ज्ञान की चाहत बहुतों को होती है, पर ज्ञान की प्राप्ति विरले करते हैं। दरअसल ज्ञान और ज्ञान में भारी भेद है। एक ज्ञान है-केवल जानकारी इकट्ठी करना, यह बौद्धिक समझ तक सीमित है और एक ज्ञान है-अनुभूति, जीवन्त प्रतीति। एक मृत तथ्यों का संग्रह है, जबकि दूसरा जीवन्त सत्य का बोध है। इन दोनों में बड़ा अन्तर है-पाताल और आकाश जितना, अंधकार और प्रकाश जितना। सच तो यह है कि बौद्धिक ज्ञान कोई ज्ञान ही नहीं है, यह तो बस ज्ञान का झूठा अहसास भर है। भला अंधे व्यक्ति को प्रकाश का ज्ञान कैसे हो सकता है? बौद्धिक ज्ञान कुछ ऐसा ही है।
ज्ञान के इस झूठे अहसास से अज्ञान ढँक जाता है। इसके शब्द जाल एवं विचारों के धुएँ में अज्ञान विस्मृत हो जाता है। यह तथाकथित ज्ञान अज्ञान से भी घातक है, क्योंकि अज्ञान दिखता हो तो उससे ऊपर उठने की चाहत पैदा होती है। पर वह न दिखे तो उससे छुटकारा पाना सम्भव नहीं रहता। ऐसे तथाकथित ज्ञानी अज्ञान में ही मर-खप जाते हैं।
सच्चा ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, यह भीतर से जागता है। इसे सीखना नहीं उघाड़ना होता है। सीखा हुआ ज्ञान जानकारी है, जबकि उघाड़ा हुआ ज्ञान अनुभूति है। जिस ज्ञान को सीखा जाय, उसके अनुसार जीवन को जबरदस्ती ढालना पड़ता है। फिर भी वह कभी सम्पूर्णतया उसके अनुकूल नहीं बन पाता। उस ज्ञान और जीवन में हमेशा एक अंतर्द्वन्द्व बना ही रहता है। पर जो ज्ञान उघाड़ा जाता है उसके आगमन से ही आचरण सहज उसके अनुकूल हो जाता है। सच्चे ज्ञान के विपरीत जीवन का होना एक असम्भावना है। ऐसा कभी हो ही नहीं सकता।
श्री रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को एक कथा सुनाते थे। एक घने बीहड़ वन में दो मुनि जा रहे थे। सांसारिक सम्बन्धों की दृष्टि से वे पिता-पुत्र थे। पुत्र आगे चल रहा था, पिता पीछे था। तभी वन में सिंह का गर्जन सुनाई दिया। ब्रह्मज्ञान की बातें करने वाले पिता को घबराहट हुई, उसने पुत्र को सचेत किया- चलो! कहीं पेड़ पर चढ़ जाएँ, आगे खतरा है। पुत्र पिता की इन बातों पर हँसा। हँसते हुए वह बोला-आप तो हमेशा यही कहते रहे हैं कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर, साक्षी और द्रष्टा है। फिर भला खतरा किसे है, जो नश्वर है वह तो मरेगा ही और जो अमर है उसे कोई मार नहीं सकता। पर पिता के मुख में भय की छाया गहरा चुकी थी। अब तक वह पेड़ पर जा चढ़ा था। इधर पुत्र पर सिंह का हमला भी हो गया, पर वह हँसता रहा। अपनी मृत्यु में भी वह द्रष्टा था। उसे न दुःख था और न पीड़ा, क्योंकि उसे ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी, जबकि उसके पिता के पास ब्रह्मज्ञान ज्ञान का झूठा अहसास भर था। इसीलिए कहा जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति विरल है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४८
ज्ञान के इस झूठे अहसास से अज्ञान ढँक जाता है। इसके शब्द जाल एवं विचारों के धुएँ में अज्ञान विस्मृत हो जाता है। यह तथाकथित ज्ञान अज्ञान से भी घातक है, क्योंकि अज्ञान दिखता हो तो उससे ऊपर उठने की चाहत पैदा होती है। पर वह न दिखे तो उससे छुटकारा पाना सम्भव नहीं रहता। ऐसे तथाकथित ज्ञानी अज्ञान में ही मर-खप जाते हैं।
सच्चा ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, यह भीतर से जागता है। इसे सीखना नहीं उघाड़ना होता है। सीखा हुआ ज्ञान जानकारी है, जबकि उघाड़ा हुआ ज्ञान अनुभूति है। जिस ज्ञान को सीखा जाय, उसके अनुसार जीवन को जबरदस्ती ढालना पड़ता है। फिर भी वह कभी सम्पूर्णतया उसके अनुकूल नहीं बन पाता। उस ज्ञान और जीवन में हमेशा एक अंतर्द्वन्द्व बना ही रहता है। पर जो ज्ञान उघाड़ा जाता है उसके आगमन से ही आचरण सहज उसके अनुकूल हो जाता है। सच्चे ज्ञान के विपरीत जीवन का होना एक असम्भावना है। ऐसा कभी हो ही नहीं सकता।
श्री रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को एक कथा सुनाते थे। एक घने बीहड़ वन में दो मुनि जा रहे थे। सांसारिक सम्बन्धों की दृष्टि से वे पिता-पुत्र थे। पुत्र आगे चल रहा था, पिता पीछे था। तभी वन में सिंह का गर्जन सुनाई दिया। ब्रह्मज्ञान की बातें करने वाले पिता को घबराहट हुई, उसने पुत्र को सचेत किया- चलो! कहीं पेड़ पर चढ़ जाएँ, आगे खतरा है। पुत्र पिता की इन बातों पर हँसा। हँसते हुए वह बोला-आप तो हमेशा यही कहते रहे हैं कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर, साक्षी और द्रष्टा है। फिर भला खतरा किसे है, जो नश्वर है वह तो मरेगा ही और जो अमर है उसे कोई मार नहीं सकता। पर पिता के मुख में भय की छाया गहरा चुकी थी। अब तक वह पेड़ पर जा चढ़ा था। इधर पुत्र पर सिंह का हमला भी हो गया, पर वह हँसता रहा। अपनी मृत्यु में भी वह द्रष्टा था। उसे न दुःख था और न पीड़ा, क्योंकि उसे ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी, जबकि उसके पिता के पास ब्रह्मज्ञान ज्ञान का झूठा अहसास भर था। इसीलिए कहा जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति विरल है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४८