शुक्रवार, 15 मई 2020

👉 Hriday Parivartan हृदय परिवर्तन

एक राजा को राज भोगते काफी समय हो गया था। बाल भी सफ़ेद होने लगे थे। एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया। उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया।

राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें। सारी रात नृत्य चलता रहा। ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी। नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा - "बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई। एक पलक के कारने, ना कलंक लग जाए।"

अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अर्थ निकाला। तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा।

जब यह बात गुरु जी ने सुनी। गुरु जी ने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं।

वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया।

उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया।

नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वेश्या होकर सबको लूट लिया है।"

जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा! इसको तू वेश्या मत कह, ये अब मेरी गुरु बन गयी है। इसने मेरी आँखें खोल दी हैं। यह कह रही है कि मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई! मैं तो चला।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े।

राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी! मैं जवान हो गयी हूँ। आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था। लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही। क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है?"

युवराज ने कहा - "पिता जी! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे। मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था। लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है। धैर्य रख ।"

जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया। राजा के मन में वैराग्य आ गया। राजा ने तुरन्त फैंसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं। तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया।

यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया। उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना। बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी।"

समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती। एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है। बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है।

प्रशंसा से पिंघलना मत, आलोचना से उबलना मत, नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहो, क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जायेगा।

👉 Kuritiyon Ke Viruddh कुरीतियों के विरूद्ध पुरुषार्थ की आवश्कता

बुराइयों में कितनी ही ऐसी हैं जिन्हें एक दिन भी सहन नहीं किया जाना चाहिए। नशेबाजी इनमें प्रमुख है। स्वास्थ्य, पैसा, इज्जत और अक्ल यह चारों ही वस्तुएँ इस कारण बर्बाद होती हैं। पीढ़ियाँ खराब होती हैं और रुग्णता बढ़ती है। नशा न कोई उगाए न कोई पिए इसके लिए प्रायः गाँधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन जैसा ही रोकथाम कर सकने वाला मोर्चा खड़ा करना होगा।

विवाह-शादियों में होने वाला अपव्यय-दहेज अपने देश में एक बुरी किस्म का अभिशाप है। उसी से मिलती-जुलती मृतक-भोज जैसी अन्य कुरीतियाँ प्रचलित हैं। इन सबको एक बार में ही एक साथ उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है। भिक्षा-व्यवसाय भी एक ऐसी ही लानत है जिसके कारण समर्थ व्यक्ति भी स्वाभिमान खोकर वेश्या वेष की आड़ में भिखारियों की पंक्ति में जा बैठता है। तलाश करने पर हर क्षेत्र में अपने अपने ढंग की चित्र-विचित्र कुरीतियों का प्रचलन है। आलस्य और प्रमाद ऐसा दुर्गुण है जिसके कारण अच्छे-खासे प्रगतिशील मनुष्य भी अपंग असमर्थों की स्थिति में जा पहुँचते हैं और दरिद्रता का पिछड़ेपन का अभिशाप भुगतते हैं। इन मुद्दतों से जन-जीवन में घुसी हुई बुराइयों की जड़ उखाड़ फेंकना एक व्यक्ति का काम नहीं है। इसके लिए मोर्चा बंदी करनी होगी और देखना होगा कि इस कुचक्र में फँसे हुए जन-जीवन को किस तरह मुक्त कराया जाए।

सृजन से संबंधित हजारों काम हैं और उससे भी अधिक उन्मूलन स्तर के। इन्हें कर सकना मात्र जीभ चलाने या विरोध व्यक्त करने भर से नहीं हो सकता। कितने लोगों द्वारा व्यवहार में लाए जाने पर यह कुरीतियाँ प्रथा बन चुकी हैं। इन्हें स्थानांतरित करने के लिए उससे कम नहीं वरन् अधिक ही पुरुषार्थ की अपेक्षा होगी।

अपने भारत की तरह ही हर देश की हर क्षेत्र की अपने-अपने ढंग की अनगिनत समस्याएँ हैं। उनके समाधान में आगे आगे कदम बढ़ा सकने वाले शूरवीरों की पग-पग पर आवश्यकता पड़ेगी। यह कहाँ से आएँ? आज तो उनका अभाव दीखता है। रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई प्रातःकाल में जिस प्रकार चिड़ियों की चहचहाट सुनाई पड़ती है वैसा ही कुछ अगले दिनों सर्वत्र माहौल बनेगा। जन-जन को इसका पाठ कौन पढ़ायेगा? हर किसी को स्वार्थ में कटौती करके परमार्थ में हाथ डालने के लिए कौन विवश करेगा? इसका उत्तर आज तो नहीं दिया जा सकता। किन्तु कल-परसों ऐसा समय अवश्य ही आवेगा जिसमें सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रकृति उन्मूलन की आँधी-तूफान जैसी हवा चलेगी। आँधी चलती है तो तिनके, पत्ते और धूल कण तक आकाश चूमने लगते हैं। अगले ही दिनों ऐसी बासंती बयार चलेगी जिससे ठूंठ कोपलें फोड़ने लगें और कोपलों पर फूल आने लगें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1984 पृष्ठ 21

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1984/July/v1.26

👉 Generous Like the Clouds

Stingy fellows, who keep their resources only to themselves and remain apathetic to others’ sufferings, are in fact accounting sins for their future destiny. Those who have stocked heaps of wealth in their possession but never use it are mere ‘guards’ of money. Such fellows are burden on this earth that can do nothing for anyone. Even materialistically, they don’t enjoy anything; the thirst of gaining more, the worries and tensions of safeguarding the possession and the miserly attitude do not let them live in peace; they neither eat well nor can give anything to others. Despite having millions or billions of riches, they remain poor, beggars… Thirst for more and more of selfish possession does not even let one see what are the right or wrong means of piling the stocks of wealth. Prosperity earned by unfair means cannot let one prosper… One dies empty handed and later one all that ‘dead property’ possessed by him does no good to even to those who grabs it afterwards…

On the contrary, those who earn honestly and spend magnanimously and wisely in good, constructive and auspicious activities are always prospering. They are like clouds, which enshower generously; even if emptied today, the clouds are filled again and return back tomorrow with same dignity.

Integrity, benevolence, caring and helping sociability – are virtues of greatness, which can make the entire world your own. No one can forget the warmth of meeting such amicable personalities. But, the selfish fellows, howsoever talented and affluent they might be, remain aloof and virtually isolated; their state is like that of milk kept in a dirty pot, which is thrown without use…

📖 Akhand Jyoti, Feb. 1943

👉 Chintan Ke Kshan चिंतन के क्षण 15 May 2020

■ हमें सफलता के लिए शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए, पर असफलता के लिए जी में गुंजाइश रखनी चाहिए। प्रगति के पथ पर चलने वाले हर व्यक्ति को इस धूप-छाँव का सामना करना पड़ा है। हर कदम सफलता से ही भरा मिले, ऐसी आशा केवल बाल बुद्धि वालों को शोभा देती है, विवेकशीलों को नहीं।  जीवन विद्या का एक महत्त्वपूर्ण पाठ यह है कि हम न छोटी-मोटी सफलताओं से हर्षोन्मत्त हों और न असफलताओं को देखकर हिम्मत हारें।

□ हर आदमी की अपनी मनोभूमि, रुचि, भावना और परिस्थिति होती है। यह उसी आधार पर सोचता, चाहता और करता है। हमें इतनी उदारता रखनी ही चाहिए कि  यदि दूसरों की भावनाओं का आदर न कर सकें तो कम से कम उन्हें सहन कर ही लें। असहिष्णुता मनुष्य का एक नैतिक दुर्गुण है  जिसमें अहंकार की गंध आती है।  हर किसी को अपनी मर्जी का बनाना-चलाना चाहें तो यह एक मूर्खता भरी बात ही होगी।

◆ अपने को असमर्थ, अशक्त एवं असहाय मत समझिये। ऐसे विचारों का परित्याग कर दीजिए कि साधनों के अभाव में हम किस प्रकार आगे बढ़ सकेंगे। स्मरण रखिए, शक्ति का स्रोत साधन में नहीं, भावना में है। यदि आपकी आकाँक्षाएँ आगे बढ़ने के लिए व्यग्र हो रही हैं, उन्नति करने की तीव्र इच्छाएँ बलवती हो रही हैं, तो विश्वास रखिये साधन आपको प्राप्त होकर रहेंगे।

◇ बड़प्पन की इच्छा सबको होती है, पर बहुत कम लोग यह जानते हैं कि उसे कैसे प्राप्त किया जाय। जो जानते हैं वे उस ज्ञान को आचरण में लाने का साहस नहीं करते। आमतौर से यह सोचा जाता है कि जिसका ठाटबाट जितना बड़ा है वह उसी अनुपात से बड़ा माना जाएगा। मोटर, बंगला, सोना, जायदाद, कारोबार, सत्ता, पद आदि के अनुसार किसी को बड़ा मानने का रिवाज चल पड़ा है। इससे प्रतीत होता है कि लोग मनुष्य के व्यक्तित्व को नहीं, उसकी दौलत को बड़ा मानते हैं- यह दृष्टिदोष ही है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Aatmavalamban Apnayen परावलम्बन छोड़, आत्मावलम्बन अपनाएँ

प्रगति के पथ पर चलते हुए यदि दूसरों का सहयोग मिल सकता है, तो उसे प्राप्त करने में हर्ज नहीं। सहयोग दिया जाना चाहिए और आवश्यकतानुसार लेना भी चाहिए। पर इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि हमारी मूलभूत आवश्यकता हमें स्वयं ही पूरी करनी पड़ती है, दूसरों के सहयोग से थोड़ा ही सहारा मिलता है।
  
बाह्य सहयोग को आकर्षित करने और उससे समुचित लाभ उठाने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि अपनी निज की मनःस्थिति सही और संतुलित हो। इसलिए प्रथम महत्त्व दूसरों का नहीं रहता, अपना ही होता है। दूसरों के सहयोग की आशा करने में उससे लाभ उठाने की बात सोचने से पूर्व आत्म-निरीक्षण किया जाना चाहिए कि हम सहयोग के अधिकारी भी है या नहीं? कुपात्र तक पहुँचने के बाद विभूतियाँ भी बेकार हो जाती हैं। पत्थर की चट्टान जल प्रवाह में पड़ी रहने पर भी भीतर से सूखी ही निकलती है। मात्र बाहरी सहयोग से न किसी का कुछ काम चल सकता है और न भला हो सकता है।
  
दूसरों का सहारा तकने की अपेक्षा हमें अपना सहारा तकना चाहिए, क्योंकि वे सभी साधन अपने भीतर प्रचुर मात्रा में भरे पड़े हैं, जो सुव्यवस्था और प्रगति के लिए आवश्यक हैं। यदि सूझ-बूझ की वस्तुस्थिति समझ सकने योग्य यथार्थवादी बनाने की साधना जारी रखी जाय, तो सबसे उत्तम परामर्श दाता सिद्ध हो सकती है। मस्तिष्क में वह क्षमता मौजूद है, जिसे थोड़ा-सा सहारा देकर उच्च कोटि के विद्वान् अथवा बुद्धिमान् कहलाने का अवसर मिल जाय। हाथों की संरचना अद्भुत है। यदि उन्हें सही रीति से उपयुक्त काम करने के लिए सधाया जा सके, तो वे अपने कर्तृत्व से संसार को चमत्कृत कर सकते हैं। मनुष्य का पसीना इतना बहुमूल्य खाद है, जिसे लगाकर हीरे-मोतियों की फसल उगाई जा सकती है।
  
शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान के ज्ञाता आश्चर्य चकित हैं कि विशाल ब्रह्माण्ड की तरह ही इस छोटे से मानव पिण्ड में भी एक से एक बढ़कर कैसी अद्भुत क्षमताओं को किसी कलाकार ने किस कारीगरी के साथ सँजोया है? कोशिकाओं और ऊतकों की क्षमताओं और हलचलों को देखकर लगता है कि जादुई-देवदूतों की सत्ता प्रत्येक जीवाणु में ठूँस-ठूँसकर भर दी गयी है। कायिक क्रियाकलाप और मानसिक चिंतन तंत्र किस जटिल संरचना और किस संरक्षण, संतुलन का प्रदर्शन करता है? उसे देखकर हतप्रभ रह जाना पड़ता है।
  
पिण्ड की आंतरिक संरचना जैसी अद्भुत है, उससे असंख्य गुनी क्षमता बाह्य जीवन में अग्रगामी और सफल हो सकने की भरी पड़ी है। मनोबल का यदि सही दिशा में प्रयोग हो सके तो फिर कठिनाई नहीं रह जाएगी।
  
अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था ही है, जो हमें दीन-हीन और लुंज-पुंज बनाये रखती है। दूसरों का सहारा इसलिए तकना पड़ता है कि हम अपने को न तो पहचान सके और न अपनी क्षमताओं को सही दिशा में, सही रीति से प्रयुक्त करने की कुशलता प्राप्त कर सके। शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद ने ही हमें इस गई-गुजरी स्थिति में रखा है कि आत्म-विश्वास करते न बन पड़े और दूसरों का सहारा ताकना पड़े। यदि आत्मावलम्बन की ओर मुड़  पड़ें, तो फिर परावलम्बन की कोई आवश्यकता ही प्रतीत न होगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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