सोमवार, 17 अप्रैल 2023

👉 क्रोध हमारा आन्तरिक शत्रु है (भाग 4)

चिड़चिड़ाहट प्रायः वृद्धों में अधिक देखने में आती है। रोगी अपनी दुर्बलता के कारण जरा-2 सी बात पर तिनक उठते हैं, औरतें काम से परेशान होकर इतनी उद्विग्न रहती हैं कि मामूली सी बात पर चिड़चिड़ा जातीं हैं। अध्यापक विद्यार्थियों की काँव-कांव सुनते-2 इतने दुःखी से हो उठते हैं कि तिनक उठते हैं। दुकानदार प्रायः ग्राहकों से जलभुन कर इस मानसिक दुर्बलता के शिकार बनते हैं। धार्मिक वृत्ति वाले रूढ़िवादी दुनिया की प्रगति देख-देखकर जीवन भर बड़बड़ाया करते हैं।

क्रोध मन को एक उत्तेजित और खिंची हुई स्थिति में रख देता है जिसके परिणामस्वरूप मन दूषित विकारों से भर जाता है। क्रोध से प्रथम तो उद्वेग उत्पन्न होता है। मन एक गुप्त किन्तु तीव्र पीड़ा से दुग्ध होने लगता है। रक्त में गमफल आ जाती है, और उसका प्रवाह बड़ा तेज हो जाता है। इस गमफल में मनुष्य के शुभ भाव, दया, प्रेम, सत्य, न्याय, विवेक, बुद्धि जल जाते हैं।

जिस पर क्रोध किया गया है यदि वह क्षमावान् और शान्त प्रकृति का हो और क्रोध से विचलित न हो, तो क्रोध करने वाले को बहुत दुःख होता है। वह जलभुन कर राख हो जाता है। मन में एक प्रकार का तूफान सा उठता है जिसका वेग इतना प्रबल होता है कि मनुष्य अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख पाता। विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है, शिष्टता एवं शान्ति से वह हाथ धो बैठता है। कई बार क्रोध से उत्तेजित होकर क्रोधी व्यक्ति दूसरे की हिंसा और आत्मघात तक कर बैठते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 17


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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 17 April 2023

परिस्थितियों का निर्माण मनुष्य स्वयं करता है, न कि परिस्थितियाँ मनुष्य का निर्माण करती है। परिस्थितियों पर आश्रित रहने और उनके बदलने की प्रतीक्षा किये बिना यदि मनुष्य स्वयं उन्हीं परिस्थितियों में रहते हुए उन्हें बदलने का प्रयास करे तो कोई आश्चर्य नहीं कि उसे सफलता न मिले।

विनोद वृत्ति भीतरी खुशी का अजस्र झरना है, निरन्तर चलने वाला फव्वारा है। बाहर खुशियों की तलाश के नतीजे अनिश्चित रहते हैं। बाहरी परिस्थितियाँ सदा व्यक्ति के वश में नहीं होतीं। उत्तम मार्ग यही है कि खुशियों का स्रोत भीतर ही प्रवाहमान, गतिशील रखा जाय। बाहर खुशी ढूँढना, प्यास लगने पर कुँए या प्याऊ की तलाश करना है। कुँआ सूखा या खारे जल वाला हो सकता है। प्याऊ में पानी नहीं मिले यह भी हो सकता है, पर भीतर बहने वाला निर्मल हास्य का झरना तो तृप्ति के लिए सदा ही उपलब्ध रहता है।

हम सामाजिक प्राणी हैं। समाज से अलग हमारा कोई अस्तित्व नहीं। समाज उन्नत होगा तो हमारी भी उन्नति होगी, समाज का पतन होगा तो हमारा भी पतन होगा। हम समाज के उत्थान-पतन अथवा सफलता-असफलता से कदापि अछूते नहीं रह सकते। इस प्रकार समाज के अभिन्न अंग होकर यदि हम ईर्ष्यावश किसी का अहित करने की सोचते हैं तो सबसे पहले अपना अहित करने का उपक्रम करते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...