■ हे पाठक गण।
अपने प्रत्येक कार्य को आप स्वयं पूर्ण करें। किसी भी काम को दूसरे पर न छोडें। दूसरे के सहारे की आशा तनिक भी न रखें। अपने लिये ऐसे कार्यों का चुनाव करें, जिन्हें आप स्वयं अपने बल- बूते पर पूरे कर सकें। दूसरों के भरोसे कल्पना के बड़े- बड़े महल न बनावें। दूसरों के बल बूते आपको स्वर्ग का भी राज्य, अपार धन सम्पत्तियों का अधिकार, उच्च पद प्रतिष्ठा भी मिले, तो उसे ठुकरा दें।
□ अस्वाद व्रत अपने आप में एक महाव्रत है। यह एक ऐसा महाव्रत है, जिसे महात्मागान्धी एवं बिनोवा जैसे अनेकों महामानवों ने अपनाया और उस आधार पर अपने आहार- विहार को उत्तरोत्तर शुद्ध- सात्विक बनाते हुए साधना पथ पर आगे बढ़े और अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुए। सप्ताह में एक दिन भी इसे पालन किया जाय, तो मन की संयम शक्ति और दृढ़ता बढ़ती है।
◆ संयमी और सदाचारी ही प्राणवान्, शक्तिवान् स्वस्थ एवं संस्कारी बनते तथा भौतिक और आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं। ओजस्वी, तेजस्वी एवं मनस्वी होने का अर्थ है मन, वचन तथा कर्म से सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना। ब्रह्मचर्य इसे ही कहा जाता है। इसलिए ब्रह्मचर्य पर जिनकी आस्था है, उन्हें अस्वाद व्रत लेना चाहिए और सात्विक आहार भूख से कम खाना चाहिए।
◇ जब भी, जिन समाजों में नारी का श्रेष्ठ स्थान रहा है, उसकी उच्च शिक्षा, मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक विकास की उचित व्यवस्था रखी गई है, तभी एसमाज और देश समृद्ध और उन्नतिशील होकर आश्चर्यजनक प्रगति कर सके हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अपने प्रत्येक कार्य को आप स्वयं पूर्ण करें। किसी भी काम को दूसरे पर न छोडें। दूसरे के सहारे की आशा तनिक भी न रखें। अपने लिये ऐसे कार्यों का चुनाव करें, जिन्हें आप स्वयं अपने बल- बूते पर पूरे कर सकें। दूसरों के भरोसे कल्पना के बड़े- बड़े महल न बनावें। दूसरों के बल बूते आपको स्वर्ग का भी राज्य, अपार धन सम्पत्तियों का अधिकार, उच्च पद प्रतिष्ठा भी मिले, तो उसे ठुकरा दें।
□ अस्वाद व्रत अपने आप में एक महाव्रत है। यह एक ऐसा महाव्रत है, जिसे महात्मागान्धी एवं बिनोवा जैसे अनेकों महामानवों ने अपनाया और उस आधार पर अपने आहार- विहार को उत्तरोत्तर शुद्ध- सात्विक बनाते हुए साधना पथ पर आगे बढ़े और अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुए। सप्ताह में एक दिन भी इसे पालन किया जाय, तो मन की संयम शक्ति और दृढ़ता बढ़ती है।
◆ संयमी और सदाचारी ही प्राणवान्, शक्तिवान् स्वस्थ एवं संस्कारी बनते तथा भौतिक और आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं। ओजस्वी, तेजस्वी एवं मनस्वी होने का अर्थ है मन, वचन तथा कर्म से सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना। ब्रह्मचर्य इसे ही कहा जाता है। इसलिए ब्रह्मचर्य पर जिनकी आस्था है, उन्हें अस्वाद व्रत लेना चाहिए और सात्विक आहार भूख से कम खाना चाहिए।
◇ जब भी, जिन समाजों में नारी का श्रेष्ठ स्थान रहा है, उसकी उच्च शिक्षा, मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक विकास की उचित व्यवस्था रखी गई है, तभी एसमाज और देश समृद्ध और उन्नतिशील होकर आश्चर्यजनक प्रगति कर सके हैं।
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