सोमवार, 6 नवंबर 2017

👉 सबसे शक्तिशाली कौन??

🔷 एक पिता ने अपने पुत्र की बहुत अच्छी तरह से परवरिश की !उसे अच्छी तरह से पढ़ाया, लिखाया, तथा उसकी सभी सुकामनांओ की पूर्ती की !

🔶 कालान्तर में वह पुत्र एक सफल इंसान बना और एक मल्टी नैशनल कंपनी में सी.ई.ओ. बन गया! उच्च पद ,अच्छा वेतन, सभी सुख सुविधांए उसे कंपनी की और से प्रदान की गई!

🔷 समय गुजरता गया उसका विवाह एक सुलक्षणा कन्या से हो गया,और उसके बच्चे भी हो गए। उसका अपना परिवार बन गया!

🔶 पिता अब बूढा हो चला था! एक दिन पिता को पुत्र से मिलने की इच्छा हुई और वो पुत्र से मिलने उसके ऑफिस में गया.....!!!

🔷 वहां  उसने देखा कि..... उसका पुत्र एक शानदार ऑफिस का अधिकारी बना  हुआ है, उसके ऑफिस में सैंकड़ो कर्मचारी  उसके अधीन कार्य कर रहे है... ! ये सब देख कर पिता का सीना गर्व से फूल गया!

🔶 वह बूढ़ा पिता बेटे के चेंबर में  जाकर उसके कंधे पर हाथ रख कर खड़ा हो गया! और प्यार से अपने पुत्र से पूछा...

🔷 "इस दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान कौन है"? पुत्र ने पिता को बड़े प्यार से हंसते हुए कहा "मेरे अलावा कौन हो सकता है पिताजी "!

🔶 पिता को इस जवाब की आशा नहीं थी, उसे विश्वास था कि उसका बेटा गर्व से कहेगा पिताजी इस दुनिया के सब से शक्तिशाली इंसान आप हैैं, जिन्होंने मुझे इतना
योग्य बनाया!

🔷 उनकी आँखे छलछला आई ! वो चेंबर के गेट को खोल कर बाहर निकलने लगे!

🔶 उन्होंने एक बार पीछे मुड़ कर पुनः बेटे से पूछा एक बार फिर बताओ इस दुनिया का सब से शक्तिशाली इंसान कौन है ???

🔷 पुत्र ने  इस बार कहा "पिताजी आप हैैं, इस दुनिया के सब से शक्तिशाली इंसान "!

🔶 पिता सुनकर आश्चर्यचकित हो गए उन्होंने कहा "अभी तो तुम अपने आप को इस दुनिया का सब से शक्तिशाली इंसान बता रहे थे अब तुम मुझे बता रहे हो" ???

🔷 पुत्र ने हंसते हुए उन्हें अपने सामने बिठाते  हुए कहा "पिताजी उस समय आप का हाथ मेरे कंधे पर था, जिस पुत्र के कंधे पर या सिर पर पिता का हाथ हो वो पुत्र
तो दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान ही होगा ना, बोलिए पिताजी"!

🔶 पिता की आँखे भर आई उन्होंने अपने पुत्र को कस कर के अपने गले लग लिया !

🔷 सच है जिस के कंधे पर या सिर पर माता पिता का हाथ होता है, वो इस दुनिया का सब से शक्तिशाली इंसान होता है !

🔶 सदैव बुजुर्गों का सम्मान करें हमारी सफलता के पीछे वे ही हैं..

🔷 हमारी तरक्की उन्नति से जब सभी लोग जलते हैं तो केवल माँ बाप ही हैं जो खुश होते हैं!!

👉 आज का सद्चिंतन 7 Nov 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 7 Nov 2017


👉 गाथा इस देश की, गाई विदेशियों ने (भाग 1)

🔶 भारतवर्ष की शक्ति और समृद्धि, ज्ञान और गुरुत्व विश्व-विख्यात है। प्राचीनकाल की श्रेष्ठतम उपलब्धियों से भरपूर साहित्य और इतिहास हमें प्रतिक्षण उस गौरवपूर्ण अतीत की याद दिलाता है। पूर्वजों की आत्माओं का प्रकाश अब भी इस देश के कण-कण को जागृति का सन्देश दे रहा है। वह बात हर एक नागरिक के हृदय में समाई हुई है, वह आत्माभिमान अभी तक मरा नहीं। किन्तु काल के दूषित प्रभाव के कारण आज आर्य-जाति सब तरह से दीन-हीन बन चुकी है। अब उसका कदम केवल विनाश की ओर ही बढ़ रहा है। जानते हुये भी हम अपनी पूर्व प्रतिष्ठा को भुलाये बैठे हैं। हमारी गाथायें विदेशों में बिक गईं। हमारे ज्ञान की एक छोटी-सी किरण पाकर पाश्चात्य देश अभिमान से सिर उठाये खड़े हैं और हम अपने पूर्वजों की शान को भी मिट्टी में मिलाने को तैयार है।

🔷 कठोर बनने का कोई उद्देश्य नहीं है। कटु बात कहकर अपनी ही आत्मा के कणों का जी दुखाना नहीं चाहते किन्तु जो दुर्गति हमारी संस्कृति की इन दिनों हो रही है उसे देखकर हृदय में सौ-सौ बरछों का-सा प्रहार लग रहा है। आत्मा की इस आवाज को कोई धर्माभिमानी, राष्ट्र-हितैषी तथा जाति के गौरव के लिये प्राण अर्पण करने वाला ही समझ सकता है।

🔶 आर्य संस्कृति का या हिन्दू धर्म का नाम उल्लेखन करने में साम्प्रदायिक संकीर्णता का भाव नहीं आना चाहिये। हमारी संस्कृति दिव्य-संस्कृति है। उसमें प्राणिमात्र के हित की व्यवस्था है। यह उद्बोधन केवल इसलिये है कि उस चिर-सत्य का प्रादुर्भाव केवल इसी भूमि में हुआ है इसी से हम उसे एक विशेष सम्बोधन से विभूषित करते हैं अन्यथा हिन्दू-धर्म का क्षेत्र सम्पूर्ण विश्व है। काउन्ट जोन्स जेनी ने इस बात को स्पष्ट करते हुये बताया है—”भारतवर्ष केवल हिन्दू धर्म का ही घर नहीं है वरन् वह संसार की सभ्यता का आदि भंडार है।”

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1965 अगस्त पृष्ठ 9
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/August/v1.9

👉 आत्मचिंतन के क्षण 7 Nov 2017

🔶 चित्त या मन हमारी मान्यताओं, पूर्वाग्रहों, विश्वास, संस्कारों, शंकाओं, प्रतिक्रियाओं एवं दुराग्रहों का समुच्चय है। ये सारे पक्ष हमें व्यावहारिक जीवन  में कष्ट में डालते रहते हैं। यह मनुष्य का वास्तविक ‘स्व’ या ‘सेल्फ’ नहीं है। इसलिए यह जरूरी है कि मनुष्य अपनी इस कारा से अपने को मुक्त करे-इन बंधनों से स्वयं को निकाल बाहर करे। रोजमर्रा का मन आत्मिक प्रगति में सहायक नहीं हो सकता। अपनी समस्त समस्याओं का समाधान ढूँढ़ना हो तो मन को ऊँची स्थिति में ले जाना होगा। वास्तविक अध्यात्म यही है जिसमें मन को अज्ञात उच्चतम स्थिति की ओर मोड़ना होता है।

🔷 वस्तुतः आदमी का व्यक्तित्व विभाजित है। एक ओर वह संपर्क के व्यक्तियों तथा संचित सुख-साधनों में अपनी सुरक्षा समझता है, तो दूसरी ओर उनमें उसे खालीपन, एक शून्यता की भी अनुभूति होती है। उसे लगता तो है कि अन्तः में प्रवेश करना चाहिए, यह जानना चाहिए कि वस्तुतः हमारे जीवन का मकसद क्या है? पर इस सम्भावना से वह भयभीत है कि आत्म निरीक्षण मुझे कहीं निराश न कर दे, मेरा सही स्वरूप न उजागर कर दे। यह घोषणा तो करता है कि वह कुछ बड़ा काम करेगा, पर कर नहीं पाता। वह अपने आपको दूसरों के साथ सम्मिलित तो करना चाहता है, पर ‘स्व’ को भुला व घुला नहीं पाता। रह-रहकर वे ही चिर संचित संस्कार आड़े आ जात हैं जो उसके अनगढ़ मन के महत्त्वपूर्ण घटक बन गये हैं। उसकी मुस्कराहट में एक चिन्ता की झलक दिखाई पड़ती है। वह अपनी चिन्ता को दूर करने के लिए स्वयं को विभिन्न गतिविधियों में उलझाता है, पर जब वे समाप्त होने लगती हैं तो संभावित नीरवता उसे भयभीत कर देती है।

🔶 हर मनुष्य में अपने प्रति पक्षपात करने की दुर्बलता पाई जाती है। आँखें बाहर को देखती हैं, भीतर का कुछ पता नहीं। कान बाहर के शब्द सुनते हैं, अपने हृदय और फेफडों से कितना अनवरत ध्वनि प्रवाह गुंजित होता है, उसे सुन ही नहीं पाते। इसी प्रकार दूसरों के गुण-अवगुण देखने में रुचि भी रहती है और प्रवीणता भी, पर ऐसा अवसर कदाचित ही आता है जब अपने दोषों को निष्पक्ष रूप से देखा और स्वीकारा जा सके। आमतौर से अपने गुण ही गुण दीखते हैं, दोष तो एक भी नजर नहीं आता। कोई दूसरा बताता है तो वह शत्रुवत् प्रतीत होता है। आत्म समीक्षा कोई कब करता है। वस्तुतः दोष दुर्गुणों के सुधर के लिए अपने आपसे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भाव-संवेदना का विकास करना ही साधुता है (भाग 3)

🔶 वाणी की विनम्रता का अर्थ चाटुकारिता नहीं है। फिर समझो इस बात को, कतई मतलब नहीं है चापलूसी-वाणी की मिठास से। दोनों नितान्त भिन्न चीजें हैं। दूसरों की अच्छाइयों की तारीफ करना, मीठी बोलना एक ऐसा सद्गुण है, जो व्यक्ति को चुम्बक की तरह खींचता व अपना बनाता है। दूसरे सभी तुम्हारे अपने बन जाएँगे, यदि तुम यह गुण अपने अन्दर पैदा कर लो। इसके लिए अन्तः के अहंकार को गलाओ। अपनी इच्छा, बड़प्पन, कामना, स्वाभिमान को गलाने का नाम समर्पण है, जिसे तुमसे करने को मैंने कहा है व इसकी अनन्त फलश्रुतियाँ सुनाई हैं। अपनी इमेज विनम्र से विनम्र बनाओ। मैनेजर की, इंचार्ज की, बॉस की नहीं, बल्कि स्वयंसेवक की। जो स्वयंसेवक जितना बड़ा हैं, वह उतना ही विनम्र है, उतना ही महान बनने के बीजांकुर उसमें हैं। तुम सबमें वे मौजूद हैं। अहं की टकराहट बन्द होते ही उन्हें अन्दर टटोलो कि तुमने समर्पण किया है कि नहीं। पर्यवेक्षण इस श्रावणी पर्व पर अपने अन्तरंग का करो।
        
🔷 हमारी एक ही महत्त्वाकाँक्षा है कि हम सहस्रभुजा वाले सहस्रशीर्षा पुरुष बनना चाहते हैं। तुम सब हमारी भुजा बन जाओ, हमारे अंग बन जाओ, यह हमारी मन की बात है। गुरु-शिष्य एक-दूसरे से अपने मन की बात कहकर हल्के हो जाते हैं। हमने अपने मन की बात तुमसे कह दी। अब तुम पर निर्भर है कि तुम कितना हमारे बनते हो? पति-पत्नी की तरह, गुरु व शिष्य की आत्मा में भी परस्पर ब्याह होता है, दोनों एक-दूसरे से घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। समर्पण का अर्थ है-दो का अस्तित्व मिटाकर एक हो जाना। तुम भी अपना अस्तित्व मिटाकर हमारे साथ मिला दो व अपनी क्षुद्र महत्त्वाकाँक्षाओं को हमारी अनन्त आध्यात्मिक महत्त्वाकाँक्षाओं में विलीन कर दो। जिसका अहं जिन्दा है, वह वेश्या है। जिसका अहं मिट गया, वह पवित्रता है। देखना है कि हमारी भुजा, आँख, मस्तिष्क बनने के लिए तुम कितना अपने अहं को गला पाते हो? इसके लिए निरहंकारी बनो। स्वाभिमानी तो होना चाहिए, पर निरहंकारी बनकर। निरहंकारी का प्रथम चिह्न है वाणी की मिठास।

🔶 वाणी व्यक्तित्व का हथियार है। सामने वाले पर वार करना हो तो तलवार नहीं, कलाई नहीं, हिम्मत की पूछ होती है। हिम्मत न हो तो हाथ में तलवार भी हो, तो बेकार है। यदि वाणी सही है तो तुम्हारा व्यक्तित्व जीवन्त हो जाएगा, बोलने लगेगा व सामने वाले को अपना बना लेगा। अपनी विनम्रता, दूसरों का सम्मान व बोलने में मिठास, यही व्यक्तित्व के प्रमुख हथियार हैं। इनका सही उपयोग करोगे तो व्यक्तित्व वजनदार बनेगा।

🌹  क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 जीवन एक समझौता है।

🔷 जीवन एक समझौता है, सिर उठाकर चलने में सिर कटने का खतरा है। जो पेड़ अकड़े खड़े रहते हैं वे ही आँधी से उखड़ते देखे गये हैं। बेंत की बेल जो सदा झुकी रहती है हर आँधी तूफान से बच जाती है। धरती पर उगी हुई घास को देखो वह आँधी से टकराती नहीं वरन हवा चलने पर उसी दिशा में मुझ जाती है जिधर को हवा का रुख होता है। इस परिस्थिति का परखने वाली घास का कोई आँधी तूफान कुछ बिगाड़ नहीं सकता।

🔶 नवकर चलो। मत कहो कि हमीं सही है और हमारी बात सब को माननी चाहिए। मत समझो कि तुम्हीं सबसे श्रेष्ठ निर्दोष और बुद्धिमान हो। दूसरे लोग भी अपने दृष्टिकोण के अनुसार सही हो सकते है और हो सकता है जिन परिस्थितियों में वे रहे है उनमें उनके लिए वैसा ही सोचना, बनना, करना भी स्वाभाविक हो। इसलिए दूसरों को समझने की कोशिश करो। उनके दृष्टि कोण की, उनकी परिस्थितियों की भिन्नता को स्वीकार करो। इस दुनियाँ का सारा कारोबार एक दूसरे को समझने और सहन करने की नींव पर ठहरा हुआ है। समझौता ही जीवन का प्रधान आधार है। यदि तुम अड़ियल और जिद्दी बनकर अपने ही मत की श्रेष्ठता प्रतिपादन करते रहोगे तो कुछ ही दिन में अपने को अकेला पड़ा हुआ और असफलता के गर्त में गिरता हुआ पाओगे।

📖 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 155)

🌹  जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण

🔷 हमारे निजी जीवन में भगवत् कृपा निरंतर उतरती रही है। चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण करने का अत्यंत कठोर साधना क्रम उन्हीं दिनों से लाद दिया गया जब दुधमुँही किशोरावस्था भी पूरी नहीं हो पाई थी। इसके बाद संगठन, साहित्य, जेल, परमार्थ के एक से एक बढ़कर कठिन काम सौंपे गए। साथ ही यह भी जाँचा जाता रहा कि जो किया गया वह स्तर के अनुरूप बन पड़ा या नहीं। बड़ी प्रवंचना के सहारे संसारी ख्याति अर्जित करने की विडम्बना तो नहीं रचाई गई है। आद्यशक्ति गायत्री को युग शक्ति के रूप में विकसित और विस्तृत करने के दायित्व को सौंपकर वह जान लिया गया कि एक बीज ने अपने को गलाकर नये २४ लाख सहयोगी-समर्थक किस प्रकार बना लिए? उनके द्वारा २४०० प्रज्ञापीठें विनिर्मित कराने से लेकर सतयुगी वातावरण बनाने और प्रयोग परीक्षणों की शृंखला अद्भुत अनुपम स्तर तक की बना लेने में आत्म समर्पण ही एक मात्र आधारभूत कारण रहा। सस्ता ईंधन ज्वलंत ज्वाला बनकर धधकता है तो इसका कारण ईंधन का अग्नि में समर्पित हो जाना ही माना जा सकता है।

🔶 अब जबकि ७५ वर्षों में से प्रत्येक को इसी प्रकार तपते-तपते बिता लिया तो एक बड़ी कसौटी सिर पर लदी। इसमें नियंता की निष्ठुरता नहीं खोजी जानी चाहिए, वरन् यही सोचा जाना चाहिए कि उसकी दी हुई प्रखरता के परीक्षण क्रम में अधिक तेजी लाने की बात उचित समझी गई।

🔷 हीरक, जयंती के वसंत पर्व पर अंतरिक्ष से दिव्य संदेश उतरा। उसमें ‘लक्ष्य’ शब्द था और उँगलियों का संकेत। यों यह एक पहेली थी, पर उसे सुलझाने में देर नहीं लगी। प्रजापति ने देव, दानव और मानवों का मार्गदर्शन करते हुए उन्हें एक शब्द का उपदेश दिया था-‘‘द’’। तीनों चतुर थे उनने संकेत का सही अर्थ अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप निकाल लिया। कहा गया था-‘‘द’’। देवताओं ने दमन (संयम), दैत्यों ने दया, मानवों ने दान के रूप में उस संकेत का भाष्य किया, जो सर्वथा उचित था।

🌹 क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.177

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.22

👉 सिद्धान्तवाद

🔷 बहुत- से व्यक्ति थे जो पहले सिद्धान्तवाद की राह पर चले और भटक कर कहाँ से कहाँ पहुँचे? भस्मासुर का पुराना नाम बताऊँ आपको! मारीचि का पुराना नाम बताऊँ आपको। ये सभी योग्य तपस्वी थे। पहले जब उन्होंने उपासना- साधना शुरू की थी, तब अपने घर से तप करने के लिए हिमालय पर गए थे। तप और पूजा- उपासना के साथ- साथ में कड़े नियम और व्रतों का पालन किया था। तब वे बहुत मेधावी थे, लेकिन समय और परिस्थितियों के भटकाव में वे कहीं के मारे कहीं चले गए। भस्मासुर का क्या हो गया? जिसको प्रलोभन सताते हैं वे भटक जाते हैं और कहीं के मारे कहीं चले जाते हैं।

🔶 साधु- बाबाजी जिस दिन घर से निकलते हैं, उस दिन यह श्रद्धा लेकर निकलते हैं कि हमको संत बनना है, महात्मा बनना है, ऋषि बनना है, तपस्वी बनना है। लेकिन थोड़े  दिनों बाद वह जो उमंग होती है, वह ढीली पड़ जाती है और ढीली पड़ने के बाद में संसार के प्रलोभन उनको खींचते हैं। किसी की बहिन- बेटी की ओर देखते हैं, किसी से पैसा  लेते हैं। किसी को चेला- चेली बनाते हैं। किसी की हजामत बनाते हैं। फिर जाने क्या से क्या हो जाता है? पतन का मार्ग यहीं से आरम्भ होता है। ग्रेविटी- गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की हर चीज को ऊपर से नीचे की ओर खींचती है।
 
🔷 संसार भी एक ग्रेविटी है। आप लोगों से सबसे मेरा यह कहना है कि आप ग्रैविटी से खिंचना मत। रोज सबेरे उठकर भगवान के नाम के साथ में यह विचार किया कीजिए कि हमने किन सिद्धान्तों के लिए समर्पण किया था? और पहला कदम जब उठाया था तो किन सिद्धान्तों के आधार पर उठाया था? उन सिद्धान्तों को रोज याद कर लिया कीजिए। रोज याद किया कीजिए कि हमारी उस श्रद्धा में और उस निष्ठा में, उस संकल्प और उस त्यागवृत्ति में कहीं फर्क तो नहीं आ गया। संसार में हमको खींच तो नहीं  लिया। कहीं हम कमीने लोगों की नकल तो नहीं करने लगे। आप यह मत करना। अब एक और नई बात शुरू करते हैं।
 
✍🏻 परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी- १ पृष्ठ- ४.७६

👉 ज़िन्दगी में इंसानियत

🔶 ज़िन्दगी में इंसानियत तो होनी ही चाहिए ... जो दूसरो का दुःख - दर्द ना समझ पाए ., उसका जीना भी कोई जीना है...???

🔷 हर उस इंसान के काम आईये जिसे आपकी ज़रूरत हो ... याद रखे " मानवता " ही सबसे बड़ा धर्म है....

👉 आज का सद्चिंतन 6 Nov 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 6 Nov 2017


👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...