मंगलवार, 6 अगस्त 2019

उपासना का महत्त्व | Intercession & its Significance | Pt Shriram Sharma ...



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He Prabhu Apni Krupa Ki | हे प्रभु! अपनी कृपा की | Pragya Geet



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👉 राम का स्थान कहाँ?

एक सन्यासी घूमते-फिरते एक दुकान पर आये, दुकान मे अनेक छोटे-बड़े डिब्बे थे, सन्यासी के मन में जिज्ञासा उतपन्न हुई, एक डिब्बे की ओर इशारा करते हुए सन्यासी ने दुकानदार से पूछा, इसमे क्या है?

दुकानदारने कहा - इसमे नमक है ! सन्यासी ने फिर पूछा, इसके पास वाले मे क्या है? दुकानदार ने कहा, इसमे हल्दी है! इसी प्रकार सन्यासी पूछ्ते गए और दुकानदार बतलाता रहा, अंत मे पीछे रखे डिब्बे का नंबर आया, सन्यासी ने पूछा उस अंतिम डिब्बे मे क्या है? दुकानदार बोला, उसमे राम-राम है!

सन्यासी ने हैरान होते हुये पूछा राम राम? भला यह राम-राम किस वस्तु का नाम है भाई? मैंने तो इस नाम के किसी समान के बारे में कभी नहीं सुना। दुकानदार सन्यासी के भोलेपन पर हंस कर बोला - महात्मन! और डिब्बों मे तो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं, पर यह डिब्बा खाली है, हम खाली को खाली नही कहकर राम-राम कहते हैं! संन्यासी की आंखें खुली की खुली रह गई !

जिस बात के लिये मैं दर दर भटक रहा था, वो बात मुझे आज एक व्यपारी से समझ आ रही है। वो सन्यासी उस छोटे से किराने के दुकानदार के चरणों में गिर पड़ा,,, ओह, तो खाली मे राम रहता है !

सत्य है भाई भरे हुए में राम को स्थान कहाँ? (काम, क्रोध,लोभ,मोह, लालच, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष और भली- बुरी, सुख दुख, की बातों से जब दिल-दिमाग भरा रहेगा तो उसमें ईश्वर का वास कैसे होगा? राम यानी ईश्वर तो खाली याने साफ-सुथरे मन मे ही निवास करता है!)

एक छोटी सी दुकान वाले ने सन्यासी को बहुत बड़ी बात समझा दी थी! आज सन्यासी अपने आनंद में था।

👉 आज का सद्चिन्तन Today Thought 6 August 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prerak Prasang 6 Augest 2019


👉 स्वर्णिम ऊषा का उदय

अगले क्षणों जिस स्वर्णिम ऊषा का उदय होने वाला है, उसके स्वागत की तैयारी में हमें जुट जाना चाहिये। अपना ज्ञान-यज्ञ इसी प्रकार का शुभारम्भ मंगलाचरण है। असुरता की पददलित और मानता की पुण्य प्रतिष्ठापना का अपना व्रत संकल्प ईश्वरीय प्रेरणा का प्रतीक है। उसकी व्यापकता एवं सफलता सुनिश्चित है। प्रश्न केवल इतना भर है कि जिन आत्माओं में उसके लिए आवश्यक प्रकाश आगे बढ़कर अपने शौर्य प्रक्रियाएँ अपने ढंग से सम्पन्न होना है, वे परिपूर्ण होकर रहेंगी। किसी व्यक्ति के साहस या कार्यपन्न की प्रतीक्षा किये बिना गति अपने पथ पर अग्रसर होती रहेगी, उठा हुआ तूफान अपने वेग से बढ़ता रहेगा। प्रश्न इतना भर है कि जिन्हें कुछ महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करनी थी, वे समय रहते सजग हुए या अवसाद की मूर्छा में पड़े हुए, अपने को कलंक एवं पश्चाताप का भागी बनाने का दुर्भाग्य पूर्ण खेल खेलते रहें।

हम भाग्यशाली हैं, जो सस्ते में निपट रहे हैं। असली काम और बढ़े-चढ़े त्याग बलिदान अगले लोगों को करने पड़ेंगे। अपने जिम्मे ज्ञान-यज्ञ का समिधाधान और आज्याहुति होम मात्र प्रथम चरण आया है। आकाश छूने वाली लपटों में आहुतियाँ अगले लोग देंगे। हम प्रचार और प्रसार की नगण्य जैसी प्रक्रियाएँ पूरी करके सस्ते में छूट रहे हैं। रचनात्मक और संघर्षात्मक अभियानों का बोझ तो अगले लोगों पर पड़ेगा। कोई प्रबुद्ध व्यक्ति नव-निर्माण के इस महाभारत में भागीदार बने बिना बच नहीं सकता। इस स्तर के लोग कृपणता बरतें तो उन्हें बहुत महंगी पड़ेगी। लड़ाई के मैदान से भाग खड़े होने वाले भगोड़े सैनिकों की जो दुर्दशा होती है, अपनी भी उससे कम न होगी। चिरकाल बाद युग परिवर्तन की पुनरावृत्ति हो रही है। रिजर्व फोर्स के सैनिक मुद्दतों से मौज-मजा करते रहें, कठिन प्रसंग साथ ने आया तो कतराने लगे, यह अनुचित है। परिजन एकान्त में बैठकर अपनी वस्तुस्थिति पर विचार करें, वे अन्न कीट और भोग कीटों की पंक्ति में बैठने के लिए नहीं जन्मे हैं। उनके पास जो आध्यात्मिक सम्पदा है, वह निष्प्रयोजन नहीं है। अब उसे अभीष्ट विनियोग में प्रयुक्त किये जाने का समय आ गया, सो उसके लिये अग्रसर होना ही चाहिये।

हमारा आज का ज्ञान-यज्ञ छोटा-सा है। उसका उत्तर दायित्व भी नगण्य सा हम लोगों के कन्धों पर आया है। युग-निर्माण की विशालकाय प्रक्रिया में यह बीजारोपण मात्र है। इसका श्रेय, सुअवसर हमें मिला हो तो उसे करने के लिए उत्साह के साथ आगे आना चाहिये। प्रस्तुत छोटे से क्रिया-कलाप को-ज्ञान-यज्ञ के प्रस्तुत कार्यक्रम को गतिशील बनाने के लिए हमें बिना कुषण्ता दिखाये अपने उत्तरदायित्व निबाहने के लिये निष्ठा और उल्लासपूर्वक अग्रसर होना चाहिये। अपना ज्ञान-यज्ञ अधूरा न रहना चाहिये।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, सितंबर १९६९, पृष्ठ ६७



http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/September/v1.67

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ४५)

👉 तंत्र एक सम्पूर्ण विज्ञान, एक चिकित्सा पद्धति

इस प्रवाहमान सृष्टि में इसमें संव्याप्त ऊर्जा धाराएँ भी प्रवाहित हैं। इनमें से प्रत्येक की स्थिति, क्षमता, प्रकृति, दिशा सभी कुछ अलग है। कुछ निश्चित क्षणों में एक विशिष्ट रीति से इनका मिलन होता है। इन पलों में इनके विशेष प्रभाव पदार्थ पर भी पड़ते हैं और स्थान पर भी। मंत्र या यंत्र साधना भी इससे प्रभावित होती हैं। यही वजह है कि विशेष साधना के लिए विशेष क्षणों का चयन करना पड़ता है। जैसे ग्रहण का समय, दीवाली या होली की रातें अथवा फिर शिवरात्रि या नवरात्रि के अवसर। कुछ विशेष योग भी इसमें उपादेय माने गये हैं। जैसे- गुरुपुण्य, रविपुण्य योग, सर्वार्थ सिद्धि, अमृतसिद्धि योग। इन पुण्य क्षणों में तंत्र तकनीकें शीघ्र फलदायी होती हैं।

जिन्हें इन सबका सम्पूर्ण ज्ञान होता है, वही अपनी आध्यात्मिक चिकित्सा में तंत्र की तकनीकों का प्रयोग करने में सक्षम हो पाते हैं। तांत्रिकों के आराध्य बाबा कीनाराम इस प्रक्रिया के परम विशेषज्ञ थे। उनके बारे में कहा जाता है कि जो बाबा विश्वनाथ कर सकते हैं, वही बाबा कीनाराम भी कर सकते हैं। अपने बारे में इस उक्ति पर वह हँसते हुए कहते हैं- अरे! यहाँ है ही क्या रे, यहाँ सब तो कणों की धूल का बवण्डर है। महामाया की ऊर्जा का खेल भर है। उन्होंने जो दिखा दिया है, मैं वही करता रहता हूँ। एक बार उनके यहाँ एक प्रौढ़ महिला अपने बीस वर्षीय बेटे को लेकर आयी। उसका लड़का लगभग मरणासन्न था। सभी चिकित्सकों ने उसे असाध्य घोषित कर दिया था। वह जब बाबा कीनाराम के पास आयी तो उन्होंने कहा- अभी जा शाम के समय आना। वह बहुत रोयी, गिड़गिड़ाई, पर वे नहीं माने। एक नजर सूरज की ओर देखा और शाम को आने को बोल दिया।

लाचार महिला क्या करती। रोती- कलपती चली गयी और शाम को पहुँची। बाबा कीनाराम ने वही घाट के पास से एक पत्ती तोड़ी और उसका रस उस युवक के मुँह में निचोड़ दिया। सभी को भारी अचरज तब हुआ जब वह मरणासन्न युवक उठ बैठा। उपस्थित जन उनकी जयकार करने लगे। इस पर वह सभी को डपटते हुए बोले- अरे जय बोलते हो तो महाकाल की बोलो। इस क्षण की बोलो। इस क्षण का विशेष महत्त्व है। इसमें प्रयोग किया जाने वाली औषधि एवं मंत्र मुर्दे में भी जान डाल सकती है। दरअसल यह बाबा कीनाराम के द्वारा प्रयोग की गई चिकित्सा की विशेष विधि थी, जो मंत्र चिकित्सा पर आधारित थी। इसके सफल प्रयोग ने उस युवक को नवजीवन दे दिया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 65

👉 आत्मचिंतन के क्षण 6 Aug 2019

■  इस चिर-दुर्लभ मानव-जीवन को पाकर छोटे-छोटे कर्म फलों के लिये लालायित रहता है, वह परमात्मा के साक्षात्कार जैसे परमलाभ से वंचित रह जाता है। प्रत्येक कर्म को परमात्मा का समझकर करने और उसके फल को भी उसका समझ लेने में मनुष्य का अपना कुछ बिगड़ता नहीं, तब न जाने वह क्यों कर्माभिमानी बनकर अनमोल मानव-जीवन का दुरुपयोग किया करता है?

◇ मनुष्य जीवन एक बहुमूल्य अवसर है। यह बार-बार नहीं आता। मनुष्य जीवन एक ऐसा अवसर है, जिसका सदुपयोग करके कोई भी सच्चिदानन्द परमात्मा को पा सकता है। तुच्छ शारीरिक भोगों की तुलना में जो सर्वसुख रुप परमात्मा के साक्षात्कार और परामद मोक्ष की उपेक्षा करता है, जो चिन्तामणि को गुंजा फल के लोभ में त्याग देता है।

★ सर्वांगीण  मनुष्यत्व की साधना के लिए शरीर, वाक् और मन से सत्य को ग्रहण करना होगा। सत्य को केवल बुद्धि के द्वारा जानने से ही काम नहीं चलेगा वरन उसके लिए आंतरिक अनुराग होना चाहिए और उसका आश्रय ग्रहण करके परम आनन्द प्राप्त करना चाहिए।
स्वयं शान्ति से रहना और दूसरों को शान्ति से रहने देना यही जीवन जीने की सर्वोत्तम नीति है। दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो हमें अपने लिये पसन्द नहीं। सत्य ही बोलना चाहिए। सभी से प्रेम करना चाहिए और अन्याय के मार्ग पर एक कदम भी नहीं धरना चाहिए। श्रेष्ठ, सदाचारी और परमार्थयुक्त जीवन ही मनुष्य की उपयुक्त बुद्धिमत्ता कही जा सकती है।

◇ धर्म का तात्पर्य है-सदाचरण, सज्जनता, संयम, न्याय , करुणा और सेवा। मानव प्रवृत्ति में इन सत्तत्त्वों को समाविष्ट बनाये रखने के लिये धर्म मान्यताओं को मजबूती से पकडे़ रहना पड़ता है। मनुष्य-जाति की प्रगति उसकी इसी प्रवृत्ति के कारण संभव हो सकी है। यदि व्यक्ति अधार्मिक, अनैतिक एवं उद्धत मान्यताएँ अपना ले तो उसका ही नहीं समाज का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Solving Life’s Problems - Part 3

Difficulties with material things often come to remind us that our concentration should be on spiritual things instead of material things. Sometimes difficulties of the body come to show that the body is just a transient garment, and that the reality is the indestructible essence which activates the body. But when we can say, “Thank God for problems which are sent for our spiritual growth,” they are problems no longer. They then become opportunities.

Let me tell you a story of a woman who had a personal problem. She lived constantly with pain. It was something in her back. I can still see her, arranging the pillows behind her back so it wouldn’t hurt quite so much. She was quite bitter about this. I talked to her about the wonderful purpose of problems in our lives, and I tried to inspire her to think about God instead of her problems. I must have been successful to some degree, because one night after she had gone to bed she got to thinking about God.

“God regards me, this little grain of dust, as so important that he sends me just the right problems to grow on,” she began thinking. And she turned to God and said, “Oh, dear God, thank you for this pain through which I may grow closer to thee.” Then the pain was gone and it has never returned. Perhaps that’s what it means when it says: ‘In all things be thankful.’ Maybe more often we should pray the prayer of thankfulness for our problems.

Prayer is a concentration of positive thoughts.

To be continued...
📖 From Akhand Jyoti

👉 एकता और समता का आदर्श

राष्ट्रीय एकता का वास्तविक तात्पर्य है-मानवीय एकता। मनुष्य की एक जाति है। उसे किन्हीं कारणों से विखण्डित नहीं होना चाहिए। भाषा, क्षेत्र, सम्प्र्रदाय, जाति, लिंग, धन, पद आदि के कारण किसी को विशिष्ट एवं किसी को निकृष्ट नहीं माना जाना चाहिए। सभी को समाज में उचित स्थान और सम्मान मिलना चाहिए। उपरोक्त कारणों में से किसी को भी यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए कि अपने को बड़प्पन के अहंकार से भरे और दूसरे को हेय समझे।
  
कई प्रान्तों में सम्प्रदाय विशेष के सदस्य होने के कारण अथवा पृथक् भाषा-भाषी होने के कारण अपने वर्ग-वर्ण को पृथक् मानने और राष्ट्रीय धारा से कटकर अपनी विशेष पहचान बनाने की प्रवृत्ति चल पड़ी है। इसे शान्त करने के लिए वैसे ही प्रयत्न कि ए जाने चाहिए, जैसे अग्निकाण्ड आरम्भ होने पर उसके फै लने से पूर्व ही किए जाते हैं। समता और एकता के उद्यान उजाड़ डालने की छूट किसी को भी नहीं मिलनी चाहिए। द्वेष को प्रेम से जीता जाता है। विग्रह को तर्क, तथ्य, प्रमाण प्रस्तुत करते हुए विवेकपूर्वक शान्त किया जाता है। इसलिए दुर्भाव और विग्रहों के पनपते ही उनके शमन समाधान का प्रयत्न करना चाहिए।
  
यह सामयिक उभार है, जो देश का बुरा चाहने वालों को दुरभिसंधि के कारण उठ खड़े हुए हैं। यह विषवेलि पानी न मिलने पर समयानुसार सूख जायेगी। पर कुछ व्याधियाँ ऐसी हैं, जो चिरकाल से चली आने के कारण प्रथा परिपाटी बन गई हैं और उनके कारण देश की क्षमता तथा एकता दुर्बल होती चली आई है। समय आ गया है कि उन भूलों को अब समय रहते सुधार लिया जाय। अन्यथा यह सड़ते हुए फोड़े समूचे शरीर को विषैला कर सकते हैं।
  
जब सभी मनुष्यों की संरचना, रक्त-माँस की बनावट एक जैसी है, तो उनमें से किसे ऊँचा, किसे नीचा कहा जा सकता है? ऊँच-नीच तो सत्कर्म और कुकर्म के कारण बनते हैं। उसका जाति-वंश से कोई सम्बन्ध नहीं। धर्म एक है। सम्प्रदायों का प्रचलन तो समय और क्षेत्रों की आवश्यकता के अनुरूप हुआ है। उनमें से जो जिसे भावे, वह उसे अपनावे। खाने-पहनने सम्बन्ध विभिन्न रुचि को जब सहन किया जाता है, तो भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा, भिन्न परम्पराओं का अपनाया जाना किसी को क्यों बुरा लगना चाहिए? एक बगीचे में अनेक रंगों के फूल हो सकते हैं, तो एक देश में अनके सम्प्रदायों के प्रचलन में ऐसी क्या बात है, जिसके कारण परस्पर विद्वेष किया जाय और एक-दूसरे को नास्तिक या  अधर्मी कहकर निन्दित बताया जाय। सम्प्रदायों की एकता पर हम सबको पूरा जोर देना चाहिए। भाषाओं की भिन्नता पर लड़ने की आवश्यकता नहीं। अनेकता को हटाकर हमें भाषायी एकता अपनानी चाहिए ताकि समूचे देशवासी अपने विचारों का आदान-प्रदान सरलता के साथ कर सकें।
  
नर-नारी के बीच बरता जाने वाला भेद-भाव तो और भी निन्दनीय है। हम अपनी ही माताओं, पुत्रियों, बहिनों, पत्नियों को हेय दृष्टि से देखें, यह कैसी अनीति है? इस भूल को अपनाये रहने पर  आधा समाज पक्षाघात पीड़ित की तरह अपंग रह जाता है। परिवार वैसे नहीं बन पाते जैसे कि सुयोग्य गृहलक्ष्मी के नेतृत्व में वे बन सकते हैं।
  
भारतीय संस्कृ ति के दो प्रमुख आदर्श हैं। एक ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ दूसरा ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’। इन दोनों को हृदयंगम करने पर एक ता और समता को ही मान्यता देनी पड़ती हैै। इन आदर्शों को हमें किसी देश, क्षेत्र, सम्प्रदाय के सुधार तक ही सीमित न रखकर विश्वव्यापी बनाना चाहिए, ताकि समूची मनुष्य जाति सुख-शान्ति से रह सके और सर्वतोमुखी कर सके।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...