गुरुवार, 30 अगस्त 2018
👉 गरजो मत-बरसो
🔷 विद्वान् कार्लाइल ने अपने आत्म चरित्र में लिखा है वर्षा के दिनों में एक दिन अचानक हमारे पड़ोस में दुर्घटना पूर्ण मृत्यु हुई। लोग उस मौसम को कोस रहे थे। मैंने अनुमान लगाया कि उस आदमी की मौत बादलों के गर्जन से हुई। पर जब मैं बड़ा हुआ तब समझा कि मौत गर्जन से नहीं बिजली गिरने से होती है। तब से मैंने गरजना बन्द कर दिया और चमकने की तरकीब ढूँढ़ने लगा।
👉 साधना की शक्ति:-
🔷 वर्षों पुरानी बात है। एक राज्य में महान योद्धा रहता था। कभी किसी से नहीं हारा था। बूढ़ा हो चला था, लेकिन तब भी किसी को भी हराने का माद्दा रखता था। चारों दिशाओं में उसकी ख्याति थी। उससे देश-विदेश के कई युवा युद्ध कौशल का प्रशिक्षण लेने आते थे।
🔶 एक दिन एक कुख्यात युवा लड़ाका उसके गांव आया। वह उस महान योद्धा को हराने का संकल्प लेकर आया था, ताकि ऐसा करने वाला पहला व्यक्ति बन सके। बेमिसाल ताकतवर होने के साथ ही उसकी खूबी दुश्मन की कमजोरी पहचानने और उसका फायदा उठाने में महारत थी। वह दुश्मन के पहले वार का इंतजार करता। इससे वह उसकी कमजोरी का पता लगाता। फिर पूरी निर्ममता, शेर की ताकत और बिजली की गति से उस पर पलटवार करता। यानी, पहला वार तो उसका दुश्मन करता लेकिन आखिरी वार इस युवा लड़ाके का ही होता था।
🔷 अपने शुभचिंतकों और शिष्यों की चिंता और सलाह को नजरअंदाज करते हुए बूढ़े योद्धा ने युवा लड़ाके की चुनौती कबूल की। जब दोनों आमने-सामने आए तो युवा लड़ाके ने महान योद्धा को अपमानित करना शुरू किया। उसने बूढ़े योद्धा के ऊपर रेत-मिट्टी फेंकी। चेहरे पर थूका भी। बूढ़े योद्धा को गालियां देता रहा। जितने तरीके से संभव था, उतने तरीके से उसे अपमानित किया। लेकिन बूढ़ा योद्धा शांतचित्त, एकाग्र और अडिग रहा और उसके प्रत्येक क्रियाकलाप को पैनी नज़रों से देखता रहा।
🔶 युवा लड़ाका थकने लगा। अंतत: अपनी हार सामने देखकर वह शर्मिंदगी के मारे भाग खड़ा हुआ।
🔷 बूढ़े योद्धा के कुछ शिष्य इस बात से नाराज और निराश हुए कि उनके गुरु ने गुस्ताख युवा लड़ाके से युद्ध नहीं किया। उसे सबक नहीं सिखाया। इन शिष्यों ने गुरु को घेर लिया और सवाल किया, 'आप इतना अपमान कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? आपने उसे भाग जाने का मौका कैसे दे दिया?’
🔶 महान योद्धा ने जवाब दिया, ‘यदि कोई व्यक्ति आपके लिए कुछ उपहार लाए, लेकिन आप लेने से इनकार कर दें। तब यह उपहार किसके पास रह गया?’देने वाले के पास ही न।
🔷 इसी प्रकार साधना में भी कई प्रकार की बाधाएं आएँगी उनसे लड़ने में अपनी शक्ति न गवाएं बल्कि कुछ समय मौन रहें साधना में निरन्तरता रखें सहज होने की कोशिश रखें । थोड़े ही समय बाद आप उन परिस्तिथियों से आगे निकल जायेंगे। और हमेशा विजयी ही रहेंगे। साधना से जो बड़ी बात अंदर पैदा होती है वो है असीम शांति जिसके सम्पर्क में आते ही बड़ी से बड़ी आसुरी शक्ति भी अपनी कोशिशें कर के थक जाती हैं और भाग जाती हैं या साधक के शरणागत हो जाती है बस जरूरत है धैर्य की और असीम शांति की।
🔶 अगर परिस्तिथिवश कभी लड़ना भी पड़े तो अंदर शांत रहते हुए पूरी परिस्तिथियों को देखते हुए लड़ो बिना क्रोध किये कोई भी शक्ति होगी आपके ऊपर प्रभाव न डाल सकेगी।
🔶 एक दिन एक कुख्यात युवा लड़ाका उसके गांव आया। वह उस महान योद्धा को हराने का संकल्प लेकर आया था, ताकि ऐसा करने वाला पहला व्यक्ति बन सके। बेमिसाल ताकतवर होने के साथ ही उसकी खूबी दुश्मन की कमजोरी पहचानने और उसका फायदा उठाने में महारत थी। वह दुश्मन के पहले वार का इंतजार करता। इससे वह उसकी कमजोरी का पता लगाता। फिर पूरी निर्ममता, शेर की ताकत और बिजली की गति से उस पर पलटवार करता। यानी, पहला वार तो उसका दुश्मन करता लेकिन आखिरी वार इस युवा लड़ाके का ही होता था।
🔷 अपने शुभचिंतकों और शिष्यों की चिंता और सलाह को नजरअंदाज करते हुए बूढ़े योद्धा ने युवा लड़ाके की चुनौती कबूल की। जब दोनों आमने-सामने आए तो युवा लड़ाके ने महान योद्धा को अपमानित करना शुरू किया। उसने बूढ़े योद्धा के ऊपर रेत-मिट्टी फेंकी। चेहरे पर थूका भी। बूढ़े योद्धा को गालियां देता रहा। जितने तरीके से संभव था, उतने तरीके से उसे अपमानित किया। लेकिन बूढ़ा योद्धा शांतचित्त, एकाग्र और अडिग रहा और उसके प्रत्येक क्रियाकलाप को पैनी नज़रों से देखता रहा।
🔶 युवा लड़ाका थकने लगा। अंतत: अपनी हार सामने देखकर वह शर्मिंदगी के मारे भाग खड़ा हुआ।
🔷 बूढ़े योद्धा के कुछ शिष्य इस बात से नाराज और निराश हुए कि उनके गुरु ने गुस्ताख युवा लड़ाके से युद्ध नहीं किया। उसे सबक नहीं सिखाया। इन शिष्यों ने गुरु को घेर लिया और सवाल किया, 'आप इतना अपमान कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? आपने उसे भाग जाने का मौका कैसे दे दिया?’
🔶 महान योद्धा ने जवाब दिया, ‘यदि कोई व्यक्ति आपके लिए कुछ उपहार लाए, लेकिन आप लेने से इनकार कर दें। तब यह उपहार किसके पास रह गया?’देने वाले के पास ही न।
🔷 इसी प्रकार साधना में भी कई प्रकार की बाधाएं आएँगी उनसे लड़ने में अपनी शक्ति न गवाएं बल्कि कुछ समय मौन रहें साधना में निरन्तरता रखें सहज होने की कोशिश रखें । थोड़े ही समय बाद आप उन परिस्तिथियों से आगे निकल जायेंगे। और हमेशा विजयी ही रहेंगे। साधना से जो बड़ी बात अंदर पैदा होती है वो है असीम शांति जिसके सम्पर्क में आते ही बड़ी से बड़ी आसुरी शक्ति भी अपनी कोशिशें कर के थक जाती हैं और भाग जाती हैं या साधक के शरणागत हो जाती है बस जरूरत है धैर्य की और असीम शांति की।
🔶 अगर परिस्तिथिवश कभी लड़ना भी पड़े तो अंदर शांत रहते हुए पूरी परिस्तिथियों को देखते हुए लड़ो बिना क्रोध किये कोई भी शक्ति होगी आपके ऊपर प्रभाव न डाल सकेगी।
👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 42)
👉 उत्कृष्टता के साथ जुड़ें, प्रतिभा के अनुदान पाएँ
🔷 मेघ मंडल जब घटाटोप बनकर उमड़ते-गरजते हैं तो कृषि कर्मियों के मन आशा-उत्साह से भरकर बल्लियों उछलने लगते हैं इंद्र वज्र सौ-सौ बार झुककर उनकी सलामी देता है। अँधेरा आकाश प्रकाश से भर जाता है और मोर नाचते एवं पपीहे कूकते हैं। हरीतिमा उनकी प्रतीक्षा में मखमली चादर ओढ़े मुस्कराती पड़ी रहती है। यह मनुहार मेघों की ही क्यों होती है? खोजने पर पता चलता है कि वे संचित जलराशि समेट, अपने आपको अति विनम्र बनाकर उसे धरती पर बिखेर देते हैं।
🔶 प्रतिभा परिवर्धन के उद्दण्ड उपाय तो अनेक हैं। उन्हें आतंकवादी-अनाचारी तक अपनाते और प्रेत पिशाचों की तरह अनेक को भयभीत कर देते हैं, किंतु स्थिरता और सराहना उन्हीं प्रतिभावानों के साथ जुड़ी रहती है, जो शालीनता अपनाते और आदर्शों के प्रति अपने वैभव को उत्सर्ग करने में चूकते नहीं। ऐसे लोग शबरी, गिलहरी, केवट स्तर के ही क्यों न हों, अपने को अजर-अमर बना लेते हैं और अनुकरण करने के लिए अनेकों को आकर्षित करते हैं। उनकी चुंबकीय विलक्षणता न जाने क्या-क्या कहाँ-कहाँ से बटोर लाती है और बीज को वृक्ष बनाकर खड़ा कर देती हैं।
🔷 प्रतिभा परिष्कार का अजस्र लाभ उठाने के लिए इन दिनों स्वर्ण सुयोग आया है। युगसंधि की वेला में, जीवट वाले प्राणवानों की आवश्यकता अनुभव की गई है। अवांछनीयताओं से ऐसे ही पराक्रमी जूझते हैं और हनुमान, अंगद जैसे अनगढ़ होते हुए भी लंका को धराशायी बनाने के एवं रामराज्य का सतयुगी वातावरण बनाने के दोनों मोरचों पर अपनी समर्थ क्षमता का परिचय देते हैं। ऐसी परीक्षा की घड़ियाँ सदा नहीं आती। जो समय को पहचानते और बिना अवसर चूके अपने साहस का परिचय देते हैं, उन्हें प्रतिभा का धनी बनने में किसी अतिरिक्त अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। संयम और साहस का मिलन ही वरिष्ठता तक पहुँचा देता है। पुण्य और परमार्थ का राजमार्ग ऐसा है जिसे अपनाने पर वरिष्ठता का लक्ष्य हर किसी को मिल सकता है। आत्मसाधना और लोकसाधना दोनों एक ही लक्ष्य के दो पहलू हैं। जहाँ एक को सही रीति से अपनाया जाएगा, वहाँ दूसरा उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ जाएगा।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 51
🔷 मेघ मंडल जब घटाटोप बनकर उमड़ते-गरजते हैं तो कृषि कर्मियों के मन आशा-उत्साह से भरकर बल्लियों उछलने लगते हैं इंद्र वज्र सौ-सौ बार झुककर उनकी सलामी देता है। अँधेरा आकाश प्रकाश से भर जाता है और मोर नाचते एवं पपीहे कूकते हैं। हरीतिमा उनकी प्रतीक्षा में मखमली चादर ओढ़े मुस्कराती पड़ी रहती है। यह मनुहार मेघों की ही क्यों होती है? खोजने पर पता चलता है कि वे संचित जलराशि समेट, अपने आपको अति विनम्र बनाकर उसे धरती पर बिखेर देते हैं।
🔶 प्रतिभा परिवर्धन के उद्दण्ड उपाय तो अनेक हैं। उन्हें आतंकवादी-अनाचारी तक अपनाते और प्रेत पिशाचों की तरह अनेक को भयभीत कर देते हैं, किंतु स्थिरता और सराहना उन्हीं प्रतिभावानों के साथ जुड़ी रहती है, जो शालीनता अपनाते और आदर्शों के प्रति अपने वैभव को उत्सर्ग करने में चूकते नहीं। ऐसे लोग शबरी, गिलहरी, केवट स्तर के ही क्यों न हों, अपने को अजर-अमर बना लेते हैं और अनुकरण करने के लिए अनेकों को आकर्षित करते हैं। उनकी चुंबकीय विलक्षणता न जाने क्या-क्या कहाँ-कहाँ से बटोर लाती है और बीज को वृक्ष बनाकर खड़ा कर देती हैं।
🔷 प्रतिभा परिष्कार का अजस्र लाभ उठाने के लिए इन दिनों स्वर्ण सुयोग आया है। युगसंधि की वेला में, जीवट वाले प्राणवानों की आवश्यकता अनुभव की गई है। अवांछनीयताओं से ऐसे ही पराक्रमी जूझते हैं और हनुमान, अंगद जैसे अनगढ़ होते हुए भी लंका को धराशायी बनाने के एवं रामराज्य का सतयुगी वातावरण बनाने के दोनों मोरचों पर अपनी समर्थ क्षमता का परिचय देते हैं। ऐसी परीक्षा की घड़ियाँ सदा नहीं आती। जो समय को पहचानते और बिना अवसर चूके अपने साहस का परिचय देते हैं, उन्हें प्रतिभा का धनी बनने में किसी अतिरिक्त अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। संयम और साहस का मिलन ही वरिष्ठता तक पहुँचा देता है। पुण्य और परमार्थ का राजमार्ग ऐसा है जिसे अपनाने पर वरिष्ठता का लक्ष्य हर किसी को मिल सकता है। आत्मसाधना और लोकसाधना दोनों एक ही लक्ष्य के दो पहलू हैं। जहाँ एक को सही रीति से अपनाया जाएगा, वहाँ दूसरा उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ जाएगा।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 51
👉 Scientific Basis of Gayatri Mantra Japa (Part 9)
🔷 The energy locked up in the mantras is essentially spiritual in nature. The specific configurations of the Vedic Mantras are said to be derived from the subtle science of syllables and sound. The rishis, who had realized the cosmic and spiritual dimensions of the omnipresent eternal sound, had compiled these mantras. The consistency of the rhythm and amplitude of the mantras are therefore of vital importance. The prescribed modes and number of japas every day for specific sadhana are also enjoined accordingly. The sadhaka should follow these with due sincerity and punctuality. Sometime slow sometime fast speed or pitch of japa or performing the japa in a half-asleep or inconsistent way does not serve any purpose.
🔶 Sitting with erect spine and in a state of mental peace, regularity of timings for japa are essential prerequisites for steady and sure progress. Purity of the body and mind is another prerequisite for concentration of mind and proper meditation. It is advised to do the japa with the help of a rosary so that counting will also be automatic with the mechanical move of the hand on its beads with each complete chanting of the mantra, without disturbing the mental concentration.
🔷 The upanshu type japa is said to be the best for the beginners. Here, one chants the mantra so that his tongue and lips may move but the voice is inaudible. Once one has perfected the rhythmic chanting of the mantra he may check the timings of specified number of japas according to his natural frequency and may use a clock (alarm) instead of a rosary, as per his convenience.
📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003
🔶 Sitting with erect spine and in a state of mental peace, regularity of timings for japa are essential prerequisites for steady and sure progress. Purity of the body and mind is another prerequisite for concentration of mind and proper meditation. It is advised to do the japa with the help of a rosary so that counting will also be automatic with the mechanical move of the hand on its beads with each complete chanting of the mantra, without disturbing the mental concentration.
🔷 The upanshu type japa is said to be the best for the beginners. Here, one chants the mantra so that his tongue and lips may move but the voice is inaudible. Once one has perfected the rhythmic chanting of the mantra he may check the timings of specified number of japas according to his natural frequency and may use a clock (alarm) instead of a rosary, as per his convenience.
📖 Akhand Jyoti, Mar Apr 2003
👉 ईश्वर-भक्ति और जीवन-विकास (भाग 2)
🔷 ध्रुव वेद-ज्ञानी न थे प्रह्लाद ब्रह्मोपदेशक थे, नानक की बौद्धिक मंदता सर्व विदित है। सूर और तुलसी जब तक साधारण व्यक्ति के तरीकों से रहे तब तक उनमें कोई विशेषता नहीं रही किन्तु जैसे ही उनमें भक्ति रूपी ज्योति का अवतरण हुआ अविद्या रूपी आवरण का अपसरण हो गया और काव्य की, विचार की ऐसी अविरल धारा बही कि काव्याकाश में “सूर सूर और तुलसी चन्द्रमा हो गये।”
🔶 जिन लोगों में ऐसी विलक्षणतायें पाई जाती हैं वह सब ईश्वर-चिन्तन का ही प्रभाव होती हैं चाहे वह ज्ञान और भक्ति पूर्व जन्मों की हो अथवा इस वर्तमान जीवन की ।
उपासना से चित्त-शुचिता, मानसिक सन्तुलन भावनाओं में शक्ति और पंचकोषों में सौमनस्य प्राप्त होता है वह बौद्धिक क्षमताओं के प्रसार से अतिरिक्त है। यह सभी गुण बुद्धि और विवेक का परिमार्जन करते हैं। दूर-दर्शन की प्रतिभा का विकास करते हैं। प्रारम्भ में वह केवल किसी वातावरण में घटित होने वाली स्थूल परिस्थितियों का ही अनुमान कर पाते हैं किन्तु जब भक्ति प्रगाढ़ होने लगती है तो उनकी बुद्धि भी इतनी सूक्ष्म और जागृत हो जाती है कि घटनाओं के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंग उन्हें ऐसे विदित हो जाते हैं जैसे कोई व्यक्ति कानों में सब कुछ चुपचाप बता गया हो ।
🔷 ईश्वर-भक्ति की प्रगाढ़ अवस्था भ्रमर और कीट जैसी होती है। भ्रमर कहीं से कीट को पकड़ लाता है फिर उसके सामने विचित्र गुँजार करता है। कीट उसमें मुग्ध होकर आकार परिवर्तन करने लगता है और स्वयं ही भ्रमर बन जाता है। ईश्वर उपासना में भी वह अचिन्त्य शक्ति है जो उपासक को उपास्य देवता से तदाकार करा देती है। गीता के 11 वें अध्याय श्लोक 54 में भगवान कृष्ण ने स्वयं इस बात की पुष्टि करते हुये लिखा है- “अनन्य भक्ति से ही मुझे लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। भक्ति से ही मैं बुद्धि प्रवेश करने योग्य बनता हूँ।”
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1967 अगस्त पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1967/August/v1.3
🔶 जिन लोगों में ऐसी विलक्षणतायें पाई जाती हैं वह सब ईश्वर-चिन्तन का ही प्रभाव होती हैं चाहे वह ज्ञान और भक्ति पूर्व जन्मों की हो अथवा इस वर्तमान जीवन की ।
उपासना से चित्त-शुचिता, मानसिक सन्तुलन भावनाओं में शक्ति और पंचकोषों में सौमनस्य प्राप्त होता है वह बौद्धिक क्षमताओं के प्रसार से अतिरिक्त है। यह सभी गुण बुद्धि और विवेक का परिमार्जन करते हैं। दूर-दर्शन की प्रतिभा का विकास करते हैं। प्रारम्भ में वह केवल किसी वातावरण में घटित होने वाली स्थूल परिस्थितियों का ही अनुमान कर पाते हैं किन्तु जब भक्ति प्रगाढ़ होने लगती है तो उनकी बुद्धि भी इतनी सूक्ष्म और जागृत हो जाती है कि घटनाओं के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंग उन्हें ऐसे विदित हो जाते हैं जैसे कोई व्यक्ति कानों में सब कुछ चुपचाप बता गया हो ।
🔷 ईश्वर-भक्ति की प्रगाढ़ अवस्था भ्रमर और कीट जैसी होती है। भ्रमर कहीं से कीट को पकड़ लाता है फिर उसके सामने विचित्र गुँजार करता है। कीट उसमें मुग्ध होकर आकार परिवर्तन करने लगता है और स्वयं ही भ्रमर बन जाता है। ईश्वर उपासना में भी वह अचिन्त्य शक्ति है जो उपासक को उपास्य देवता से तदाकार करा देती है। गीता के 11 वें अध्याय श्लोक 54 में भगवान कृष्ण ने स्वयं इस बात की पुष्टि करते हुये लिखा है- “अनन्य भक्ति से ही मुझे लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। भक्ति से ही मैं बुद्धि प्रवेश करने योग्य बनता हूँ।”
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1967 अगस्त पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1967/August/v1.3
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