मंगलवार, 17 दिसंबर 2019
👉 दर्द अपनेपन का
पचास वर्षीय राजेश बाबू ने सुबह सुबह करवट ली और हमेशा की तरह अपनी पत्नी मीता को चाय बनाने को कहा और फिर रजाई ढक कर करवट ले ली। कुछ पल उन्होने इंतजार की पर कोई हलचल ना होने पर उन्होने दुबारा आवाज दी..
ऐसा कभी भी नही हुआ था इसलिए राजेश बाबू ने लाईट जलाई और मीता को हिलाया पर कोई हलचल ना होने पर ना जाने वो घबरा से गए। रजाई हटाई तो मीता निढाल सी एक ओर पडी थी. ना जाने रात ही रात मे क्या हो गया..
अचानक मीता का इस तरह से उनकी जिंदगी से हमेशा हमेशा ले लिए चले जाना …. असहनीय था। धीरे धीरे जैसे पता चलता रहा लोग इकठठे होते रहे और उसका अंतिम संस्कार कर दिया..
एक हफ्ता किस तरह बीता उन्हे कुछ याद ही नही। उन का एक ही बेटा था जो कि अमेरिका रहता था। पढाई के बाद वही नौकरी कर ली थी। बेटा आकर जाने की भी तैयारी कर रहा था..
उसने अपने पापा को भी साथ चलने को कहा और वो तैयार भी हो गए। पर मीता की याद को अपने दिल से लगा लिया था। अब उन्हे हर बात मे उसकी अच्छाई ही नजर आने लगी। उन्हे याद आता कि कितना ख्याल रखती थी मीता उनका पर वो कोई भी मौका नही चूकते थे उसे गलत साबित करने का। ना कभी उसकी तारीफ करते और ना कभी उसका मनोबल बढाते बल्कि कर काम मे उसकी गलती निकालने मे उन्हे असीम शांति मिलती थी..
उधर मीता दिनभर काम मे जुटी रहती थी। एक बार् जब काम वाली बाई 2 महीने की छुट्टी पर गई थी तब भी मीता इतने मजे से सारा काम बिना किसी दर्द और शिकन के आराम से गुनगुनाते हुए किया जबकि कोई दूसरी महिला होती तो अशांत हो जाती। दिन रात राजेश बाबू उनकी यादो के सहारे जीने लगे। काश वह तब उसकी कीमत जान पाते। काश वो तब उसकी प्रशंसा कर पाते. काश …. !!!
पर अब बहुत देर हो चुकी थी.. आज राजेश अमेरिका जाने के लिए सामान पैक कर रहे थे। पैक करते करते मीता की फोटो को देख कर अचानक फफक कर रो पडे और बोले मीता, मुझे माफ कर दो। प्लीज वापिस आ जाओ। मै तुम्हारे बिना कुछ नही हूं। आज जान गया हूं कि मै तुमसे कितना कितना प्यार करता हूं….
तभी उन्हें किसी ने पीठ से झकोरा। इससे पहले वो खुद को सम्भाल पाते अचानक उनकी आखं खुल गई। मीता उन्हे घबराई हुई आवाज मे उठा रही थी। वो सब सपना था..
एक बार तो उन्हे विश्वास ही नही हुआ पर दूसरे पल उन्होने मीता का हाथ अपने हाथो मे ले लिया पर आखो से आसूं लगातार बहे जा रहे थे, और मीता नम हुई आखो से अपलक राजेश को ही देखे जा रही थी…
ऐसा कभी भी नही हुआ था इसलिए राजेश बाबू ने लाईट जलाई और मीता को हिलाया पर कोई हलचल ना होने पर ना जाने वो घबरा से गए। रजाई हटाई तो मीता निढाल सी एक ओर पडी थी. ना जाने रात ही रात मे क्या हो गया..
अचानक मीता का इस तरह से उनकी जिंदगी से हमेशा हमेशा ले लिए चले जाना …. असहनीय था। धीरे धीरे जैसे पता चलता रहा लोग इकठठे होते रहे और उसका अंतिम संस्कार कर दिया..
एक हफ्ता किस तरह बीता उन्हे कुछ याद ही नही। उन का एक ही बेटा था जो कि अमेरिका रहता था। पढाई के बाद वही नौकरी कर ली थी। बेटा आकर जाने की भी तैयारी कर रहा था..
उसने अपने पापा को भी साथ चलने को कहा और वो तैयार भी हो गए। पर मीता की याद को अपने दिल से लगा लिया था। अब उन्हे हर बात मे उसकी अच्छाई ही नजर आने लगी। उन्हे याद आता कि कितना ख्याल रखती थी मीता उनका पर वो कोई भी मौका नही चूकते थे उसे गलत साबित करने का। ना कभी उसकी तारीफ करते और ना कभी उसका मनोबल बढाते बल्कि कर काम मे उसकी गलती निकालने मे उन्हे असीम शांति मिलती थी..
उधर मीता दिनभर काम मे जुटी रहती थी। एक बार् जब काम वाली बाई 2 महीने की छुट्टी पर गई थी तब भी मीता इतने मजे से सारा काम बिना किसी दर्द और शिकन के आराम से गुनगुनाते हुए किया जबकि कोई दूसरी महिला होती तो अशांत हो जाती। दिन रात राजेश बाबू उनकी यादो के सहारे जीने लगे। काश वह तब उसकी कीमत जान पाते। काश वो तब उसकी प्रशंसा कर पाते. काश …. !!!
पर अब बहुत देर हो चुकी थी.. आज राजेश अमेरिका जाने के लिए सामान पैक कर रहे थे। पैक करते करते मीता की फोटो को देख कर अचानक फफक कर रो पडे और बोले मीता, मुझे माफ कर दो। प्लीज वापिस आ जाओ। मै तुम्हारे बिना कुछ नही हूं। आज जान गया हूं कि मै तुमसे कितना कितना प्यार करता हूं….
तभी उन्हें किसी ने पीठ से झकोरा। इससे पहले वो खुद को सम्भाल पाते अचानक उनकी आखं खुल गई। मीता उन्हे घबराई हुई आवाज मे उठा रही थी। वो सब सपना था..
एक बार तो उन्हे विश्वास ही नही हुआ पर दूसरे पल उन्होने मीता का हाथ अपने हाथो मे ले लिया पर आखो से आसूं लगातार बहे जा रहे थे, और मीता नम हुई आखो से अपलक राजेश को ही देखे जा रही थी…
👉 प्रवाह में न बहें, उत्कृष्टता से जुड़े (भाग २)
ऐसी विषम परिस्थितियों में, ऐसे विकट वातावरण में किसी का सच्चे अर्थों में आदर्शवादी बने रहना वस्तुतः भारी शूरवीरता का काम है। मछली ही एक ऐसा जल जन्तु है जो पानी की धारा को चीरते हुए उल्टी चाल चल सके अन्यथा शेष सभी को प्रवाह की दिशा में बहना पड़ता है। दुर्बल मनोभूमि के सामान्य मनुष्य बहते हुए प्रवाह में ही घिसटते चले जाते हैं। आदर्शवाद की बात कह सुन लेना ही उनके लिये पर्याप्त होता है, उसे अपनाने का साहस कर नहीं पाते। व्यवहार में उतारना उसे सब अशक्य ही मानते हैं।
इन दुष्प्रवृत्तियों के आँधी तूफान में कोई कैसे कब तक आदर्शवाद की चट्टान पर खड़ा रहे? मनस्वी और आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों की बात दूसरी है जो हर आँधी तूफान का मुकाबला कर सकते हैं और प्रलोभनों को चुनौती दे सकते हैं। साधारणतया आज की जैसी स्थिति में कुछ सहारा चाहिए। जिन पेड़ों की जड़ें गहरी होती हैं वे ही झंझावातों को सहन करते हैं। पहाड़ पर चढ़ने के साथ सहारे के लिये हाथ में लाठी की जरूरत पड़ती है। एकाकी ऊँची चढ़ाई कठिन पड़ती है। आदर्शवादिता को एक पहाड़ ही समझना चाहिये जिस पर चढ़ने के लिए सहारा चाहिये और वह सहारा है-स्वाध्याय।
धूर्त दुनियाँ के आकर्षणों का प्रतिरोध करने के लिए महामानवों का परामर्श और उदाहरण एक सबल प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़ा होता है और जिसने श्रद्धा पूर्वक उस आप्त विचारधारा को पढ़ना अपना अत्यावश्यक नित्यकर्म बना लिया है और जो उसको मनोरंजन की तरह नहीं, जानकारी के लिए पढ़ने के लिए नहीं वरन् उन मनीषियों के महान व्यक्तित्व को सामने उपस्थित मानकर उनके विचारों को गम्भीर परामर्श की तरह मनोयोग पूर्वक पढ़ता है उसके लिये वह स्वाध्याय परिपुष्ट साथी और सहायक का काम देता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
इन दुष्प्रवृत्तियों के आँधी तूफान में कोई कैसे कब तक आदर्शवाद की चट्टान पर खड़ा रहे? मनस्वी और आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों की बात दूसरी है जो हर आँधी तूफान का मुकाबला कर सकते हैं और प्रलोभनों को चुनौती दे सकते हैं। साधारणतया आज की जैसी स्थिति में कुछ सहारा चाहिए। जिन पेड़ों की जड़ें गहरी होती हैं वे ही झंझावातों को सहन करते हैं। पहाड़ पर चढ़ने के साथ सहारे के लिये हाथ में लाठी की जरूरत पड़ती है। एकाकी ऊँची चढ़ाई कठिन पड़ती है। आदर्शवादिता को एक पहाड़ ही समझना चाहिये जिस पर चढ़ने के लिए सहारा चाहिये और वह सहारा है-स्वाध्याय।
धूर्त दुनियाँ के आकर्षणों का प्रतिरोध करने के लिए महामानवों का परामर्श और उदाहरण एक सबल प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़ा होता है और जिसने श्रद्धा पूर्वक उस आप्त विचारधारा को पढ़ना अपना अत्यावश्यक नित्यकर्म बना लिया है और जो उसको मनोरंजन की तरह नहीं, जानकारी के लिए पढ़ने के लिए नहीं वरन् उन मनीषियों के महान व्यक्तित्व को सामने उपस्थित मानकर उनके विचारों को गम्भीर परामर्श की तरह मनोयोग पूर्वक पढ़ता है उसके लिये वह स्वाध्याय परिपुष्ट साथी और सहायक का काम देता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 परमात्मा में प्रवेश
कभी भी कहीं से परमात्मा में प्रवेश सम्भव है, क्योंकि वह सर्वत्र है। बस उसने प्रकृति की चादर ओढ़ रखी है। यह चादर उघड़ जाय तो प्रति घड़ी-प्रतिक्षण उसका अनुभव होने लगता है। एक श्वास भी ऐसी नहीं आती-जाती, जब उससे मिलन की अनुभूति न की जा सके। जिधर भी आँख देखती है उसी की उपस्थिति महसूस होती है। जहाँ भी कान सुनते हैं, उसी का संगीत सुनायी देता है।
उन सर्वव्यापी प्रभु को देखने की कला भर आना चाहिए। उसे निहारने वाली आँख चाहिए। इस आँख के खुलते ही वह सब दिशाओं में और सभी समयों में उपस्थित हो जाता है। रात में जब सारा आकाश तारों से भर जाय, तो उन तारों के बारे में सोचो मत, उन्हें देखो। महासागर के विशाल वक्ष पर जब लहरें नाचती हों, तो उन लहरों को सोचो मत, देखो। विचार थमे, शून्य एवं नीरव अवस्था में मात्र देखना सम्भव हो सके, तो एक बड़ा राज खुल जाता है।
और तब प्रकृति के द्वार से उस परम रहस्य में प्रवेश होता है, जो कि परमात्मा है। प्रकृति परमात्मा पर पड़े आवरण से ज्यादा और कुछ भी नहीं है। और जो इस रहस्यमय,आश्चर्यजनक एवं बहुरंगे घूँघट को उठाना जानते हैं, वे बड़ी आसानी से जीवन के सत्य से परिचित हो जाते हैं। उनका परमात्मा में प्रवेश हो जाता है।
सत्य का एक युवा खोजी किसी सद्गुरु के पास गया। सद्गुरु से उसने पूछा- मैं परमात्मा को जानना चाहता हूँ। मैं धर्म को, इसमें निहित सत्य को पाना चाहता हूँ। आप मुझे बताएँ कि मैं कहाँ से प्रारम्भ करूँ? सद्गुरु ने कहा, क्या पास के पर्वत से गिरते झरने की ध्वनि सुनायी पड़ रही है? उस युवक ने हां में उत्तर दिया। इस पर सद्गुरु बोले, तब वहीं से प्रवेश करो। यही प्रारम्भ बिन्दु है।
सचमुच ही परमात्मा में प्रवेश का द्वार इतना ही निकट है। पहाड़ से गिरते झरनों में, हवाओं में डोल रहे वृक्षों के पत्तों में, सागर पर क्रीड़ा करने वाली सूर्य की किरणों में। लेकिन हर प्रवेश द्वार पर प्रकृति का पर्दा पड़ा है। और बिना उठाए वह नहीं उठता। और थोड़ा गहरे उतरकर अनुभव करें तो पाएँगे कि यह परदा प्रवेश द्वारों पर नहीं, हमारी अपनी दृष्टि पर है। इस तरह अपनी दृष्टि पर पड़े इस एक परदे ने अनन्त द्वारों पर पर्दा कर दिया है। यह एक पर्दा हम हटा सकें, तो हमारा परमात्मा में प्रवेश हो।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४४
उन सर्वव्यापी प्रभु को देखने की कला भर आना चाहिए। उसे निहारने वाली आँख चाहिए। इस आँख के खुलते ही वह सब दिशाओं में और सभी समयों में उपस्थित हो जाता है। रात में जब सारा आकाश तारों से भर जाय, तो उन तारों के बारे में सोचो मत, उन्हें देखो। महासागर के विशाल वक्ष पर जब लहरें नाचती हों, तो उन लहरों को सोचो मत, देखो। विचार थमे, शून्य एवं नीरव अवस्था में मात्र देखना सम्भव हो सके, तो एक बड़ा राज खुल जाता है।
और तब प्रकृति के द्वार से उस परम रहस्य में प्रवेश होता है, जो कि परमात्मा है। प्रकृति परमात्मा पर पड़े आवरण से ज्यादा और कुछ भी नहीं है। और जो इस रहस्यमय,आश्चर्यजनक एवं बहुरंगे घूँघट को उठाना जानते हैं, वे बड़ी आसानी से जीवन के सत्य से परिचित हो जाते हैं। उनका परमात्मा में प्रवेश हो जाता है।
सत्य का एक युवा खोजी किसी सद्गुरु के पास गया। सद्गुरु से उसने पूछा- मैं परमात्मा को जानना चाहता हूँ। मैं धर्म को, इसमें निहित सत्य को पाना चाहता हूँ। आप मुझे बताएँ कि मैं कहाँ से प्रारम्भ करूँ? सद्गुरु ने कहा, क्या पास के पर्वत से गिरते झरने की ध्वनि सुनायी पड़ रही है? उस युवक ने हां में उत्तर दिया। इस पर सद्गुरु बोले, तब वहीं से प्रवेश करो। यही प्रारम्भ बिन्दु है।
सचमुच ही परमात्मा में प्रवेश का द्वार इतना ही निकट है। पहाड़ से गिरते झरनों में, हवाओं में डोल रहे वृक्षों के पत्तों में, सागर पर क्रीड़ा करने वाली सूर्य की किरणों में। लेकिन हर प्रवेश द्वार पर प्रकृति का पर्दा पड़ा है। और बिना उठाए वह नहीं उठता। और थोड़ा गहरे उतरकर अनुभव करें तो पाएँगे कि यह परदा प्रवेश द्वारों पर नहीं, हमारी अपनी दृष्टि पर है। इस तरह अपनी दृष्टि पर पड़े इस एक परदे ने अनन्त द्वारों पर पर्दा कर दिया है। यह एक पर्दा हम हटा सकें, तो हमारा परमात्मा में प्रवेश हो।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४४
👉 गुरुवर की वाणी
■ आज उस समय की उन मान्यताओं का समर्थन नहीं किया जा सकता जिनमें संतान वालों को सौभाग्यवान और संतानरहित को अभागी कहा जाता था। आज तो ठीक उलटी परिभाषा करनी पड़ेगी। जो जितने अधिक बच्चे उत्पन्न् करता है, वह संसार में उतनी ही अधिक कठिनाई उत्पन्न करता है और समाज का उसी अनुपात से भार बढ़ाता है, जबकि करोड़ों लोगों को आधे पेट सोना पड़ता है, तब नई आबादी बढ़ाना उन विभूतियों के ग्रास छीनने वाली नई भीड़ खड़ी कर देना है। आज के स्थित में संतानोत्पादन को दूसरे शब्दों में समाज द्रोह का पाप कहा जाय तो तनिक भी अत्युक्ति नहीं होगी।
□ राजनैतिक परतंत्रता दूर हो गई, पर आज जीवन के हर क्षेत्र में बौद्धिक पराधीनता छाई हुई है। गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, अनैतिकता, अधार्मिकता, अनीति, उच्छृंखलता, नशेबाजी आदि अगणित दुष्प्रवृत्तियों से लोहा लेने की आवश्यकता है। यह कार्य भी यदि कोई पूरा कर सकता है तो वह नई पीढ़ी ही हो सकती है। अगले दिनों जिन प्रभा संपन्न महापुरुषों की राष्ट्र को आवश्यकता पड़ेगी, वह वर्तमान पीढ़ी से ही निकलेंगे, पर यह कसौटी यह होगी कि वे सामाजिक क्रान्ति के लिए कितनी हिम्मत रखते हैं। दहेज विरोधी आन्दोलन उसका एक आवश्यक अंग है, इससे युवकों की विचारशीलता एवं समाज के प्रति दर्द का प्रमाण मिलेगा।
◆ अपनी तपश्चर्या और ईमानदारी में कहीं कोई कमी ही होगी जिसके कारण जिन व्यक्तियों के साथ पिछले ढेरों वर्षों से संबन्ध बनाया, उनमें कोई आध्यात्मिक साहस उत्पन्न न हो सका। वह भजन किस काम का, जिसके फलस्वरूप आत्मनिर्माण एवं परमार्थ के लिए उत्साह उत्पन्न न हो ।। किन्हीं को हमने भजन में लगा भी दिया है पर उनमें भजन का प्रभाव बताने वाले उपरोक्त दो लक्षण उत्पन्न न हुए हों तो हम कैसे माने कि उन्हें सार्थक भजन करने की प्रक्रिया समझाई जा सकी? हमारा परिवार संगठन तभी सफल कहा जा सकता था जब उसमें ये सम्मिलित व्यक्ति उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की कसौटी पर खरे सिद्ध होते चलते। अन्यथा संख्या वृद्धि की विडम्बना से झूँठा मन बहलाव करने से क्या कुछ बनेगा?
◇ आपको वह काम करना चाहिए, जो कि हमने किया है। हमने आस्था जगाई, श्रद्धा जगाई, निष्ठा जगाई। निष्ठा, श्रद्धा और आस्था किसके प्रति जगाई? व्यक्ति के ऊपर? व्यक्ति तो माध्यम होते हैं। हमारे प्रति, गुरुजी के प्रति श्रद्धा है। बेटा! यह तो ठीक है, लेकिन वास्तव में सिद्धांतों के प्रति श्रद्धा होती है। हमारी सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा रही। वहाँ से जहाँ से हम चले, जहाँ से विचार उत्पन्न किया है, वहाँ से लेकर आजीवन निरन्तर अपनी श्रद्धा की लाठी को टेकते-टेकते यहाँ तक चले आए। यदि सिद्धान्तों के प्रति हम आस्थावान न हुए होते तो सम्भव है कि कितनी बार भटक गए होते और कहाँ से कहाँ चले गए होते और हवा का झोंका उड़ाकर हमको कहाँ ले गया होता? लोभों के झोंके, मोहों के झोंके, नामवरी के झोंके, यश के झोंके, दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लम्बी राह पर चलते हुए भटकने के लिए मजबूर कर देते हैं और कहीं से कहीं घसीट ले जाते हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
□ राजनैतिक परतंत्रता दूर हो गई, पर आज जीवन के हर क्षेत्र में बौद्धिक पराधीनता छाई हुई है। गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, अनैतिकता, अधार्मिकता, अनीति, उच्छृंखलता, नशेबाजी आदि अगणित दुष्प्रवृत्तियों से लोहा लेने की आवश्यकता है। यह कार्य भी यदि कोई पूरा कर सकता है तो वह नई पीढ़ी ही हो सकती है। अगले दिनों जिन प्रभा संपन्न महापुरुषों की राष्ट्र को आवश्यकता पड़ेगी, वह वर्तमान पीढ़ी से ही निकलेंगे, पर यह कसौटी यह होगी कि वे सामाजिक क्रान्ति के लिए कितनी हिम्मत रखते हैं। दहेज विरोधी आन्दोलन उसका एक आवश्यक अंग है, इससे युवकों की विचारशीलता एवं समाज के प्रति दर्द का प्रमाण मिलेगा।
◆ अपनी तपश्चर्या और ईमानदारी में कहीं कोई कमी ही होगी जिसके कारण जिन व्यक्तियों के साथ पिछले ढेरों वर्षों से संबन्ध बनाया, उनमें कोई आध्यात्मिक साहस उत्पन्न न हो सका। वह भजन किस काम का, जिसके फलस्वरूप आत्मनिर्माण एवं परमार्थ के लिए उत्साह उत्पन्न न हो ।। किन्हीं को हमने भजन में लगा भी दिया है पर उनमें भजन का प्रभाव बताने वाले उपरोक्त दो लक्षण उत्पन्न न हुए हों तो हम कैसे माने कि उन्हें सार्थक भजन करने की प्रक्रिया समझाई जा सकी? हमारा परिवार संगठन तभी सफल कहा जा सकता था जब उसमें ये सम्मिलित व्यक्ति उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की कसौटी पर खरे सिद्ध होते चलते। अन्यथा संख्या वृद्धि की विडम्बना से झूँठा मन बहलाव करने से क्या कुछ बनेगा?
◇ आपको वह काम करना चाहिए, जो कि हमने किया है। हमने आस्था जगाई, श्रद्धा जगाई, निष्ठा जगाई। निष्ठा, श्रद्धा और आस्था किसके प्रति जगाई? व्यक्ति के ऊपर? व्यक्ति तो माध्यम होते हैं। हमारे प्रति, गुरुजी के प्रति श्रद्धा है। बेटा! यह तो ठीक है, लेकिन वास्तव में सिद्धांतों के प्रति श्रद्धा होती है। हमारी सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा रही। वहाँ से जहाँ से हम चले, जहाँ से विचार उत्पन्न किया है, वहाँ से लेकर आजीवन निरन्तर अपनी श्रद्धा की लाठी को टेकते-टेकते यहाँ तक चले आए। यदि सिद्धान्तों के प्रति हम आस्थावान न हुए होते तो सम्भव है कि कितनी बार भटक गए होते और कहाँ से कहाँ चले गए होते और हवा का झोंका उड़ाकर हमको कहाँ ले गया होता? लोभों के झोंके, मोहों के झोंके, नामवरी के झोंके, यश के झोंके, दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लम्बी राह पर चलते हुए भटकने के लिए मजबूर कर देते हैं और कहीं से कहीं घसीट ले जाते हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 MISCONCEPTIONS ABOUT ELIGIBILITY FOR GAYATRI SADHANA (Part 7)
Q.7. Is Yagyopaveet essential for Gayatri worship? What is its significance ?
Ans. It cannot be made mandatory that those alone who put an Yagyopveet can perform Gayatri Jap. However, since Yagyopaveet is an image of Gayatri it is better if its worshipper puts it on.
Yagyopaveet is a form of Gayatri. It is preferable to perform worship sitting in a temple in front of a deity. It, however, does not mean that if there is no temple or deity, worship should not be performed. Gayatri Sadhana can be performed even, without putting on the Yagyopaveet.
Yagyopaveet is, in fact, a symbol of Gayatri mahamantra. The nine threads in it represent the nine words of Gayatri Mantra. Three strands indicate threefold achievements. Similarly the three knots (Vyahritis) and the large knot (Om) are also part of the Mantra. In a nutshell, Yagyopaveet is the sacred symbol of Gayatri, wearer of which (across the left shoulder near the heart) constantly remembers the pledge he has taken to follow the doctrine of Gayatri Sadhana. Just as one derives greater benefit by worshipping before a deity in a temple, but can also pray anywhere, Yagyopaveet is recommended but is not mandatory.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 35
Ans. It cannot be made mandatory that those alone who put an Yagyopveet can perform Gayatri Jap. However, since Yagyopaveet is an image of Gayatri it is better if its worshipper puts it on.
Yagyopaveet is a form of Gayatri. It is preferable to perform worship sitting in a temple in front of a deity. It, however, does not mean that if there is no temple or deity, worship should not be performed. Gayatri Sadhana can be performed even, without putting on the Yagyopaveet.
Yagyopaveet is, in fact, a symbol of Gayatri mahamantra. The nine threads in it represent the nine words of Gayatri Mantra. Three strands indicate threefold achievements. Similarly the three knots (Vyahritis) and the large knot (Om) are also part of the Mantra. In a nutshell, Yagyopaveet is the sacred symbol of Gayatri, wearer of which (across the left shoulder near the heart) constantly remembers the pledge he has taken to follow the doctrine of Gayatri Sadhana. Just as one derives greater benefit by worshipping before a deity in a temple, but can also pray anywhere, Yagyopaveet is recommended but is not mandatory.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 35
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