सोमवार, 27 जुलाई 2020

👉 मैं कौन हूँ

एक था भिखारी ! रेल सफ़र में भीख़ माँगने के दौरान एक सूट बूट पहने सेठ जी उसे दिखे। उसने सोचा कि यह व्यक्ति बहुत अमीर लगता है, इससे भीख़ माँगने पर यह मुझे जरूर अच्छे पैसे देगा। वह उस सेठ से भीख़ माँगने लगा।

भिख़ारी को देखकर उस सेठ ने कहा, “तुम हमेशा मांगते ही हो, क्या कभी किसी को कुछ देते भी हो?”

भिख़ारी बोला, “साहब मैं तो भिख़ारी हूँ, हमेशा लोगों से मांगता ही रहता हूँ, मेरी इतनी औकात कहाँ कि किसी को कुछ दे सकूँ?”

सेठ:- जब किसी को कुछ दे नहीं सकते तो तुम्हें मांगने का भी कोई हक़ नहीं है। मैं एक व्यापारी हूँ और लेन-देन में ही विश्वास करता हूँ, अगर तुम्हारे पास मुझे कुछ देने को हो तभी मैं तुम्हे बदले में कुछ दे सकता हूँ।

तभी वह स्टेशन आ गया जहाँ पर उस सेठ को उतरना था, वह ट्रेन से उतरा और चला गया।

इधर भिख़ारी सेठ की कही गई बात के बारे में सोचने लगा। सेठ के द्वारा कही गयीं बात उस भिख़ारी के दिल में उतर गई। वह सोचने लगा कि शायद मुझे भीख में अधिक पैसा इसीलिए नहीं मिलता क्योकि मैं उसके बदले में किसी को कुछ दे नहीं पाता हूँ। लेकिन मैं तो भिखारी हूँ, किसी को कुछ देने लायक भी नहीं हूँ।लेकिन कब तक मैं लोगों को बिना कुछ दिए केवल मांगता ही रहूँगा।

बहुत सोचने के बाद भिख़ारी ने निर्णय किया कि जो भी व्यक्ति उसे भीख देगा तो उसके बदले मे वह भी उस व्यक्ति को कुछ जरूर देगा। लेकिन अब उसके दिमाग में यह प्रश्न चल रहा था कि वह खुद भिख़ारी है तो भीख के बदले में वह दूसरों को क्या दे सकता है?

इस बात को सोचते हुए दिनभर गुजरा लेकिन उसे अपने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला।

दुसरे दिन जब वह स्टेशन के पास बैठा हुआ था तभी उसकी नजर कुछ फूलों पर पड़ी जो स्टेशन के आस-पास के पौधों पर खिल रहे थे, उसने सोचा, क्यों न मैं लोगों को भीख़ के बदले कुछ फूल दे दिया करूँ। उसको अपना यह विचार अच्छा लगा और उसने वहां से कुछ फूल तोड़ लिए।

वह ट्रेन में भीख मांगने पहुंचा। जब भी कोई उसे भीख देता तो उसके बदले में वह भीख देने वाले को कुछ फूल दे देता। उन फूलों को लोग खुश होकर अपने पास रख लेते थे। अब भिख़ारी रोज फूल तोड़ता और भीख के बदले में उन फूलों को लोगों में बांट देता था।

कुछ ही दिनों में उसने महसूस किया कि अब उसे बहुत अधिक लोग भीख देने लगे हैं। वह स्टेशन के पास के सभी फूलों को तोड़ लाता था। जब तक उसके पास फूल रहते थे तब तक उसे बहुत से लोग भीख देते थे। लेकिन जब फूल बांटते बांटते ख़त्म हो जाते तो उसे भीख भी नहीं मिलती थी,अब रोज ऐसा ही चलता रहा।

एक दिन जब वह भीख मांग रहा था तो उसने देखा कि वही सेठ ट्रेन में बैठे है जिसकी वजह से उसे भीख के बदले फूल देने की प्रेरणा मिली थी।

वह तुरंत उस व्यक्ति के पास पहुंच गया और भीख मांगते हुए बोला, आज मेरे पास आपको देने के लिए कुछ फूल हैं, आप मुझे भीख दीजिये बदले में मैं आपको कुछ फूल दूंगा।

सेठ ने उसे भीख के रूप में कुछ पैसे दे दिए और भिख़ारी ने कुछ फूल उसे दे दिए। उस सेठ को यह बात बहुत पसंद आयी।

सेठ:- वाह क्या बात है..? आज तुम भी मेरी तरह एक व्यापारी बन गए हो, इतना कहकर फूल लेकर वह सेठ स्टेशन पर उतर गया।

लेकिन उस सेठ द्वारा कही गई बात एक बार फिर से उस भिख़ारी के दिल में उतर गई। वह बार-बार उस सेठ के द्वारा कही गई बात के बारे में सोचने लगा और बहुत खुश होने लगा। उसकी आँखे अब चमकने लगीं, उसे लगने लगा कि अब उसके हाथ सफलता की वह चाबी लग गई है जिसके द्वारा वह अपने जीवन को बदल सकता है।

वह तुरंत ट्रेन से नीचे उतरा और उत्साहित होकर बहुत तेज आवाज में ऊपर आसमान की ओर देखकर बोला, “मैं भिखारी नहीं हूँ, मैं तो एक व्यापारी हूँ..

मैं भी उस सेठ जैसा बन सकता हूँ.. मैं भी अमीर बन सकता हूँ!

लोगों ने उसे देखा तो सोचा कि शायद यह भिख़ारी पागल हो गया है, अगले दिन से वह भिख़ारी उस स्टेशन पर फिर कभी नहीं दिखा।

एक वर्ष बाद इसी स्टेशन पर दो व्यक्ति सूट बूट पहने हुए यात्रा कर रहे थे। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनमे से एक ने दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, “क्या आपने मुझे पहचाना?”

सेठ:- “नहीं तो ! शायद हम लोग पहली बार मिल रहे हैं।

भिखारी:- सेठ जी.. आप याद कीजिए, हम पहली बार नहीं बल्कि तीसरी बार मिल रहे हैं।

सेठ:- मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे हम पहले दो बार कब मिले थे?

अब पहला व्यक्ति मुस्कुराया और बोला:

हम पहले भी दो बार इसी ट्रेन में मिले थे, मैं वही भिख़ारी हूँ जिसको आपने पहली मुलाकात में बताया कि मुझे जीवन में क्या करना चाहिए और दूसरी मुलाकात में बताया कि मैं वास्तव में कौन हूँ।

नतीजा यह निकला कि आज मैं फूलों का एक बहुत बड़ा व्यापारी हूँ और इसी व्यापार के काम से दूसरे शहर जा रहा हूँ।

आपने मुझे पहली मुलाकात में प्रकृति का नियम बताया था... जिसके अनुसार हमें तभी कुछ मिलता है, जब हम कुछ देते हैं। लेन देन का यह नियम वास्तव में काम करता है, मैंने यह बहुत अच्छी तरह महसूस किया है, लेकिन मैं खुद को हमेशा भिख़ारी ही समझता रहा, इससे ऊपर उठकर मैंने कभी सोचा ही नहीं था और जब आपसे मेरी दूसरी मुलाकात हुई तब आपने मुझे बताया कि मैं एक व्यापारी बन चुका हूँ। अब मैं समझ चुका था कि मैं वास्तव में एक भिखारी नहीं बल्कि व्यापारी बन चुका हूँ।

भारतीय मनीषियों ने संभवतः इसीलिए स्वयं को जानने पर सबसे अधिक जोर दिया और फिर कहा -

सोऽहं
शिवोहम !!

समझ की ही तो बात है...
भिखारी ने स्वयं को जब तक भिखारी समझा, वह भिखारी रहा | उसने स्वयं को व्यापारी मान लिया, व्यापारी बन गया |
जिस दिन हम समझ लेंगे कि मैं कौन हूँ...
अर्थात मैं भगवान का अंश हूॅ।
फिर जानने समझने को रह ही क्या जाएगा ?
जयहिंद जयगुरूदेव जयजगत।


👉 अपना परिवार

अपने परिवार में बुद्धिमानों की, भावनाशीलों की, प्रतिभावानों की, साधना सम्पन्नों की कमी नहीं। पर देखते हैं कि उत्कृष्टता को व्यवहार में उतारने के लिए जिस साहस की आवश्यकता है उसे वे जुटा नहीं पाते। सोचते बहुत हैं, पर करने का समय आता है तो बगलें झाँकने लगते हैं। यदि ऐसा न होता तो अब तक अपने ही परिवार में से इतनी प्रतिभाएँ निकल पड़तीं जो कम से कम भारत भूमि को नर-रत्नों की खदान होने का श्रेय पुनः दिला देतीं। व्यस्तता, अभावग्रस्तता, उलझन, अड़चन आदि के बहाने उपहासास्पद हैं। वे उन्हीं कार्यों के लिए प्रयुक्त होते हैं जिन्हें निरर्थक समझा जाता है। जो महत्वपूर्ण समझा जाता है उसे सदा प्रमुखता मिलती है और समय, साधन, मनोयोग आदि जो कुछ पास है सब उसी में लग जाता है।

यदि युग पुकार को-जीवनोद्देश्य को महत्व दिया गया होता तो किसी को भी वैसी बहाने-बाजी न करनी पड़ती जैसी कि असमर्थता सिद्ध करने के लिए आमतौर से कही या गढ़ी जाती है। इससे आत्म-प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ बनता नहीं। जिन्हें कुछ करने की उत्कट अभिलाषा होती है वे उसके लिए कठिनतम परिस्थितियों के बीच रहते हुए भी इतना कुछ कर सकते हैं जितना साधन सम्पन्नों से भी नहीं बन पड़ता।

दो-पाँच मालाएँ उलटी-पुलटी घुमाकर-समस्त संकट दूर होने से लेकर प्रचुर धन सम्पदा मिलने तक की ऋद्धि-सिद्धियों में कमी पड़ने की शिकायतें तो आये दिन सुनने को मिलती हैं, पर यह बताने कोई नहीं आता कि उपासना बीज को खाद, पानी देने वाली जीवन-साधना में कोई रुचि है या नहीं। साधना के अविच्छिन्न अंग स्वाध्याय, संयम और सेवा की ओर भी ध्यान दिया गया है या नहीं। शिष्य होने का दावा करते और जिह्वाग्र भाग से गुरुदेव कहते तो कितने ही सुने जाते हैं, पर अपने परिवार में प्रवेश करने की पहली और अनिवार्य शर्त न्यूनतम एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य ज्ञान-यज्ञ के लिए निकालते रहने को कितने लोग पालन करते हैं, यह जाँचने पर भारी निराशा होती है। लगता है कर्मनिष्ठा का युग लद गया और वाचालता ने उसका स्थान हथिया लिया है।

परिजनों ने यदि स्वार्थ परमार्थ का समन्वय किया होता तो निश्चय ही वे व्यक्तिगत लोभ, मोह के लिए जितनी भाग दौड़ करते और चिन्तित रहते हैं उतना ही उत्साह लोक-निर्माण के क्रिया-कलापों में भी प्रस्तुत करते। ढेरों समय आवारागर्दी और आलस्य में गुजर जाता है, उतना यदि नव-निर्माण प्रयोजनों में लग सका होता तो जीवन का स्वरूप ही दूसरा होता। विलासिता, फिजूलखर्ची और जमाखोरी में लगने वाले पैसे का उपयोग यदि रचनात्मक प्रवृत्तियों के परिपोषण में लग सका होता तो अपना छोटा-सा परिवार ही राष्ट्र की महती समस्याओं को सुलझा सकने के उपयुक्त साधन अपने घर से अपने ही हाथों जुटा सकते थे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर १९७६

👉 Enthusiasm with a Check of Maturity

You should be a real master and not the slave of your sense organs. You can’t enjoy even the pleasure of the senses for long without observing self-continence. Running after ever-new passions ceases peace from your life and results in varieties of weaknesses and self-invited worries.

Being driven by sensual lust is against the human-nature and human-religion. Sri Bhagvad Gita is regarded as the treatise of ideal life. Its guidance will be accomplished in your life only if you succeed in its prerequisite of self-discipline over your senses. Without the endeavors of self-restrain, you can’t proceed in any yoga-sadhana of spiritual refinement; it is a must for achieving something worth on the worldly fronts as well. The Sitar of life produces melodious music only if its wires are controlled carefully.

Just think of the fate of the horse-rider who can’t hold the bridle of the horse. Appropriate control over the horse is a must if the rider wants to reach somewhere safely. The same is about the agile horse of mind in the journey of life. Prudent vigil and self-restrain are essentials for progress, peace and happiness.

Some audacious youths regard discipline as a barrier against their enthusiasm and energy; they want to break all mental, social and national norms. But this puts them and many others into trouble and harms everyone. Alertness and guidance of matured wisdom are as necessary with zest in life as was Krishna’s support to Arjuna in the Mahabharat war. If humans are intelligent beings, they should note that steadfastness and farsightedness are signs of intelligence.

📖  Akhand Jyoti, May 1946

👉 विरोध न करना पाप का परोक्ष समर्थन (भाग ३)

भगवान बुद्ध ने तत्कालीन अनाचारों के- मूढ़ मान्यताओं के विरुद्ध प्रचण्ड क्रान्ति खड़ी की थी, इसी संघर्ष से जूझने के लिए उन्होंने जीवधारी भिक्षुओं और श्रवणों की सेना खड़ी की थी। स्वार्थ के लिए तो सभी संघर्ष करते हैं, किन्तु परमार्थ के लिए लड़ना मात्र आदर्शवादी लोगों के लिए ही सम्भव होता है इसलिए बुद्ध शिक्षा में साधना और संघर्ष का समन्वय है। इसी आधार पर उनने अपने साधनों से सारे विश्व में नव-युग का शंख बजाया और नये जागरण का वातावरण बनाया। उनके न रहने पर अनुयायियों ने अहिंसा की पूजा-पाठ की सस्ती लकीर पीटते रहना तो जारी रखा किन्तु अनीति से लड़ने की कष्टसाध्य प्रक्रिया की ओर से मुँह मोड़ लिया। फलतः बौद्ध धर्म भारत-मध्य एशिया से चढ़ दौड़ने वाले डाकुओं द्वारा देखते-देखते पद-दलित कर दिया गया। शौर्य, साहस की तेजस्विता खो बैठने वालों की जो दुर्गति होती है, वही अपने देश की भी हुई। एकाँगी, सस्ती, धर्म मान्यताएं तो दीन-दुर्बलों को भी अपनी खाल बचाने के लिए अच्छी लगती हैं, पर वास्तविक धर्म में तो अनीति विरोधी संघर्ष ही जुड़ा हुआ है उसके लिए शौर्य, साहस न हो तो फिर मनुष्य बगलें झांकता है और उन सिद्धान्तों की दुहाई देता है जो मात्र उच्चस्तरीय विशिष्ट आत्माओं को विशेष आदर्श प्रस्तुत करने के लिए ही बनाये गये हैं। पानी में बहते बिच्छू के बार-बार काटने पर भी उसे बार-बार निकालने की कथा किसी विशेष सन्त की कीर्ति में चार चाँद लगा सकती है, पर सर्वसाधारण के लिए शेख सादी की वही उक्ति ठीक है जिसमें “बिच्छू पर दया करना बच्चों को मार डालने के समतुल्य” बताया गया है।

गुरु गोविन्दसिंह का अध्यात्म व्यावहारिक और जीवन्त था। उनने अपने शिष्यों के एक हाथ में माला और दूसरे में भाला थमाया। समर्थ गुरु रामदास ने अपने प्रौढ़ शिष्य शिवाजी को तलवार थमाई थी। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को ऐसे ही कार्यों में जुटाया। गांधी ने अपने अनुयायियों को प्रत्यक्ष मृत्यु से लड़ने का निर्देश दिया और कहा- ‘‘टूट जाना पर अनीति से लड़ने की हठ छोड़ना मत।’’

भगवान राम ने ऋषियों के अस्थि समूह के बने टीले देखे। उनकी आंखों में ‘‘नयन जल छाये’’ किन्तु वे आंसू कायरों, दुर्बलों और भावोन्मादियों के नहीं वीरों के थे। उनने भुजाएं उठाकर प्रतिज्ञा की कि जिनने यह दुष्कर्म किये हैं उन निश्चरों से इस पृथ्वी को रहित करके छोड़ेंगे। यदि अनाचार पीड़ित पर वस्तुतः दया आती हो और उससे सहानुभूति उपजी हो तो फिर उसका एक ही उपाय है कि उन अनीति के असुर से जूझा जाय तो इस विपत्ति का कारण है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर १९७६

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