किसी भी कार्य की सफलता विश्वास पर टिकी रहती है। करो या मरो की भावना से ओतप्रोत होकर हम किसी कार्य को प्रारंभ करेंगे तो विजयश्री दौड़ी चली आएगी। विश्वास के अभाव में ही दुनिया की बहुत सी श्रेष्ठतम उपलब्धियों से हम वंचित रह जाते हैं। असफलताओं का कारण यह है कि लोग अपनी महत्ता को नहीं पहचान पाते और अपने को अयोग्य समझते हैं। जब हम पहले ही अपने को अयोग्य, असमर्थ और अभागा समझेंगे तो फिर योग्य, समर्थ और सौभाग्यशाली कैसे बन सकते हैं?
यह भ्रम जितनी जल्दी हटाया जा सके उतना ही अच्छा है कि कोई देव, दानव, मंत्र-तंत्र, गुरु, सिद्ध पुरुष, मित्र, स्वजन, धनी, विद्वान् हमारी कठिनाइयाँ हल कर देंगे या हमें संपन्न बना देंगे। इस परावलम्बन से अपनी आत्मा कमजोर होती है और अंतःकरण में छिपी प्रचण्ड आत्म-शक्ति को विकसित होने में भारी अड़चन पड़ती है। अस्तु, परावलम्बी मनोवृत्ति को जितनी जल्दी छोड़ा जा सके और आत्म-निर्भरता को जितनी दृढ़ता से अपनाया जा सके उतना ही कल्याणकर है।
उन्नति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास करना एक बात है और अपने आपको दीन-दरिद्र अनुभव करना दूसरी। खिलाड़ी खेल में जीत के लिए, पहलवान कुश्ती पछाड़ने के लिए, छात्र ऊँचा वजीफा पाने के लिए प्रतियोगिता में उतरते हैं, प्रयत्न करते और विजय उपहार पाते हैं, पर इनके न मिलने तक अपने आपको दीन-दुःखी नहीं मानते रहते। फिर भी अधिक प्रसन्नता पाने, अधिक ऊँचे उठने के लिए प्रयत्न जारी रखते हैं। हमारे प्रयास भी प्रगति की दिशा में निरन्तर चलें, पर इसके लिए वर्तमान स्थिति को असंतोषजनक मानना और खिन्न रहना आवश्यक नहीं है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
यह भ्रम जितनी जल्दी हटाया जा सके उतना ही अच्छा है कि कोई देव, दानव, मंत्र-तंत्र, गुरु, सिद्ध पुरुष, मित्र, स्वजन, धनी, विद्वान् हमारी कठिनाइयाँ हल कर देंगे या हमें संपन्न बना देंगे। इस परावलम्बन से अपनी आत्मा कमजोर होती है और अंतःकरण में छिपी प्रचण्ड आत्म-शक्ति को विकसित होने में भारी अड़चन पड़ती है। अस्तु, परावलम्बी मनोवृत्ति को जितनी जल्दी छोड़ा जा सके और आत्म-निर्भरता को जितनी दृढ़ता से अपनाया जा सके उतना ही कल्याणकर है।
उन्नति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास करना एक बात है और अपने आपको दीन-दरिद्र अनुभव करना दूसरी। खिलाड़ी खेल में जीत के लिए, पहलवान कुश्ती पछाड़ने के लिए, छात्र ऊँचा वजीफा पाने के लिए प्रतियोगिता में उतरते हैं, प्रयत्न करते और विजय उपहार पाते हैं, पर इनके न मिलने तक अपने आपको दीन-दुःखी नहीं मानते रहते। फिर भी अधिक प्रसन्नता पाने, अधिक ऊँचे उठने के लिए प्रयत्न जारी रखते हैं। हमारे प्रयास भी प्रगति की दिशा में निरन्तर चलें, पर इसके लिए वर्तमान स्थिति को असंतोषजनक मानना और खिन्न रहना आवश्यक नहीं है।
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