल मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। उनकी पहचान के साथ जिसको उसके प्रयोग की विधि विदित हो जाती है, वह संसार का कोई भी अभीष्ट सरलतापूर्वक पा सकता है।

🔵 संसार की प्रायः सभी शक्तियां जड़ होती हैं, विचार-शक्ति, चेतन-शक्ति है। उदाहरण के लिए धन अथवा जन-शक्ति ले लीजिये। अपार धन उपस्थित हो किन्तु समुचित प्रयोग करने वाला कोई विचारवान् व्यक्ति न हो तो उस धनराशि से कोई भी काम नहीं किया जा सकता। जन-शक्ति और सैनिक-शक्ति अपने आप में कुछ भी नहीं है। जब कोई विचारवान् नेता अथवा नायक उसका ठीक से नियन्त्रण और अनुशासन कर उसे उचित दिशा में लगता है, तभी वह कुछ उपयोगी हो पाती है अन्यथा वह सारी शक्ति भेड़ों के गले के समान निरर्थक रहती है। 

🔴 शासन, प्रशासन और व्यवसायिक सारे काम एक मात्र विचार द्वारा ही नियन्त्रित और संचालित होते हैं। भौतिक क्षेत्र में भी नहीं उससे आगे बढ़कर आत्मिक क्षेत्र में भी एक विचार-शक्ति ही ऐसी है, जो काम आती है। न शारीरिक और न साम्पत्तिक कोई अन्य-शक्ति काम नहीं आती। इस प्रकार जीवन तथा जीवन के हर क्षेत्र में केवल विचार-शक्ति का ही साम्राज्य रहता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 12)

🌹 दुरुपयोग के रहते अभाव कैसे मिटे

🔵 विभूतियों को सही गलत तरीके से अर्जित कर लेना एक बात है और उनका सदुपयोग कर सकना सर्वथा दूसरी। सम्पदाओं के संग्रहकर्ता इस संसार में असंख्यों भरे पड़े हैं, पर जो उनका सही सदुपयोग कर पाये, वे खोजने पर भी उँगलियों पर गिनने जितने ही मिलेंगे। इसे एक विडम्बना ही कह सकते हैं कि सफलताएँ अर्जित करने वाले को सदुपयोग नहीं आता और जो उसे सही प्रयोजनों में प्रयुक्त कर सकते हैं, वे पुरुषार्थ को अर्जन के स्तर तक पहुँचा सकने में समर्थ नहीं हो पाते। काश, प्रतिभा और सदाशयता का एक ही केन्द्र पर केन्द्रीकरण बन पड़ा होता, तो यह संसार कितना सुखी और समुन्नत दृष्टिगोचर होता?

🔴 सदुपयोग न बन पड़े तो इसमें भी किसी प्रकार संतोष किया जाता रह सकता है कि जो कमाया गया था, वह निरर्थक गुम गया, पर कष्ट तब होता है कि जिसके सदुपयोग से व्यक्ति और समाज का बहुत कुछ हित साधन हो सकता था, उसका ठीक उल्टा प्रयोग बन पड़ा और अनर्थ का वह सरञ्जाम जुटा, जिससे कम से कम बचा तो जा सकता था। 

🔵 समर्थ व्यक्ति ही उद्दण्डता अपनाते और अनाचार पर उतारू होते हैं। सम्पन्न लोग ही अपने वैभव को ऐसे प्रयोजनों में नियोजित करते हैं, जिनसे शोषण, उत्पीड़न और पतन-पराभव का माहौल बनें। संसार में छल, छद्म और प्रपञ्च के जाल बिछाने वालों में प्रधानतया वही लोग रहे हैं, जिन्हें विद्वान समझा और बुद्धिमान कहा जाता है। युद्धोन्माद भड़काने और असंख्यों पर अगणित विपत्तियाँ ढाने वालों में सत्ताधारी ही अग्रणी रहें हैं। अच्छा होता यह मूर्धन्य कहे जाने वाले सफल न होते। उस सफलता को क्या कहा जाये? जो विभूतियों के रूप में जब किसी पर विषम ज्वर की तरह चढ़ दौड़ती हैं, तो उसे एक प्रकार का उन्मादी बनाए बिना नहीं रहतीं। बदहवासी में लोग अधपगलों जैसी उद्दण्डता अपनाने के लिए उतारू हो उठते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 युग परिवर्तन (भाग 2)

👉 युग ऋषि की अमृतवाणी
🔴 अगर इसी क्रम से, इसी राह पर जिस पर आज हम चल रहे हैं, वैज्ञानिक उन्नति, मनुष्यों के भीतर स्वार्थपरता की वृद्धि, मनुष्यों की सन्तानों पर नियंत्रण का अभाव यही क्रम चला तो दुनिया नष्ट हो जायेगी। आप ध्यान रखना सौ वर्ष बाद हम तो जिंदा नहीं रहेंगे, आपमें से कोई जिंदा रह जाये तो देखना दुनिया का क्या हाल होता है, अगर ये स्थिति बनी रही तो। एक और स्थिति है, जिसका हम ख्वाब देखते हैं। सपने हम देखते हैं। हमारे स्वप्नों की दुनियाँ बड़ी खूबसूरत दुनियाँ है, ऐसी दुनियाँ है, जिसमें प्यार भरा हुआ है, मोहब्बत भरी हुई है, विश्वास भरे हुए हैं, एक-दूसरे के प्रति सहकार भरे हुए हैं, एक-दूसरे की सेवा भरी हुई है, इतनी मीठी, इतनी मधुर दुनियाँ है, हमारे दिमाग में घूमती है। अगर हमारे सपने कदाचित् साकार हो गये तो ये भरा हुआ विज्ञान, ये भरा हुआ धन, ये भरी हुई विद्या, ये भरी हुई सुविधाएँ, आदमी के लिये मैं सोचता हूँ स्वर्ग के वातावरण को उतार करके जमीन पे ले आयेगी।

🔵 हजारों-लाखों वर्ष पूर्व न सड़कें थीं, न बिजली थी, न रोशनी थी, न टेलीफोन था, न डाकखाना था, न कुछ भी नहीं था। ऐसे अभाव के जमाने में स्वर्गीय जिन्दगी जीया करते थे। आज बेहतरीन परिस्थितियों में दुनिया में इतनी शान्ति, इतनी सरसता, इतना सौंदर्य, इतना सुख पैदा कर सकते हैं कि हम नहीं कह सकते। जिस चौराहे पर हम खड़े हुए हैं, एक विनाश का चौराहा और एक उन्नति का चौराहा है। उन्नति में क्या होने वाला है, इसके लिये आपको भूमिका निभानी पड़ेगी। काष्टींग वोट आपका है। दो वोट बराबर होते हैं। एक वोट प्रेसीडेन्ट का होता है। प्रेसीडेन्ट दोनों वोट बराबर वाले में से जिसको चाहे उसके पक्ष में अपना डाल सकता है, उसी को जिता सकता है। आप लोग, आप लोग बैलेंसिंग पॉवर में हैं। आप चाहें तो अपना वोट उसकी ओर डाल सकते हैं, जो पक्ष विनाश की ओर जा रहा है। आप चाहें तो अपना पक्ष उसके पक्ष में डाल सकते हैं, जो सुख और शान्ति लाने के लिये जा रहा है।

🔴 मैं सोचता हूँ, आपको ऐसा ही करना चाहिये। सुख-शान्ति के लिये अपना वोट डालना चाहिये और आपको अपनी वर्तमान जिन्दगी, जानवरों के तरीके से नहीं जीनी चाहिये। आपको अपनी वर्तमान जिन्दगी मनुष्यों के तरीके से, विचारशीलों के तरीके से, समझदार के तरीके से खर्च करना चाहिये। ये विशेष समय है, ऐसा समय फिर आने वाला नहीं है।

🌹 आज की बात समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/yug_parivartan

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 98)

🌹 प्रगतिशील जातीय संगठनों की रूपरेखा

🔴 आदर्श विवाह तभी सम्भव हो सकते हैं जब वर और कन्या दोनों पक्ष इसके लिये सहमत हों। एक पक्ष कितना ही आदर्शवादी क्यों न हो, बिना दूसरा पक्ष अपने अनुकूल मिले इन विचारों को कार्यान्वित न कर सकेगा। इसलिए यह आवश्यक है कि कोई ऐसा तन्त्र खड़ा किया जाय जिसके माध्यम से एक समान विचार और आदर्शों के लोगों को ढूंढ़ने की सुविधा मिल सके। यह प्रयोजन प्रगतिशील जातियों के संगठनों के माध्यम से ही पूरा हो सकता है।

🔵 अत्यधिक उत्साही लोग यह भी सोच कर सकते हैं कि अपनी जाति को छोड़कर अन्य जातियों में अपने विचार के लोगों को साथ विवाह क्यों न आरम्भ किये जाय? आदर्श के लिये यह विचार उत्तम हैं। ऊंचे घर के लोगों के लिये सम्भव भी है। पर भारत की वर्तमान स्थिति में सर्व साधारण के लिये इतना बड़ा कदम उठा लेने के बाद जो कठिनाइयां उपस्थित होती हैं, उन्हें नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत योजना अखण्ड-ज्योति परिवार के लोगों को ध्यान में रखते हुए आरम्भ की गई है।

🔴 उनकी स्थिति हमें विदित है। इसलिये उन्हें अभी मितव्ययी विवाह के लिये ही जोर दे सकना उचित है। उन जातियों के बन्धन शिथिल करने के लिये ही उन्हें कहा जा सकता है। जिनमें अधिक साहस हो वे जाति-पांति की परवा किये बिना भी विवाह करें, पर जो एक बार भी उतना न कर सकेंगे वे अपनी जातियों में सम्बन्ध करने को उत्सुक होंगे। उनका काम इतने साहस से भी कहा जायगा। रूढ़ि ग्रसित समाज में आर्थिक सुधार ही सफल हो सकते हैं। अत्यधिक उत्साह आदर्शवाद की दृष्टि से प्रशंसनीय हो सकता है पर समय से पूर्व उठाये गए कदमों के असफल होने की ही संभावना ज्यादा रहती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 46)

🌹 ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार

🔴 नंदन वन में पहला दिन वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारने, उसी में परम सत्ता की झाँकी देखने में निकल गया। पता ही नहीं चला कि कब सूरज ढला और रात्रि आ पहुँची। परोक्ष रूप से निर्देश मिला, समीपस्थ एक निर्धारित गुफा में जाकर सोने की व्यवस्था बनाने का। लग रहा था कि प्रयोजन सोने का नहीं, सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने का है, ताकि स्थूल शरीर पर शीत का प्रकोप न हो सके। सम्भावना थी कि पुनः रात्रि को गुरुदेव के दर्शन होंगे। ऐसा हुआ भी।

🔵 उस रात्रि को गुफा में गुरुदेव सहसा आ पहुँचे। पूर्णिमा थी। चन्द्रमा का सुनहरा प्रकाश समूचे हिमालय पर फैल रहा था। उस दिन ऐसा लगा कि हिमालय सोने का है। दूर-दूर बर्फ के टुकड़े तथा बिन्दु बरस रहे थे, वे ऐसा अनुभव कराते थे, मानों सोना बरस रहा है। मार्गदर्शक के आ जाने से गर्मी का एक घेरा चारों ओर बन गया। अन्यथा रात्रि के समय इस विकट ठंड और हवा के झोंकों में साधारणतया निकलना सम्भव न होता। दुस्साहस करने पर इस वातावरण में शरीर जकड़ या ऐंठ सकता था।

🔴 किसी विशेष प्रयोजन के लिए ही यह अहैतुकी कृपा हुई, यह मैंने पहले ही समझ लिया, इसलिए इस काल में जाने का कारण पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। पीछे-पीछे चल दिया। पैर जमीन से ऊपर उठते हुए चल रहे थे। आज यह जाना कि सिद्धि में ऊपर हवा में उड़ने की-अंतरिक्ष में चलने की क्यों आवश्यकता पड़ती है। उन बर्फीले ऊबड़-खाबड़ हिम खण्डों पर चलना उससे कहीं अधिक कठिन था, जितना कि पानी की सतह पर चलना। आज उन सिद्धियों की अच्छी परिस्थितियों में आवश्यकता भले ही न पड़े, पर उन दिनों हिमालय जैसे विकट क्षेत्रों में आवागमन की कठिनाई को समझने वालों के लिए आवश्यकता निश्चय ही पड़ती होगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/rishi

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 46)

🌞  हिमालय में प्रवेश (सुनसान की झोंपड़ी)

🔵 लगाम खींचने पर जैसे घोड़ा रुक जाता है उसी प्रकार वह सूनेपन को कष्ट कर सिद्ध करने वाला विचार प्रवाह भी रुक गया। निष्ठा ने कहा—एकान्त साधना की आत्म-प्रेरणा असत् नहीं हो सकती। निष्ठा ने कहा—जो शक्ति इस मार्ग पर खींच लाई है, वह गलत मार्ग-दर्शन नहीं कर सकती। भावना ने कहा—जीव अकेला आता है, अकेला जाता है, अकेला ही अपनी शरीर रूपी कोठरी में बैठा रहता है, क्या इस निर्धारित एकान्त विधान में उसे कुछ असुखकर प्रतीत होता है? सूर्य अकेला चलता है, चन्द्रमा अकेला उदय होता है, वायु अकेला बहती है। इसमें उन्हें कुछ कष्ट है?

🔴 विचार से विचार कटते हैं, इस मनः शास्त्र के सिद्धान्त ने अपना पूरा काम किया। आधी घड़ी पूर्व जो विचार अपनी पूर्णता अनुभव कर रहे थे, अब वे कटे वृक्ष की तरह गिर पड़े। प्रतिरोधी विचारों ने उन्हें परास्त कर दिया। आत्मवेत्ता इसी लिए अशुभ विचारों को शुभ विचारों से काटने का महत्व बताते हैं। बुरे से बुरे विचार चाहे वे कितने प्रबल क्यों न हों, उत्तम प्रतिपक्षी विचारों से काटे जा सकते हैं। अशुद्ध मान्यताओं को शुद्ध मान्यताओं के अनुरूप कैसे बनाया जा सकता है, यह उस सूनी रात में करवटें बदलते हुए मैंने प्रत्यक्ष देखा। अब मस्तिष्क एकांत की उपयोगिता, आवश्यकता और महत्ता पर विचार करने लगा।

🔵 रात धीरे-धीरे बीतने लगी। अनिद्रा से ऊबकर कुटिया से बाहर निकला तो देखा कि गंगा की धारा अपने प्रियतम समुद्र से मिलने के लिये व्याकुल प्रेयसी की भांति तीव्र गति से दौड़ी चली जा रही थी। रास्ते में पड़े हुए पत्थर उसका मार्ग अवरुद्ध करने का प्रयत्न करते पर वह उनके रोके रुक नहीं पा रही थी। अनेकों पाषाण खण्डों की चोट से उसके अंग प्रत्यंग घायल हो रहे थे तो भी वह न किसी की शिकायत करती थी और न निराश होती थी। इन बाधाओं का उसे ध्यान भी न था, अंधेरे का, सुनसान का उसे भय न था। अपने हृदयेश्वर के मिलन की व्याकुलता उसे इन सब बातों का ध्यान भी न आने देती थी। प्रिय के ध्यान में निमग्न ‘हर-हर, कल-कल’ का प्रेग-गीत गाती हुई गंगा निद्रा और विश्राम को तिलांजलि दे कर चलने से ही लौ लगाए हुए थी।

🔴 चन्द्रमा सिर के ऊपर आ पहुंचा था। गंगा की लहरों में उसके अनेकों प्रतिबिम्ब चमक रहे थे। मानो एक ही ब्रह्म अनेक शरीरों में प्रविष्ट होकर एक से अनेक होने की अपनी माया दृश्य रूप से समझा रहा हो। दृश्य बड़ा सुहावना था। कुटिया से निकल कर गंगातट के एक बड़े शिलाखण्ड पर जा बैठा और निर्निमेष होकर उस सुन्दर दृश्य को देखने लगा। थोड़ी देर में झपकी लगी और उस शीतल शिला खण्ड पर ही नींद आ गई।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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