वर्षा, आँधी, तूफान, हिमपात, मौसम आदि की पूर्व जानकारी लक्षणों को देखते हुए अनुमान की पकड़ में आ जाती है। इसी प्रकार अदृश्य जगत में चल रही सचेतन हलचलों को देखते हुए भविष्य की सम्भावनाओं का, भूतकाल की घटनाओं का और वर्तमान की परिस्थितियों का पूर्वाभास प्राप्त किया जा सकता है। सामान्यतः मनुष्य की समझ अपने क्रिया-कलाप का निर्धारण करने में ही काम आती है। उसे परिस्थितियों की पृष्ठभूमि तथा सम्भावना के सम्बन्ध में कोई बात अलग से जानकारी नहीं होती। सूक्ष्म जगत से संपर्क साध सकना यदि सम्भव हो सके तो अन्धेरी गलियों में भटकते रहने की अपेक्षा सुनिश्चित प्रकाश का अवलम्बन मिल सकता है। यह स्थिति जिन्हें भी प्राप्त होगी वे सम्भावनाओं को समझते हुए स्वयं उपयुक्त कदम उठावेंगे और दूसरों को अवसर के अनुरूप सतर्क रहने का मार्ग दर्शन करेंगे।
साधना के लिए जिस प्रकार आहार-विहार में अधिकाधिक सात्विकता का समावेश रखने की आवश्यकता है उसी प्रकार उसके लिए अनुकूल वातावरण भी उपलब्ध किया जाना चाहिए। वातावरण से तात्पर्य है उद्देश्य के अनुरूप स्थान एवं संपर्क सान्निध्य। इन दोनों का सुयोग न बन पड़ने पर विक्षेपों के घटाटोप जमते रहते हैं और प्रयत्न को अग्रगामी न होने देने वाले अवरोध पग-पग पर आ खड़े होते हैं। इसलिए शान्तिदायक स्थान और उसी तरह के लोगों का सामीप्य भी आवश्यक हो जाता है।
जिस मनुष्य ने जैसा कर्म किया है वह उसके पीछे लगा रहता है। यदि कर्ता पुरुष शीघ्रतापूर्वक दौड़ता है तो वह भी उतनी ही तेजी के साथ उसके पीछे जाता है। जब वह सोता है तो उसका कर्मफल भी उसके साथ ही सो जाता है। जब वह खड़ा होता है तो वह भी पास ही खड़ा रहता है और जब मनुष्य चलता है तो उसके पीछे-पीछे वह भी चलने लगता है। इतना ही नहीं, कोई कार्य करते समय भी कर्म संस्कार उसका साथ नहीं छोड़ता। सदा छाया के समान पीछे लगा रहता है।
साधना के लिए जिस प्रकार आहार-विहार में अधिकाधिक सात्विकता का समावेश रखने की आवश्यकता है उसी प्रकार उसके लिए अनुकूल वातावरण भी उपलब्ध किया जाना चाहिए। वातावरण से तात्पर्य है उद्देश्य के अनुरूप स्थान एवं संपर्क सान्निध्य। इन दोनों का सुयोग न बन पड़ने पर विक्षेपों के घटाटोप जमते रहते हैं और प्रयत्न को अग्रगामी न होने देने वाले अवरोध पग-पग पर आ खड़े होते हैं। इसलिए शान्तिदायक स्थान और उसी तरह के लोगों का सामीप्य भी आवश्यक हो जाता है।
जिस मनुष्य ने जैसा कर्म किया है वह उसके पीछे लगा रहता है। यदि कर्ता पुरुष शीघ्रतापूर्वक दौड़ता है तो वह भी उतनी ही तेजी के साथ उसके पीछे जाता है। जब वह सोता है तो उसका कर्मफल भी उसके साथ ही सो जाता है। जब वह खड़ा होता है तो वह भी पास ही खड़ा रहता है और जब मनुष्य चलता है तो उसके पीछे-पीछे वह भी चलने लगता है। इतना ही नहीं, कोई कार्य करते समय भी कर्म संस्कार उसका साथ नहीं छोड़ता। सदा छाया के समान पीछे लगा रहता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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