गुरुवार, 3 नवंबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 68)

🔵 मेरा वास्तविक स्वरूप तो वह है जिसने वहा मेरे उपदेशों को प्रेरित किया। जैसा मैं हूँ उस रूप में मुझे जानो, जैसा था उसमें नहीं। आत्मानुभूत्यात्मक रूपमें मुझे अपनी आत्मा में जानो और तब तुम सभी में आत्मा के दर्शन करोगे तथा सीमाओं एवं विविधता का तुम पर कोई प्रभाव न होगा। मैं बाह्य नहीं हूँ। मंक अन्तःकरण में निवास करता हूँ। तुम्हारी प्रेरणा में मैं तुम्हारे साथ हूँ। देश काल संबंधों का आत्मा पर कोई अधिकार नहीं है तथा वे आध्यात्मिक संबंध के बीच में नहीं आ सकते।

🔴 मैं तुम्हारा अन्तर्यामी हूँ। मुझे उस रूप में जानो और फिर तुम्हारा जन्म चाहे मुझसे दस हजार वर्ष पश्चात् भी हुआ हो, चाहे मृत्यु के समय भी हमें अलग करने वाले परदे नष्ट न हुए हों, उससे कुछ आता जाता नहीं है। प्रेम तथा अनुभूति में कोई सीमायें नहीं हैं। मैं इसकी भी आवश्यकता अनुभव कर सकता हूँ कि दृश्य रूप तुम्हारा मुझसे भिन्न रहे तथा तुम परिश्रम करो। यद्यपि तुम नहीं देख पाते किन्तु मैं आवरणों के आर- पार देखता हूँ। मैं सर्वदा तुम्हारे साथ हूँ भले ही तुम इसे जानो या न जानो। फिर भी वह समय आयेगा जब तुम इस सत्य के संबंध में सचेत होओगे। जिस प्रकार हाथी के दाँत एक बार निकल जाने पर फिर वापस नहीं जाते उसी प्रकार गुरु का प्रेम एक बार प्रदान करने पर अनंत काल तक रहता है।

🔵 मेरे सेवक हो कर तुमने स्वयं को मुक्त कर लिया है। तुम्हारी मुक्ति उसी अनुपात में है जिस अनुपात में तुम मेरी सेवा करते हो। और यह जान लो कि तुम यद्यपि मेरे लिये परिश्रम करते हो किन्तु मेरी दृष्टि में मेरे कार्य के लिये परिश्रम करने की अपेक्षा मेरे प्रति तुम्हारा प्रेम और विश्वास  अधिक मूल्यवान है। ब्रह्माण्ड असीम है तथा समय शाश्वत किन्तु मैं सदैव तुम्हारी पुकार पर आने को सन्नद्ध हूँ।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 4 Nov 2016


👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 18)

🌞 दूसरा अध्याय

🔴 मूढ़ मनुष्य भद्दे भोगों से तृप्त हो जाते हैं, तो बुद्घिमान कहलाने वाले उनमें सुन्दरता लाने की कोशिश करते हैं। मजदूर को बैलगाड़ी में बैठकर जाना सौभाग्य प्रतीत होता हैं तो धनवान मोटर में बैठकर अपनी बुद्घिमानी पर प्रसन्न होता है। बात एक ही है। बुद्घि का जो विकास हुआ है, वह भोग सामग्री को उन्नत बनाने में हुआ है। समाज के अधिकांश सभ्य नागरिकों के लिए वास्तव में शरीर ही आत्म-स्वरूप है।

🔵 धार्मिक रूढ़ियों का पालन मन-सन्तोष के लिए वे करते रहते हैं, पर उससे आत्म-ज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं। लड़की के विवाह में दहेज देना पुण्य कर्म समझा जाता है। पर ऐसे पुण्य कर्मों से ही, कौन मनुष्य अपने उद्देश्य तक पहुँच सकता है? यज्ञ, तप, ज्ञान, सांसारिक धर्म में लोक-जीवन और समाज-व्यवस्था के लिए उन्हें करते रहना धर्म है,। पर इससे आत्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। आत्मा इतनी सूक्ष्म है कि रूपया, पैसा, पूजा-पत्री, दान, मान आदि बाहरी वस्तुएँ उस तक नहीं पहुँच पातीं। फिर इनके द्वारा उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है?

🔴 आत्मा के पास तक पहुँचने के साधन जो हमारे पास मौजूद हैं, वह चित्त, अन्तःकरण, मन, बुद्घि आदि ही हैं। आत्म दर्शन की साधना इन्हीं के द्वारा हो सकती है। शरीर में सर्वत्र आत्मा व्याप्त है। कोई विशेष स्थान इसके लिए नियुक्त नहीं है, जिस पर किसी साधन विशेष का उपयोग किया जाए। जिस प्रकार आत्मा की आराधना करने में मन, बुद्घि आदि ही समर्थ हो सकते हैं, उसी प्रकार उसके स्थान और स्वरूप का दर्शन मानस लोक में प्रवेश करने से हो सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना भाग 7

🌹 युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है

🔵 युग-निर्माण योजना का आरम्भ किसी संस्था के आधार पर नहीं, वरन् एक वैयक्तिक प्रयत्न के रूप में आरम्भ कर रहे हैं। समयानुसार उसका कोई संगठित रूप बन जाय, यह आगे की बात है, पर आज तो अपनी स्वल्प सामर्थ्य को देखते हुए ही उस कार्य का श्रीगणेश किया जा रहा है। आत्म-निर्माण की दृष्टि से—इन पंक्तियों का लेखक, इस अभियान का प्रस्तुतकर्ता अधिक आत्मिक पवित्रता के लिए जो कुछ सम्भव है, प्रयास करता रहा है। उसके पिछले 64 वर्ष इसी प्रयत्न में बीते हैं। अब जीवन के जो दिन शेष रहे हैं, उन्हें वह और भी अधिक जागरूकता एवं सतर्कता से आत्म-शोधन, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास के लिए लगाने का प्रयत्न करेगा।

🔴 योजना के कार्यक्रमों में दूसरा चरण परिवार निर्माण का है। यों हमारा पांच व्यक्तियों का छोटा-सा परिवार मथुरा के घीया मण्डी मुहल्ले में किराये के मकान में रहता और गुजर करता है। पर दूसरा अपना एक बड़ा परिवार और भी है। वह है—अखण्ड-ज्योति पत्रिका के सदस्यों का जिसे हम सच्चे अर्थों में ‘अपना परिवार’ मानते हैं। गत 62 वर्षों से जिन लोगों के साथ निरन्तर वैसा ही व्यक्तिगत सम्पर्क रखा है वैसा ही उनके सुख-दुःख में भाग लिया है—जैसा कि कोई अंश-वंश के लोगों के साथ रखता या रख सकता है। 62 वर्ष के लम्बे सम्पर्क से हम अपने इसी विचार-परिवार के अत्यधिक निकट आये हैं और एक तरह से उन्हीं में घुल मिल गये हैं। हमने अपनी आत्मा में जलने वाली आग की गर्मी और रोशनी उन्हें दी है, तदनुसार वे विचार ही नहीं, कार्यों की दृष्टि से भी हमारे निकटतम व्यक्ति बन गये हैं।

🔵 अखण्ड-ज्योति परिवार श्रेय-पथ पर चलने वाले 25 लाख व्यक्तियों को एक आध्यात्मिक श्रृंखला में पिरोये रहने वाला सूत्र है। लेखों के आधार पर नहीं, भावना और आत्मीयता के सुदृढ़ संबंधों की मजबूत रस्सी से बंधा हुआ यह एक ऐसा संगठन है, जिसे कौटुम्बिक परिजनों से किसी भी प्रकार कम महत्व नहीं दिया जा सकता। व्यक्तिगत एकता और आत्मीयता के बन्धन हम लोगों के बीच इतनी मजबूती से बंधे हुए हैं कि इस समूह को हमें अपना व्यक्तिगत परिवार कहने में तनिक भी अत्युक्ति दिखाई नहीं पड़ती।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 67)

श्री गुरु देव ने कहा

🔵 कोई योजनायें न बनाओ! संसारी लोग ही योजनायें बनाते हैं। परिस्थितियों से स्वतंत्र रहो। अनिश्चय को ही अपना निश्चय बना लो। तथा सर्वथा संन्यास के व्रतों के अनुसार जीवनयापन करो। कल क्या होगा इसकी चिन्ता क्यों करते हो? वर्तमान जैसा आता है उसी में उच्च जीवन व्यतीत करो। भूत, भविष्य और वर्तमान के प्रत्येक अनुभव के साथ परम प्रेमास्पद का नाम युक्त करो। इस प्रकार तुम्हारी इच्छाओं का अध्यात्मीकरण होगा। जिस प्रकार तुम दीवार पर टँगे चित्र को देखते हो उसी प्रकार उन्हें देखो। उनकी विषयवस्तु दुखान्त, साधारण या मोहक हो सकती है किन्तु तुम उसे मात्र एक आलोचक की दृष्टि से देखो। वे भले बुरे जैसे भी हों यह जान रखो कि -तुम्हारे अंतःकरण में अवस्थित आत्मा सभी अनुभवों से सर्वथा पृथक है।

🔴 और जहाँ तक संगठनों का प्रश्न है उनकी उपयोगिता तथा जिस महान् आदर्श को वे प्रतिपादित करती हैं उनका महत्त्व स्वीकार कैसे किन्तु तुम स्वयं निर्लिप्त रहो। धार्मिक जीवन सर्वथा व्यक्तिगत स्वानुभवात्मक है। भले ही किसी प्रतिष्ठान में धार्मिक जीवन का आरंभ हो किन्तु उसे प्रतिष्ठान से ऊपर अवश्य उठना चाहिये। नियमों से हो कर नियमों के परे जाना ही अनुभूति का मार्ग है। यह जान कर मुक्त हो जाओ। जो कार्य आये उसे करो तथा उसके भीतर मुक्त रहो।

🔵 यदि संगठन करना ही है तो विचारों का संगठन करो किन्तु केवल संगठनात्मक रूप का विस्तार करने के लिये कभी परिश्रम न करो। कोई संगठन तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता, तुम्हें स्वयं अपना उद्धार करना होगा। साधारणतः संगठनों का उद्देश्य कितना भी धार्मिक तथा असाम्प्रदायिक क्यों न हो उनका ह्रास सांसारिकता में हो जाता है। साम्प्रदायिकता से सावधान रहो। रूढ़िवाद और कट्टरता से दूर रहो। सर्वसमन्वयी बनो।

🔴 अपने प्रेरणा स्रोत के प्रति सदैव सत्यनिष्ठ तथा निष्ठावान रहो। विश्वास और प्रेम रखो, आशा तथा धैर्य रखो। माया के परदे तुम्हारे लिये शीघ्र ही विदीर्ण हो जायेंगे तथा तुम अपने प्रेमास्पद को मेरे सत्य -स्वरूप में देख पाओगे। मेरे व्यक्तित्व या यों कहें मेरे व्यक्तित्व के संबंध में तुम्हारी अपनी धारणा में आबद्ध न होओ। मैं वह नहीं हूँ जो इस लोक में तुम्हारे व्यक्तित्व के समान एक व्यक्तित्व से मानवीय सीमाओं और दुर्बलताओं के साथ जुड़ा हुआ था। वह व्यक्तित्व तो मैंने धारण किया था।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...